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स्थानाङ्गसूत्रम्
सत्य चार प्रकार का कहा गया है, जैसे—
१. नामसत्य —— नामनिक्षेप की अपेक्षा किसी व्यक्ति का रखा गया 'सत्य' ऐसा नाम ।
२. स्थापनासत्य — किसी वस्तु में आरोपित सत्य या सत्य की संकल्पित मूर्ति ।
३. द्रव्यसत्य— सत्य का ज्ञायक, किन्तु अनुपयुक्त (सत्य सम्बन्धी उपयोग से रहित) पुरुष । ४. भावसत्य— सत्य का ज्ञाता और उपयुक्त (सत्यविषयक उपयोग से युक्त) पुरुष (३४९) ।
आजीविक तप-सूत्र
३५० -- आजीवियाणं चउव्विहे तवे पण्णत्ते, तं जहा— उग्गतवे, घोरतवे, रसणिज्जहणता, जिब्भिंदियपडिसंलीणता ।
आजीविकों (गोशालक के शिष्यों) का तप चार प्रकार का कहा गया है। जैसे—
१. उग्रतप— षष्ठभक्त (उपवास) वेला, तेला आदि करना ।
२. घोरतप—— सूर्य - आतापनादि के साथ उपवासादि करना ।
३. रस-निर्यूहणत-— घृत आदि रसों का परित्याग करना ।
४. जिह्वेन्द्रिय-प्रतिसंलीनता तप— मनोज्ञ और अमनोज्ञ भक्त - पानादि में राग-द्वेष रहित होकर जिह्वेन्द्रिय को वश करना ( ३५० ) ।
संयमादि-सूत्र
३५१ - चउव्विहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा मणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे । संयम चार प्रकार का कहा गया है, जैसे—
१. मनः- संयम, २. वाक्- संयम, ३. काय संयम, ४. उपकरण-संयम (३५१) ।
३५२ – चव्विधे चियाए पण्णत्ते, तं जहा— मणचियाए, वइचियाए, कायचियाए, उवगरणचियाए।
त्याग चार प्रकार का कहा गया है, जैसे—
१. मनः- त्याग, २. वाक्- त्याग, ३. कान- त्याग, ४. उपकरण - त्याग ( ३५२) ।
विवेचन-मन आदि के अप्रशस्त व्यापार का त्याग अथवा मन आदि द्वारा मुनियों को आहार आदि प्रदान करना त्याग कहलाता ।
३५३—– चउव्विहा अकिंचणता पण्णत्ता, तं जहा—मणअकिंचणता, वड्अकिंचणता, कायअकिंचणता, उवगरणअकिंचणता ।
अकिंचनता चार प्रकार की कही गई है, जैसे—
१. मन - अकिंचनता, २. वचन - अकिंचनता, ३. काय-अकिंचनता, ४. उपकरण - अकिंचनता (३५३) । विवेचन—- संयम के चार प्रकारों के द्वारा समिति रूप प्रवृत्ति का, त्याग के चार प्रकारों के द्वारा गुप्तिरूप प्रवृत्ति का और चार प्रकार की अकिंचनता के द्वारा महाव्रत रूप प्रवृत्ति का संकेत किया गया प्रतीत होता है। ॥ चतुर्थ स्थान का द्वितीय उद्देश समाप्त ॥