Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
कहते हैं । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमविशेष से उत्पन्न होने वाला और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से सीमित, भूत-भविष्यत् और वर्तमानकालवर्ती रूपी पदार्थों को जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है । इन्द्रियादि की सहायता के बिना ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमविशेष से उत्पन्न हुए एवं दूसरों के मन सम्बन्धी पर्यायों को प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान को मनःपर्याय या मनः पर्यव ज्ञान कहते हैं । ज्ञानावरणकर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से त्रिलोक और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों को और उनके गुण-पर्यायों को जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं ।
उक्त पांचों ज्ञानों का इस द्वितीय स्थानक में उत्तरोत्तर दो-दो भेद करते हुए निरूपण किया गया है। प्रस्तुत ज्ञानपद में ज्ञान के दो भेद कहे गये हैं— प्रत्यक्षज्ञान और परोक्षज्ञान । पुनः प्रत्यक्षज्ञान के दो भेद कहे गये हैंकेवलज्ञान और नोकेवलज्ञान । पुनः केवलज्ञान के भी भवस्थ केवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान आदि भेद कर उत्तरोत्तर दो-दो के रूप में अनेक भेद कहे गये हैं। तत्पश्चात् नोकेवलज्ञान के दो भेद कहे गये हैं—– अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान । पुन: इन दोनों ज्ञानों के भी दो-दो के रूप में अनेक भेद कहे गये हैं, जिनका स्वरूप ऊपर दिया जा चुका है।
इसी प्रकार परोक्षज्ञान के भी दो भेद कहे गये हैं— आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान। पुनः आभिनिबोधिक ज्ञान के भी दो भेद कहे गये हैं— श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । श्रुत शास्त्र को कहते हैं। जो वस्तु पहिले शास्त्र के द्वारा जानी गई है, पीछे किसी समय शास्त्र के आलम्बन बिना ही उसके संस्कार के आधार से उसे जानना श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान है। जैसे किसी व्यक्ति ने आयुर्वेद को पढ़ते समय यह जाना कि त्रिफला के सेवन से कब्ज दूर होती है। अब जब कभी उसे कब्ज होती है, तब उसे त्रिफला के सेवन की बात सूझ जाती है। उसका यह ज्ञान श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान है। जो विषय शास्त्र के पढ़ने से नहीं, किन्तु अपनी सहज विलक्षण बुद्धि के द्वारा जाना जाय, उसे अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं ।
श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान के दो भेद कहे गये हैं— अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह | अर्थ नाम वस्तु या द्रव्य का है। किसी भी वस्तु के नाम, जाति आदि के बिना अस्तित्व मात्र का बोध होना अर्थावग्रह कहलाता है । अर्थावग्रह से पूर्व असख्यात समय तक जो अव्यक्त किंचित् ज्ञानमात्रा होती है उसे व्यञ्जनावग्रह कहते हैं । द्विस्थानक के अनुरोध से सूत्रकार ने उनके उत्तर भेदों को नहीं कहा है। नन्दीसूत्र के अनुसार मतिज्ञान के समस्त उत्तर भेद ३३६ होते हैं ।
प्रस्तुत सूत्र में अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान के भी दो भेद कहे गये हैं— अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह। नन्दीसूत्र में इसके चार भेद हैं औत्पत्तिकी बुद्धि, वैनयिकी बुद्धि, कार्मिक बुद्धि और पारिणामिकी बुद्धि । ये चारों बुद्धियां भी अवग्रह आदि रूप में उत्पन्न होती हैं। इनका विशेष वर्णन नन्दीसूत्र में किया गया है।
परोक्षज्ञान का दूसरा भेद जो श्रुतज्ञान है, उसके मूल में दो भेद कहे गये हैं— अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य। तीर्थंकर की दिव्यध्वनि को सुनकर गणधर आचाराङ्ग आदि द्वादश अङ्गों की रचना करते हैं, उस श्रुत को अङ्गप्रविष्ट श्रुत कहते हैं। गणधरों के पश्चात् स्थविर आचार्यों के द्वारा रचित श्रुत को अङ्गबाह्य श्रुत कहते हैं। इस द्विस्थानक में अङ्गबाह्य श्रुत के दो भेद कहे गये हैं—आवश्यक सूत्र और आवश्यक - व्यतिरिक्त (भिन्न)। आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुत के भी दो भेद हैं—कालिक और उत्कालिक। दिन और रात के प्रथम और अन्तिम पहर में पढ़े जाने