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तृतीय स्थान
कहलाती है।
४०५—–— पओगकिरिया तिविधा पण्णत्ता, तं जहा— मणपओगकिरिया, वइपओगकिरिया, कायपओगकिरिया ।
प्रयोगक्रिया तीन प्रकार की कही गई है— मनःप्रयोग क्रिया, वाक् प्रयोग क्रिया और काय प्रयोग क्रिया
तृतीय उद्देश
(४०५)।
४०६ — समुदाणकिरिया तिविधा पण्णत्ता, तं जहा— अणंतरसमुदाणकिरिया, परंपरसमुदाणकिरिया, तदुभयसमुदाणकिरिया ।
समुदान- क्रिया तीन प्रकार की कही गई है— अनन्तर - समुदानक्रिया, परम्पर-समुदानक्रिया और तदुभयसमुदानक्रिया (४०६)।
(४०७)।
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विवेचन— प्रयोगक्रिया के द्वारा सामान्य रूप से कर्मवर्गणाओं को जीव ग्रहण करता है, फिर उन्हें प्रकृति, स्थिति आदि तथा सर्वघाती, देशघाती आदि रूप में ग्रहण करना समुदानक्रिया है । अनन्तर अर्थात् व्यवधान । जिस समुदानक्रिया के करने में दूसरे का व्यवधान या अन्तर न हो ऐसी प्रथम समयवर्तिनी क्रिया अनन्तर समुदानक्रिया है। द्वितीय तृतीय आदि समयों में की जाने वाली समुदानक्रिया को परम्परसमुदानक्रिया कहते | प्रथम और अप्रथम दोनों समयों की अपेक्षा की जाने वाली समुदानक्रिया तदुभयसमुदानक्रिया कहलाती है ।
तं जहा— मतिअण्णाणकिरिया, सुतअण्णाण
४०७ अण्णाणकिरिया तिविधा पण्णत्ता, किरिया, विभंगअण्णाणकिरिया ।
अज्ञानक्रिया तीन प्रकार की कही गई है— मति - अज्ञानक्रिया, श्रुत- अज्ञानक्रिया और विभंग - अज्ञानक्रिया
विवेचन इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। आप्त वाक्यों के श्रवण-पठनादि से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के बिना अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले भूत-भविष्यकालान्तरित एवं देशान्तरित वस्तु के जानने वाले सीमित ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव के होने वाले ये तीनों ज्ञान क्रमशः मति- अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और विभंगअज्ञान कहे जाते हैं।
४०८- - अविणए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा——– देसच्चाई, णिरालंबणता, णाणापेज्जदोसे ।
अविनय तीन प्रकार का कहा गया है—
१. देशत्यागी— स्वामी को गाली आदि दे कर देश को छोड़ कर चले जाना।
२. निरालम्बन— गच्छ या कुटुम्ब को छोड़ देना या उससे अलग हो जाना।
३. नानाप्रेयोद्वेषी नाना प्रकारों से लोगों के साथ राग-द्वेष करना (४०८)।
४०९– अण्णाणे तिविधे पण्णत्ते, तं जहा— देसण्णाणे, सव्वण्णाणे, भावण्णाणे । अज्ञान तीन प्रकार का कहा गया है—