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स्थानाङ्गसूत्रम्
प्रायश्चित्त चार प्रकार का कहा गया है। जैसे—
१. ज्ञान - प्रायश्चित्त, २. दर्शन- प्रायश्चित्त, ३. चारित्र - प्रायश्चित्त, ४. व्यक्तकृत्य - प्रायश्चित्त (१३२) ।
विवेचन—– संस्कृत टीकाकार ने इनके स्वरूपों का दो प्रकार से निरूपण किया है।
प्रथम प्रकार — ज्ञान के द्वारा चित्त की शुद्धि और पापों का विनाश होता है, अतः ज्ञान ही प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार दर्शन और चारित्र के द्वारा चित्त की शुद्धि और पापों का विनाश है, अतः वे ही प्रायश्चित्त हैं । व्यक्त अर्थात् भाव से गीतार्थ साधु के सभी कार्य सदा सावधान रहने से पाप-विनाशक होते हैं, अतः वह स्वयं-प्रायश्चित्त
है।
द्वितीय प्रकार - ज्ञान की आराधना करने में जो अतिचार लगते हैं, उनकी शुद्धि करना ज्ञान-प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार दर्शन और चारित्र की आराधना करते समय लगने वाले अतिचारों की शुद्धि करना दर्शन - प्रायश्चित्त और चारित्र - प्रायश्चित्त है।
'वियत्तकिच्च' पद का पूर्वोक्त अर्थ 'व्यक्तकृत्य' संस्कृत रूप मानकर के किया गया है। उन्होंने 'यद्वा' कह कर उसी पद का दूसरा संस्कृत रूप 'विदत्तकृत्य' मान कर यह किया है कि किसी अपराध-विशेष का प्रायश्चित्त यदि तत्कालीन प्रायश्चित्त ग्रन्थों में नहीं भी कहा गया हो तो गीतार्थ साधु मध्यस्थ भाव से जो कुछ भी प्रायश्चित्त देता है, वह 'विदत्त' अर्थात् विशेष रूप से दिया गया प्रायश्चित्त 'वियत्तकिच्च' (विदत्तकृत्य) प्रायश्चित्त कहलाता है। संस्कृत टीकाकार के सम्मुख व 'चियत्तकिच्च' पाठ भी रहा है, अतः उसका अर्थ 'प्रीतिकृत्य' करके प्रीतिपूर्वक वैयावृत्त्य आदि करने को 'चियत्तकिच्च' प्रायश्चित्त कहा है।
१३३— चउव्विहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा—पडिसेवणापायच्छित्ते, संजोयणापायच्छित्ते, आरोवणापायच्छित्ते, पलिउंचणापायच्छित्ते ।
पुनः प्रायश्चित्त चार प्रकार का कहा गया है। जैसे—
१. प्रतिसेवना- प्रायश्चित्त, २ . संयोजना- प्रायश्चित्त, ३. आरोपणा - प्रायश्चित्त, ४. परिकुंचना - प्रायश्चित्त (१३३) । विवेचन — गृहीत मूलगुण या उत्तरगुण की विराधना करने वाले या उसमें अतिचार लगाने वाले कार्य का सेवन करने पर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह प्रतिसेवना- प्रायश्चित्त है। एक जाति के अनेक अतिचारों के मिलाने को यहां संयोजना- दोष कहते हैं । जैसे— शय्यातर के यहां की भिक्षा लेना एक दोष है । वह भी गीले हाथ आदि से लेना दूसरा दोष है और वह भिक्षा भी आधाकर्मिक होना, तीसरा दोष है। इस प्रकार से अनेक सम्मिलित दोषों के लिए जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह संयोजना- प्रायश्चित्त कहलाता है। एक अपराध का प्रायश्चित्त चलते समय पुनः उसी अपराध के करने पर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, अर्थात् पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त की जो सीमा बढ़ाई जाती है, उसे आरोपणा - प्रायश्चित्त कहते हैं । अन्य प्रकार से किये गये अपराध को अन्य प्रकार से गुरु के सम्मुख कहने को परिकुंचना (प्रवंचना ) कहते हैं। ऐसे दोष की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह परिकुंचना - प्रायश्चित्त कहलाता है। इन प्रायश्चित्तों का विस्तृत विवेचन प्रायश्चित्त सूत्रों से जानना चाहिए।
काल-सूत्र
१३४ - चउव्विहे काले पण्णत्ते, तं जहा—पमाणकाले, अहाउयनिव्वत्तिकाले, मरणकाले,