Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
२. कोई धनिक व्यक्ति किसी दरिद्र पुरुष का धनादि से समुत्कर्ष करता है। संयोगवश कुछ समय के बाद या शीघ्र ही वह दरिद्र, विपुल भोग-सामग्री से सम्पन्न हो जाता है और वह उपकारक धनिक व्यक्ति किसी समय दरिद्र होकर सहायता की इच्छा से उसके समीप आता है। उस समय वह भूतपूर्व दरिद्र अपने पहले वाले स्वामी को सब कुछ अर्पण करके भी उसके उपकारों से उऋण नहीं हो सकता है। हे आयुष्मान् श्रमणो! वह उसके उपकार से तभी उऋण हो सकता है जबकि उसे संबोधित कर, धर्म का स्वरूप और उसके भेद-प्रभेद बताकर केवलि-प्रज्ञप्त धर्म में स्थापित करता है।
३. कोई व्यक्ति तथारूप श्रमण माहन के (धर्माचार्य के) पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनकर, हृदय में धारण कर मृत्युकाल में मरकर, किसी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होता है। किसी समय वह देव अपने धर्माचार्य को दुर्भिक्ष वाले देश से सुभिक्ष वाले देश में लाकर रख दे, जंगल से बस्ती में ले आवे, या दीर्घकालीन रोगातङ्क से पीड़ित होने पर उन्हें उससे विमुक्त कर दे, तो भी वह देव उस धर्माचार्य के उपकार से उऋण नहीं हो सकता है। हे आयुष्मान् श्रमणो! वह उनसे तभी उऋण हो सकता है जब कदाचित् उस धर्माचार्य के केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाने पर उसे संबोधित कर, धर्म का स्वरूप और उसके भेद-प्रभेद बताकर केवलि-प्रज्ञप्त धर्म में स्थापित करता है।
विवेचन— टीकाकार अभयदेवसूरि ने शतपाक के चार अर्थ किये हैं—१. सौ औषधियों के क्वाथ से पकाया गया, २. सौ औषधियों के साथ पकाया गया, ३. सौ बार पकाया गया और ४. सौ रुपयों के मूल्य से पकाया गया तेल। इसी प्रकार सहस्रपाक तेल के चार अर्थ किये हैं। स्थालीपाक का अर्थ है हांडी, कुंडी या वटलोई, भगौनी आदि में पकाया गया भोजन । सूत्र-पठित अष्टादश पद को उपलक्षण मानकर जितने भी खान-पान के प्रकार हो सकते हैं, उन सबको यहां इस पद से ग्रहण करना चाहिए। व्यतिव्रजन-सूत्र
- तिहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसारकंतारं वीईवएजा, तं जहा—आणिदाणयाए, दिट्ठिसंपण्णयाए, जोगवाहियाए।
तीन स्थानों से सम्पन्न अनगार (साधु) इस अनादि-अनन्त, अतिविस्तीर्ण चातुर्गतिक संसार कान्तार से पार हो जाता है—अनिदानता से (भोग-प्राप्ति के लिए निदान नहीं करने से) दृष्टिसम्पन्नता से (सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से) और योगवाहिता से (८८)।
विवेचन- अभयदेवसूरि ने योगवाहिता के दो अर्थ किये हैं—१. श्रुतोपधानकारिता अर्थात् शस्त्राभ्यास के लिए आवश्यक अल्पनिद्रा लेना, अल्प भोजन करना, मित-भाषण करना, विकथा, हास्यादि का त्याग करना। २. समाधिस्थायिता—अर्थात् काम-क्रोध आदि का त्याग कर चित्त में शांति और समाधि रखना। इस प्रकार की योगवाहिता के साथ निदान-रहित एवं सम्यक्त्वसम्पन्न साधु इस अनादि-अनन्त संसार से पार हो जाता है। कालचक्र-सूत्र
८९- तिविहा ओसप्पिणी पण्णत्ता, तं जहा—उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा। ९०— एवं