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द्वितीय स्थान–चतुर्थ उद्देश
वा, तं जहा— तसकायणिव्वत्तिए चेव, थावरकायणिव्वत्तिए चेव।
जीवों ने द्विस्थान-निर्वर्तित पुद्गलों को पापकर्म के रूप में चय किया है, करते हैं और करेंगे त्रसकायनिर्वर्तित (त्रसकाय के रूप में उपार्जित) और स्थावरकायनिर्वर्तित (स्थावरकाय के रूप में उपार्जित) (४६१)।
४६२- जीवाणं दवाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए उवचिणिंसु वा उवचिणंति वा, उवचिणिस्संति वा, बंधिंसु वा बंधेति वा बंधिस्संति वा, उदीरिंसु वा उदीरेंति वा उदीरिस्संति वा, वेदेंसु वा वेदेति वा वेदिस्संति वा, णिजरिंसु वा णिजरेंति वा णिजरिस्संति वा, तं जहा तसकायणिव्वत्तिए चेव, थावरकायणिव्वत्तिए चेव।
__ जीवों ने द्विस्थान-निर्वर्तित पुद्गलों का पाप-कर्म के रूप में उपचय किया है, करते हैं और करेंगे। उदीरण किया है, करते हैं और करेंगे। वेदन किया है, करते हैं और करेंगे। निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे त्रसकायनिर्वर्तित और स्थावरकाय-निर्वर्तित (४६२)।
विवेचन–चय अर्थात् कर्म-परमाणुओं को ग्रहण करना और उपचय का अर्थ है गृहीत. कर्म-परमाणुओं की अबाधाकाल के पश्चात् निषेक-रचना । उदीरण का अर्थ अनुदय-प्राप्त कर्म-परमाणुओं को अपकर्षण कर उदय में क्षेपण करना उदयाबलिका में 'खींच' लाना। उदय-प्राप्त कर्म-परमाणुओं के फल भोगने को वेदन कहते हैं
और कर्म-फल भोगने के पश्चात् उनके झड़ जाने को निर्जरा या निर्जरण कहते हैं। कर्मों के ये सभी चय-उपचयादि को त्रसकाय और स्थावरकाय के जीव ही करते हैं, अतः उन्हें त्रसकाय-निवर्तित और स्थावरकाय-निर्वर्तित कहा गया है। पुद्गल-पद
४६३ - दुपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। ४६४ - दुपदेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। ४६५- एवं जाव दुगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता।
द्विप्रदेशी पुद्गल-स्कन्ध अनन्त हैं (४६३)। द्विप्रदेशावगाढ (आकाश के दो प्रदेशों में रहे हुए) पुद्गल अनन्त हैं (४६४)। इसी प्रकार दो समय की स्थिति वाले और दो गुण वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं, शेष सभी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के दो गुण वाले यावत् दो गुण रूक्ष पुद्गल अनन्त-अनन्त कहे गये हैं (४६५)।
चतुर्थ उद्देश समाप्त ॥ स्थानाङ्ग का द्वितीय स्थान समाप्त ॥