Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
और दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम आवश्यक है। मुण्डित होकर अनगारिता पाने, ब्रह्मचर्यवासी होने, संयम और संवर से युक्त होने के लिए— चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम और क्षयोपशम आवश्यक है। विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए आभिनिबोधिक ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम, विशुद्ध श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम, विशुद्ध अवधिज्ञान की प्राप्ति के लिए अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम और विशुद्ध मनः पर्यवज्ञान की प्राप्ति के लिए मनः पर्यवज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है तथा इन सब के साथ दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम की भी आवश्यकता है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपशम तो केवल मोहकर्म का ही होता है तथा क्षयोपशम चार घातिकर्मों का ही होता है । उदय को प्राप्त कर्म के क्षय से तथा अनुदय-प्राप्त कर्म के उपशम से होने वाली विशिष्ट अवस्था को क्षयोपशम कहते हैं। मोहकर्म के उपशम का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है । किन्तु क्षयोपशम का काल अन्तर्मुहूर्त से लगाकर सैकड़ों वर्षों तक का कहा गया है।
औपमिक-काल- पद
४०५- - दुविहे अद्धोवमिए पण्णत्ते तं जहा—पलिओवमे चेव, सागरोवमे चेव । से किं तं पलिओवमे ? पलिओव संग्रहणी - गाथा
जं जोयणविच्छिण्णं, पल्लं एगाहियप्परूढाणं । होज्ज णिरंतरणिचितं, भरितं वालग्गकोडीणं ॥ १ ॥ वाससए वाससए, एक्केक्के अवहडंमि जो कालो । सो कालो बोद्धव्वो, उवमा एगस्स पल्लस्स ॥ २ ॥ एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दस गुणिता । तं सागरोवमस्स उ, एगस्स भवे परीमाणं ॥ ३ ॥ मिक अद्धकाल दो प्रकार का कहा गया है— पल्योपम और सागरोपम। भन्ते ! पल्योपम किसे कहते हैं? संग्रहणी गाथा
एक योजन विस्तीर्ण गड्ढे को एक दिन से लेकर सात दिन तक के उगे हुए (मेष के) वालग्रों के खण्डों से ठसाठस भरा जाय। तदनन्तर सौ-सौ वर्षों में एक-एक वालाग्रखण्ड के निकालने पर जितने काल में वह गड्ढा खाली होता है, उतने काल को पल्योपम कहा जाता है । दश कोडाकोडी पल्योपमों का एक सागरोपम काल कहा जाता है।
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पाप-पद
४०६ – - दुविहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा— आयपइट्ठिए चेव, परपइट्ठिए चेव । ४०७– दुविहे माणे, दुविहा माया, दुविहे लोभे, दुविहे पेज्जे, दुविहे दोसे, दुविहे कलहे, दुविहे अब्भक्खाणे, दुविहे पेणे, दुविहे परपरिवाए, दुविहा अरतिरती, दुविहे मायामोसे, दुविहे मिच्छादंसणसल्ले पण्णत्ते, तं जहा— आयपइट्ठिए चेव, परपइट्ठिए चेव । एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ।