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स्थानाङ्गसूत्रम्
२. संकीर्ण और मन्दमन- कोई पुरुष स्वभाव से संकीर्ण और मन्द मनवाला होता है। ३. संकीर्ण और मृगमन- कोई पुरुष स्वभाव से संकीर्ण और मृग मनवाला होता है।
४. संकीर्ण और संकीर्णमन— कोई पुरुष स्वभाव से संकीर्ण और संकीर्ण मनवाला होता है। संग्रहणी-गाथा
मधुगुलिय-पिंगलक्खो, . अणुपुव्व-सुजाय-दीहणंगूलो। पुरओ उदग्गधीरो, सव्वंगसमाधितो भद्दो ॥१॥ चल-बहल-विसम-चम्मो, थूलसिरी थूलएण पेएण । थूलणह-दंत-वालो, हरिपिंगल-लोयणो मंदो ॥ २॥ तणुओ तणुयग्गीवो, तणुयतओ तणुयदंत-णह-वालो।। भीरु तत्थुव्विग्गो, तासी य भवे मिए णामं ॥३॥ एतेसिं हत्थीणं थोवा थोवं, तु जो अणुहरति हत्थी । रूवेण व सीलेण व, सो संकिण्णोत्ति णायव्वो ॥४॥ भद्दो मज्जइ सरए, मंदो उण मजते वसंतंमि ।
मिउ मज्जति हेमंते, संकिण्णो सव्वकालंमि ॥५॥ १. जिसके नेत्र मधु की गोली के समान गोल रक्त-पिंगल वर्ण के हों, जो काल-मर्यादा के अनुसार ठीक तरह से उत्पन्न हुआ हो, जिसकी पूंछ लम्बी हो, जिसका अग्र भाग उन्नत हो, जो धीर हो, जिसके सब अंग प्रमाण और लक्षण से सुव्यवस्थित हों, उसे भद्र जाति का हाथी कहते हैं।
२. जिसका चर्म शिथिल, स्थूल और विषम (रेखाओं से युक्त) हो, जिसका शिर और पूंछ का मूलभाग स्थूल हो, जिसके नख, दन्त और केश स्थूल हों, जिसके नेत्र सिंह के समान पीत पिंगल वर्ण के हों, वह मन्द जाति का हाथी है।
३. जिसका शरीर, ग्रीवा, चर्म, नख, दन्त और केश पतले हों, जो भीरु, त्रस्त और उद्विग्न स्वभाववाला हो तथा दूसरों को त्रास देता हो, वह मृग जाति का हाथी है।
४. जो ऊपर कहे हुए तीनों जाति के हाथियों के कुछ-कुछ लक्षणों का, रूप से और शील (स्वभाव) से अनुकरण करता हो, अर्थात् जिसमें भद्र, मन्द और मृग जाति के हाथी की कुछ-कुछ समानता पाई जावे, वह संकीर्ण हाथी कहलाता है।
५. भद्र हाथी शरद् ऋतु में मदयुक्त होता है, मन्द हाथी वसन्त ऋतु में मदयुक्त होता है—मद झरता है, मृग हाथी हेमन्त ऋतु में मदयुक्त होता है और संकीर्ण हाथी सभी ऋतुओं में मदयुक्त रहता है (२४०)। विकथा-सूत्र
२४१- चत्तारि विकहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा—इत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा, रायकहा। विकथा चार प्रकार की कही गई हैं, जैसे१. स्त्रीकथा, २. भक्तकथा, ३. देशकथा, ४. राजकथा (२४१)।