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चतुर्थ स्थान — द्वितीय उद्देश
१. इहलोकसंवेजनी कथा— इस लोक-सम्बन्धी असारता का निरूपण करना । २. परलोकसंवेजनी कथा— परलोक-सम्बन्धी असारता का निरूपण करना । ३. आत्मशरीरसंवेजनी कथा— अपने शरीर की अशुचिता का निरूपण करना ।
४. परशरीरसंवेजनी कथा- - दूसरों के शरीरों की अशुचिता का निरूपण करना ( २४९) । णिव्वेदणी कहा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा
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१. इहलोगे दुच्चिण्णा कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । २. इहलोगे दुच्चिण्णा कम्मा परलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । ३. परलोगे दुच्चिण्णा कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । ४. परलोगे दुच्चिण्णा कम्मा परलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । १. इहलोगे सुचिण्णा कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । २. इहलोगे सुचिण्णा कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । ३. [ परलोगे सुचिण्णा कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । ४. परलोगे सुचिण्णा कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ] | निर्वेदिनी कथा चार प्रकार की कही गई है, जैसे—
१. इस लोक के दुश्चीर्ण कर्म इसलोक में दुःखमय फल को देने वाले होते हैं। २. इस लोक के दुश्चीर्ण कर्म परलोक में दुःखमय फल को देने वाले होते हैं ।
३. परलोक के दुश्चीर्ण कर्म इस लोक में दुःखमय फल को देने वाले होते हैं ।
४. परलोक के दुश्चीर्ण कर्म परलोक में दुःखमय फल को देने वाले होते हैं, इस प्रकार की प्ररूपणा करना ।
१. इस लोक के सुचीर्ण कर्म इसी लोक में सुखमय फल को देने वाले होते हैं।
२. इस लोक के सुचीर्ण कर्म परलोक में सुखमय फल को देने वाले होते हैं ।
३. परलोक के सुचीर्ण कर्म इस लोक में सुखमय फल को देने वाले होते हैं।
४. परलोक के सुचीर्ण कर्म परलोक में सुखमय फल को देने वाले होते हैं (२५०) ।
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विवेचन — निर्वेदनी कथा का दो प्रकार से निरूपण किया गया है। प्रथम प्रकार में पापकर्मों के फल भोगने के चार प्रकार बताये गये हैं । उनका अभिप्राय इस प्रकार है- १. चोर आदि इसी जन्म में चोरी आदि करके इसी जन्म में कारागार आदि की सजा भोगते हैं । २. कितने ही शिकारी आदि इस जन्म में पाप बन्ध कर परलोक में नरकादि के दुःख भोगते हैं । ३. कितने ही प्राणी पूर्वभवोपार्जित पाप कर्मों का दुष्फल इस जन्म में गर्भ काल से लेकर मरण तक दारिद्र्य, व्याधि आदि के रूप में भोगते हैं । ४. पूर्वभव में उपार्जन किये गये अशुभ कर्मों से उत्पन्न काक, गिद्ध आदि जीव मांस भक्षणादि करके पाप कर्मों को बांधकर नरकादि में दुःख भोगते हैं।
द्वितीय प्रकार में पुण्य कर्म का फल भोगने के चार प्रकार बताये गये हैं। उनका खुलासा इस प्रकार है— १. तीर्थंकरों को दान देने वाला दाता इसी भव में सातिशय पुण्य का उपार्जन कर स्वर्णवृष्टि आदि पंच आश्चर्यों को प्राप्त कर पुण्य का फल भोगता है । २. साधु इस लोक में संयम की साधना के साथ-साथ पुण्य कर्म को बांधकर