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चतुर्थ स्थान— प्रथम उद्देश
प्रथम समयवर्ती सिद्ध के चार सत्कर्म एक साथ क्षीण होते हैं, जैसे
१. वेदनीय कर्म, २. आयु कर्म, ३. नाम कर्म, ४. गोत्र कर्म (१४४)। हास्योत्पत्ति-सूत्र
१४५- चउहि ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिया, तं जहा—पासेत्ता, भासेत्ता, सुणेत्ता, संभरेक्ता। चार कारणों से हास्य की उत्पत्ति होती है। जैसे— १. देख कर— नट, विदूषक आदि की चेष्टाओं को देख करके। २. बोल कर किसी के बोलने की नकल करने से। ३. सुन कर-हास्योत्पादक वचन सुनकर।
४. स्मरण कर- हास्यजनक देखी या सुनी बातों को स्मरण करने से (१४५)। अंतर-सूत्र
१४६- चउव्विहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा—कटुंतरे, पम्हंतरे, लोहंतरे, पत्थरंतरे।
एवामेव इत्थीए वा पुरिसस्स वा चउविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा–कटुंतरसमाणे, पम्हंतरसमाणे, लोहंतरसमाणे, पत्थरंतरसमाणे।
अन्तर चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. काष्ठान्तर— एक काष्ठ से दूसरे काष्ठ का अन्तर, रूप-निर्माण आदि की अपेक्षा से। २. पक्ष्मान्तर— धागे से धागे का अन्तर, विशिष्ट कोमलता आदि की अपेक्षा से। ३. लोहान्तर— छेदन-शक्ति की अपेक्षा से। ४. प्रस्तरान्तर- सामान्य पाषाण से हीरा-पन्ना आदि विशिष्ट पाषाण की अपेक्षा से। इसी प्रकार स्त्री से स्त्री का और पुरुष से पुरुष का अन्तर भी चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. काष्ठान्तर के समान— विशिष्ट पद आदि की अपेक्षा से। २. पक्ष्मान्तर के समान— वचन-मृदुता आदि की अपेक्षा से। ३. लोहान्तर के समान- स्नेहच्छेदन आदि की अपेक्षा से।
४. प्रस्तरान्तर के समान विशिष्ट गुणों आदि की अपेक्षा से (१४६)। भृतक-सूत्र
१४७ - चत्तारि भयगा पण्णत्ता, तं जहा—दिवसभयए, जत्ताभयए, उच्चत्तभयए, कब्बालभयए।
भृतक (सेवक) चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. दिवस-भृतक— प्रतिदिन का नियत पारिश्रमिक लेकर कार्य करने वाला। २. यात्रा-भृतक- यात्रा (देशान्तरगमन) काल का सेवक-सहायक।
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दिक्षा सा