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चतुर्थ स्थान- तृतीय उद्देश
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चार प्रकार के पक्षी होते हैं, जैसे
१. रुत-सम्पन्न, रूप-सम्पन्न नहीं— कोई पक्षी स्वर-सम्पन्न (मधुर स्वर वाला) होता है, किन्तु रूप-सम्पन्न (देखने में सुन्दर) नहीं होता, जैसे कोयल।
२.रूप सम्पन्न, रुत सम्पन्न नहीं— कोई पक्षी रूप-सम्पन्न होता है, किन्तु स्वर-सम्पन्न नहीं होता, जैसे तोता। ३. रुत-सम्पन्न भी, रूप-सम्पन्न भी—कोई पक्षी स्वर-सम्पन्न भी होता है और रूप-सम्पन्न भी, जैसे मोर।
४. न रुत-सम्पन्न, न रूप-सम्पन्न – कोई पक्षी न स्वर-सम्पन्न होता है और न रूप-सम्पन्न, जैसे काक (कौआ)।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१.रुत-सम्पन्न, रूप-सम्पन्न नहीं- कोई पुरुष मधुर स्वर से सम्पन्न होता है, किन्तु सुन्दर रूप से सम्पन्न नहीं होता।
२. रूप-सम्पन्न, रुत-सम्पन्न नहीं— कोई पुरुष सुन्दर रूप से सम्पन्न होता है, किन्तु मधुर स्वर से सम्पन्न नहीं होता है।
३. रुत-सम्पन्न भी, रूप-सम्पन्न भी— कोई पुरुष स्वर से भी सम्पन्न होता है और रूप से भी सम्पन्न होता है।
४. न रुत-सम्पन्न, न रूप-सम्पन्न — कोई पुरुष न स्वर से ही सम्पन्न होता है और न रूप से ही सम्पन्न होता है (३५६)। प्रीतिक-अप्रीतिक-सूत्र
३५७- चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेति, पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तियं करेति, अप्पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेति, अप्पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तियं करेति।
पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. प्रीति करूं, प्रीतिकर— कोई पुरुष 'मैं अमुक व्यक्ति के साथ प्रीति करूं' (अथवा अमुक की प्रतीति करूं) ऐसा विचार कर प्रीति (प्रतीति) करता है।
२. प्रीति करूं, अप्रीतिकर— कोई पुरुष 'मैं अमुक व्यक्ति के साथ प्रीति करूं', ऐसा विचार कर भी अप्रीति करता है।
३. अप्रीति करूं, प्रीतिकर— कोई पुरुष 'मैं अमुक व्यक्ति के साथ अप्रीति करूं', ऐसा विचार कर भी प्रीति करता है।
४. अप्रीति करूं, अप्रीतिकर— कोई पुरुष 'मैं अमुक व्यक्ति के साथ अप्रीति करूं' ऐसा विचार कर अप्रीति ही करता है (३५७)।
३५८– चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—अप्पणो णाममेगे पत्तियं करेति णो परस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं करेति णो अप्पणो, एगे अप्पणोवि पत्तियं करेति परस्सवि, एगे णो अप्पणो पत्तियं करेति णो परस्स।
पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे