Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थान द्वितीय उद्देश तिर्यंच इन दो का गमन होता है और वहाँ से आगमन भी उक्त दोनों जाति के जीवों में ही होता है।
१७४— एवं असुरकुमारा वि, णवरं से चेव णं से असुरकुमारे असुरकुमारत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोणियत्ताए, वा गच्छेज्जा। एवं सव्वदेवा।
इसी प्रकार असुरकुमार भवनपति देव भी दो गति और दो आगति वाले कहे गए हैं। विशेष—असुरकुमार देव असुरकुमार-पर्याय को छोड़ता हुआ मनुष्य पर्याय में या तिर्यग्योनि में जाता है। इसी प्रकार सर्व देवों की गति और आगति जानना चाहिए (१७४)।
विवेचन– यद्यपि असुरकुमारादि सभी देवों की समान्य से दो गति और दो आगति का निर्देश इस सूत्र में किया गया है, तथापि यह विशेष ज्ञातव्य है कि देवों में मनुष्य और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च ही मर कर उत्पन्न होते हैं, किन्तु भवनत्रिक (भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क) और ईशान कल्प तक के देव मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के सिवाय एकेन्द्रिय पृथ्वी, जल और वनस्पति काय में भी उत्पन्न होते हैं।
१७५- पुढविकाइया दुगतिया दुयागतिया पण्णत्ता, तं जहा— पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववजमाणे पुढविकाइएहिंतो वा णो-पुढविकाइएहिंतो वा उववजेजा। से चेव णं से पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा णो-पुढविकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा। १७६- एवं जाव मणुस्सा।
पृथ्वीकायिक जीव दो गति और दो आगति वाले कहे गये हैं। यथा—पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय में उत्पन्न होता हुआ पृथ्वीकायिकों से अथवा नो-पृथ्वीकायिकों से आकर उत्पन्न होता है। वही पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकता को छोड़ता हुआ पृथ्वीकायिक में, अथवा नो-पृथ्वीकायिकों (अन्य अप्कायिकादि) में जाता है (१७५)। इसी प्रकार यावत् मनुष्यों तक दो गति और दो आगति कही गई हैं । अर्थात् अप्काय से लेकर मनुष्य तक के सभी दण्डकवाले जीव अपने-अपने काय से अथवा अन्य कायों से आकर उस-उस काय में उत्पन्न होते हैं और वे अपनी-अपनी अवस्था छोड़कर अपने-अपने उसी काय में अथवा अन्य कायों में जाते हैं (१७६)। दण्डक-मार्गणा-पद
१७७– दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं जहा भवसिद्धिया चेव, अभवसिद्धिया चेव जाव वेमाणिया। १७८- दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं जहा—अणंतरोववण्णगा चेव, परंपरोववण्णगा चेव जाव वेमाणिया। १७९- दुविहा णेरड्या पण्णत्ता, तं जहा—गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव जाव वेमाणिया। १८०- दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं जहा—पढमसमओववण्णगा चेव, अपढमसमओववण्णगा चेव जाव वेमाणिया। १८१-दुविहा णेरड्या पण्णत्ता, तं जहा आहारगा चेव, अणाहारगा चेव। एवं जाव वेमाणिया। १८२- दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं जहा उस्सासगा चेव, णोउस्सासगा चेव जाव वेमाणिया। १८३- दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं जहा सइंदिया चेव, अणिंदिया चेव जाव वेमाणिया। १८४ - दुविहा णेरड्या पण्णत्ता, तं जहा—पजत्तगा चेव, अपजत्तगा चेव जाव वेमाणिया।