Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय स्थान · द्वितीय उद्देश
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प्रव्रज्या तीन प्रकार की कही गई है— इहलोक प्रतिबद्धा ( इस लोक-सम्बन्धी सुखों की प्राप्ति में लिए अंगीकार की जाने वाली ) प्रव्रज्या, परलोक - प्रतिबद्धा (परलोक में सुखों की प्राप्ति के लिए स्वीकार की जाने वाली) प्रव्रज्या और द्वयलोक - प्रतिबद्धा ( दोनों लोकों में सुखों की प्राप्ति के लिए ग्रहण की जाने वाली ) प्रव्रज्या (१८०) । पुनः प्रव्रज्या तीन प्रकार की कही गई है— पुरतः प्रतिबद्धा ( आगे होने वाली शिष्यादि से प्रतिबद्ध) प्रव्रज्या, पृष्ठतः प्रतिबद्धा ( पीछे के स्वजनादि के साथ स्नेहसम्बन्ध विच्छेद होने से प्रतिबद्ध) प्रव्रज्या और उभयतः प्रतिबद्धा ( आगे के शिष्य आदि और पीछे के स्वजन आदि के स्नेह आदि से प्रतिबद्ध) प्रव्रज्या (१८१) । पुनः प्रव्रज्या तीन प्रकार की कही गई हैं—तोदयित्वा (कष्ट देकर दी जाने वाली) प्रव्रज्या, प्लावयित्वा ( दूसरे स्थान में ले जाकर दी जाने वाली) प्रव्रज्या, और वाचयित्वा (बातचीत करके दी जाने वाली) प्रव्रज्या (१८२) । पुनः प्रव्रज्या तीन प्रकार की कही गई है—– अवपात ( गुरु सेवा से प्राप्त) प्रव्रज्या, आख्यात (उपदेश से प्राप्त ) प्रव्रज्या और संगार ( परस्पर प्रतिज्ञा - बद्ध होकर ली जाने वाली ) प्रव्रज्या (१८३) ।
विवेचन—–— संस्कृत टीकाकार ने तोदयित्वा प्रव्रज्या के लिए 'सागरचन्द्र' का, प्लावयित्वा दीक्षा के लिए आर्यरक्षित का और वाचयित्वा दीक्षा के लिए गौतमस्वामी से वार्तालाप कर एक किसान का उल्लेख किया है। इसी प्रकार आख्यातप्रव्रज्या के लिए फल्गुरक्षित का और संगारप्रव्रज्या के लिए मेतार्य के नाम का उल्लेख किया है। इनकी कथाएं कथानुयोग से जानना चाहिए।
निर्ग्रन्थ- सूत्र
१८४— तओ णियंठा णोसण्णोवउत्ता पण्णत्ता, तं जहा —— पुलाए, णियंठे, सिणाए । १८५– तओ णियंठा सण्णा-णोसण्णोवउत्ता पण्णत्ता, तं जहा—बउसे, पडिसेवणाकुसीले, कसायकुसीले ।
तीन प्रकार के निर्ग्रन्थ नोसंज्ञा से उपयुक्त कहे गये हैं—– पुलाक, निर्ग्रन्थ और स्नातक (१८४) । तीन प्रकार के निर्ग्रन्थ संज्ञा और नोसंज्ञा, इन दोनों से उपयुक्त होते हैं— बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील (१८५) ।
विवेचन— ग्रन्थ का अर्थ परिग्रह है। जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित होते हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ कहा जाता है। आहार आदि की अभिलाषा को संज्ञा कहते हैं। जो इस प्रकार की संज्ञा से उपयुक्त होते हैं उन्हें संज्ञोपयुक्त कहते हैं और जो इस प्रकार की संज्ञा से उपयुक्त नहीं होते हैं, उन्हें नो- संज्ञोपयुक्त कहते हैं । इन दोनों प्रकार के निर्ग्रन्थों के जो तीन-तीन नाम गिनाये गये हैं, उनका स्वरूप इस प्रकार है—
१. पुलोक — तपस्या - विशेष से लब्धि - विशेष को पाकर उसका उपयोग करके अपने संयम को असार करने वाले साधु को पुलाक कहते हैं।
२. निर्ग्रन्थ— जिसके मोह - कर्म उपशान्त हो गया है, ऐसे ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती और जिसका मोहकर्म क्षय हो गया है ऐसे बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनियों को निर्ग्रन्थ कहते हैं ।
३. स्नातक— घनघाति चारों कर्मों का क्षय करने वाले तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्मी अरहन्तों को स्नातक कहते हैं।
इन तीनों को नोसंज्ञोपयुक्त कहा गया है—
१. बकुश—– शरीर और उपकरण की विभूषा द्वारा अपने चारित्ररूपी वस्त्र में धब्बे लगाने वाले साधु को