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स्थानाङ्गसूत्रम्
वयों में आत्मा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म-श्रवण का लाभ पाता है—प्रथमवय में, मध्यमवय में और पश्चिमवय में (१७४)। तीनों ही वयों में आत्मा विशुद्ध बोधि को प्राप्त होता है—प्रथमवय में, मध्यमवय में और पश्चिमवय में । इसी प्रकार तीनों ही वयों में आत्मा मुण्डित होकर अगार से विशुद्ध अनगारिता को पाता है, विशुद्ध ब्रह्मचर्यवास में निवास करता है, विशुद्ध संयम के द्वारा संयत होता है, विशुद्ध संवर के द्वारा संवृत होता है, विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है, विशुद्ध श्रुतज्ञान को प्राप्त करता है, विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्त करता है, विशुद्ध मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त करता है और विशुद्ध केवलज्ञान को प्राप्त करता है—-प्रथमवय में, मध्यमवय में और पश्चिमवय में (१७५)।
विवेचन- संस्कृत टीकाकार ने सोलह वर्ष तक बाल-काल, सत्तर वर्ष तक मध्यमकाल और इससे परे वृद्धकाल का निर्देश एक प्राचीन श्लोक को उद्धृत करके किया है। साधुदीक्षा आठ वर्ष के पूर्व नहीं होने का विधान है, अतः प्रकृत में प्रथमवय का अर्थ आठ वर्ष से लेकर तीस वर्ष तक का कुमार-काल होना चाहिए। इकतीस वर्ष से लेकर साठ वर्ष तक के समय को युवावस्था या मध्यमवय और उससे आगे की वृद्धावस्था को पश्चिमवय जानना चाहिए। वस्तुतः वयों का विभाजन आयुष्य की अपेक्षा रखता है और आयुष्य कालसापेक्ष है अतएव सदा-सर्वदा के लिए कोई भी एक प्रकार का विभाजन नहीं हो सकता। बोधि-सूत्र
१७६– तिविधा बोधी पण्णत्ता, तं जहा—णाणबोधी, दसणबोधी, चरित्तबोधी। १७७– तिविहा बुद्धा पण्णत्ता, तं जहा–णाणबुद्धा, दंसणबुद्धा, चरित्तबुद्धा।
बोधि तीन प्रकार की कही गई है—ज्ञानबोधि, दर्शनबोधि और चारित्रबोधि (१७६)। बुद्ध तीन प्रकार के कहे गये हैं—ज्ञानबुद्ध, दर्शनबुद्ध और चारित्रबुद्ध (१७७)। मोह-सूत्र
१७८- एवं मोहे, मूढा [तिविहे मोहे पण्णत्ते, तं जहा—णाणमोहे, दंसणमोहे, चरित्तमोहे। १७९- तिविहा मूढा पण्णत्ता, तं जहा–णाणमूढा, दंसणमूढा, चरित्तमूढा]। ____मोह तीन प्रकार का कहा गया है—ज्ञानमोह, दर्शनमोह और चारित्रमोह (१७८)। मूढ तीन प्रकार के कहे गये हैं—ज्ञानमूढ, दर्शनमूढ और चारित्रमूढ (१७९)।
विवेचन– यहां 'मोह' का अर्थ विपर्यास या विपरीतता है। ज्ञान का मोह होने पर ज्ञान अयथार्थ हो जाता है। दर्शन का मोह होने पर वह मिथ्या हो जाता है। इसी प्रकार चारित्र का मोह होने पर सदाचार असदाचार हो जाता है। प्रव्रज्या-सूत्र
१८०– तिविहा पव्वजा पण्णत्ता, तं जहा—इहलोगपडिबद्धा, परलोगपडिबद्धा, दुहतो [लोग?] पडिबद्धा। १८१– तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा—पुरतो पडिबद्धा, मग्गतो पडिबद्धा, दुहओ पडिबद्धा। १८२– तिविहा पव्वजा पण्णत्ता, तं जहा तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, बुआवइत्ता। १८३–तिविहा पव्वजा पण्णत्ता, तं जहा—ओवातपव्वजा, अक्खातपव्वजा, संगारपव्वज्जा।