Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ स्थान— प्रथम उद्देश
२१९ १. अमणुण्ण-संपओग-संपउत्ते, तस्स विप्पओग-सति-समण्णागते यावि भवति। २. मणुण्ण-संपओग-संपउत्ते, तस्स अविप्पओग-सति-समण्णागते यावि भवति। ३. आतंक-संपओग-संपउत्ते, तस्स विप्पओग-सति-समण्णागते यावि भवति। ४. परिजुसित-काम-भोग-संपओग-संपउत्ते, तस्स अविप्पओग-सति-समण्णागते यावि भवति। आर्तध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. अमनोज्ञ (अप्रिय) वस्तु का संयोग होने पर उसके दूर करने का बार-बार चिन्तन करना। २. मनोज्ञ (प्रिय) वस्तु का संयोग होने पर उसका वियोग न हो, ऐसा बार-बार चिन्तन करना। ३. आतंक (घातक रोग) होने पर उसके दूर करने का बार-बार चिन्तन करना। ४. प्रीति-कारक काम-भोग का संगम होने पर उसका वियोग न हो, ऐसा बार-बार चिन्तन करना (६१)।
६२– अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा—कंदणता, सोयणता, तिप्पणता, पडिदेवणता।
आर्तध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, जैसे— १. क्रन्दनता— उच्चं स्वर से बोलते हुए रोना। २. शोचनता— दीनता प्रकट करते हुए शोक करना। ३. तेपनता— आंसू बहाना। ४. परिदेवनता- करुणा-जनक विलाप करना (६२)।
विवेचन- अमनोज्ञ, अप्रिय और अनिष्ट ये तीनों एकार्थक शब्द हैं। इसी प्रकार मनोज्ञ, प्रिय और इष्ट ये तीनों एकार्थवाची हैं । अनिष्ट वस्तु का संयोग या इष्ट का वियोग होने पर मनुष्य जो दुःख, शोक, सन्ताप, आक्रन्दन
और परिवेदन करता है, वह सब आर्तध्यान है। रोग को दूर करने के लिए चिन्तातुर रहना और प्राप्त भोग नष्ट न हो जावें, इसके लिए चिन्तित रहना भी आर्तध्यान है। तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में निदान को भी आर्त्तध्यान के भेदों में गिना है। यहां वर्णित चौथे भेद को वहां दूसरे भेद में ले लिया है।
जब दु:ख आदि के चिन्तन में एकाग्रता आ जाती है तभी वह ध्यान की कोटि में आता है।
६३– रोहे झाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा–हिंसाणुबंधि, मोसाणुबंधि, तेणाणुबंधि, सारक्खणाणुबंधि।
रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. हिंसानुबन्धी— निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता कराने वाली चित्त की एकाग्रता। २. मृषानुबन्धी— असत्य भाषण सम्बन्धी एकाग्रता। ३. स्तेनानुबन्धी निरन्तर चोरी करने-कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी एकाग्रता। ४. संरक्षणानुबन्धी- परिग्रह के अर्जन और संरक्षण सम्बन्धी तन्मयता (६३)। ६४– रुहस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा ओसण्णदोसे, बहुदोसे,