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तृतीय स्थान —
- द्वितीय उद्देश
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( एक शरीर के स्वामी अनन्त जीव) और न प्रत्येकशरीरी न साधारणशरीरी (सिद्ध) । अथवा सर्व जीव तीन प्रकार
कहे गये हैं— सूक्ष्म, बादर और न सूक्ष्म न बादर (सिद्ध) । अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं संज्ञी (समनस्क) असंज्ञी ( अमनस्क) और न संज्ञी न असंज्ञी (सिद्ध) । अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं— भव्य, अभव्य और न भव्य न अभव्य (सिद्ध) (३१८) ।
लोकस्थिति-सूत्र
३१९ – तिविधा लोगठिती पण्णत्ता, उदहीपइट्ठिया पुढवी ।
जहा— आगासपइट्ठिए वाते, वातपइट्ठिए उदही,
लोक- स्थिति तीन प्रकार की कही गई है— आकाश पर घनवात तथा तनुवात प्रतिष्ठित है । घनवात औरं तनुवात पर घनोद प्रतिष्ठित है और घनोदधि पर पृथ्वी (तमस्तमःप्रभा आदि) प्रतिष्ठित स्थित है (३१९) । दिशा - सूत्र
३२० – तओ दिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा ——– उड्ढा, अहा, तिरिया । ३२१– - तिहिं दिसाहिं जीवाणं गती पवत्तति — उड्ढाए, अहाए, तिरियाए । ३२२ –— एवं तिहिं दिसाहिं जीवाणं आगती, वक्कंती, आहारे, वुड्डी, णिवुड्डी, गतिपरियाए, समुग्धाते, कालसंजोगे, दंसणाभिगमे, णाणाभिगमे जीवाभिगमे [ पण्णत्ते, तं जहा—उड्ढाए, अहाए, तिरियाए ]। ३२३– तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पण्णत्ते, तं जहा—उड्ढाए, अहाए, तिरियाए । ३२४– एवं — पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । ३२५ – एवं मणुस्साणवि ।
दिशाएं तीन कही गई हैं—ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यग्दिशा (३२०) । तीन दिशाओं में जीवों की गति (गमन) होती है—ऊर्ध्वदिशा में, अधोदिशा में और तिर्यग्दिशा में ( ३२१) । इसी प्रकार तीन दिशाओं से जीवों की आगति (आगमन) अवक्रान्ति (उत्पत्ति) आहार, वृद्धि - निवृद्धि ( हानि ) गति - पर्याय, समुद्घात, कालसंयोग, दर्शनाभिगम (प्रत्यक्ष दर्शन से होने वाला बोध) ज्ञानाभिगम (प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा होने वाला बोध) और जीवाभिगम ( जीव - विषयक बोध) कहा गया है. (३२२) । तीन दिशाओं में अजीवाभिगम कहा गया है—ऊर्ध्वदिशा में, अधोदिशा में और तिर्यग्दिशा में ( ३२३) । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिवाले जीवों की गति, आगति आदि तीनों दिशाओं में कही गई है (३२४) । इसी प्रकार मनुष्यों की भी गति, आगति आदि तीनों ही दिशाओं में कही गई है (३२५) ।
त्रस-स्थावर - सूत्र
३२६ - तिविहा तसा पण्णत्ता, तं जहा— तेउकाइया, वाउकाइया, उराला तसा पाणा । ३२७– तिविहा थावरा पण्णत्ता, तं जहा— पुढविकाइया, आउकाइया, वणस्सकाइया ।
त्रसजीव तीन प्रकार के कहे गये हैं—तेजस्कायिक, वायुकायिक और उदार (स्थूल) त्रसप्राणी (द्वीन्द्रियादि) (३२६)। स्थावर जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं—–— पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक (३२७)। विवेचन — प्रस्तुत सूत्र में तेजस्कायिक और वायुकायिक को गति की अपेक्षा त्रस कहा गया है। पर उनके