Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
तृतीय स्थान-चतुर्थ उद्देश
१९१
संक्लेश की वृद्धि होते हुए अज्ञानी जीव का जो मरण होता है, वह संक्लिष्टलेश्यमरण कहलाता है। यह तब संभव है, जबकि नीलादि लेश्यावाला जीव मरण कर कृष्णादि लेश्यावाले नारकों में उत्पन्न होता है। विशुद्धि की वृद्धि से युक्त लेश्या वाले अज्ञानी जीव के मरण को पर्यवजातलेश्यमरण कहते हैं। यह तब होता है जब कि कृष्णादि लेश्या वाला जीव मर कर नीलादि लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है। पंडितमरण संयमी पुरुष का ही होता है, अतः उसमें लेश्या की संक्लिश्यमानता नहीं है, अतः वह वस्तुतः दो ही प्रकार का होता है। बाल-पंडितमरण संयतासंयत श्रावक के होता है और वह स्थित लेश्या वाला होता है। अतः उसके संक्लिश्यमान और पर्यवजातलेश्या संभव नहीं होने से स्थितलेश्या रूप एक ही मरण होता है। इसी कारण उसका मरण असंक्लिष्टलेश्य और अपर्यवजातलेश्य कहा गया है। अश्रद्धालु-सूत्र
५२३-तओ ठाणा अव्ववसितस्स अहिताए असुभाए अखमाए अणिस्सेसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा
१. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति, णो से परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवइ।
२. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारितं पव्वइए पंचहिं महव्वएहिं संकिते [कंखिते वितिगिच्छिते भेदसमावण्णे ] कलुससमावण्णे पंच महव्वताई णो सद्दहति [णो पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा अभिमुंजिय-अभिजुंजिय अभिभवंति ] णो से परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवति।
३. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणिकाएहिं [संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे छ जीवणिकाए णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति, णो से परिस्सहे अभिजुंजिय-अभिजुंजिय] अभिभवति।
अव्यस्थित (अश्रद्धालु) निर्ग्रन्थ के तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयस और अनानुगामिता के कारण होते हैं
१. वह मुण्डित होकर अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सक, भेदसमापन और कलुष-समापन्न होकर निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा नहीं करता, प्रतीत नहीं करता, रुचि नहीं करता। उसे परीषह आकर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता।
२. वह मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर पाँच-महाव्रतों में शंकित, [कांक्षित, विचिकित्सक, भेदसमापन) और कलुषसमापन होकर पाँच महाव्रतों पर श्रद्धा नहीं करता, प्रतीत नहीं करता, रुचि नहीं करता। उसे परीषह आकर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझ-जूझ कर] उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता।
३. वह मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर छह जीव-निकायों में [शंकित, कांक्षित, विचिकित्सक, भेदसमापन और कलुष-समापन्न होकर छह जीव-निकाय पर श्रद्धा नहीं करता, प्रतीत नहीं करता,