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कषाय-सूत्र
७५— चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोभकसाए । एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं ।
कषाय चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे—
१. क्रोधकषाय, २. मानकषाय, ३. मायाकषाय और ४. लोभकषाय ।
नारकों से लेकर वैमानिकों तक के सभी दण्डकों में ये चारों कषाय होते हैं (७५)।
स्थानाङ्गसूत्रम्
७६— चउ-पतिट्ठिते कोहे पण्णत्ते, तं जहा—आत - पतिट्ठिते, पर- पतिट्ठिते, तदुभय-पतिट्ठिते, अतिट्ठिते । एवंरइयाणं जाव वेमाणियाणं ।
क्रोधकषाय चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है। जैसे—
१. आत्म-प्रतिष्ठित — अपने ही दोषों से संकट उत्पन्न होने पर अपने ही ऊपर क्रोध होना ।
२. पर - प्रतिष्ठित पर के निमित्त से उत्पन्न अथवा पर-विषयक क्रोध ।
३. तदुभय-प्रतिष्ठित — स्व और पर के निमित्त से उत्पन्न उभय-विषयक क्रोध ।
४. अप्रतिष्ठित बाह्य निमित्त के बिना क्रोध कषाय के उदय से उत्पन्न होने वाला क्रोध, जो जीवप्रतिष्ठित होकर भी आत्मप्रतिष्ठित आदि न होने से अप्रतिष्ठित कहलाता है। इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक के सभी दण्डकों में जानना चाहिए (७६)।
७७– [ चउपतिट्ठिते माणे पण्णत्ते, तं जहा – आतपतिट्ठिते, परपतिट्ठिते, तदुभयपतिट्ठिते, अपतिट्ठिते । एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं ।
[ मानकषाय चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है। जैसे
१. आत्मप्रतिष्ठित, २ . परप्रतिष्ठित, ३ तदुभयप्रतिष्ठित और ४. अप्रतिष्ठित ।
यह चारों प्रकार का मान नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में होता है (७७)।
७८
अपतिट्ठिता । एवं
चउपतिट्ठिता माया पण्णत्ता, तं जहा—आतपतिट्ठिता, परपतिट्ठिता, तदुभयपतिट्ठिता, रइयाणं जाव वेमाणियाणं ।
मायाकषाय चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है। जैसे—
१. आत्मप्रतिष्ठित, २. परप्रतिष्ठित, ३. तदुभयप्रतिष्ठित और ४. अप्रतिष्ठित ।
यह चारों प्रकार की माया नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में होती है (७८) ।
७९ — चउपतिट्ठिते लोभे पण्णत्ते, तं जहा – आतपतिट्ठिते, परपतिट्ठिते, तदुभयपतिट्ठिते, अपतिट्ठिते । एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं । ]
लोभकषाय चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है। जैसे—
१. आत्मप्रतिष्ठित, २. परप्रतिष्ठित, ३. तदुभयप्रतिष्ठित और ४. अप्रतिष्ठित ।
यह चारों प्रकार का लोभ नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में होता है (७९)]।