Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश
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परिग्रह–इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को उत्पन्न अर्थात् प्राप्त नहीं कर पाता (४७)। आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध श्रुतज्ञान को उत्पन्न नहीं कर पाता (४८)। आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध अवधिज्ञान को उत्पन्न नहीं कर पाता (४९)। आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना विशुद्ध मनःपर्यवज्ञान को उत्पन्न नहीं कर पाता (५०)। आरम्भ और परिग्रह —इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं कर पाता (५१)। आरम्भ-परिग्रह-परित्याग-पद
५२- दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तं जहाआरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ५३-दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया केवलं बोधिं बुज्झेज्जा, तं जहाआरंभे चेव, परिग्गहे चेव। (५४- दो ठाणाई परियाणेत्ता आया केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइज्जा, तं जहा— आरंभे चेव, परिग्गहे चेव।) ५५-दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, तं जहा- आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ५६-दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया केवलेणं संजमेणं संजमेजा, तं जहा- आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ५७-दो ठाणाइं परियारीत्ता आया केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ५८-दो ठाणाइं परियाोत्ता आया केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेजा, तं जहा–आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ५९-दो ठ, गाई परियाणेत्ता आया केवलं सुयणाणं उप्पाडेजा, तं जहा आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ६०-दो ठाणाई परियाणेत्ता आया केवलं ओहिणाणं उप्पाडेजा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ६१दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेजा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ६२- दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया केवलं केवलणाणं उप्पाडेजा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव।
आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्यागकर आत्मा केवलि-प्रज्ञप्त धन को सुन पाता है (५२)। आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा विशुद्धबोधि का अनुभव करता है (५३) । (आरम्भ और परिग्रह—इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा मुण्डित होकर और गृहवास का त्यागकर सम्पूर्ण अनगारिता को पाता है (५४)।) आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त करता है (५५)। आरम्भ और परिग्रह — इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा सम्पूर्ण संयम से संयुक्त होता है (५६)। आरम्भ और परिग्रह - इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा सम्पूर्ण संवर से संवृत्त होता है (५७)। आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को उत्पन्न (प्राप्त) करता है (५८)। आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा विशुद्ध श्रुतज्ञान को उत्पन्न करता है (५९)। आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर विशुद्ध अवधिज्ञान को उत्पन्न करता है (६०)। आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा विशुद्ध मन:पर्यवज्ञान को उत्पन्न करता है (६१)। आरम्भ