Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय स्थान- चतुर्थ उद्देश
१८१ कल्पस्थिति कहते हैं। यह कल्पस्थिति प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में अल्पकाल की होती है, क्योंकि वहां छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति होती है। शेष बाईस तीर्थंकरों के समय में तथा महाविदेह में जीवन-पर्यन्त की होती है, क्योंकि छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति नहीं होती है।
इस कल्प के अनुसार शय्यातर-पिण्ड-परिहार, चातुर्यामधर्म का पालन, पुरुषज्येष्ठत्व और कृतिकर्म; ये चार आवश्यक होते हैं तथा अचेलकत्व (वस्त्र का अभाव या अल्प वस्त्र ग्रहण) औद्देशिकत्व (एक साधु के उद्देश्य से बनाये ग
का दसरे साम्भोगिक द्वारा अग्रहण. राजपिण्ड का अग्रहण, नियमित प्रतिक्रमण, मास-कल्प विहार और पर्युषणा कल्प ये छह वैकल्पिक होते हैं।
२. छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति— प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में ही होती है। इस कल्प के अनुसार उपर्युक्त दश कल्पों का पालन करना अनिवार्य है।
३. निर्विशमान कल्पस्थिति— परिहारविशुद्धि संयम की साधना करने वाले तपस्यारत साधुओं की आचारमर्यादा को निर्विशमान कल्पस्थिति कहते हैं।
४. निर्विष्टकायिक स्थिति-जिन तीन प्रकार की कल्पस्थितियों का सूत्र के उत्तर भाग में निर्देश किया गया है उसमें पहली निर्विष्ट कल्पस्थिति है। परिहारविशुद्धि संयम की साधना सम्पन्न कर चुकने वाले साधुओं की स्थिति को निर्विष्ट कल्पस्थिति कहते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है
परिहारविशुद्धि संयम की साधना में नौ साधु एक साथ अवस्थित होते हैं। उनमें चार साधु पहिले तपस्या प्रारम्भ करते हैं, उन्हें निर्विशमान कल्पस्थितिक साधु कहा जाता है। चार साधु उनकी परिचर्या करते हैं तथा एक साधु वाचनाचार्य होता है। निर्विशमान साधुओं की तपस्या का क्रम इस प्रकार से रहता है—वे साधु ग्रीष्म, शीत और वर्षा ऋतु में जघन्य रूप से क्रमशः चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त और अष्टमभक्त की तपस्या करते हैं। मध्यम रूप से उक्त ऋतुओं में क्रमशः चतुर्थभक्त, अष्टमभक्त और दशमभक्त की तपस्या करते हैं तथा उत्कृष्ट रूप से उक्त ऋतुओं में क्रमशः अष्टमभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त की तपस्या करते हैं। पारणा में साभिग्रह आयम्बिल की तपस्या करते हैं। शेष पांचों साधु भी इस साधना-काल में आयम्बिल तप करते हैं।
पूर्व के चार साधुओं की तपस्या समाप्त हो जाने पर शेष चार तपस्या प्रारम्भ करते हैं तथा साधना समाप्त कर चुकने वाले चारों साधु उनकी परिचर्या करते हैं, उन्हें निर्विष्टकल्पस्थिति वाला कहा जाता है। इन चारों की साधना उक्त प्रकार से समाप्त हो जाने पर वाचनाचार्य साधना में अवस्थित होते हैं और शेष साधु उनकी परिचर्या करते हैं।
उक्त नवों ही साधु जघन्य रूप से नवें प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी आचार नामक वस्तु (अधिकार-विशेष) के ज्ञाता होते हैं और उत्कृष्ट रूप से कुछ कम दश पूर्वो के ज्ञाता होते हैं।
दिगम्बर-परम्परा में परिहारविशुद्धि संयम की साधना के विषय में कहा गया है कि जो व्यक्ति जन्म से लेकर तीस वर्ष तक गृहस्थी के सुख भोग कर तीर्थंकर के समीप दीक्षित होकर वर्षपृथक्त्व (तीन से नौ वर्ष) तक उनके पादमूल में रहकर प्रत्याख्यान पूर्व का अध्ययन करता है, उसके परिहारविशुद्धिसंयम की सिद्धि होती है। इस तपस्या से उसे इस प्रकार की ऋद्धि प्राप्त हो जाती है कि उसके गमन करते, उठते, बैठते और आहार-पान ग्रहण