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द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया, तं जहा–रागेण चेव, दोसेण चेव जाव वेमाणियाणं। १६३–णेरइयाणं दुवाणणिव्वत्तिए सरीरगे पण्णत्ते, तं जहा रागणिव्वत्तिए चेव, दोसणिव्वत्तिए चेव जाव वेमाणियाणं।
नारकों के दो शरीर कहे गये हैं—आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर कार्मण शरीर है और बाह्य वैक्रिय शरीर है (१५३)। देवों के दो शरीर कहे गये हैं—आभ्यन्तर कार्मण शरीर (सर्वकर्मों का बीजभूत शरीर) और बाह्य वैक्रिय शरीर (१५४)। पृथ्वीकायिक जीवों के दो शरीर कहे गये हैं—आभ्यन्तर कार्मणशरीर और बाह्य औदारिक शरीर। इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के दो-दो शरीर होते हैंआभ्यन्तर कार्मणशरीर और बाह्य औदारिक शरीर (१५५)। द्वीन्द्रिय जीवों के दो शरीर होते हैं—आभ्यन्तर कार्मण शरीर और बाह्य अस्थि, मांस और रुधिर युक्त औदारिक शरीर (१५६)। त्रीन्द्रिय जीवों के दो शरीर होते हैंआभ्यन्तर कार्मण शरीर और बाह्य अस्थि, मांस और रक्तमय औदारिक शरीर (१५७)। चतुरिन्द्रिय जीवों के दो शरीर होते हैं—आभ्यन्तर कार्मणशरीर और बाह्य औदारिक शरीर (१५८)। पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के दो शरीर होते हैं—आभ्यन्तर कार्मण शरीर और बाह्य अस्थि, मांस, रुधिर, स्नायु एवं शिरायुक्त औदारिक शरीर (१५९)। मनुष्यों के दो शरीर होते हैं—आभ्यन्तर कार्मण शरीर और बाह्य अस्थि, मांस, रुधिर, स्नायु एवं शिरायुक्त औदारिक शरीर (१६०)। .
पूर्व शरीर का त्याग करके जीव जब नवीन उत्पत्तिस्थान की ओर जाता है और उसका उत्पत्तिस्थान विश्रेणि में होता है तब वह विग्रहगति-समापन्नक कहलाता है। ऐसे नारक जीवों के दो शरीर कहे गये हैं तैजसशरीर और कार्मण शरीर। इसी प्रकार विग्रहगतिसमापन्नक वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में दो-दो शरीर जानना चाहिए (१६१)। नारकों के दो स्थानों (कारणों) से शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होती है—राग से और द्वेष से। इसी प्रकार वैमानिक देवों तक भी सभी दण्डकों में जानना चाहिए (१६२)। नारकों के शरीर की निष्पत्ति (पूर्णता) दो स्थानों से होती है—राग से और द्वेष से (१६३)।
विवेचन- संसारी जीवों के शरीर की उत्पत्ति और निष्पत्ति का मूल कारण राग-द्वेष के द्वारा उपार्जित अमुक-अमुक कर्म ही हैं, तथापि यहाँ कार्य में कारण का उपचार करके राग और द्वेष से ही शरीर की उत्पत्ति और निष्पत्ति कही गई है। काय-पद
१६४-दो काया पण्णत्ता, तं जहा–तसकाए चेव, थावरकाए चेव। १६५- तसकाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—भवसिद्धिए चेव, अभवसिद्धिए चेव। १६६- थावरकाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा भवसिद्धिए चेव, अभवसिद्धिए चेव।
काय दो प्रकार के कहे गये हैं—त्रसकाय और स्थावरकाय (१६४)। त्रसकाय दो प्रकार का कहा गया हैभव्यसिद्धिक (भव्य) और अभव्यसिद्धिक (अभव्य) (१६५)। स्थावरकायिक दो प्रकार का कहा गया हैभव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक (१६६) दिशाद्विक-करणीय पद
१६७- (दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पव्वावित्तए—पाईणं