Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थान तृतीय उद्देश
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उनके मरण को उद्वर्तन कहा गया है तथा ज्योतिष्क और विमानवासी देव मरण कर ऊपर से नीचे मध्यलोक में जन्म लेते हैं, अतः उनके मरण को च्यवन कहा गया है। मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का जन्म माता के गर्भ से होता है, अत: उसे गर्भ-व्युत्क्रांति कहते हैं। गर्भस्थ-पद
२५४- दोण्हं गब्भत्थाणं आहारे पण्णत्ते, तं जहा मणुस्साणं चेव, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। २५५- दोण्हं गब्भत्थाणं वुड्डी पण्णत्ता, तं जहा—मणुस्साणं चेव, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। २५६- दोण्हं गब्भत्थाणं-णिवुड्डी विगुव्वणा गतिपरियाए समुग्घाते कालसंजोगे आयाती मरणे पण्णत्ते, तं जहा—मणुस्साणं चेव, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। २५७- दोण्हं छविपव्वा पण्णत्ता, तं जहा—मणुस्साणं चेव, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। २५८- दो सुक्कसोणितसंभवा पण्णत्ता, तं जहा- मणुस्सा चेव, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव।
दो प्रकार के जीवों का गर्भावस्था में आहार कहा गया है—मनुष्यों का और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का (इन दो के सिवाय अन्य जीवों का गर्भ होता ही नहीं है) (२५४)।दो प्रकार के गर्भस्थ जीवों की गर्भ में रहते हुए शरीरवृद्धि कही गई है—मनुष्यों की और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की (२५५)। दो गर्भस्थ जीवों को गर्भ में रहते हुए हानि, विक्रिया, गतिपर्याय, समुद्घात, कालसंयोग, गर्भ से निर्गमन और गर्भ में मरण कहा गया है—मनुष्यों का तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का (२५६)। दो के चर्म-युक्त पर्व (सन्धि-बन्धन) कहे गये हैं—मनुष्यों के और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों के (२५७) । दो शुक्र (वीर्य) और शोणित (रक्त-रज) से उत्पन्न कहे गये हैं—मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव (२५८)।
स्थिति-पद
२५९- दुविहा ठिती पण्णत्ता, तं जहा कायद्विती चेव, भवट्टिती चेव। २६०-दोण्हं कायट्ठिती पण्णत्ता, तं जहा—मणुस्साणं चेव, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। २६१– दोण्हं भवट्टिती पण्णत्ता, तं जहा–देवाणं चेव, णेरइयाणं चेव।
स्थिति दो प्रकार की कही गई है—कायस्थिति (एक ही काय में लगातार जन्म लेने की काल-मर्यादा) और भवस्थिति (एक ही भव की काल-मर्यादा) (२५९)। दो की कायस्थिति कही गई है—मनुष्यों की और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की (२६०)। दो की भवस्थिति कही गई है—देवों की और नारकों की (२६१)।
विवेचनपंचेन्द्रिय तिर्यंचों के अतिरिक्त एकेन्द्रिय आदि तिर्यंचों की भी कायस्थिति होती है। इस सूत्र से उनकी कायस्थिति का निषेध नहीं समझना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र अन्ययोगव्यवच्छेदक नहीं, अयोगव्यवच्छेदक है अर्थात् दो की कायस्थिति का विधान ही करता है, अन्य की कायस्थिति का निषेध नहीं करता। देव और नारक जीव मर कर पुनः देव-नारक नहीं होते, अतः उनकी कायस्थिति नहीं होती, मात्र भवस्थिति ही होती है। आयु-पद
२६२– दुविहे आउए पण्णत्ते, तं जहा—अद्धाउए चेव, भवाउए चेव। २६३– दोण्हं अद्धाउए