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चतुर्थ स्थान - तृतीय उद्देश
ठितीपगप्पं पगरेति ।
२. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववण्णे, तस माणुस्सए पेमे वोच्छिण्णे दिव्वे संकंते भवति ।
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३. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववणे, तस्स णं एवं भवति इहिं गच्छं मुहुत्तेणं गच्छं, तेणं कालेणमप्पाउया मणुस्सा कालधम्पुणा संजुत्ता भवंति ।
४. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववण्णे, तस्स माणुस गंधे पंडिकूले पडिलोमे यावि भवति, उड्डूंपिय णं माणुस्सए गंधे जाव चत्तारि पंच जोयणसताइं हव्वमागच्छति ।
इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए ।
चार कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की इच्छा करता है, किन्तु शीघ्र आने में समर्थ नहीं होता, जैसे
१. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव दिव्य काम-भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित (बद्ध) और अध्युपपन्न (आसक्त) होकर मनुष्यों के काम-भोगों का आदर नहीं करता है, उन्हें अच्छा नहीं जानता है, उनसे प्रयोजन नहीं रखता है, उन्हें पाने का निदान (संकल्प) नहीं करता है और न स्थितिप्रकल्प ( उनके मध्य में रहने की इच्छा ) करता है।
२. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव दिव्य काम-भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त हो जाता है, अतः उसका मनुष्य-सम्बन्धी प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है और उसके भीतर दिव्य प्रेम संक्रान्त हो जाता है ।
३. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव दिव्य काम-भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त हो जाता है, तब उसका ऐसा विचार होता है—अभी जाता हूँ, थोड़ी देर में जाता हूँ। इतने काल में अल्प आयु के धारक मनुष्य कालधर्म में संयुक्त हो जाते हैं ।
४. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव दिव्य काम-भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त हो जाता है, तब उसे मनुष्यलोक की गन्ध प्रतिकूल (दिव्य सुगन्ध से विपरीत दुर्गन्ध रूप ) तथा प्रतिलोम (इन्द्रिय और मन को अप्रिय) लगने लगती है, क्योंकि मनुष्यलोक की दुर्गन्ध ऊपर चार-पांच सौ योजन तक फैलती रहती है । (एकान्त सुषमा आदि कालों में चार सौ योजन और दूसरे कालों में पांच सौ योजन ऊपर तक दुर्गन्ध फैलती है ।)
इन चार कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की इच्छा करता है, किन्तु शीघ्र आने में समर्थ नहीं होता (४३३) ।
४३४— चउहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोएस इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, संचाएति हव्वमागच्छित्तए, तं जहा—
१. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिते जाव [ अगिद्धे अगढिते ]
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