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तृतीय स्थान – चतुर्थ उद्देश
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रुचि करता है, वह परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह अभिभूत नहीं कर पाते।
२. जो मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर पांच महाव्रतों में नि:शंकित, नि:कांक्षित (निर्विचिकित्सिक, अभेदसमापन्न और अकलुषसमापन्न होकर पाँच महाव्रतों में श्रद्धा करता है, प्रीति करता है, रुचि करता है, वह) परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह अभिभूत नहीं कर पाते।
.३. जो मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर छह जीवनिकायों में नि:शंकित, (नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सिक, अभेदसमापन्न और अकलुषसमापन्न होकर छह जीवनिकाय में श्रद्धा करता है, प्रीति करता है, रुचि करता है, वह) परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह जूझ-जूझ कर अभिभूत नहीं कर पाते (५२४)। पृथ्वी-वलय-सूत्रं
५२५- एगमेगा णं पुढवी तिहिं वलएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता, तं जहाघणोदधिवलएणं, घणवातवलएणं, तणुवायवलएणं।
रत्नप्रभादि प्रत्येक पृथ्वी तीन-तीन वलयों के द्वारा सर्व ओर से परिक्षिप्त (घिरी हुई) है—घनोदधिवलय से, घनवातवलय से और तनुवातवलय से (५२५)। विग्रहगति-सूत्र
५२६–णेरइया णं उक्कोसेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववजंति। एगिंदियवजं जाव वेमाणियाणं।
नारकी जीव उत्कृष्ट तीन समय वाले विग्रह से उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़कर वैमानिक देवों तक के सभी जीव उत्कृष्ट तीन समय वाले विग्रह से उत्पन्न होते हैं (५२६)।
विवेचनविग्रह नाम शरीर का है। जब जीव मर कर नवीन जन्म के शरीर-धारण करने के लिए जाता है, तब उसके गमन को विग्रह-गति कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है, ऋजुगति और वक्रगति। ऋजुगति सीधी समश्रेणी वाले स्थान पर उत्पन्न होने वाले जीव की होती है और उसमें एक समय लगता है। वक्र नाम मोड़ का है। जब जीव मर कर विषम श्रेणी वाले स्थान पर उत्पन्न होता है तब उसे मुड़कर के नियत स्थान पर जाना पड़ता है। इसलिए वह वक्रगति कही जाती है। वक्रगति के तीन भेद हैं—पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिकागति । ये तीनों संज्ञाएं दिगम्बर शास्त्रों के अनुसार दी गई हैं। जैसे पाणि (हाथ) से किसी वस्तु के फेंकने से एक मोड़ होता है, उसी प्रकार जिस विग्रह या वक्रगति में एक मोड़ लेना पड़ता है, उसे पाणिमुक्ता-गति कहते हैं। इस गति में दो समय लगते हैं। लांगल नाम हल का है। जैसे हल के दो मोड़ होते हैं, उसी प्रकार जिस वक्रगति में दो मोड़ लेने पड़ते हैं, उसे लांगलिका गति कहते हैं। इस गति में तीन समय लगते हैं। बैल चलते हुए जैसे मूत्र (पेशाब) करता जाता है तब भूमि पर पतित मूत्र-धारा में अनेक मोड़ पड़ जाते हैं। इसी प्रकार तीन मोड़ वाली गति को गोमूत्रिका-गति कहते हैं। इस गति में तीन मोड़ और चार समय लगते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में तीन समय वाली दो मोड़ की गति का वर्णन किया गया है। एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय सभी दण्डकों के जीव किसी भी स्थान से मर कर किसी भी स्थान में दो मोड़ लेकर के तीसरे समय में नियत स्थान पर