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तृतीय स्थान–चतुर्थ उद्देश
१७१ पण्णवणा।
प्रज्ञापना तीन प्रकार की कही गई है—ज्ञान की प्रज्ञापना (भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा), दर्शन की प्रज्ञापना और चारित्र की प्रज्ञापना (४३०)।
४३१—तिविधे सम्मे पण्णत्ते, तं जहा—णाणसम्मे, दंसणसम्मे, चरित्तसम्मे।
सम्यक् (मोक्षप्राप्ति के अनुकूल) तीन प्रकार का कहा गया है—ज्ञान-सम्यक्, दर्शन-सम्यक् और चारित्रसम्यक् (४३१)। विशोधि-सूत्र
४३२-तिविधे उवघाते पण्णत्ते, तं जहा—उग्गमोवधाते, उप्पायणोवघाते, एसणोवघाते। उपघात (चारित्र का विराधन) तीन प्रकार का कहा गया है१. उद्गम-उपघात— आहार की निष्पत्ति से सम्बन्धित भिक्षा-दोष, जो दाता-गृहस्थ के द्वारा किया जाता
२. उत्पादन-उपघात— आहार के ग्रहण करने से सम्बन्धित भिक्षा-दोष, जो साधु द्वारा किया जाता है।
. ३. एषणा-उपघात— आहार को लेने के समय होने वाला भिक्षा-दोष, जो साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा किया जाता है (४३२)।
४३३ - [तिविधा विसोही पण्णत्ता, तं जहा—उग्गमविसोही, उप्पायणविसोही, एसणाविसोही]। विशोधि तीन प्रकार की कही गई है१. उद्गम-विशोधि– उद्गम-सम्बन्धी भिक्षा-दोषों की निवृत्ति। २. उत्पादन-विशोधि— उत्पादन-सम्बन्धी भिक्षा-दोषों की निवृत्ति ।
३. एषणा-विशोधि— गोचरी-सम्बन्धी दोषों की निवृत्ति (४३३)। आराधना-सूत्र
४३४-तिविहा आराहणा पण्णत्ता, तं जहाणाणाराहणा, दंसणाराहणा, चरित्ताराहणा। ४३५–णाणाराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा। ४३६-[सणाराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा—उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा। ४३७- चरित्ताराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा—उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा]।
आराधना तीन प्रकार की कही गई है—ज्ञान-आराधना, दर्शन-आराधना और चारित्र-आराधना (४३४)। ज्ञान-आराधना तीन प्रकार की कही गई है—उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य (४३५)। [दर्शन-आराधना तीन प्रकार की कही गई है—उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य (४३६)। चारित्र-आराधना तीन प्रकार की कही गई है—उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य (४३७)।]
विवेचन–आराधना अर्थात् मुक्ति के कारणों की साधना । अकाल-श्रुताध्ययन को छोड़कर स्वाध्याय काल