Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश पाया जाता है। जैसे— 'दिट्ठिया' क्रिया के अभयदेवसूरि ने 'दृष्टिजा' और 'दृष्टिका' ये संस्कृत रूप बताकर उनके अर्थ में कुछ अन्तर किया है। इसी प्रकार 'पुट्ठिया' इस प्राकृत नाम का 'पृष्ठिजा, पृष्ठिका, स्पृष्टिजा और स्पृष्टिका' ये चार संस्कृत रूप बताकर उनके अर्थ में कुछ विभिन्नता बतायी है। पर हमने तत्त्वार्थसूत्रगत पाठ को सामने रख कर उनका अर्थ किया है जो स्थानाङ्गटीका से भी असंगत नहीं है। वहाँ पर 'दिट्ठिया' के स्थान पर 'दर्शन क्रिया' और 'पुट्ठिया' के स्थान पर 'स्पर्शन क्रिया' का नामोल्लेख है।
सामन्तोपनिपातिकी क्रिया का अर्थ स्थानाङ्ग की टीका में तथा तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में बिल्कुल भिन्नभिन्न पाया जाता है। स्थानाङ्गटीका के अनुसार इसका अर्थ-जन-समुदाय के मिलन से होने वाली क्रिया है और तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं के अनुसार इसका अर्थ—पुरुष, स्त्री और पशु आदि से व्याप्त स्थान में मल-मूत्रादि का त्याग करना है। हरिभद्रसूरि ने इसका अर्थ स्थण्डिल आदि में भक्त आदि का विसर्जन करना किया है।
स्थानाङ्गसूत्र का 'णेसत्थिया' प्राकृत पाठ मान कर संस्कृत रूप 'नैसृष्टिकी' दिया और तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों ने 'णेसग्गिया' पाठ मानकर 'निसर्ग क्रिया' यह संस्कृत रूप दिया है। पर वस्तुतः दोनों के अर्थ में कोई भेद नहीं है।
प्राकृत 'आणवणिया' का संस्कृत रूप 'आज्ञापनिका' मानकर आज्ञा देना और 'आनयनिका' मानकर 'मंगवाना' ऐसे दो अर्थ किये हैं। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों ने 'आज्ञाव्यापादिका' संस्कृत रूप मान कर उसका अर्थ—'शास्त्रीय आज्ञा का अन्यथा निरूपण करना' किया है।
इसी प्रकार कुछ और भी क्रियाओं के अर्थों में कुछ न कुछ भेद दृष्टिगोचर होता है, जिससे ज्ञात होता है कि क्रियाओं के मूल प्राकृत नामों के दो पाठ रहे हैं और तदनुसार उनके अर्थ भी भिन्न-भिन्न किये गये हैं। जिनमें से एक परम्परा स्थानाङ्ग सूत्र के व्याख्याकारों की और दूसरी परम्परा तत्त्वार्थसूत्र से टीकाकारों की ज्ञात होती है। विशेष जिज्ञासुओं को दोनों की टीकाओं का अवलोकन करना चाहिए। गर्हा-पद
३८-दुविहा गरिहा पण्णत्ता, तं जहा—मणसा वेगे गरहति, वयसा वेगे गरहति। अहवागरहा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–दीहं वेगे अद्धं गरहति, रहस्सं वेगे अद्धं गरहति।
गर्दा दो प्रकार की कही गई है— कुछ लोग मन से गर्दा (अपने पाप की निन्दा) करते हैं (वचन से नहीं) और कुछ लोग वचन से गर्दा करते हैं (मन से नहीं)। अथवा इस सूत्र का यह आशय भी निकलता है कि कोई न केवल मन से अपितु वचन से भी गर्दा करते हैं और कोई न केवल वचन से किन्तु मन से भी गर्दा करते हैं। गर्दा दो प्रकार की कही गई है— कुछ लोग दीर्घकाल तक गर्दा करते हैं और कुछ लोग अल्प काल तक गर्दा करते हैं (३८)। प्रत्याख्यान-पद
३९- दुविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा—मणसा वेगे पच्चक्खाति, वयसा वेगे पच्चक्खाति। अहवा-पच्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—दीहं वेगे अद्धं पच्चक्खाति, रहस्सं वेगे अद्धं पच्चक्खाति।