Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय स्थान – प्रथम उद्देश
को ग्रहण कर की जाने वाली विक्रिया। २. बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना की जाने वाली विक्रिया। ३. बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पुद्गलों के ग्रहण और अग्रहण के द्वारा की जाने वाली विक्रिया (६)। संचित-पद
पद
७- तिविहा जेरइया पण्णत्ता, तं जहा कतिसंचिता, अकतिसंचिता, अवत्तव्यगसंचिता। ८- एवमेगिंदियवजा जाव वेमाणिया।
नारक तीन प्रकार के कहे गये हैं—१. कतिसंचित, २. अकतिसंचित, ३. अवक्तव्यसंचित (७)। इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़कर वैमानिक देवों तक के सभी दण्डक तीन-तीन प्रकार के कहे गये हैं (८)।
विवेचन–'कति' शब्द संख्यावाचक है। दो से लेकर संख्यात तक की संख्या को कति कहा जाता है। अकति का अर्थ असंख्यात और अनन्त है। अवक्तव्य का अर्थ 'एक' है, क्योंकि 'एक' की गणना संख्या में नहीं की जाती है। क्योंकि किसी संख्या के साथ एक का गुणाकार या भागाकार करने पर वृद्धि-हानि नहीं होती। अतः 'एक' संख्या नहीं, संख्या का मूल है। नरकगति में नारक एक साथ संख्यात उत्पन्न होते हैं । उत्पत्ति की इस समानता से उन्हें कति-संचित कहा गया है तथा नारक एक साथ असंख्यात भी उत्पन्न होते हैं, अतः उन्हें अकति-संचित भी कहा गया है। कभी-कभी जघन्य रूप से एक ही नारक नरकगति में उत्पन्न होता है अतः उसे अवक्तव्य-संचित कहा गया है, क्योंकि उसकी गणना न तो कति-संचित में की जा सकती है और न अकति-संचित में ही की जा सकती है। एकेन्द्रिय जीव प्रतिसमय या साधारण वनस्पति में अनन्त उत्पन्न होते हैं, वे केवल अकति-संचित ही होते हैं, अतः सूत्र में उनको छोड़ने का निर्देश किया गया है। परिचारणा-सूत्र
९- तिविहा परियारणा पण्णत्ता, तं जहा
१. एगें देवे अण्णे देवे, अण्णेसिं देवाणं देवीओ य अभिमुंजिय-अभिमुंजिय परियारेति, अप्पणिज्जिआओ देवीओ अभिमुंजिय-अभिमुंजिय परियारेति, अप्पाणमेव अप्पणा विउव्विय-विउव्विय परियारेति।
२. एगे देवे णो अण्णे देवे, णो अण्णेहिं देवाणं देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेति, अप्पणिजिआओ देवीओ अभिमुंजिय-अभिजुंजिय परियारेति, अप्पाणमेव अप्पणा विउव्विय-विउव्विय परियारेति।
३. एगे देवे णो अण्णे देवे, णो अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेति, णो अप्पणिजिताओ देवीओ अभिमुंजिय-अभिमुंजिय परियारेति, अप्पाणमेव अप्पाणं विउव्विय-विउव्विय परियारेति।
परिचारणा तीन प्रकार की कही गई है—१. कुछ देव अन्य देवों तथा अन्य देवों की देवियों का आलिंगन कर-कर परिचारणा करते हैं, कुछ देव अपनी देवियों का वार-वार आलिंगन करके परिचारणा करते हैं और कुछ