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द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश
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विवेचन— यहाँ सूक्ष्म और बादर का अर्थ छोटा या मोटा अभीष्ट नहीं है, किन्तु जिनके सूक्ष्म नामकर्म का उदय हो उन्हें सूक्ष्म और जिनके बादर नामकर्म का उदय हो उन्हें बादर जानना चाहिए। बादरजीव, भूमि, वनस्पति आदि के आधार से रहते हैं किन्तु सूक्ष्म जीव निराधार और सारे लोक में व्याप्त हैं। सूक्ष्म जीवों के शरीर का आघातप्रतिघात और ग्रहण नहीं होता। किन्तु स्थूल जीवों के शरीर का आघात, प्रतिघात और ग्रहण होता है।
प्रत्येक जीव नवीन भव में उत्पन्न होने के साथ अपने शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, जिससे उसके शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा आदि का निर्माण होता है। उन पुद्गलों के ग्रहण करने की शक्ति अन्तर्मुहूर्त में प्राप्त हो जाती है। ऐसी शक्ति से सम्पन्न जीवों को पर्याप्तक कहते हैं। और जब तक उस शक्ति की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती है, तब तक उन्हें अपर्याप्तक कहा जाता है। द्रव्य-पद
१३८- दुविहा दव्वा पण्णत्ता, तं जहा—परिणया चेव, अपरिणया चेव।
द्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं—परिणत (बाह्य कारणों से रूपान्तर को प्राप्त) और अपरिणत (अपने स्वाभाविक रूप से अवस्थित) (१३८)। जीव-निकाय-पद
। १३९- दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं जहा -गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव। १४० - दुविहा आउकाइया पण्णत्ता, तं जहा- गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव। १४१- दुविहा तेउकाइया पण्णत्ता, तं जहा—गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव। १४२– दुविहा वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा—गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव। १४३ - दुविहा वणस्एइकाइया पण्णत्ता, तं जहा—गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्णगा चेव।
पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं—गतिसमापन्नक (एक भव से दूसरे भव में जाते समय अन्तराल गति में वर्तमान) और अगतिसमापनक (वर्तमान भव में अवस्थित) (१३९)। अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं—गतिसमापन्नक और अगतिसमापन्नक (१४०)। तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं—गतिसमापनक और अगतिसमापनक (१४१)। वायुकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं गतिसमापनक
और अगतिसमापन्नक (१४२) वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं -गतिसमापन्नक और अगतिसमापन्नक (१४३)। द्रव्य-पद
१४४- दुविहा दव्वा पण्णत्ता, तं जहा—गतिसमावण्णगा चेव, अगतिसमावण्ण्गा चेव।
द्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं-गतिसमापन्नक (गमन में प्रवृत्त) और अगतिसमापन्नक (अवस्थित) (१४४)। जीव-निकाय-पद
१४५ - दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं जहा- अणंतरोगाढा चेव, परंपरोगाढा चेव। १४६–