Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
११२
स्थानाङ्गसूत्रम्
चाहिए। अथवा उपधि तीन प्रकार की कही गई है—सचित्त, अचित्त और मिश्र। यह तीनों प्रकार की उपधि नैरयिकों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त सभी दंडकों में जानना चाहिए (९४)।
विवेचन- जिस के द्वारा जीव और उसके शरीर आदि का पोषण हो उसे उपधि कहते हैं। नारकों और एकेन्द्रिय जीव बाह्य-उपकरणरूप उपधि से रहित होते हैं, अतः यहाँ उन्हें छोड़ दिया गया है। आगे परिग्रह के विषय में भी यही समझना चाहिए। परिग्रह-सूत्र
९५-तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा—कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे। एवं असुरकुमाराणं। एवं एगिदियणेरइयवजं जाव वेमाणियाणं।
अहवा–तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा सचित्ते, अचित्ते, मीसए। एवं—णेरइयाणं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं।
परिग्रह तीन प्रकार का कहा गया है—कर्मपरिग्रह, शरीरपरिग्रह और वस्त्र-पात्र आदि बाह्य परिग्रह । यह तीनों प्रकार का परिग्रह एकेन्द्रिय और नारकों को छोड़कर सभी दण्डकवाले जीवों के होता है। अथवा तीन प्रकार का परिग्रह कहा गया है—सचित्त, अचित्त और मिश्र। यह तीनों प्रकार का परिग्रह सभी दण्डकवाले जीवों के होता है (९५)। प्रणिधान-सूत्र
९६-तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा—मणपणिहाणे, वयपणिहाणे, कायपणिहाणे। एवं—पंचिंदियाणं जाव वेमाणियाणं। ९७–तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा—मणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। ९८- संजयमणुस्साणं तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहामणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। ९९-तिविहे दुष्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहामणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे। एवं पंचिंदियाणं जाव वेमाणियाणं।
प्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है—मनःप्रणिधान, वचनप्रणिधान और कायप्रणिधान (९६)। ये तीनों प्रणिधान पंचेन्द्रियों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में जानना चाहिए। सुप्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है—मनःसुप्रणिधान, वचनसुप्रणिधान और कायसुप्रणिधान (९७) । संयत मनुष्यों के तीन सुप्रणिधान कहे गये हैं—मनःसुप्रणिधान, वचनसुप्रणिधान और कायसुप्रणिधान (९८)। दुष्प्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है—मनःदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान और कायदुष्प्रणिधान । ये तीनों दुष्प्रणिधान सभी पंचेन्द्रियों में यावत् वैमानिक देवों में पाये जाते हैं (९९)।
विवेचन— उपयोग की एकाग्रता को प्रणिधान कहते हैं। यह एकाग्रता जब जीत-संरक्षण आदि शुभ व्यापार रूप होता है, तब उसे सुप्रणिधान कहा जाता है और जीव-घात आदि अशुभ व्यापार रूप होती है, तब उसे दुष्प्रणिधान कहा जाता है। यह एकाग्रता केवल मानसिक ही नहीं होती, बल्कि वाचनिक और कायिक भी होती है, इसीलिए उसके भेद बतलाये गये हैं।