Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
प्रकार पृथक्-पृथक् चिन्तन को पृथक्त्ववितर्क कहते हैं। जब वही संयत अर्थ से शब्द में और शब्द से अर्थ के चिन्तन में संक्रमण करता है और मनोयोग से वचनयोग का और वचनयोग से काययोग का आलम्बन लेता है, तब वह सविचार कहलाता है। इस प्रकार वितर्क और विचार के परिवर्तन और संक्रमण की विभिन्नता के कारण इस ध्यान को पृथक्त्ववितर्क सविचार कहते हैं । यह प्रथम शुक्लध्यान चतुर्दश पूर्वधर के होता है और इसके स्वामी आठवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती संयत हैं। इस ध्यान के द्वारा उपशम श्रेणी पर आरूढ़ संयत दशवें गुणस्थान में पहुँच कर मोहनीय कर्म के शेष रहे सूक्ष्म लोभ का भी उपशम कर देता है, तब वह ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान को प्राप्त होता है और जब क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ संयत दशवें गुणस्थान में अवशिष्ट सूक्ष्म लोभ का क्षय करके बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है, तब वह क्षीणमोह क्षपक कहलाता है।
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२. एकत्व - वितर्क अविचार शुक्लध्यान — बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोही क्षपक - साधक की मनोवृत्ति इतनी स्थिर हो जाती है कि वहाँ न द्रव्य, गुण, पर्याय के चिन्तन का परिवर्तन होता है और न अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) और योगों का ही संक्रमण होता है। किन्तु वह द्रव्य, गुण या पर्याय में से किसी एक के गम्भीर एवं सूक्ष्म चिन्तन में संलग्न रहता है और उसका वह चिन्तन किसी एक अर्थ, शब्द या योग के आलम्बन से होता है। उस समय वह एकाग्रता की चरम कोटि पर पहुँच जाता है और इसी दूसरे शुक्लध्यान की प्रज्वलित अग्नि में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अतराय कर्म की सर्व प्रकृतियों को भस्म कर अनन्त ज्ञान, दर्शन और बल-वीर्य का धारक सयोगी जिन बन कर तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है ।
३. तीसरे शुक्लध्यान का नाम सूक्ष्मक्रिय - अनिवृत्ति है । तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी जिन का आयुष्क जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाणमात्र शेष रहता है और उसी की बराबर स्थितिवाले वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म रह जाते हैं, तब सयोगी जिन - बादर तथा सूक्ष्म सर्व मनोयोग और वचनयोग का निरोध कर सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रिय - अनिवृत्ति ध्यान ध्याते हैं। इस समय श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है और इस अवस्था से निवृत्ति या वापिस लौटना नहीं होता है, अतः इसे सूक्ष्मक्रिय - अनिवृत्ति कहते हैं ।
४. चौथे शुक्लध्यान का नाम समुच्छिन्नक्रिय - अप्रतिपाती है। यह शुक्लध्यान सूक्ष्म काययोग का निरोध होने पर चौदहवें गुणस्थान में होता है और योगों की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव हो जाने से आत्मा अयोगी जिन हो जाता है। इस चौथे शुक्लध्यान के द्वारा वे अयोगी जिन अघातिया कर्मों की शेष रही ८५ प्रकृतियों की प्रतिक्षण असंख्यात गुणतिक्रम से निर्जरा करते हुए अन्तिम क्षण में कर्म-लेप से सर्वथा विमुक्त होकर सिद्ध परमात्मा बन कर सिद्धालय में जा विराजते हैं। अत: इस शुक्लध्यान से योग-क्रिया समुच्छिन्न (सर्वथा विनष्ट) हो जाती है और उससे नीचे पतन नहीं होता, अतः इसका समुच्छिन्नक्रिय - अप्रतिपाती यह सार्थक नाम है।
७० – सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा— अव्वहे, असम्मोहे, विवेगे, विउस्सग्गे ।
शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, जैसे—
१. अव्यथ— व्यथा से—परिषह या उपसर्गादि से पीड़ित होने पर क्षोभित नहीं होना ।
२. असम्मोह— देवादिकृत माया से मोहित नहीं होना ।