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चतुर्थ स्थान- तृतीय उद्देश
पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. अर्थकर, न मानकर — कोई पुरुष अर्थकर होता है, किन्तु अभिमान नहीं करता । २. मानकर, न अर्थकर— कोई पुरुष अभिमान करता है, किन्तु अर्थकर नहीं होता । ३. अर्थकर भी, मानकर भी— कोई पुरुष अर्थकर भी होता है और अभिमान भी करता है। ४. न अर्थकर, न मानकर — कोई पुरुष न अर्थकर होता है और न अभिमान ही करता है (४१४) ।
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विवेचन- 'अर्थ' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । प्रकृत में इसका अर्थ 'इष्ट या प्रयोजन- भूत कार्य को करना और अनिष्ट या अप्रयोजन भूत कार्य का निषेध करना' ग्राह्य है। राजा के मन्त्री या पुरोहित आदि प्रथम भंग की श्रेणी
आते हैं। वे समय-समय पर अपने स्वामी को इष्ट कार्य सुझाने और अनिष्ट कार्य करने का निषेध करते रहते हैं। किन्तु वे अभिमान नहीं करते कि स्वामी ने हम से इस विषय में कुछ नहीं पूछा तो हम बिना पूछे यह कार्य कैसे करें । कर्मचारी वर्ग भी इस प्रथम श्रेणी में आता है। अर्थ का दूसरा अर्थ धन भी होता है। घर का कोई प्रधान संचालक धन कमाता है और घर भर का खर्च चलाता है, किन्तु वह यह अभिमान नहीं करता कि मैं धन कमाकर सब का भरण-पोषण करता हूँ। दूसरी श्रेणी में वे पुरुष आते हैं जो वय, विद्या आदि में बढ़े- चढ़े होने से अभिमान तो करते हैं, किन्तु न प्रयोजनभूत कोई कार्य ही करते हैं और न धनादि ही कमाते हैं। तीसरी श्रेणी में मध्य वर्ग के गृहस्थ आते हैं और चौथी श्रेणी में दरिद्र, मूर्ख और आलसी पुरुष परिगणनीय हैं। इसी प्रकार आगे कहे जाने वाले सूत्रों का भी विवेचन करना चाहिए ।
४१५ - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा — गणट्ठकरे णाममेगे णो माणकरे, माणकरे मोगरे, एगे गणट्ठकरेवि माणकरेवि, एगे णो गणट्ठकरे णो माणकरे ।
पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. गणार्थकर, न मानकर — कोई पुरुष गण के लिए कार्य करता है, किन्तु अभिमान नहीं करता। २. मानकर, न गणार्थकर — कोई पुरुष अभिमान करता है, किन्तु गण के लिए कार्य नहीं करता । ३. गणार्थकर भी, मानकर भी— कोई पुरुष गण के लिए कार्य भी करता है और अभिमान भी करता है । ४. न गणार्थकर, न मानकर — कोई पुरुष न गण के लिए कार्य ही करता है और न अभिमान ही करता
है (४१५) ।
विवेचन — यहां 'गण' पद से साधु-संघ और श्रावक संघ ये दोनों अर्थ ग्रहण करना चाहिए । यतः: शास्त्रों के रचयिता साधुजन रहे हैं, अतः उन्होंने साधुजन को लक्ष्य कर के ही इसकी व्याख्या की है। फिर भी श्रावक - गण को भी 'गण' के भीतर गिना जा सकता है। यदि इनका ग्रहण अभीष्ट न होता, तो सूत्र में 'पुरुषजात' इस सामान्य पद का प्रयोग न किया गया होता।
४१६ — चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा — गणसंगहकरे णाममेगे णो माणकरे, माणंकरे णाममेगे णो गणसंगहकरे, एगे गणसंगहकरेवि माणकरेवि, एगे णो गणसंगहकरे णो माणकरे।
पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. गणसंग्रहकर, न मानकर — कोई पुरुष गण के लिए संग्रह करता है, किन्तु अभिमान नहीं करता।