Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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३९२ –— दो रासी पण्णत्ता, तं जहा जीवरासी चेव, अजीवरासी चेव ।
राशि दो प्रकार की कही गई है— जीवराशि और अजीवराशि (३९२) ।
कर्म-पद
स्थानाङ्गसूत्रम्
३९३ – दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा—पेज्जबंधे चेव, दोसबंधे बेव । ३९४ - जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं बंधंति, तं जहा— रागेण चेव, दोसेण चेव । ३९५ जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं उदीरेंति, तं जहा— अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाए । ३९६— जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं वेदेंति, तं जहा— अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाए । ३९७ — जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं णिज्जरेंति, तं जहा— अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाए ।
बन्ध दो प्रकार का कहा गया है— प्रेयोबन्ध और द्वेषबन्ध ( ३९३) । जीव दो स्थानों से पापकर्म का बन्ध करते हैं— राग से और द्वेष से (३९४) । जीव दो स्थानों से पापकर्म की उदीरणा करते हैं— आभ्युपगमिकी वेदना से और औपक्रमिकी वेदना से ( ३९५) । जीव दो स्थानों से पापकर्म का वेदन करते हैं— आभ्युपगमिकी वेदना से और औपक्रमिकी वेदना से (३९६) । जीव दो स्थानों से पापकर्म की निर्जरा करते हैं— आभ्युपगमिकी वेदना से और औपक्रमिकी वेदना से (३९७) ।
विवेचन — कर्म-फल के अनुभव करने को वेदन या वेदना कहते हैं । वह दो प्रकार की होती है— आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी । अभ्युपगम का अर्थ है – स्वयं स्वीकार करना । तपस्या किसी कर्म के उदय से नहीं होती, किन्तु युक्ति-पूर्वक स्वयं स्वीकार की जाती है। तपस्या- काल में जो वेदना होती है, उसे आभ्युपगमिकी वेदना कहते हैं । उपक्रम का अर्थ है— कर्म की उदीरणा का कारण । शरीर में उत्पन्न होने वाले रोगादि की वेदना को औपक्रमिकी वेदना कहते हैं। दोनों प्रकार की वेदना निर्जरा का कारण है। जीव राग और द्वेष के द्वारा जो कर्मबन्ध करता है, उसका उदय, उदीरणा या निर्जरा उक्त दो प्रकारों से होती है।
आत्म-निर्याण-पद
३९८ – दोहिं ठाणेहिं आता सरीरं फुसित्ता णं णिज्जाति, तं जहा — देसेणवि आता सरीरं फुसित्ता णं णिज्जाति, सव्वेणवि आता सरीरगं फुसित्ता णं णिज्जाति । ३९९ – दोहिं ठाणेहिं आता सरीरं फुरित्ता णं णिज्जाति, तं जहा — देसेणवि आता सरीरं फुरित्ता णं णिज्जाति, सव्वेणवि आता सरीर फुरिता णं णिज्जाति । ४०० – - दोहिं ठाणेहिं आता सरीरं फुडित्ता णं णिज्जाति, तं जहा — देसेणवि आता सरीरं फुडित्ता णं णिज्जाति, सव्वेणवि आता सरीरगं फुडित्ता णं णिज्जाति । ४०१ – दोहिं ठाणेहिं आता सरीरं संवट्टइत्ता णं णिज्जाति, तं जहा— देसेणवि आता सरीरं संवट्टइत्ता णं णिज्जाति, सव्वेणवि आता सरीरगं संवट्टइत्ता णं णिज्जाति । ४०२—– दोहिं ठाणेहिं आता सरीरं णिवट्टइत्ता णं णिज्जाति, तं जहा देसेणवि आता सरीरं णिवट्टइत्ता णं णिज्जाति, सव्वेणवि आता सरीरगं णिवट्टइत्ता णं णिजाति ।