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द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश
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(९३)। परम्परसिद्ध केवलज्ञान भी दो प्रकार का कहा गया है—एक परम्परसिद्ध का केवलज्ञान और अनेक परम्परसिद्धों का केवलज्ञान (९४)।
९५- णोकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—ओहिणाणे चेव, मणपजवणाणे चेव। ९६ओहिणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा भवपच्चइए चेव, खओवसमिए चेव। ९७- दोण्हं भवपच्चइए पण्णत्ते, तं जहा देवाणं चेव, णेरइयाणं चेव। ९८- दोण्हं खओवसमिए पण्णत्ते, तं जहामणुस्साणं चेव, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। ९९- मणपज्जवणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाउज्जुमती चेव, विउलमती चेव।
नोकेवलप्रत्यक्षज्ञान दो प्रकार का कहा गया है—अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान (९५)। अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है—भवप्रत्ययिक (जन्म के साथ उत्पन्न होने वाला) और क्षायोपशमिक (अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से तपस्या आदि गुणों के निमित्त से उत्पन्न होने वाला) (९६)। दो गति के जीवों को भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहा गया है—देवताओं को और नारकियों को (९७)। दो गति के जीवों को क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहा गया है मनुष्यों को और पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकों को (९८)। मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार का कहा गया हैऋजुमति (मानसिक चिन्तन के पुद्गलों को सामान्य रूप से जानने वाला) मनःपर्यवज्ञान तथा विपुलमति (मानसिक चिन्तन के पुद्गलों की नाना पर्यायों को विशेष रूप से जानने वाला) मनःपर्यवज्ञान (९९)।
१००– परोक्खे णाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—आभिणिबोहियणाणे चेव, सुयणाणे चेव। १०१– आभिणिबोहियणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—सुयणिस्सिए चेव, असुयणिस्सिए चेव। १०२- सुयणिस्सिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—अत्थोग्गहे चेव, वंजणोग्गहे चेव। १०३असुयणिस्सिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–अत्थोग्गहे चेव, वंजणोग्गहे चेव। १०४ - सुयणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—अंगपविढे चेव, अंगबाहिरे चेव। १०५ - अंगबाहिरे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआवस्सए चेव, आवस्सयवतिरित्ते चेव। १०६- आवस्सयवतिरित्ते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—कालिए चेव, उक्कालिए चेव।
परोक्षज्ञान दो प्रकार का कहा गया है आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान (१००)। आभिनिबोधिक ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है— श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित (१०१)। श्रुतनिश्रित दो प्रकार का कहा गया है—अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह (१०२)। अश्रुतनिश्रित दो प्रकार का कहा गया है—अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह (१०३)। श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा गया है—अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य (१०४)। अंगबाह्य श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा गया है—आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त (१०५)। आवश्यकव्यतिरिक्त दो प्रकार का कहा गया है—कालिक (दिन और रात के प्रथम और अन्तिम प्रहर में पढ़ा जाने वाला) श्रुत और उत्कालिक (अकाल के सिवाय सभी प्रहरों में पढ़ा जाने वाला) श्रुत (१०६)।
विवेचन— वस्तुस्वरूप को जानने वाले आत्मिक गुण को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान के पांच भेद कहे गये हैंआभिनिबोधिक या मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इन्द्रिय और मन के द्वारा होने वाले ज्ञान को आभिनिबोधिक या मतिज्ञान कहते हैं। मतिज्ञानपूर्वक शब्द के आधार से होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान