Book Title: Navtattva Vistararth
Author(s): Jain Granth Prakashak Sabha
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ata नवतत्त्वविस्तरार्थः श्री जैनग्रन्थप्रकाशकसभा अमदावाद. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AESE SE NESE blesleycales పోడవ ॥ श्री ॥ स्वपरसमयपारावारपारीण शासन सम्राट्तीर्थरक्षकतपोगच्छाधिराज भट्टारकाचार्यश्रीविजय नेमिसृरिभगवद्भयो नमः ॥ ॥ नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ यन्त्र - परिशिष्ट- टिप्पण्यादिविभूषितः ॥ नकल १०००, प्रकाशक श्री जैन ग्रन्थप्रकाशकसभानाओनररी--सेक्रेटरी, वाडीलाल बाबुलाल शाह. atrizrवाडी- अमदावाद. शुल प्रथमावृत्ति वीर सं. २४५० सन्ने १९२३ आ पुस्तक जैन एडवोकेट मी. प्रेसमा शा. चीमनलाल गोकलदासे छापं, ठे; घीकांटा जेशंगभाइनीवाडी अमदावाद. भूल्य. १-००--० X Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारस्फारसुवर्णराशिकलितं सर्वार्थसिद्धिप्रदं, विस्तीर्णैनवभिः सुतत्वनिधिभिः संपूरितं सर्वदा प्रस्फूर्जद्गुणसाधुवृत्तविलसद्रत्नाश्चितं श्रीपदं, शास्त्रं भव्यजनोपकृत्यभिमतं विश्वे चिरं नन्दतात् ॥१॥ अस्य पुनर्मुद्रणादिका सर्वसत्ता १८६७ वर्षीय २५ नियमा ( एक्ट ) नुसारेण स्वायत्तीकृता ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213/3 4. राशवाण જન [ , तम स्वपरसमयपारावारपारीण-शासनसम्राट्-तीर्थरक्षाप्रवणपरोपकारै कार्पितकरण-तपोगच्छाधिराज-सूरिचक्रचक्रवर्ति- 829 DI 1510 आचार्य श्री विजयनेमिसूरीशः जन्म सं. १९२९ दीक्षा सं. १९४५ गणिपद सं. १९६० कार्तिक शु. १. ज्येष्ट शु. ७. कार्तिक कृष्ण ७. पंन्यासपद सं. १९६० सूरिपद सं. १९६४ मागशर शुद ३. ज्येष्ठ शुद ५. Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद सिद्धान्तवाचस्पति न्यायविशारद विद्वछ आचार्य महाराजाधिराज श्रीमान् विजयोदयमूरिः जन्म सं. १९४४ दीक्षा सं. १९६२ पंन्यासपद सं. १९६९ महोपाध्यायपद सं.१९७२ पौष शु. १२. वैशाख शु. ६. अषाड शुद ९. मागशर वद ३. आचार्यपद सं. १९७९ वैशाख वद २. Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 069ccocecem (वे बोल.) 00000000000 आ आपणुं परमपवित्र अमितगुणास्पद अमेयमहिमरत्नरत्नाकर देवगुरु अने धर्मनी त्रिपुटीशुद्ध कप छेद--तापादि परीक्षामा सो टचना सानानी जेम उत्तीर्ण थयेल पूर्वापर अविरोधादिगुणविभूषित शाश्वतप्रभावशाली त्रिकालाबाधित सनातन श्री जैनदर्शन सूक्ष्मतवो तेना यथार्थस्वरूप--लक्षणविभाग--गुणधर्मपर्याय आदि प्रतिपादन करवामां सकलदर्शनोमां अग्रपद भोगवे छ एमां किंचिन्मात्र पण अतिशयोक्ति नथी. ___आत्मविचारणा कर्मविचारणा पुद्गलादिद्रव्यो विगेरेनी वि. चारणामो जैनदर्शनना प्रन्यो जे विस्तारयी बताये छे तेनी भांशिक विचारणा पण अन्य ग्रन्थोमा दृष्टिगोचर थती नथी. अमे घणाज मगरूर थइये छीये के पाश्चिमात्य प्रजा के जे घरखतनो, अनर्गल द्रध्यनो अने अगाध परिश्रमनो लांबो भोगापी घणाप्रयोगोनी अजमायशयी "वायरलेसटेलीग्राफ फोनोग्राफ हाइड्रोजन आकसीजन वायु: माथी पाणीसव"विगेरे विशानफलाओ जे पोते नवीन शोध कर्यानो दापो करें छे ते सर्व कलाओ करामलकवल्लोकालोकवर्तिभावोनी त्रिकालसत्ता तथा परिवर्तनाने देखनार सर्वशभगवन्तो-तीर्थकरदे वो जेमणे आरंभ परिग्रहादिनी सर्वथा पच्चक्खाण ( त्याग ) हो. वाने लइने कोइपण जातनो प्रयोग अजमाव्या वगर"शकेन्द्र परमास्माना जन्ममहोत्सवादि समये हरिणेगमेषिद्वारा सुघोषाघंटायगडावेजें तेमज "भाषा वर्गणाना पुद्गलपरिणामरूप शब्दोघीजा पुद्गलोनी जेम यत्रादिद्वारा पकडाय छेवायुयोनिज अकाय"त्यादि जे जे तपचो केवलज्ञानथी लोकाकोकना भावो देखी पहेलेथोज फरमाव्या छे ते समजनाराओने सहेजे समजी शकाय तेम छे!!! बळी नैयायिक वैशेषि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) कादि अन्यदर्शनकारो ज्यारे शब्द ने आकाशनो गुण मानता हता त्यारे जैन सिद्धान्त उद्घोषणाथी जाहेर करी रघुंन्हतु अने करेले केशब्द ए भाषा वर्गणाना पुद्गलो छे. ते आज फोनोग्राफनी कलाए साबीत करी बताव्यं जे शब्द पुद्गल होवाथी ज पकडाय छे, द्रव्य अलग रहें अने गुणमात्र पकडाय ते बनी शके नहि, तेमज डॉ० बोझ के जेमणे जाहेर करेली वनस्पत्यादि स्थावरोमां जीवत्व साबीत करनारी युक्तिओ सांप्रतकालमा केटलाक लोकोने वीन भासे छे, परन्तु ते युक्तिओ प्राचीन आचार्य भगवन्तोए श्रीआचारांग- दशवेकालिकवृत्ति षड्दर्शनसमुच्चय वृत्ति आदिमां फरमावेल अनुमान आदि प्रमाण युक्तिओनो एक लेशमात्र छे तेमज पाश्चिमात्य वैज्ञानिको जुदा जुदा पद थे परिवर्तनना कारणभूत अनेक जात ना अणुओ छे तेम प्रथम कहेता अने हवे तेओज जाहेर करे छे जे एकज कारना परमाणुओं जुदा जुदा प्रकारे परिणाम पामी जुदी जुदी पार्थिवादि द्रव्य परिवर्तना बतावे छे, ज्यारं श्री सर्वज्ञदेवनो अचल सिद्धान्त डंको वगाडीने अनादिकालथी घोषणा करो रह्यो छे जे परमाणुमा अनन्तकाले अनन्तपदार्थ रूपे परिवर्तन पायवा नी अनन्ती शक्तिओ के. S अबाध्य सिद्धान्त अतिशय सपन्न सर्वजन प्रसिद्ध ते जैनदर्शन चार विभागे तनुं प्रतिपादन करे छे ? द्रव्यानुयोग - जे षड्द्रव्यो, कालने जीवाजीवमां अन्तर्भाव करवाथी पांच अथवा धर्मास्तिकायादिने अजीम दाखल करवायी जीव अने अजीव ए बे द्रव्यो, दरेकनुं यथास्थित लक्षणस्वरूप, सह विगुणो-क्रमभाविपर्याय अनेक परिणामो, भिन्नभिन्नकाले जुदी जुदी परिवर्त नाओ दरेक समये उत्पाद-व्यय-- प्रौव्यतुं घट, इत्यादि तव निश्चायक सम्यक्त्वशुद्धि तथा कर्मनिर्जराना हेतुभूत विचार बताव Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) वामां समर्थ छे. २ चरणकरणानुयोग मुक्तिमार्ग, साधु श्रावक धनो आचार, क्रिया, शुभभावमां केवी रीते वर्त्ततुं, अशुभभावमांथी केवी रीते नवं, हेयोपादेय कर्त्तव्याकर्त्तव्यादि विवेक, पापबन्धनो त्याग शी रीते थाय, इत्यादि संवरना अनेनिर्जराना विचारोने बताये के, गणितानुयोग - जीवाजीवादि द्रव्योनी संख्या, परस्पर अल्पबहुत्व, कार्यस्थिति, भवस्थिति, संवेधादि, ज्योतिश्चक्रना चारादिनु गणित, द्वीप, समुद्र, नरक, विमानादिक्षेत्रमान तथा तेनी गणत्री विगेरे विचारो दर्शावे छे. ४ धर्मकथानुयोग - महापुरुषोनी जीवनप्रणालिक, मांथी झलकती उत्तमनीति, सदाचरण, पूर्वकालीन इतिहास, दीर्घदृष्टिए विचारता पूर्वापरकालनो अनुभव, उपादेयवस्तु प्रत्येनो आदरभाव, असदाचारिना चरित्रथी थती असदाचार प्रत्येनी गर्दा साधु, श्रावकाना आचार प्रत्ये पडतो उत्तम चलकाट, विगेरे विचारो समजावे छे. आ चारे अनुयोगो पैकी आगमोनी अपेक्षाये सूत्रकृतांगमां द्रव्यानुयोग प्रधान छे. आचारांगमां चरणकरणानुयोग, जंबूदीपपन्नन्ति आदिमां गणितानुयोग, ज्ञाताकांगादिमां धर्मकथानुयोग प्रधानतया वर्तेछे. आ नव प्रकरण पण जो मुख्यतया द्रव्यानुयोगप्रधान छे, तो पण बीजा अनुयोगोना वर्णनमां ते अलग पडतुं नथी. कारण समिति गुप्ति परिषद यतिधर्म भावना आदिना तथा हेयतया आश्रवबन्धादि उपादेयतया संवर-निर्जरा आदिना वर्णनथी चरणकरणानुयोग पण तेपां छे. रूप्यरूयादिभेद, मोक्षम अलबहुत्वादि वर्णन विगेरेमां गणितानुयोग, समिति गुप्ति साचवनार तथा परिषहो जय करनार पंदरभेदमां सिद्धिपद पामनार महापुरुषांना वर्णनद्वारा १ चारे अनुयोगोना जुदा पणा संबन्धी विचार मा जुओ साथेनी प्रस्तावना पेज ३-४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmummmmmmameemasomainner धर्मकथानुयोग पण वेमां संगत ज छे अने तेथीज आ ग्रन्थ महस्पद भोगवनारो छे.. जैनदर्शनमां नवतत्वग्रंथ एटलो षधो प्रसिद्ध अने महिमा. शाली छे के जेना परिचयमाटे कांइ पण बोलवू के लखवू ते एक "लंकावासि मानवोनी आगल सुवर्णवर्णन तुल्य". सूत्रथी सिद्धान्त भणवाना अनधिकारी श्रावक वर्गमां पण उत्तमपंक्तिना था. वको नवतत्वज्ञामथी सुशोभित थइ रह्या छ जे माटे सकल आग. मोमां पूज्यतमश्री भगवती आदिमां श्रावकोनी ज्ञानसमृद्धि व र्णन करतां " अभिगयजीवाजीवी उबलद्धपुण्णपावा आसंवसंवरणिज्जर किरियाहिगरणबंधप्पमोक्खंकुसला" वि. शेषणान्तर्गततया नवतखोनी मुख्यता दर्शावी छे, वली सकलतस्वसंग्रह सूत्र समवायांगवीज-श्रुतरस्ननिॉनस्कन्ध-दृष्टिवाद. ना मरणयी पुष्ट-तस्वोरूप पत्र फुल अने मुक्तिफलवाळो चतुर्थोपाङ्ग श्री पन्नवणा सूत्र कल्पवृक्ष पण आ सश्वाना मूल उपरज रुढ थयेलो छे. . - जुओ श्री पन्नवणावृत्तिकार पूज्य आचार्य भगवान् मलयगिरिजी महाराजना वचन " सर्वे च ते भावाश्च सर्वभाषा 'जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाः । तथाहि-अस्यां प्रज्ञापनायां षत्रिंशत् पदानि, तत्र प्रज्ञापनायट्रवक्तव्य. विशेषचरमपरिणामसंज्ञेषु पञ्चसु पदेषु जीवाजीवानां प्र. ज्ञापना। प्रयोगपदे क्रियापदे धाश्रवस्य 'कायवाङ्मनाकमयोग आश्रय' इति वचनात्। कर्मप्रकृतिपदे बन्धस्य प्ररूप. णा। समुद्घातपदे केवलिसमुद्घातप्ररूपणायां संवरनिर्जरामोक्षाणां त्रयाणां, शेषेषु तु स्थानादिषु पदेषु क्वचित्कस्यचिदिति " श्रमण भगवान् जगद्वन्धु परमात्मा श्री महावीर प्र. भुना चरमोपदेशरूप अपृष्टव्याकरण श्रीउत्तराध्ययनमूत्रना मोक्ष Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) मार्गने दर्शावनार अठावीशमा मोक्षमार्गगति अध्ययनमां पण आज तत्वोनो उद्देश छे-जूझो गाथा १४-१५'जीवाजीवा य बन्धो य पुण्ण पावासवो तहा । संवरो निजरा मोख्खो,सन्ते ए तहिया नव ॥१॥ तहियाणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥२॥" तेमज अनूनापूर्वदशपूर्वधर भगवान् श्रीउमास्वातिवाचकनिर्मित तत्त्वार्थसूत्रप्रासाद पण आज सच्चोना पाया उपर रचायेल छे. 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ' ' जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् ' उपरना वचनोमां पुण्यतत्व पापतस्वनो बन्ध. तत्वमा अन्तर्भाव करेल होवाथी नवसंख्यामां · विरोध नथी, प्रशमरति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रान्तर्गत तीर्थंकरोपदेश, योगशास्त्रवृत्ति धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, समयसारप्रकरण इत्यादि अनेक ग्रन्थोमां आ तत्वोने उद्देशी वर्णन करवामां आव्युं छे, तत्वोनो स्वतन्त्र बोध लेवा माटे आ नवतत्त्वप्रकरण अति प्रसिद्ध छे. जो के आ प्रकरण उपर संस्कृतमां अवचूर्णि टीका-विवरण विचारसारोद्धार विगेरे, भाषामां टवा बालावबोध विगेरे अने एनाज अनुवाद तरीके भाषामां पद्यबन्ध विविधस्तवनो रासो चोपाइओ-जोड छन्दोबद्ध अनुवाद गद्यबन्धविचार विगेरे घणुंज लखायुं छे, छतां पण कालानुभावथी बहोळे भागे संस्कृतभाषानु अज्ञान, प्राचीनशैलीनो अनव बोध इत्यादि कारणने उद्देशी संस्कृतछाया--शब्दार्थ अर्थ विगेरेनी खास अ त्यता हती ते केटलेक अंशे आ पुस्तकथी पूरी. पडशे एम धारी आ पुस्तक प्रसिद्ध करवामां आव्यु छे. संस्कृत छाया-- शब्दार्थ-- विस्तरार्थ, मास्तर चंदुलाल नानचन्द पासे लखा१ पुण्यपापयोश्च बन्धेऽन्तर्भाधान्न भेदेनोपादानम्, ( तत्वार्थवृत्तिः) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (<) यो छे, जो के-- आ लघु प्रकरण उपर प्रस्तावनानी आवश्यकता न ज होय तो पण अमारा उपर अनुग्रह करी ' पंचकल्याणकपूजादिसंग्रह' विगेरेना मणेता मुनि महाराजश्री पद्मविजयजी महाराजे ' किंचित्मास्ताविक ' तथा तदन्तर्गत घणोज उपयोगी अनेक ग्रंथोना सार रूप सम्यक्तरविचार लखी आप्यो छे, आवाज स्वतंत्र नवतोनो बोध आपनारा जयशेखरसूरिकृत नवतरव, दे वगुप्तमूरिकृत नवत ते उपर अभयदेवसूरिकृत नवतभाष्य देवानन्दसूरिकृत समयसारप्रकरण विगेरे अनेक प्रकरणोठे, तथाि ते सर्व करतां आ प्रकरण घणुं प्रसिद्धि पामेलं अने अध्ययन अध्यापनमां तेनो बहोलो प्रचार थयेलो होवाथी आनेज प्रसिद्ध करवामां आछे, वीजा प्रकरणो पैंकी तथा ग्रन्थान्तर्वचिनवत विचारी पैकी केला अमोर नवतस्वसाहित्य से नापना पुस्तकां गुर्जरानुवाद साथै प्रसिद्ध कर्या छे. नवतचना प्रणे तानी गवेषणा करता हजु सुधी कांह निर्णय थह शक्यो नवी नवतश्व टबावाळी एकन प्राचीन प्रतिमां साठमी एक गाथा " इय नवतत्तवियारो । अप्पमइनाणजाणणाहेउं ॥ संखित्तो उद्धरिओ | लिहिओ सिरिधम्मसूरीहिं ॥ १ ॥ "" देखarni आवाथ श्रीधर्मसूरि महाराज आ प्रकरणना कर्त्ता होय तेम जगाय छे, धर्मभूरिजी महाराजनो समय निर्णय करवो अशक्य है ? वृत्ति अवचूर्णि बालावबोधकारो आ गाया जणावता नथी जेथी जणाय के जे मूळ सतावीश गाथाओ अन्यकर्तृक होवी जोइये अने तेना प्रणेता तेरमा सैकानी पूर्वे थयेला होवा जोइए तेम तेनी वृत्तिओ उपरथी अनुमान थाय छे, वळी बीजा एक प्राचीन पुस्तकमां " इति श्री वादिदेवसूरिविरचितं नवप्रकरणम् " ए प्रमाणे वाक्य जोवामां आव्युं हतु जे उ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परथी स्याहादरत्नाकरग्रन्थनिर्माता जे अपूर्व ग्रंथमां स्त्रीनिर्वाण सिद्धिमाटे लगभग ४२ हजार श्लोक प्रमाणनो भाग हतो महाराज सिद्धरांजनी सभामां कुमुदचन्द्र जेवा दिगम्बर वादीओने जीत. नार अढार देशमां अमारिना प्रवर्तक परमाईत महाराज कुमारपाल नृपप्रतिबोधक कलिकालसर्वज्ञ भगवान् हेमचन्द्राचार्य महाराज विगेरेना विद्यागुरु भगवान् धादिदेवसूरि महाराज आ प्रकरणना रचयिता होय तेम पण अनुमान थाय छे. उपरनी गाथा तथा वाक्य ए बन्ने तरफ विचार करता एक वाक्यता विषयक एवं पण अनुमान थइ शके के मूल गाथा२७ना कर्ता श्रीवादिदेवसूरि महाराज अने प्रक्षिप्त गाथाओना संग्राहक श्रीधर्मसूरि महाराज होय ? !! ____प्रकरणनी मूल गाथाओ-टीका-अवचूर्णि-बालावबोध विगे. रेनी प्राचीन प्रतिओना आधारे २७ जणाय छे. केटलीक टबावाली पतिओ विगेरेना आधारें गाथाओनी संख्यानो नियम नथी-ते २७ मूल गाथाओ पैकी गाथाओ जीवतत्वमां,४ अजीवतत्वभां,२ पु. ण्यतत्त्वमां, ४ आश्रवतत्वमां, . संवरतत्वमां, ? निर्जरा अने. धतश्चमां; अने१०मोक्षतवमां, मोक्षतत्वनी अंदर श्री साधुरस्नमूरिका अवचूर्णिमां २ गाथाओ अधिक छे जे अपेक्षाए मूलगाथाओ २९ थायछे, छतां पण पठन पाठनमा५९गाथाओ प्रचलित होवाथी:अमोए पण तेज संख्या राखी छे २७ या२९थी पाकीनी गाथाओ प्रासंगिक अर्थ याद राखवामाटे महापुरुषोए उत्तराध्ययन-- . कर्मग्रन्थविगेरेनी प्रक्षेपकरेली जणायछे अने आवीज रीते प्रक्षेपगाथाओ मेळवीने १४० गाथाना नवतस्व(बृहन्नवत त्व)वाली प्रतिओपणंदे. खायछे जे उपरथी अमोए र्पण ते १४० मूळगाथाओ आ पुस्तकने अन्ते अलग प्रसिद्ध करीछे. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकना विषयमाटे संक्षेपमा आगळनी प्रस्तावनामां लखायेल होवाथी तथा स्वतंत्र विशाल विषयानुक्रमणिका राखेल होवाथी अहीं तेनी चर्चा करता नथी. जो के पुस्तकर्नु शुद्धिपत्रक दाखल कर्यु छे, तोपण दृष्टिदोष या अनुपयोगभावथी अशुध्ध रा होय तो ते वाचकवर्ग क्षन्तव्य गणी सुधारी वांचशे. अने अमोने सूचना करशे तो बीजी आवृत्तिमा सुधारवामां उपयोगी थशे, आग्रन्थमां भारतमेदिनीमार्तण्ड स्वपरसमयपारावारपारीण न्यायालोक टीका ( तत्त्वप्रभा )-खंडनखाघटीका (न्यायप्रभा )-न्यायसिन्धु-अनेकान्ततत्त्वमीमांसा विगेरे न्यायग्रन्थो, वृहत्हेमप्रभा-लघुहेमप्रभा-परमलघुहेमप्रभा व्याकरणग्रन्थो, प्रतिमामातण्डादि औपदेशिकग्रन्थो विगेरेना निर्माता श्रीतीर्थरक्षणादिमाटे अखंड अमोघ परिश्रम करी श्रीसंघ उपर अनुपम अनुग्रह करनार शासनसम्राट् तपोगच्छाधिराज सकलमूरिसार्वभौम,भट्टारफ आचार्यमहाराजश्रीमानविजयनेमिसूरीश्वरजीना पट्टालंकार सिद्धान्तवाचस्पति-न्यायविशारद- आचार्य महाराजश्रीमान् विजयोदयसरीश्वरजीमहाराजे बहोळो सुधारो, बहोलो वधारो, टिप्पण, सूचना, परिशिष्ट विगेरे करी आपी अमारा उपर तेंमन वाचक वर्गउपर अगाध उपकार कर्यो छे, ! ॥ छेवटे आ नवतच विस्तरार्थ केटलो उपयोगी छ ?ते प्रश्ननो उत्तर वाचक वर्ग उपर राखी वाचकवर्गप्रत्ये सविनयनम्रपणे " आद्यन्त आ ग्रन्थने वांची यथार्थ तत्त्वज्ञान मेळवी सम्यक्त्वप्राप्ति-दृढता संपादनकरी सिद्धिपद मेळ्यो” तेवी प्रार्थना करुं छं सं० १९८० श्री संघचरण सेवककार्तिक शुक्ल । श्री जैन ग्रन्थप्रकाशक सभा. ' पूर्णिमा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नवंतत्त्वसाहित्यग्रन्थोनी सूचि । (प्राकृत संस्कृत साहित्य)| प्रणेतानु नाम, १ नवतत्व प्रकरण मूल २ नवतत्व विचार २ श्रीभावसागर ३ वृहन्नवतत्व ४ नवतस्त्वविचार सारोडार गा-4 ५ नवतत्त्वसार प्रकरण [कुलक] | ५ आंच० श्रीजयशेखरसूरि ६ नवतत्वसार ७ नवतत्त्ववृत्ति ७ श्रीअंबप्रसाद सं १२२० | ८ श्रीदेवेन्द्ररि ९ श्रीकुलमंडनमूरि २० श्रीसमयसुन्दरगणि ११ “ विवरण ११ श्रीपरमानन्दमरि १२ १२ श्रीदेवचन्द्र ". अवचूर्णि ११३ श्रीसाधुरत्नमूरि १४ श्रीमान विजयगणि १५ ॥ १६ " प्रक्षेपगाथा ११३ १६ तपोगच्छाचार्य श्रीविजय . अवचूणि नेमिसूरिशिष्य सिवान्या०वि० श्रीविजयोदयसूरि १ आ लीस्ट अमोए प्राचीन भंडारोना लीस्टो तथा जैनग्रन्थावलिना आधारे आप्युन्छे, ... २ नवतत्व संबन्धी प्रकरणो प्रशमरति-योगशास्त्रवृत्ति-- त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित-धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति-विगेरे अनेक प्रन्थोमां आवे रे. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ नवतश्वप्रकरण १८ ॥ भाष्य १९ " " वृत्ति (प्राकृतभाषा साहित्य) २० नवतव बालावबोध |१७ श्रीदेवगुप्तमुरि १८ श्रीअभयदेवसरि | १९ श्रीयशोदेवोपाध्याय (हर्षवर्धनगणी) २० श्रीसोमसुन्दरसूरि शिश्री२१ श्रीपार्थचन्द्र | २२ श्रीमेरुतुंगसरिसन्तानीय | २३ श्रीमानविजयगणी | २४ श्रीमणिरत्नमूरि. २२ " (कुलक)बालावबोध २३ " खो २४ ॥ २५ ॥ ॥ २७ २८ ॥ (भाषा साहित्य) २६ नवतत्व रास . २६ श्रीऋषभदास २७ श्रीभावसागर २८ श्रीसौभाग्यसुन्दर २९ नवतत्व जोड २९ श्रीविजयदानमूरि ३० नवतत्त्व स्तवन ३० श्रीभाग्यविजयजी ३१ श्रीविवेकविजयजी ३२ . चोपाड ३२ श्रीकमळशेखर | ३३ श्रीसौभाग्यसुन्दर ३४ श्रीवर्धमानमुनि ३५ . . . | ३५ श्रीलुम्पकमुनि ३६ नवतत्व छन्दोबद्धभाषा |३६. श्रीज्ञानसारमुनि ३७ " सार ३८ समयसार प्रकरण | ३८ श्रीदेवानन्दरि वृत्ति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' વિચિરણારવિવE | જે વિશ્વગુરૂ ગુરૂ દેવના ન ગણી શકે ગુણ જેહના, જિન ધર્મ શાસન તીર્થરક્ષણ દક્ષ ભેગે દેહના : ઉપદેશ દે ભવિજીવને દ્રષ્ટાતથી નિતિ મેહના, “ગુરૂનેમિસૂરીશ વંદુ ભૂષણ વિમલ શીલવતગેહના. ૧, સર્વજ્ઞ શાસન રસિક પ્રિય બધુઓ? પરમ કારૂણિક શ્રીતીર્થકર મહારાજાએ. સુખાભિલાષવાળા છતાં વિષયસ બુદ્ધિબલે લેશથી પરિપૂર્ણ ચતુર્ગતિક સં. સારમાં પરિભ્રમણશીલ-સકલ ના હિતને ઉદ્દેશી ઉપદેશેલ મેક્ષરૂપિ પ્રાસાદમાં ચઢવાને નિઃશ્રેણિ સમાન દર્શનજ્ઞાન ચારિત્રમાર્ગમાં દર્શનપદની મુખ્યતા બતાવેલ છે. ખરેખર તે વ્યાજબીજ છે. કારણ કે–રમો મદો दसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । सिझंति चरणरहिया, दसणरहिया રિકસિા ! મિથ્યાત્વમેહનીય અને અનંતાનુબંધિ-ચતુષ્કો ઉદયે દરેક સંસારિઆત્માને અનાદિ સંસારમાં અનન્તીવાર ભટકવું પડયું છે. તેમાં કોઈ જીવ આત્મવીર્યની પ્રબળતા તથા ભવ્યત્વ દશાને પરિપાકકાલ, સાત પ્રકૃતિના ક્ષયોપશમ વિગેરે કારણે પામી યથાપ્રવૃત્તિ આદિ ત્રણ કરણ કરવાપૂર્વક સમ્યગ દર્શનરૂ૫ ભાવરત્નને પ્રાપ્ત કરે છે. જે પ્રાપ્ત થયેથી“તમેવ સશું નિ છે” (શ્રી વીતરાગ પ્રભુએ પ્રરૂપેલ ભાવ તેજ સત્ય અને શંકારહિતપણે સ્વીકારવા લાયક છે.) એવા પ્રકારનું શ્રદ્ધાન પ્રકટે છે. અને તે જીવને અર્ધ પુલ પરાવર્ત કાલથી અધિક સંસાર હેત નથી. એજ રહસ્યને જણાવતાં શાસ્ત્રકાર મહારાજા કહે છે કેજે જીવ–સમ્યગ્દર્શનથી પતિત થયે, તે દર્શનસહચારિ જ્ઞાનચારિત્રથી પણ પતિત થ સમજ. એટલે સમ્યક્ત મને મિથ્યાભાવને પામેલ છવાને યથાર્થ જ્ઞાનચારિત્ર સંભવતા નથી, તેમજ દ્રવ્યચાત્રિ (મુનિવેષાદિ રહિત જીવો શ્રીભરત મહારાજાદિની માફક મુક્તિપદ પામી શકે, પરંતુતત્વાર્થ શ્રદ્ધાનથી રહિત આત્માઓ અગારમક-વિનયન વિગેરેના દષ્ટાન્ત નિવ્રુત્તિ સૌખ્ય મેલવવા અસમર્થ નીવડે છે. તેમજ તેજ સમ્યગદર્શનના પ્રતાપે કૃષ્ણ અને શ્રેણિક મહારાજા જેવા જેવો પણ ધિવિધ શ્રાવક (સમ્યગ્દષ્ટિ શ્રાવક, અને દેશવિરતિ શ્રાવક) પૈકી સમ્યગ્દષ્ટિ શ્રાવક તરીકે પ્રસિદ્ધિ પામેલ છે. એ ઉપરથી સાબીત થાય છે કે-સમ્યગ્દર્શન સિદ્ધિપદ મેલવવામાં મુખ્ય કારણ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨) ા પ્રસ્તાવના ॥ છે, અને તેથી તે મુક્તિને આકર્ષીણુ કરવામાં આકર્ષિણી વિદ્યા સમાન કહેવાય, એ નિર્વિવાદ છે. ત્યાદિ ભાવને જાણે પ્રકટજ ન કરતા હોય તેમ પૂજ્યપાદ શ્રીમદ્ ઉમાસ્વાતિવાચકમહારાજાએ પણ શ્રીતત્ત્વાર્થસૂત્રમાંના ‘સમ્યÁનજ્ઞાનચારિત્રાણિ મોક્ષમાના ’આ આધ સૂત્રમાં સભ્યગ્દર્શીનનુંજ પ્રથમ ઉપાદાન કરેલ છે. જોકે અન્યત્ર‘નાવિત્તિયદિ મોળો આવાક્યમાંદનપદનું અગ્રહણ 'હવાથી તેની (દર્શીનની) શી જરૂરછે? એવી વગર સમજણુની શંકા ન કરવી. કારહુકે અન્વય વ્યતિરેકથી દર્શન અને જ્ઞાનનુ ં સહચારિપણુ છે—એટલે જ્યાં જ્ઞાન ત્યાં દર્શન, અને જ્યાં દર્શન ત્યાં જ્ઞાન હૈાય છે. `ન વિનાનું જ્ઞાન તે અજ્ઞાન કહેવાય છે. કારણ કે આપત્રિક્ષમજ્ઞાનમપિ મતિ મિથ્યાયસંતુમ્ ” એ પ્રમાણે પ્રશમરતિમાં કહેલ છે. તેથી દનનેા જ્ઞાનમાં અન્તભાવ કરીને -જ્ઞાનક્રિયામ્યાં મોક્ષ” એમ કહેલ છે. હવે સમ્યકત્વનું સ્વરૂપ શું ! તે જણાવવું, જોઈએ १ " दंसणमिह सम्मत्तं । तं पुण तत्तत्थ सहहणरूवं " ( ૬Čન તે સભ્યત્વ જાણવું. અને તે તત્ત્વા શ્રદ્ધાન રૂપ છે. ) ૨-બિનો તયેષુ રવિઃ । ગુઢ્ઢા સત્ત્વવવમુખ્યતે-। (શ્રી વીતરાગ પ્રભુએ કહેલ તત્ત્વાને વિષે શુદ્ધ રૂચિ એટલે શ્રદ્ધા તે સમ્યક્ત્વ કહેવાય છે) રૂ--તત્ત્વાર્થપ્રદાન સમ્ય-રાસમિતિ (તત્ત્વભૂત પદાથાનું–યથા શ્રદ્ધાન તે સમ્યકત્વ જાણવું.) એ પ્રમાણે અનેક ગ્રંથેાનુ રહસ્ય છે. તેમાં પણ સૂક્ષ્મદૃષ્ટિયે વિચારતાં જે તત્ત્વા વિષયક શ્રદ્ધાન તે સભ્યસ્વરૂપ કારણ તું કાર્યાં, અને મિથ્યાત્વાદિના ક્ષયેાપશમ વિગેરેથી પ્રકટ થયેલ, માક્ષને અનુકૂલ પ્રશમ સંવેગાદિ ચિહ્નવાલા ઉત્તમ આત્મપરિણામ તે સમ્યકત્વછે. આ ખાબત પૂજ્યપાદ શ્રીભદ્રબાહુસ્વામિ મહારાજા કહે છે કે- તે અ संमत्तेपसत्यसंमत्तमोहणीअकम्माणुवे अणोव समखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ते આ લક્ષણ સર્વત્ર વ્યાપક છે અને તેથીજ મન: પાપ્તિ નહિ થવાને લઇને માનસિક અધ્યવસાયરૂપ શ્રદ્ધાન ન હોવા છતાં પણ અપર્યાપ્તકવામાં તેમજ સિદ્ધ પરમાત્માદિમાં પણ તે (સમ્યક્ત્વ) ધટી શકે છે. એ પ્રમાણે જ્યારે સભ્યત્વ હોય ત્યારેજ કહેલ સ્વરૂપવાલું શ્રદ્ધાન પ્રકટે છે. અને તેથી તે શ્રદ્ધાન સભ્યુત વિના સંભવતુ નથી. એવા પ્રકારની વ્યાપ્તિ એટલે શ્રદ્ધાનવાલા છાને અવશ્ય સમ્યકત્વ હોય છે. એ નિયમ જણાવવા માટે શ્રદ્ધાન એ સમ્યકત્વનુ ,, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તે પ્રસ્તાવના (૩) કાય છે તે પણ તેને વિષે સમ્યકત્વ ૫ કારણનો ઉપચાર કરીને શ્રદ્ધાનને સમ્યકત્વ કહેવામાં આવે છે. -પ્રશસ્ત આત્મપરિણામરૂપ સમ્યકત્વ પણ તત્વને પ્રતિપાદન કરનાર શાસ્ત્રને શાનદાર પ્રકટ થાય છે. કહ્યું છે કે – “વારનવાર, જો ST તરસ તો જa | ” જ્યારે તત્ત્વજ્ઞાનથી સમકર્વ પ્રકટે છે, તે પછી “ માળ ના સામારિ - Ma” આ વચનથી તત્ત્વજ્ઞાન ન હોય, તે પણ જે ભાવથી શ્રીવીતરાગપ્રભુએ કહેલ પદાર્થ સ્વરૂપની યથાર્થ શ્રદ્ધા રાખે તે જીવ સમ્યગ્દષ્ટિ કહે વાય.એ વાત કેવી રીતે સંભવે? આ સંબંધમાં મહાપુરૂષોનું સમાધાન છે કે અયાળામા વિ ઈત્યાદિ વચન જ્ઞાનના અભાવને કહેનાર નથી પરંતુ વિસ્તારપૂર્વક તત્વજ્ઞાનની અપેક્ષાએ અજ્ઞાન ( અલ્પજ્ઞાન) અર્થને જણાવનાર છે. એટલે જે જીવ-વિસ્તારથી તને જાણતા નથી, તે પણ જે ભાવથી શ્રીવીતરામ પ્રણીત તની યથાર્થ શ્રદ્ધા રાખે, તે તે સમ્યગ્દષ્ટિ કહેવાય દૃષ્ટાંત-જેમ બહુ લક્ષ્મીવાલાની અપેક્ષાએ ઓછી ઋદ્ધિવાલે નિર્ધન કહેવાય, તથા તુચ્છ જીર્ણ વસ્ત્રવાલે માણસ પણ જેમ વિશિષ્ટ વસ્ત્રના અભાવે વસ્ત્ર રહિત કહેવાય, તેવી રીતે ભલે તનું વિસ્તારથી જ્ઞાન ન હોય, તે પણ "तमेव सच्चं निस्सक जजिहिं पवेइये" तथा"इणमेव निग्गंथे પાપ તજજે, જળ પ્રલ પર અપ ઈત્યાદિ શુભ પરિ ણામ જન્ય શ્રદ્ધાનવાલા જીવને સમ્યગ્દષ્ટિ કહી શકાય અને જે તેમના માનીએ તે દર્શનના અભાવે જ્ઞાન અને જ્ઞાનના અભાવે ચારિત્ર પણ ન સંભવે અને તેથી મોક્ષ પણ કેવી રીતે પ્રાપ્ત થશે? માટે ઉપર કહેલ રવ પવાલી શ્રદ્ધાન યુક્ત જીવને સમ્યકત્વ હોય. એમ અંગીકાર કરવાથીજ વિસ્તાર જ્ઞાનરહિત શ્રીમાષતુષ આદિ મુનિ મહાત્માઓની આગમમાં મુક્તિ કહેલી ઘટે છે. જ્યારે સમ્યકત્વ (તત્વશ્રદ્ધાન) એ મુક્તિનું પરમકારણ છે. એમ સાબિત થઈ ચુકવું, ત્યારે હવે નવતત્વેનું સમ્યકત્વમાં સહાધ્યકારિત્વ શી રીતે છે તે જણાવવું અવસરચિત છે. પૂજ્યપાદ સર્વ પ્રભુશ્રી તીર્થકર મહારાજાએ સકલ છપારિણિ સુધાસમાન વાણીધારા લત્તર શ્રી જૈનદર્શનનું તત્વજ્ઞાન દ્રવ્યાનુયેગચર કરણાનુયોગ,ગણિતાનુગ, અને ધમકથાનુયોગ એમ ચાર અનુગ ગર્ભિત વર્ણવ્યું. અને તે જ સ્વરૂપે પૂજ્ય શ્રી ગણધર મહારાજાએ બીજબુદ્ધિના પ્રતાપે શ્રી આચારાંગાદિ સૂત્રો ગુસ્થા, કેટલોક , સમય વીત્યા બાદ કાલાનુભાવે મતિ મંદાદિ કારણેને ઉદેશી સમગ્ર સાધુમંડલના Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫ પ્રસ્તાવના – ઉપકારાર્થે પૂજ્યપાદ જગદ્ગુરૂ શ્રીમદા રક્ષિત સરિ મહારાજાએ દરેક સિદ્ધાન્તામાં પૃથક્ પૃથક્ અનુયોગ દાખલ કર્યાં જેમકે શ્રીસૂત્રકૃતાંગાદિમ દ્રવ્યાનુયોગ. શ્રીસૂ`પ્રતિ તથા શ્રીચંદ્રપ્રતિ વિગેરેમાં ગણિતાનુયાગ. શ્રીઆચરાંગાદિમાં ચરણકરણાનુયોગ, શ્રીનાતાસૂત્ર,ઉપાશકદશાંગ, વિપાકશ્રુત, ઉત્તરાધ્યયન વિગેરેમાં ધર્મ કથાનુયોગ તે ચારે અનુયોગામાં પણ વશેષે કરી સભ્ય:'નને માટે દ્રવ્યાનુયાગ ઉપયોગી છે, કહ્યું છે. કેન્દ્ર ત્રિવ ફેસળસોદી '' દ્રવ્યાનુયાગમય સિદ્ધાન્તાને પણ સાવ શિવાય અન્યવર્ષાં લાભ લઈ શક્તો નથી. કારણ કે-દરેક સિદ્ધાન્તના અભ્યાસમાં કારણભૂત ચેાગાહનની ક્રિયા છે, જેમાં સાધુવજ અધિકારી છે, તો પણ દરેક વર્ગને તેમાં કહેલ ભાવોનો ઓધ થાય, તે સારૂ પરાપકાર ધુરીણુ પૂર્વાંચાય ભગવતાએ-તત્ત્વા –ધસંગ્રહણિ પ્રવચનસારાદ્વાર પ ́ચસંગ્રહ, કમ પ્રકૃતિ – લોકપ્રકાશ, વગેરે પ્રચારચ્યા. પરન્તુ તે ગ્રન્થા ધણાજ વિસ્તીર્ણ ગંભીરાવાલા, ગહનબુધ્ધિમમ્ય અને સંસ્કૃત પ્રાકૃત ભાષાબદ્ધ હોવાથી વિશેષબુદ્ધિવાલાનેજ ઉપકારક છે. તેથી મન્દ બુદ્ધિવાલા થવાના ઉપકારાર્થે તેજ પ્રાચીન મહાપુરુષોએ વિચાર નવતત્વ - દંડક ( વિચારષત્રિંશિકા ) સંગ્રહણી–ક્ષેત્રસમસ- વિચારપ ચાશિકા આદિ પ્રકરણગ્રન્યો બનાવ્યા. આ તમામ પ્રકરણામાં પણ સમગ્ર જૈનદર્શીનપ્રક્રિયા તત્ત્વાના સંક્ષિપ્તસ`ગ્રહ અને ગહન ફીલેસોફીના ઓધ વિગેરે સાધન સંપન્ન આ શ્રીનવતત્વ પ્રકરણ જ છે, જો કે પ્રકરણ ગ્રન્થા પરિમિતઞાથાવાલા હોવાથી પાઠ કરવામાં સુખે લ.ભ લઇ શકાય તેવા છે. તે પણ મહા વાલા હોવાથી કેવલ ગાથાઓ પાઠ કરી ગયે, તાની સમજણ વિગેરે જોઈતા સંગીન લાભ મલી શકતા નથી. માટેજ પ્રાચીન મહાપુરૂષોએ તે તે પ્રકરણો ઉપર વૃત્તિ-અવચ્ી આ વિગેરે બનાવી તેપણુ સસ્કૃતભાષાભહું હેવાથીજીવોના માધને માટે પ્રાચીન મહાપુરૂષોએ ખાલાવબેાધ ટખા વગેરે અ લખ્યા છે તેમાં પણ પ્રાચીનશૈલી અને ભાષાની પરિવર્ત્તનાને લત. સાંપ્રતકાલીન જીવા પૂરતા લાભ લઇ શકતા નથી વલી પ્રસ’ગાનુપ્રસંગ પ્રાપ્ત પદના ખાધતે માટે અનેક ગ્રન્થોની મદદ લેવી પડે છે ઇત્યાદિ અનૈક હેતુને અવ "ખી આ પ્રસ્તુત વિસ્તરા તથા તેના પરિશિષ્ટરૂપ - વતત્વસાહિત્યસંગ્રહ બહાર પાડવામાં આવ્યા છે. હવે પૂર્વ" કહેલ સમ્યગ્દશ ન પામવાની પ્રણાલિકા કહેવાય છે. સમ્યક્ત્વ પામનાર. વપરિણામ અ વાલા ૩કરણા કરે છે. ૧-યથાપ્રવૃત્તિકરણ ૨-અપૂર્ણાંકરણ, ૩ અનિવૃત્તિકરણ યથાપ્રવૃત્તિ કરણનુ સ્વરૂપ--જન્મ જરા અને મરણુરૂપ જ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫ પ્રસ્તાવના | (૫) લતર'ગાથી વ્યાપ્ત ભયંકર સંસાર સમુદ્રમાંમિથ્યાત્ત્વમેાહનીયાદિ કમે ની પ્રેરણાથી અનત પુદ્ગલ પરાવર્તકાલસુધી અવ્યવહાર રાશિ સૂક્ષ્મનિગેાદના ભવામાં અનેકઅસહ્ય દુ:ખાને અનુભવ કરતા કરતા અકામ નિરાદિ હેતુના સંનિધાનથી વ્યવહાર રાશિમાં આવેલા જીવને દ્રવ્યાદિકારણને અનુસારે તથાભવ્યત્વદશાને પરિપાક થવાથી પ્રકટ થયેલ અધ્યવસાયોનુ નામ યથાપ્રવ્રુત્તિકરણ કહેવાયછે. આ અધ્યવસાયા સાગરોપમ કેાડા કોડી પ્રમાણ દીક સ્થિતિને નાશ કરનાર છે. તેથી તેના પ્રતાપે પાંચમા આયુષ્કક શિવાય નાના મરણીયાદિ સાત મે પૈકી પ્રત્યેક કર્મને પધ્યેાપમના અસખ્યાતમા ભાગે ન્યૂન એક કાડા કાડી સાગરાપમ પ્રમાણુ સ્થિતિવાલા કરે છે. એટલે શેષ સ્થિતિને નાશ કરી અન્તઃ કાડા કાડી સાગરાપમ પ્રમાણુ સ્થિતિ કરવી, એ પ્રથમકરણનુ '' કા છે “ અન્તર્મુહૂર્ત પ્રમાણુ સ્થિતિવાલા જે વિશિષ્ટ અધ્યવસાયે તે મથાપ્રવૃત્તિ કરણ અને ઉત્તર।ત્તર સમયે પૂર્વ પૂર્વક સમયની વિશુદ્ધિ કરતા અનંતગુણી વિશુદ્ધિ એ તેનુ` કા` એવા પણ અભિપ્રાય અન્યત્ર સમજાય છે. આયુષ્કકર્મની અલ્પ સ્થિતિ હાવાથી આ પ્રસ્તાવે તેનુ' વર્જન કરેલછે. તથા ઉપર કહ્યા પ્રમાણે સ્થિતિના નાશ કરવાનું કારણ એ ક્રે—જેમ વસ્ત્રની ઉપર લાગેલ ઘીનેા ડાધ જ્યાં સુધી તેનાં ઉપર ચોંટેલ ધૂળને દૂર કરવામાં ન આવે ત્યાં સુધી દેખાય નહિ, તેભ ઉપર કહેલ પ્રમાણે ક સ્થિતિને લાધવ થયા વિના અન્તઃસ્થ ગ્રંથિસ્થાન પ્રકટ થતું નથી. પ્રશ્ન-જો ૩૦ કાડા કોડી ત્યિાદિ યાવત ૭૦ કાડા કોડી સાગરાપમ પ્રમાણ કર્યાં સ્થિતિને ખાંધી છે, તે તે કર્માં તેટલા ક.લ સુધી ભાગવવુ જોઇએ. અને તમે તેા અન્તર્મુહૂત્ત પ્રમાણુ અધ્યવસાયાના સમૂહ સ્વરૂપ યથાપ્રવૃત્તિ કરણે કરી લાંબી સ્થિતિના નાશ કરવાનું કહેા છે, તો તે વાત કેવી રીતે સ ંભવી શકે? અને જો તેમ સભવે તે બાંધેલ સ્થિતિ પ્રમાણે તે ક તેટલા કાલ સુધી ભાગવવામાં ન આવવાથી “ ાંતનારા ’? અને એછી સ્થિતિનુ તે કર્મ બાંધ્યું નથી, તે પણ અલ્પ સમયમાં ભગવે છે, તેથી ‘અતગમ” ૨ આ બે દોષો કેમ નહિ પ્રાપ્ત થાય ? ઉત્તર-અધ્યવસાયની તાર્તાકાત એટલી અધ્યવસાય હૈય તા તેના ચેાગે સાતમી નરકને લાયક કલિકા તીવ્ર છે, કે જેને લતેજો અશુભ અન્તમુહુર્ત્ત જેવા લધુકાલમાં એકઠાં કરે છે. અને શુભ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I પ્રતાવના ! . અધ્યવસાયના પ્રતાપે શ્રીમદેવામાન વિગેરેના દ્રણાને અલ્પકાલમાં એક્ષપદ પણ મેલી શકે છે એજ અધ્યવસાય વિશેષથી અનિકાચિત એવા સર્વ કર્મોના સ્થિતિરસની અપવને ઘટાડે થાય છે. તથા જ્ઞાનપુર્વક ક્ષમા પ્રધાન તીવ્ર તપશ્ચયના યોગે નિકાચિત બંધવાલા કમેના સ્થિતિરસને પણ ધટાડે થઈ શકે છે, કહ્યું છે કે દાળ, fragવમો - પારિજાળ, તલાશો નિશાળ શિઅર્થ ઘણું કરીને અનિકાચિત બંધવાલી સર્વ કર્મ પ્રકૃતિને એટલે તેઓની સ્થિતિરસને એ પ્રમાણે પરિણામના મેગે ઘટાડે થઈ શકે છે. તાત્પર્ય એ છે કે-જેમ ઘણું કાલ સુધી ચાલે તેટલું ઘણું અનાજ પણ ભસ્મકવ્યાધિના યોગે કઈ માણસ અલ્પ સમયમાં પાઈ જાય. એટલે તે ધાન્યની વર્તમાન સ્થિતિને નાશ થયો નથી. પરંતુ વ્યાધિના બલથી ઘણું ધાન્ય થોડા કાલમાં ખવાઈ ગયું, તેવી જ રીતે લાંબી મુદત સુધી ભોગવવા લાયક ઉમે પણ પરિણામના યોગે થોડા સમયમાં ભગવાય છે તથા જેમ આ પ્રહલાદને ખાડામાં નાંખી ઉપર ઘાંસ વિગેરેથી ઢાંકી રાખીયે, તે તે ફલો અલ્પ સમયમાં પરિપકવ થાય છે. તેવી રીતે તેવા પ્રકારના અનિકાચિત ક. મેં પણ અધ્યવસાયાદિ સામગ્રીના ગે અલ્પકાળમાં ભગવાય, એમાં કેઇજાતને વિરોધ નથી. અને તેથી જ અબાધાકાલના જાત્કૃષ્ટ ભેદો તથા ઉથાવલિમાં આવતા કર્મની નિષેક તથા ગુણ રચના ઘટે છે, કમાનુભવ સંબધમાં એટલું તે અવશ્ય જાણવું જોઈએ કે કર્મના “દિરપણ તે રા'-૧ પ્રકૃતિક, ર રિતિકર્મ,૩ રસકમ, ૪ પ્રદેશક એમ ચાર પ્રકાર છે તેમાં “અશરમોરામિા ”િ વચને પ્રદેશક ની અપેક્ષાએ અને અપવર્તના સ્થિતિ રસની અપેક્ષાઓ જાણવી. કારણકે પ્રજ્ઞાપનાવૃત્તિમાં બે પ્રકારને કનુભવ કહેલ છે. પ્રદેશકનુભવ, ૨ વિપાકકમાનુભવ, તેમાં પ્રદેશકની વિચારણાએ દરેક કર્મ અવશ્ય ભોગવવું પડે છે. અને રસથી કર્મને અનુભવ વિકલ્પ થાય છે એટલે કોઈ કર્મને રસ અનુભવાય છે અને કોઈ કર્મને રસ ન પણ અનુભવાય. કારણકે શુભ પરિણામના યેગે તે કર્મના રસની અપવર્તન થાય છેઆવી રીતે જે કે શુભ પરિણામથી સ્થિતિ રસની અપવર્તન થાય છે, તે પણ તેમાં કૃતનાશાદિ દે લાગુ પડતા નથી. કારણકે તેવા પ્રકાસ્ના ઉત્તમ પરિણામથી જો રસક્ષય પામે તે તેમાં અનિષ્ટ કાંઈ નથી જેમ સૂર્ય કિરણના તાપથી શેલડીમાં રહેલ રસ સુકાઈ જાય છે. તેમાં કૃતનાશ અને અકતાગમનામને દેષ નથી. તેમજ સ્થિ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! પ્રસ્તાવના ॥ તિ પણ રસાધીન હેાવાથી રસના નાશથી સ્થિતિના નાશ અવશ્ય થાય છે, વળી જે ક જેવી રીતે ખાંધ્યું, તે ક તેવી રીતે જ અવશ્ય ભાગવવું પડતું હાય, તો અશુભ કર્માંતા ક્ષય નહિ થવાથી તપાવિધિ જિનપૂજાદિ વિધાના બ થશે. પરંતુ તેમ તે છે જ નહિ, તેમજ તે ભવમાં મુક્તિગામી જીવોને પણ પૂર્ણાંક તે તે વિપાકોદયસ્થિતિમાં ભોગવતાં નવીન નવીન કમાતા બંધ થવાથી મુક્તિ થવી ન જોયે. માટે કાડાકાડીસાગરાપમપ્રમાણુ દીસ્થિતિવાલુ કમ પણ નીરસપણે પ્રદેશથી ભગવાય છે, એમ માનવું જ જોઇએ અને તેથીજ અસંખ્યાતાભવે મા તેવા પ્રકારના વિચિત્ર અધ્યવસાયથી ભિન્ન ભિન્ન ગતિને આપનાર બાંધેલ કર્યું તે ભવમાં પણ સત્તામાં હોય તા પણ ચરમભવમાં શુભાષ્યવસાયની તીવ્રતાથી સર્વ કાંતા ક્ષય થઈ શકે છે, તથા જે કર્માં બધસમયે તેવા પ્રકારની રસાપવત્તનાને ચેાગ્ય પરિણામવડે આંધ્યું હાય, તે કર્મ તેવીરીતે નીરસ ભગવાય છે. કારણકે કર્મબંધના કારભૂત અધ્યવસાયસ્થાનકા દ્રવ્યાદિપાંચમાંના કાઇપણ કારણથી ઉત્પન્ન થતાં ક્ષયે શમાદિની માફ્ક વિચિત્ર હાવાથી સ્થિતિરસનો ઉપક્રમ (ઘટાડા) કરી શકે છે, તાત્પ એકે અસંખ્યેય લેાકાકાશના પ્રદેશ પ્રમાણ તે અધ્યવસાય સ્થાનામાં કેટલાએક સેાપક્રમ ( જેના સ્થિતિ રસના ઘટાડા થઇ શકે એવા કર્મ બંધમાં કારણ છે. અને કેટલાએક અધ્યવસાયસ્થાનકા નિરૂક્રમ કર્મ બંધને ઉત્પન્ન કરનાર છે. જેથી જે કમ જેવા અધ્યવસાયથી બાંધ્યુ હોય તે કર્મ તેવી રીતે અનુભવાય.આપ્રમાણે વસ્તુ સ્થિતિ હાવાથી કૃતનાશ, અકૃતાગમદોષો અવકાશ પામતા નથી,વળી એકજ વિષયમાં કારણભેદથી કાલભેદ દેખાય છે, જેમ ધણા શિષ્યા એકજ શાસ્ત્રના સાથે અભ્યાસ કરતા હોય છતાં પણ તેમાં બુદ્ધિની તરતમતાથી ભેદ પડે છે. તથા જેમ અમુક યોજનના લાંબા માર્ગમાં ધણા માણસા એક સાથે ચાલ્યા હાય, છતાં તેની ગતિની તરતમતાથી ઈલે પહોંચવામાં કાલભેદ થાય છે. ( કાઈ પહેલેા પહોંચે અને કાઇ પછી પહોંચે) તેવીજરીતે ઘણા જીવાએ સમાન સ્થિતિવાળું કર્માં બાંધ્યુ હોય તેમાં પણ પરિણામની તરતમતાથી અનુભવકાલ જુદો જુદો દેખાય છે. ઇત્યાદિ ઘણાજ નિશાલ વિચાર વિશેષ જીજ્ઞાસુ જીવે એ અન્યગ્રંથોથી જાણવા. આ યથાપ્રવ્રુત્તિકરણ તથા આગલ કહેવામાં આવનાર બન્ને કરણા પૈકી દરેક કરણ અન્તર્મુહૂત્તપ્રમાણુસ્થિતિવ હું જાણવું તથા ત્રણે કરણના સમગ્ર કાલ પણ અતર્મુહૂત પ્રમાણુ છે પર તુ તે દરેકના કરતા મેટું જાણવું, આ થાપ્રદ ત્તિકરણ ભવ્ય તથા અભવ્ય અને પ્રકારના જીવાતે હાય છે, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (<) E ॥ પ્રસ્તાવના | tr *સ્થિતિની આ વના કરવાના સંબંધમાં ધાન્યના પ્યાલાનું દૃષ્ટાન્ત શાસ્ત્રમાં ખતાવ્યુ છે કે-જેમ એક મુાણુસ પ્યાલામાં થેડુ થેડુ અનાજ નાંખતા જાય, અને વધારે વધારે કાઢતો જાય, એમ કરતાં કરતાં કેટલેક કાલે તે પ્યાલામાં ધણું અનાજ ધટવાથીય ું ધાન્ય બાકી રહે છે. તેમ ભવ્યજીવ અનાભાગસ્વરૂપ આ કરણે કરી દીધ સ્થિતિના નાશ અને અપસ્થિતિને બંધ કરે છે, એ પ્રમાણે કાઇક ભવ્ય જીવ આ કરણે કરી ક-. સ્થિતિને લાધવ કરી ગ્રન્થિસ્થાનની નજીકમાં આવે છે. આ કરણનું બીજું નામ पूर्वप्रवृत्त ’’· છે. કારણકે શેષ કરણાથી પૂર્વપ્રથમ પ્રવર્તે છે. ઉપર કહેલ તે ગ્રંથિસ્થાન સુધી અભવ્યજીવો પણ પ્રથમ કરણવડે કર્માસ્થિતિના લાધવ કરી અનીવાર આવે છે, પરંતુ તે તેને ભેદી શકતા નથી. કારણકે તે રાગાદિપરિણામને પાછા હઠાવવાના કારણભૂત વિશિષ્ટઅધ્યવસાયરહિત છે અને તેથીજ એટલે મિથ્યાત્વમાહનીયની સંવા પશમના ન કરી શકવાથી આપશમિક સમ્યક્ત્વ પામીશકતા નથી. અને તે સ્થલે તેઓ સ‘ધ્યેય અથવા અસંખ્યેય કાલસુધી રહે છે. તેમાં કઇ અભવ્ય જીવ ઉત્તમ મુનિ મહાત્માઓની ચક્રવતિ વિગેરે રાજાએ કરેલ શ્રેષ્ઠ પૂજા, સત્કાર, સન્માનાદિ જોઈત અથવા શ્રીતી કર ભગવંતની અનુપમઅતિશયાદિ ઋદ્ધિના દેખવાથી, અથા સ્વર્ગસુખની અભિલાષાઃિ પ્રયેાજનથી પ્રવ્રજ્યા ગ્રહણ કરી દ્રવ્યથી સાધુપણાને ઉશીને પોતની મોટાઈ વિગેરેની અભિલાષાથી પ્રતિલેખનાદિ ક્રિયાકલાપને આયરે છે. અને તેથી તે ઉત્કૃષ્ટથી નવમા ત્રૈવેયક સુધી પણ જઇ શકે છે. • • સાચુજ છે કે દ્રવ્યચારિત્રને મહિમા પણ અપૂર્વ છે. આ બાબત પચારીક ઢીકામા કહ્યુ છે કે સજ્જનિયાળ નન્દા, મુત્તે નૈવિાળતુ થયા જો । મનિયો નિવૈદ્દેિ સો નય, ફળ મળેનું નો મનિયં जे दंसणवावण्णा, लिंगग्गहणं करिति सामन्ने । तेसि पि य उપયામો, જોનો જ્ઞાન નૈવિકા ॥ ૨ ॥ અને કાઈ અભવ્ય જીવ નવમાં પૂર્વાંસુધી માત્ર સૂત્રપાઠ જાણે છે, તેથી જ તે શ્રુતસામાયિક પામી શકે છે. કહ્યું છે કે—તિસ્થંજાવૂઝ', વર્કૂન્ગેન વિજ્રોળ | सुसामाइयलाहो, होज अभव्यस्त गठिम्मि ||१|| ( गठिम्मिગ્રન્થિસ્થાનના નજીક પ્રદેશમાં ) તે અમુલ્યે પૂર્વધરલબ્ધિના અભાવે અ" જાણતા નથી. અને તેથી જ તેમનું શ્રુત તે દ્રવ્યમ્રુત છે. વલી કૉંઇ મિથ્યાત્વી ભવ્યજીવ ગ્રન્થિદેશમાં રહી કાંઇક ઊણા દશપૂર્વ સુધી દ્રષ્યશ્રુત મેળવે છે. તેથીજ ‘ મિથ્યાતિગૃહીત કાંઇ ઊણા દશપૂ` સુધી શ્રુત પણ મિથ્યાશ્રુત કહેવાય છે ” જ્યારે પૂર્ણ દશપૂર્વાંનુ જ્ઞાન હાય, ત્યારે નિશ્ચયે સમ્યકત્વ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * | પ્રસ્તાવના ! હેય છે. બાકીમાં ભજની છે કહ્યું છે કે– મિને, નિયા સમક્ષ તુ તેના માં | ગ્રંથિસ્થાનની નજીકમાં આવેલા કેટલાએક ભવ્ય પણ રાગાદિ ભાવશત્રુથી છતાયા છતાં પાછા વળે છે, તેમજ પૂર્વની માફક દીર્ધસ્થિતિવાળા કર્મો બાંધે છે. અને કેટલાએક અવસ્થિત પરિણામિ ભવ્ય તેજ સ્થલે રહે છે. તેઓ અવસ્થિત પરિણામવાળા હોવાથી કર્મોની સ્થિતિ એછી તેમજ વધારે પણ બાંધતા નથી અને જેઓને અર્ધપુદગલપરાવર્તકાલમાં મેક્ષ નિશ્ચિત છે, એવા ચારે ગાતના સંપિયાપ્તપંચેન્દ્રિય કુહાડાની તીક્ષ્ણધારસમાન અર્વકરણનામના નવીન અધ્યવસાયનસમૂહે કરી ગ્રન્થિનો ભેદ કરે છે. જેમ કઈ મેટા નગ રમાં જવાની ઈચ્છાથી ત્રણ માણસો પિતાના ગામથી સાથે નીકલ્યા ચાલતા ચાલતા તેઓ ચારોના ઉપદ્રવવાળી અટવીમાં આવી પહોંચ્યા. ત્યાં આવતાં તેઓને બે ચોરોએ દેખ્યા. એક માણસ ભયપામી પાછા હઠી ગયે. બીજા માણસને ચોરોએ પકડયો. ત્રીજે માણસ બલવાન હોવાથી તેઓને હરાવી અટવીને પાર પામી ઈષ્ટનગરે પહોંચ્યો. દ્રષ્ટાન્તની ઘટના આ પ્રમાણે છેત્રણ માણસ તે સંસારી છે, અટવી તે સંસાર, માર્ગ તે કર્મોની દીર્ધસ્થિતિ, ચોરોના રહેઠાણવાળું ભયંકર સ્થાન તે ગ્રન્થિસ્થાન, બે ચાર તે રાગદ્વેષ, ચોરોથી ભયપામી પછવળેલ માણસે તે ગ્રંથિદેશમાં આવી ખરાબ પરિણામના યોગે પાછો ફરી રેષ્ઠસ્થિતિને બાંધનાર છવ, તેમજ ચરોના પંજામાં આવેલ માણસ તે રાગાદિથી ત્રાસ પામેલ ગ્રંથિની નજીકમાં રહેલ * જીવ, વિશિષ્ટપરિણામના અભાવે તે છવ ગ્રંથિને ભેદત નથી. અવસ્થિતપરિણામવાળો હોવાથી પાછે પણ વળતું નથી. તથા ઈષ્ટનગરે પહોંચેલ પરાકમિ માણસ તે અપૂર્વકરણ કરી રાગદ્વેષને દૂર કરી સમ્યગ્દર્શન પામનાર જીવ જાણ. તથા આકરણમાં અનેકછવાશ્રની અપેક્ષાએ દરેક સમયે અસં. ગેય કાકાશના પ્રદેશરાશિપ્રમાણુ અધ્યવસાયસ્થાન પ્રાપ્ત થાય છે. તથા પર્વ પર્વ સમયની અધ્યસાયવિધિથી આગળ આગળના સમયની અનંતગણી વિશક્તિ હોય છે. તેનો યથાર્થભાવ દશાવનાર બે પુરૂષની વિવક્ષા શ્રીમ, પ્રકૃતિટીકાથી જાણવી. પુનઃ આ કરણવિષે વિશિષ્ટ અધ્યવસાયના અભાવે સ્થિતિ ઘાતાદિ પ્રવર્તતા નથી. તેમજ આ કરણવર્તિ જીવ ધિસ્થાનક રસવાલા અશુભકર્માને. અને ચારઠાણયા રસવાળા શુભકમેને બાંધે છે. તથા સ્થિતિબંધ પણ પૂર્વ પૂર્વસમયની અપેક્ષાએ પાપમના અસંખ્યય ભાગે હન આગળ આમળના સમયે કરે છે. એ પ્રમાણે ગ્રન્થિસ્થાનની નજીકમાં પ્રથમ કિરણે કરી ભવ્યાત્મા કેવી રીતે આવે તે સંક્ષેપમાં કહ્યું Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |પ્રસ્તાવના | * (૧૦) - હવે ર-અપૂર્વકરણ- જે અવ્યવસાયના યોગે પહેલાં નહિ કરેલાં એવા- ૧ સ્થિતિઘાત, ૨ રસધાત, ૩ ગુણશ્રેણી, ૪ અભિનવસ્થિતિબંધઆ ચાર પદાથે થઈ શકે- તેવા નવીન અધ્યવસાયનું નામ અપૂર્વકરણ છે. જીવને પિતાના દુષ્કર્મથી ઉત્પન્ન થયેલ કઠેર અને મજબુત, તેમજ લાંબા કાળની ઉગેલ ગુપ્તવાંસની ગાંઠ જેવી દુબે કરી ભેદી શકાય એવી અને પૂર્વે નહિ ભેદાએલ રાગદેષના પરિણામ રૂ૫ ગ્રંથિ છે. આ પ્રન્થિને ભેદ કરે તે અપૂર્વકરણનું ફલ છે. હવે ગ્રન્થિ ભેદવા માટે આ પ્રકરણમાં પ્રવેશ કરવાની સાથે પ્રથમસમયથી માંડી સ્થિતિધાતાદિ ચાર ક્રિયાઓ કરે છે. ૧. સ્થિતિવાત- સીધી લાઈન રૂપ સત્તામાં રહેલિ અંત:કોડાકડિસાગરેપમ પ્રમાણ સ્થિતિ સંબંધિ ઉપરના ભાગમાંથી વધારેમાં વધારે સેકડે સાગરોપમ પ્રમાણ અને ઓછામાંઓછા પલ્યોપમના અસંખ્ય ભાગ પ્રમાણ સ્થિતિખંડને ઉપર છે. એટલે તે ભાગમાં રહેલા કહેલ પ્રમાણ સ્થિતિવાલા કર્મદલિને ત્યાંથી ઉઠાવે છે. અને તેઓને નીચેની પ્રથમ સ્થિતિ જેમાં રહેલા દલિકો અનુભવાતા નથી, તે સ્થિતિમાં ગોઠવે છે. આ ક્રિયા અન્તર્મુહૂર્તમાં પૂરી થાય છે. તે વાર પછી પ્રથમ સ્થિતિ ખંડની અનંતર રહેલાજધા -કૃ સ્થિતિખંડને અંતમાં ઉશ્કેરે છે અને પૂર્વની માફક દલિક પ્રક્ષેપ કરે છે. એ પ્રમાણે અપના કાલમાં હજારો સ્થિતિખંડના દલિકા ઉઠાવી નીચેની સ્થિતિમાં દાખલ કરે છે, તેમ કરતા અપને પ્રથમ સમયની સ્થિતિમાંથી સંખ્યય ગુણહીન સ્થિતિ થાય છે. એટલે તેટલા પ્રમાણ સ્થિતિવાલા દલિ તે ભાગમાંથી ખાલી થાય છે. ૨ રસધાત- અશુભ પ્રકૃતિયોને સત્તામાં રહેલ રસાણના અનંતભાગ કરી તેમના એક ભાગ શિવાય બાકીને રસાણને અંતકાલમાં નાશ કરે તેવારપછી પહેલા ત્યાગ કરેલ અનંતમા ભાગના અનંત ભાગો, કલ્પી એકભાગ શિવાયના શેષભાગના રસાને અંતમુહુત કાલમાં નાશ કરે. એપ્રમાણે- વિક્ષિત સ્થિતિઘાતના કાલમાં હજારે રસધાત થાય છે, અને હજારો સ્થિતિધાતે અપૂવ કરણમાં થાય છે. ૩ ગુણશ્રેણિ- ઉપરની સ્થિતિમાંથી ઉઠાવેલ દલિને પૂર્વ પૂર્વ સમય કરતાં ઉત્તરોત્તર સમયમાં અસંખ્યયગુણ વૃદ્ધિએ દાખલ કરવા તે. ૪ અભિનવસ્થિતિબંધ- આકરણમાં શરૂઆતથી જ માંડી દરેક સમયે પહેલાં નહિ કરેલ એ પલ્યોપમના અસંખ્યભાગે હીનસ્થિતિબંધકરે તે Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ પ્રસ્તાવના | (૧૧) (સ્થિતિષ્ઠાતાદિ સ્વરૂપ સમજવામાં કયુનાઇન-ન્યુયુનાઈનનું દૃષ્ટાન્ત સુગમ છે ) આ કરણમાં પણ દરેક સમયે અસધ્યેય લેાકાકાશ પ્રદેશ પ્રમાણુ અધ્યવસાય સ્થાને છે. આ રીતે ચાર કાર્ય કરવાારા ગ્રન્થિ ભેદ કરી ત્રીજા અનિવૃત્તિકરણમાં પ્રવેશ કરે છે . DJ ૩ અનિતિકરણ- આ કરણમાં વનારા ત્રિકાલર્વાન્ત જીવાની સમાન સમયમાં પરિણાર્વિશુદ્ધિ ‘અનિવૃત્તિ’- ફેરફારવિનાની એક સરખી હોય છે તેથી આ કરણનું અનિત્તિ એવુ નામ છે. સમાન સમયમાં એટલે ઉપર કહેલ પરિણામવિશુદ્ધિ ઉત્તરાત્તર સમયેામાં પૂના જેવી હાતી નથી. કારણ અનંતગુણી કહેલ છે. પરંતુ વિવક્ષિત કાઇપણ સમયમાં ત્રણે કાળના જીવાની પરિણામવિશુદ્ધિ એક સરખી હેાય છે. તેમજ ખીંછ રીતે એપણુ અ થાય છે કે- જે અધ્યવસાયે। સમ્યક્ત્વ પમાડંચા શિવાય પાછાહઢે નહી, એટલે જેઓના પ્રાપ્ત થવાથી અશ્ય સમ્યક્ત્વ પામે, તે અનિવૃત્તિકણુ કહેવાય. ઉપર કહ્યા પ્રમાણે ત્રણે કરણાની અનુક્રમે જ પ્રાપ્તિ થાય છે. જેને માટે કહ્યું છે કે- जा गंठि ता पठमं, गठिं समइच्छओ भवे बीअं । અનિયદિન પુન, સમસપુરÜરે નીચે || જ્ | ' આ નિવ્રત્તિકરણના જેટલા સમયેા છે, તેટલાજ તેના અધ્યવસાયે અને તે પૂર્વ પૂર્વ સમયની વિશુદ્ધિથી ઉત્તરાત્તરસમયેામાં અનંત ગુણવિશુદ્ધિવાલા જાણવા. તથા જેમ અકરણમાં શરૂઆતથી જ સ્થિતિષ્ઠાતાદિ ચાર કાર્યો કરે છે, તેવીરીતે અહીં પણ તે કાર્યાં કરે છે. અન્ત પ્રિમાણસ્થિ તિવાલા આ કરણના કરેલા સંખ્યાતા ભાગેામાંથી ધણા ભાગે વ્યતીત થાય અને એક સખ્યાતમા ભાગ બાકી રહે ત્યારે સીધી લાઇન રૂપ મિથ્યાત્વની સ્થિતિસ ંધિ નીચેના અન્તર્મુહૂ પ્રિમાણ ઉદયાવલિકાને ભાગ છેાડી દઇ શેષભાગમાં અંતર કરણ કરે છે. અંતરકરણનો અર્થ એ છે કે- અન્તમુ`ત્ત કાલસુધી ભાગવવા લાયક એવા મધ્યભાગમાં રહેલા લિકાને પ્રથમસ્થિતિ અને દ્વિતીયસ્થિતિમાં દાખલ કરવાના કારણભૂત જે ક્રિયાવિશેષ અથવા અવ્યવસાય તે અંતરકરણ કહેવાય, આ અંતરકરણન નીચેની સ્થિતિનુ નામ પ્રથમસ્થિતિ તથા ઉપરતી સ્થિતિનુ દ્વિતીયસ્થિતિ નામ છે. તથા આગળ પામવા લાયક અંતર્મુહૂત્ત પ્રમાણસ્થિતિવાલા ઓપશમિક સમ્યગ્દર્શનને મિથ્યાત્વના પુદ્દગલા વિઘ્ન ન કરે તે સારૂં અંતર્મુહુ કાલ પ્રમાણ અંતરકરણ કરેછે- આ અંતરકરણ કરે ત્યારે મિથ્યાત્વની સ્થિતિના એ વિભાગ પડે છે તેમાં ૧ પ્રથમસ્થિતિ અંતર્મુહુ પ્રમાણુવાલી છે. ૨ દ્વિતીયસ્થિતિ અંતઃ '; Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૨) છે પ્રસ્તાવના | ડાકડી સાગરોપમપ્રમાણુ જાણવી. તથા પ્રથમ સ્થિતિમાં વર્તમાન જીવ ઉદીરણું પ્રયોગથી તે ( પ્રથમ સ્થિતિ) ના દલિને ખેંચી જે ઉદયાવલિકામાં દાખલ કરે, તેનું નામ “ ઉદીરણા અને દ્વિતીયથિતિમાં રહેલ દલિકોને તેજ (ઉદીરણ) પ્રયોગ વડે ખેંચી ઉદયાવલિકામાં દાખલ કરે તે “આગાલ: કહેવાય આગાલ તે ઉદીરણાને એક ભેદ છે. ઉદય અને ઉદીરણાવડે પ્રથમ સ્થિતિને અનુભવ કરતે કરતે જ્યારે તે સ્થિતિ એ આવલિકા પ્રમાણુ શેષ રહે ત્યારે આગાલરૂપ ઉદીરણા પ્રવર્તતી નથી તે પહેલાં તે અને ગુણણિ પ્રવર્તે તે વખતે માત્ર મિથ્યાત્વને સ્થિતિરસઘાત અને ઉદીરણા જ ચાલુ છે. જ્યારે પ્રથમ સ્થિતિ આવલિકા કાલ પ્રમાણુ શેષ રહે ત્યારે મિથ્યાને સ્થિતિઘાત રસધાત અને ઉદીરણ પણ બંધ પડે છે. તે આવલિકામાં રહેલ ઇતિકને ઉદયવડે જ અનુભવે છે, તેમાં પ્રથમ સ્થિતિમાં વર્તમાનજીવ મિથ્યાત્વલિકોને અનુભવે છે, તેથી તે મિથ્યાદષ્ટિ જાણે. મિથ્યાત્વની પ્રથમસ્થિતિકાલના ચરમસમયે એટલે અનિવૃત્તિકરણના છેલ્લા સમયે બીજી સ્થિતિમાં રહેલા દલિકોને મદનકદ્રવના દૃષ્ટાતે અનુભાગની તરતમતાવાળા ત્રણjજ કરે, કહ્યું છે કે- “તે વારિ, તિgમજ સધાર તw જિd, મિત્તે તથાફી / ” અર્થ – તે કાલે એટલે જે સમયથી અનન્તર આપશમિક સમ્યગ્દર્શન પમશે તે સમયે અથવા પ્રથમ સ્થિતિના છેલ્લા સમયે મિથ્યાત્વભાવમાં રહ્યા છત બીજી સ્થિતિમાં રહેલા કર્મલિકને અનુભાગવડે ત્રિધા શુદ્ધ, અર્ધ શુદ્ધ, અશુદ્ધ, એમ ત્રણ પ્રકારના કરે છે. તેમાં શુદ્ધદલિકે તે સમ્યકત્વમેહનીયને પુંજ જાણો, અને તે દેશાતિપ્રકૃતિ છે. કારણકે તે પ્રકૃતિમાં - હેલ રસ વિશિષ્ટ શ્રદ્ધાન રૂ૫ દેશને રેકે છે પરંતુ સામાન્ય પ્રધાનને રોકત નથી. તથા અશુદ્ધ દલિક તે મિશ્રમેહનીયને પુંજ અને અશુદ્ધ દલિક તે મિથ્યાત્વમેહનીયને પુંજ જાણવો. તે બને પણ સર્વઘાતિ પ્રકૃતિ છે. કારણકે તેઓમાં સર્વશ શ્રદ્ધાનને ઘાત કરનાર રસ રહેલો છે. તથા રામરમર मिच्छदिठि से काले उवसमसम्म हिटि होहीइ ताहे बिइयठिई तिहाणुभागं करेइ, तं जहा. सम्मत्तं, सम्ममिच्छत्तं, मिच्छत्तं તિ, આ પ્રમાણે કમ્મપયડી તથા તેની યુણિને અભિપ્રાય છે, અને પથમિક સમ્યગ્દર્શન પામ્યા પછી ત્રણ પંજ કરે એમ શતકમ્યુણિઆદિ ને અભિપ્રાય છે તે આ પ્રમાણે નખત્ત ૩wifહતો તિષિ करणाणि करेउं । उवसमसम्मत्तं पडिवन्नो मिच्छत्तदलियं ति Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે પ્રસ્તાવના છે (૧૩) jની રે , માસ, અનુદ્દે રતિ” હવે પ્રથમ સ્થિતિના અનુભવકાલમાં કરણત્રિક કરનાર સંસારિજીવ મિથ્યાત્વાલિકને અનુભવ ચાલુ હોવાથી મિથ્યાષ્ટિ હોય છે કારણ પ્રથમ સ્થિતિના દલિકોને જ્યારે સંપૂર્ણ અનુભવી રહે, ત્યારે અંતરકરણના પ્રથમ મયે સેનાધિપતિને દુર્જયશત્રુના જયની માફક અપાર આનંદના કારણભૂત પિશમિક સમ્યકત્વ અનાદિ મિથ્યાષ્ટિ જીવ પ્રાપ્ત કરે છે જેમાં સાતે પ્રકૃતિ (અનં-ચતુષ્ટય દર્શનમોહત્રિક ) ને પ્રદે શોદય તથા રદય પણ હોતો નથી. અને એ હેતુથી તેને શ્રીતત્વાર્થસૂત્રની વૃત્તિમાં અપગલિક સમ્યકત્વ કહેલ છે, અને તે જ હેતુથી ક્ષાયિકદર્શન, આિપશકિદર્શન તે ભાવસમ્યકત્વ કહેલ છે. એ પ્રમાણે અનાદિ મિથ્યાદૃષ્ટિ છવ શરૂઆતમાં આપશામક દર્શન જ પામે, એ અભિપ્રાય કર્મગ્રંથકારનો છે. કારણકે તેઓ ઉપર કહેલા કમ્મપયડી શતકણી આદિના પાઠોથી આપશમિક સમ્યગ્દર્શન પામવાના પૂર્વ સમયે અથવા પામ્યાબાદ ત્રિપુંજ કરે એમ સમ્મત છે. અન્યત્ર પણ કહ્યું છે કે- “જન્મથેનુ પુર્વ, મોવરમ करेइ पुजति । तव्वडिओ पुण गच्छइ सम्मे मीसंमि मिच्छे થા શા” અને સિદ્ધાન્તકારના અભિપ્રાયે કોઈ અનાદિ મિથ્યાષ્ટિ જીવ વિશિષ્ટ અધ્યવસાયાદિ સામગ્રીને યુગે અપૂર્વકરણે ત્રિપુંજ કરે, તે વખતે સમ્યકત્વમેહનીય પુજના ઉદયમાં વર્તમાન તે જીવ ક્ષાયોપથમિક દર્શન પામે છે. અને કોઈ અનાદિ મિથ્યાદષ્ટિ જીવ ત્રણ કરણ કરવા પૂર્વક અંતરકરણના પ્રથમ સમયે જે ઔપશમિક દર્શન પામે, તે તે જીવ ત્રિપુંજ ન કરે કારણકે તેની અ૫સ્થિતિ છે. અને તેને ઉત્કૃષ્ટથી છ આવલિકાકાલ, તથા જધન્યથી એક સમય કાલ બાકી રહે ત્યારે તે વમીને અવશ્ય મિથ્યાત્વ જ પામે. આ બાબત શ્રીક૯૫ભાષ્યમાં કહ્યું છે કે–સર્જિવામરતો ન सट्टाणं न मुंचए इलिया । एवं अकयतिपुंजी. मिच्छंचिअ उवસમીપs | સમ્યકત્વના પ્રાપ્તિકાલમાં કોઈ પ્રકૃવિશુદ્ધિવાળો જીવ દેશવિરતિ અથવા સર્વવિરતિ પણ પામે છે કહ્યું છે કે- ૩ મનમદિર अंतरकरणे ठिओं कोइ । देसविरइंपि लहेइ. कोई पमत्तापमत्त. માવ િતારાથi Tળ િ I આ સ્થલે એપ શું જાણવું કે- સૈદ્ધાતિક મતે જેમ પ્રથમ સમ્યકત્વના લાભમાં ત્રણ કરણ કહ્યા, તેમ દેશવિરતિ અને સર્વવિરતિના લાભમાં ત્રણ કરણ કરવામાં આવતા નથી, કારણકે– અપૂર્વ કરણના પ્રથમ સમયે જ તે બેમાંના એકને લાભ હોવાથી અનિવૃત્તિકરણ અપ્રોજક છે તથા તેને લાભ થયા પછી અંતમુહુર્ત સધી વધતે પરિણમી છવ હોય છે. તેમજ જે નિરુપયોગ ભાવે વિરતિભાવને Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૪) છે પ્રસ્તાવના છે ત્યાગ કરે, તે જીવ કરણ ક્રિયા કર્યા વિના જ ફરી વિરતિ પામે છે. અને જે ઉપયોગ અવસ્થામાં વિરતિરહિત થાય, અને તેવી રીતે મિથ્યાભાવને પામે તે જીવ જધન્યથી અંતમુહુર્તકાલમાં અને ઉત્કૃષ્ટથી લાંબે કાળે પણ પૂર્વે કહેલ કરણની ક્રિયા કરીને જ ફરી વિરતિ અંગીકાર કરી શકે, એ પ્રમાણે જાતિવૃત્તિમાં કહેલ છે, સૈદ્ધાતિકમતે- જે છ પામેલ સમ્યગ્દર્શન વમી ફરી સમ્યગ્દર્શન પામ્યા તે જીવોમાં કોઈ જવામાં કોઈ જીવ ઉત્કૃષ્ટથી છઠી નરક સુધી પણ જઈ શકે છે, પરંતુ કાર્મગ્રંથિકમતે તે જીવ વૈમાનિક દેવજ થાય. એમ શ્રી પ્રવચનસારે દ્વારવૃત્તિમાં કહેલ છે. વલી કર્મગ્રંથકારના મતે સમ્યગ્દષ્ટિજીવ જ્યારે મિથ્યાભાવ પામે ત્યારે કર્મોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બાંધે પણ તેઓને તે રસ બંધ કરે. અને સેધ્ધાતિભતે ગ્રંથભેદ કરનાર જીવ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિબંધન કરે. આ સમ્યગ્દર્શનના મહિમાને જણાવતાં શાસ્ત્રકાર મહારાજા કહે છે કે જે જીવને અંતમુહુર્ત જે અલ્પકાલ પણ જે સમ્યગ્દર્શન પ્રાપ્ત થયું હોય તે તે જીવને લાંબા કાલ સુધી સંસારચક્રમાં પરિભ્રમણ હતું નથી, તે પછી લાંબી સ્થિતિવાલા, સમ્યગ્દર્શનધારિ જીને અલ્પસંસાર હેય, તેમાં શું આશ્ચર્ય હોય ? તથા ચક્રવર્તિરાજા પણ સમ્યગ્દર્શનના અને ભાવે ભિક્ષુક જે ગણાય છે અને તે દર્શનના પ્રતાપે ભિક્ષુક પણ તેથી અધિકગણાય છે. તથા સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતા દરેક વસ્તુ અનેકવાર પ્રાપ્ત થાય છે, પરંતુ સમ્યગ્દર્શન પામવું દુર્લભ છે, અને તે હેતુથી તે રત્નની ઉપમા આપેલી છે. છેવટે સર્વ સંપત્તિઓનું નિધાન અને શાનનું કારણ પણ એક સમ્યગ્દર્શન છે, એ પ્રમાણે મેક્ષરૂપી કલ્પવૃક્ષના બીજ સમાન સમ્યગ્દર્શનનું સંક્ષેપમાં સ્વરૂપ જાણાવ્યું, સમ્યગ્દર્શનને પામેલ છવ પરમપૂજ્ય શ્રીતીર્થકર ભગવતએ પ્રતિપાદન કરેલ અને પૂજ્યશ્રી ગણધર મહારાજાદિ પુવાચાએ સૂત્રરૂપે ગુઘેલ આગમાં કહેલ અથે યથાર્થ જ છે, એમ માને છે. કદાચ તેને આવકાર કમેના દોષોને લઈને પિતાને આ ત્મસ્વરૂપ કર્મ સ્વરૂપ વિગેરે ગહન અથો ન સમજાય. તે પણ અસત્યના કારણભૂતાદિને રાગ નાશકાર જિનેશ્વર ભગવતે વિપરીત ભાવ કહે જ નહિ, એવી શ્રદ્ધા રાખે છે. હવે “તત્ત્વાશ્રદ્ધાન તે સમ્યગ્દર્શન” એમ પર્વે કહ્યું તેમાં વાસ્તવિક તો કેટલા છે ? અને તે બાબતમાં અન્યદર્શન કારોએ માનેલ ન્યુન-વા અધિક ત સત્યકેટીમાં દાખલ થઈ શકે છે કેમ? આ સંબંધી વિચાર કરીએસંખ્યાની અપેક્ષાએ સ્યાદ્વાદમતાવલંબિ રસિક આહંત શ્રીભગવતી આદિ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે. પ્રસ્તાવના મ સૂત્રની સાક્ષીએ પ્રમાણસિદ્ધ નવત માને છે. જોકે-શ્રીગશાસ્ત્રવૃત્તિ અને શ્રીસમયસારછકરણ વિગેરેમાં સાતતા કહેલ છે, તો પણ તે વ્યામોહને માટે નથી, કારણકે પુણ્યતને શુભાશ્રવ અને પાપ તત્ત્વને અશુભાશ્રવ તરીકે ગણી આઝવમાં પુણ્ય, પાપને અંતભવ કરીને તેમ કહેલ છે. એક બીજામાં અંતભાવ કરવાથી તે પાંચ અને બે તત્ત્વ પણ કહેવાય છે. પરંતુ યથાસ્થિતભાવે ત નવ જ છે, નવ એ અભેદસંખ્યા છે. અભેદસંખ્યાનું લક્ષણ એ કે- જેને કોઈપણ સંખ્યાએ ગુણ્યા પછી સરવાળો તેના ( ગુણ્યસંખ્યાના ) જેટલોજ થાય, તે અભેદસંખ્યા કહેવાય. જેમ ૪ સંખ્યાને ૪ આ સંખ્યાએ ગુણવાથી ૩૬ આ બેને સરવાળો કરવાથી ૮ અને ગુણ્યસં. ખ્યા પણ તેટલી જ છે, એવી રીતે ૮ ને કઈ પણ સંખ્યાએ ગુણ્યા પછી ગુણાકારના અંકનો સરવાળો ગુણ્યસંખ્યાને એટલે જ થશે તેથી ૯ એ અમેદસંખ્યા છે. પરંતુ બીજી ૭ વિગેરે સંખ્યા અભેદ ન કહેવાય. કારણકે તેને કોઈપણ સંખ્યાએ ગુણ્યા પછી ગુણાકારના અંકના સરવાલા જેટલી ગુર્યાસ ખ્યા થતી નથી. જેમ ૭ + ૮ = પદ ) ૫ + ૬ – ૧૧ ) ઇત્યાદિ યુક્તિથી પણ નવતર ઘટી શકે છે, તે પણ મિથ્યાદર્શનકારે જેવાકે અક્ષપાદ, કપિલ, શ્રાદ્ધ, વૈશેષિક વિગેરે પિતાની સકદાચ માન્યતાને અનુસારે | નાધિત પ્રરૂપે છે, જેમ અક્ષપાદ (નૈયાયિક) ૧૬ પદાર્થને, કપિલ ૨૫ તોને, બંધ ૧૨ આયતોને; વૈશેષિક 9 પદાર્થોને માને છે, વિગેરે પરતું વાસ્તવિકરીતે તેઓ તસ્વરૂ૫જ નથી કારણકે તત્વની વ્યાખ્યા એ છે કેત મrષરતા તેનું એટલે પદાર્થનું યથાર્થ રવરૂપ તે તત્ત્વ કહેવાય. ઈત્યાદિ તત્ત્વનું લક્ષણ તથા સ્વરૂપ તેઓના માનેલ તમાં ઘટતુ નથી. તે લક્ષણાદિ તત્ત્વપલક્ષ્યમાં કેવી રીતે નથી ઘટતા, તેને વિસ્તાર દર્શનસમુચ્ચય' નામના ગ્રંથથી જાણી લે, ' સજજ ? જાણમાંજ હશે કે- પરિચય એ પ્રવૃત્તિનું કારણ છે તેથી હવે પ્રસ્તુત ગ્રંથને પરિચય પર જણાવવું જોઈએ. શ્રીનવતવિસ્તરાર્થ— જેમાં નવતનું ટુંક સ્વરૂપ, તથા તે એને શ્રીભગવતી આદિ સૂત્રોમાં કહેલ ક્રમે દાખલ કરવાનું જિન, તથા ઉત્તરભેદોનું સ્વરૂપ પ્રતિપાદન કરેલ છે. તેમાં૧ જીવત– જેના અનેક ભેદોનું સ્વરૂપ, લક્ષણ, શ્રીસત્તાથ ધિગમ સુત્રાદિને અનુસારે પર્યાપ્તિનું વિતરસ્વરૂપ, દશપ્રાણોનું સ્વરૂપ, તેઓને એકેન્દ્રિયાદિ જેવોમાં વિભાગ, રહસ્ય, પરિશિષ્ટ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (28) મેં પ્રસ્તાવના ૨ અશવતત્ત્વમૂલાત્તરભેદોનુ સ્વરૂપ, પરિણામિઆદિ દ્વારાની ઘટના પરિશિષ્ટ ૩ પુણ્યતત્ત્વમાં ૧૭–૨૫--૪૨ ભેદનું સ્વરૂપ† પરિશિષ્ટ દર્શાવેલ છે, ૪ પાપતત્ત્વમાં— ૮૨ભેદનુ સવિસ્તરસ્વરૂપ, પરિશિષ્ટ પ્રતિપાદન કરેલ છે. ૫ આશ્રવતત્ત્વમાં‹ઇન્દ્રિય, (૫) કષાય, (૪) અત્રત. (૫) ચેાગ (૩) (૨૫) ક્રિયાઓનુ′ સ્વરૂપ છે ૬ સંવતવમાં— સમિતિ (૫), ગુપ્તિ (૩), પરિષહ (૨૨) યતિધર્મ - (૧૦), ભાવના (૧૨), ચારિત્ર (૫)નું સવિસ્તરસ્વરૂપ દાખલ કરેલ છે. ૭ નિજ રાતત્ત્વમાં— ૬ ખાદ્યુતપ, હું અભ્યંતરતપનુ સવિસ્તરસ્વરૂપ છે. ૮ બંધતત્ત્વમાં— ૮ કમેનુ ભેદ પ્રભેદ સહિત વિસ્તારથી રવરૂપ છે. ૯ માક્ષતત્ત્વમાં— સત્પદ પ્રરૂપણાદિ નારાનું સવિસ્તર વર્ણન છે. તથા છેવટે પ્રક્ષિપ્ત ગાથા સહિત શ્રીનવતત્ત્વપ્રકરણની ભૂલ ગાથા દાખલ કરેલ છે વિશેષ સ્વરૂ૫ના જિજ્ઞાસુજીવે એ અનુક્રમણિકા જેવી. ૧ શ્રીનવતત્ત્વસાહિત્યસંગ્રહ, ભાગ ૧-૨-૩-૪-જેમાં ચારભાગ પૈકી પ્રથમભાગમાં— પાંચ ગ્રંથરા દાખલ કરેલ છે, તે આ પ્રમાણે— ૧-વાચકવર્યાં શ્ર મહુમાસ્વાતિમહારાજાએરચેલુ શ્રીનવતત્ત્વપ્રકરણ સા॰ ૨–શ્રી જયશેખરસૂરિપ્રણીત નવતત્ત્વપ્રકરણ સા. ૩-શ્રીદેવગુપ્તસૂરિપ્રણીત નવતત્ત્વપ્રકરણ · પં. ૪-તેના ઉપર શ્રીનવાંગીવૃત્તિકાર શ્રીમદભયદેવસૂરિપ્રણીત ભાષ્ય સા. પ–શ્રીદવેન્દ્રસૂરિપ્રણીત નવતત્ત્વપ્રકરણ સા. દ્વિતીયભાગમાં શ્રીનવતત્ત્વપ્રકરણ ઉપર-1-શ્રીપ્રાચીન આચાર્ય પ્રીત અવસૃષ્ટિ-૨-શ્રીસારત્નસૂરિપ્રણીત અવચૂર્ણિ-૩-શ્રીદેવેન્દ્રસરિપ્રણીત વૃત્તિ-૪- હુનવતત્ત્વની પ્રક્ષિપ્તગાથાઓ-૫-તે ગાથાએની ઉપર- શ્રીતપાગચ્છાચાર્ય જગદ્ગુરૂ શ્રીમજિય નેમિસૂરીશ્વર પટ્ટપૂર્વાંચલ નામણિ શ્રીમદ્વિજયસૂરિ પ્રીતઅવર્ણિ- આ પાંચ ગ્રંથરત્ના દાખલ કરેલ છે. તૃતીયભાગમાં——૧-કલિકાલસર્વજ્ઞ શ્રીહેમચદ્રસૂરીશ્વરપ્રણીત સપ્તતત્ત્વપ્રકરણ સાથ` ૨-શ્રીદેવાનંદસૂરિપ્રણીત સપ્તતપ્રકરણુ સા, આ એ ગ્રંથરત્ના દાખલ કરેલ છે. ચતુર્થાં ભાગમાં - ૧-શ્રીભાગ્યવિજયજીએરચેલ તથા ૨-શ્રીવિવેકવિજયજી એરચેલ-શ્રીનવતત્ત્વસ્તવન ૩-શ્રીજ્ઞાનસારમુનિકૃત છંદોબદ્ઘભાષા-નવતત્ત્વપ્રકરણ ૪-પ્રાચીન ગુર્જરભાષા ૫ શ્રીનવતત્ત્વચિાર. આ ચાર ગ્રંથો દાખલ કરેલછે વિસ્તારથી જાણવાની ઇચ્છાવાલા જીવાએ અનુક્રમણિકા જેવી. W Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *'' છે , ' પ્રસ્તાવના | આ પ્રસંગે મારે અવશ્ય જણાવવું જોઈયે કે- અત્ર શ્રીનૈતન્દ્રના પ્રસ્તાવિમાં પ્રાસંગિક વિષયોનું સંપૂર્ણજ્ઞાન સંપાદન કરાવવામાં સાધનભૂત શ્રીઆચારોશનિતિ, શ્રી ઉત્તરાધ્યયન, કર્મગ્રંથ, બહનવતત્વ વિગેરે ગ્રંથની પ્રક્ષિપ્ત ગાથાઓ સમેતપ્રકરણ કે જેની અંદર ૧૪૦ ગાથાઓ છે. જે ગાથાઓ રસસ્થાન, સ્થિતિસ્થાન વિગેરે જનકર્મ ફિલોસોફીને અનુભવ કરવામાં સર્વશે સાધનભત છે. તેઓમાંની એકે-ર૭ ગાથાય છે. કારણકે તેઓની વૃત્તિ, અવચૂર્થિઆદિક વિદ્યમાન છે. તે પણ બાકીની ૧૧૩ ગાઓ ઉપરકહેલ વૃત્તિ આદિ સામગ્રીના અભાવે બાલાજીવોને સુબોધક થવી અશક્ય છે. એ હેતુ અવલંબીને વાસીચંદનની માફક સમાન બુદ્ધિએ ભવ્યને અધ્યાપનાદિકારા ભાવદાન સંમપી કૃતાથી બનાવનાર, આહતતત્વના વિશાલભાવેને સૂચવનાર શ્રીજનતત્વપરિક્ષાદિ અપૂર્વ ગ્રંથસંદર્ભના રચનાર- શાસનસમ્રાટતીર્થ રક્ષણપરાયણ વિદ્રવૃન્દાવલંસ તપગચ્છાચાર્ય ભટ્ટારક પરમે પકારિ પૂજ્યપાદ, જંગમકલ્પતરૂ અમારાં સદગુરૂવર્ય શ્રીમદ્વિજયનેમિસૂરીશ્વર પટ્ટપૂર્વાચલ ભાડ, મારા ઉપકારિ સિદ્ધાન્તવાચસ્પતિ ન્યાયવિશારદ પૂજ્યપાદ તપગચ્છાચાર્ય શ્રીમદ્વિજયેદસૂરિ મહારાજાએ સરલ અને સુબેધક અવચૂર્ણિથી ઉપર કહેલ ૧૧૩)ગાથાઓને અલંકૃત કરેલ છે. જેથી તેઓશ્રીને આ અનહદ આભાર અનાગ્રહિતત્ત્વરસિક ભવ્યજીવોને અવિસ્મરણીય છે. અંતમાં આ બે ગ્રંથના પઠન પાઠન અને નિદિધ્યાસનદ્વારા ભવ્ય આત્મવરૂપ કર્મને બંધ તથા મેક્ષ ઈત્યાદિ પદાર્થ તરોને યથાર્થ સમજવા ઉપરાંત હિતમાર્ગમાં પ્રવૃત્તિ અને અહિતમાર્ગથી નિવૃત્તિ પામી સકલ કર્મ કલંકથી નિમુક્ત થઈ કલ્યાણનું ભાજન પરમપદને પામે, એમ નિવેદન કરી પદાર્થ સ્વરૂપને વિશેષ અનુભવ આ ગ્રંથો--ના અધ્યયનાદિજન્ય પરિચયને આધીન હોવાથી હવે હું આ ટુંક પ્રસ્તાવનાને સંક્ષેપીલઈશ. અને તે વ્યાજબી જ છે કારણ કે સંક્ષેપરૂચિને ટુંકામાં બોધ થઈ શકે છે. જેમ– ચંદનવૃક્ષનું સંક્ષિપ્ત વર્ણન પણ તેમાં રહેલ શીતલતાનું જ્ઞાન કરાવામાં નિબંધનભૂત સં. પજે છે. તથા છઘસ્થાને આવારકકર્મના પ્રતાપે અનાગ જન્મખ્ખલના અનિવાર્ય છે. यतः- अवश्य भाषिनो दोषाः, छमस्थत्वानुभावतः । समाधि तन्वते सन्तः, किंनराधात्र पक्रगाः।। १ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૮) પ્રસ્તાવના તેથી આ બે ગ્રંથોમાં ગુણગ્રાહિ વિદ્યાવાચકવર્ગને સંશોધનજી તથા મુ. શુજન્ય જે કાંઈ યેગ્યા ભૂલચુક જણાય તેને મહાશયો સુધારીને વાંચ, અને કાકરી જણાવવા તસ્દી લેશે તો બીજી આવૃત્તિમાં સુધારો પણ થઈ શકશે- અત્યતં વિસ્તરણ, ભૂયા શ્રીશ્રમણસ પસ્ત નિવેશ્રીગુરૂનેમિસૂરીશ્વરચરણકિંકર નિ પઘવિજય પ્રસ્તાવનાની સૂચના પેજ પતિ મા કારણે શબ્દ કેસ દેથી છપાય છે. પેજ ૧૪ પંકિત ૨૪ માં આવકારને બદ “આવારકવાંચવું. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनयतत्वविस्तरार्थ तथा नवतस्वसाहित्यसङ्ग्रह विषयानुक्रमणिका. विषय. विस्तरार्थकारनुं मंगलाचरण ग्रन्थकारतुं वस्तुसंकीर्तन मंगल निरूपक प्रथम गाथा नवतस्वन संक्षिप्त स्वरुप. अंतर्गतपुण्यानुबंधिपुण्यादि चोभंगीन स्वरूप. नवतरवोमां जीवाजीवादि विभागोनी व्हेंचण. बे अथवा सात तस्वोमां नवनो अंतर्भाव. नवतावक्रमहेतुविचार प्रथमगाथारहस्य. नवतस्वना उत्तरभेदोनी संख्यासूचक द्वितीयगाथा, उत्तरभेदोमां रूपीमरूपी भेदसूचक प्राचीनगाथाओ. नवतस्वमा जीवाजीयादि भेददर्शक यंत्र. जीवतत्वना भिन्नभिन्नरीते भेददर्शक प्रक्षिप्ततृतीयगाथा नीवतत्वना १४ भेदना नाम वतावनार चोथीगाथा १४ भेदोर्नु संक्षिप्तस्वरूप. जीव, लक्षणप्रदर्शक प्रक्षिप्तपंचमगाथा. न्यायवृष्टिए लक्षणस्वरूप भने अनुमानथी जीवतत्वसिद्धि जीवनां लक्षणोनु टुंकस्वरूप. सर्वजीवोमां चारित्रनु, सपर्नुस्वरूप पर्याप्तिस्वरूपमापक प्रक्षिप्तगाथाषष्ठी पर्याप्तिनुं विस्तृतस्वरूप. भिन्न भिन्नमते पर्याप्तिओनो अर्थ. पर्याप्तिक्रमविचार. पर्याप्तिसत्कपुद्गल विचार.. आहारक क्रियदेहमां तथा एकेन्द्रियोमा आहारना - खलरसपरिणमनसंबंधी शंकासमाधान. ३७ देवोमां पांचपर्याप्तिवर्णनरहस्य ते संबंधी भिन्नभिन्नविचार. ३७ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) श्रीनaavaविस्तरार्थस्य विषय. पर्याप्तिनो प्रारंभ समकाले छतां समाप्ति क्रमशः थाय जीवोमां प्रर्याप्ति संख्याविचार. afoधकरण भेदविचार. संमूच्छिममनुष्यनी पर्याप्तिविचार. प्रर्याप्त पर्याप्तसंबंध विस्तृतविचार पर्याप्तापर्याप्त सूचक यंत्र पर्याप्तापर्याप्तमो संवेध. लब्धिकरण पर्याप्त पर्याप्तनो काळ. पर्याप्तापर्याप्तकालसूचक यंत्र. अपर्याप्त मृत्युसंबंधी शंकासमाधान, पर्याप्तिओनं कार्य. पृष्ठ. > तत्संबंधिप्रश्नोत्तर. ३८ तत्वार्थभाष्यवृत्युक्त पर्याप्ति विचार. पर्याप्तओनो प्रारंभ अने पूर्णता ते शुं ? ते संबंधी शंकासमाधानपूर्वक विस्तीर्ण विचार. इन्द्रियोनो स्थानविचार. अभ्यन्तरेन्द्रिय संस्थान (आकार). इन्द्रियोनी लंबाई पहोळाइ जाडाइनुं प्रमाण. इन्द्रियग्राह्यविषय तथा तेनुं क्षेत्रप्रमाण, इन्द्रियोनी प्राप्याप्राप्यकारिविभाग. ४० xxxxxx ww 3 % इन्द्रियपुद्गलप्रदेशो तथा तत्क्षेत्रनुं अल्पाबहुत्व कोण इन्द्रिय कयाजीवने होय ? ते विचार. इन्द्रियोनुं अल्पाबहुत्व. इन्द्रियोना २९ भेदनो यंत्र. इन्द्रियमां दैर्ध्यादि ९ द्वारनो यंत्र. मनोबल प्राण तथा द्रव्यमनभाव द्रव्यमनविचार. दिगंबर तथा नैयायिकादि संगतमनोनिरास. ४२ ४३ e ४६. ५४ प्राणभेद तथा जीवोमां प्राणसंख्यासूचक प्रक्षिप्त सप्तमीगाथा. ५८ इन्द्रियप्राणनो अर्थ तथा द्रव्यादिभेद.. ५९ द्रव्यादिभेदना निर्वृत्यादि भेददर्शकयंत्र इन्द्रियभेदस्वरूप. ४६ ४७ ५९ ५९ ६१ ६२ ६३ ક ६६ ६६ ६७ ६८ ६९ ७१ ७३ ७३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ • विषय. पृष्ठ. बचनबलप्राणविचार. ७४ शब्द पौद्गलिकत्व सिद्धि आकाशगुणत्वनिरास. ७४ भाषानी उत्पत्ति - क्षेत्र - आकृति - स्थिति विगेरे विचार. ७५ कायबल प्राणविचार पांचशरीरनुं संक्षिप्त स्वरूप. शरीरमां कारणभेद - प्रदेशसंख्या - स्वामित्वविचार. ७६ ७७ एक जीवमां युगपत् शरीरसंवेध. ७८ शरीरनुं व्याप्तिक्षेत्र तथा कार्य शरीरोनुं दैर्घ्यप्रमाण तथा जघन्योत्कृष्टस्थितिविचार. सर्वलोके शरीरसंख्या तथा विरहविचार. कया जीवने केरला शरीर होय ? शरीरमां कारणकृतविशेषादि ११ द्वारयंत्र श्वासोच्छ्रवास प्राणविचार. आयुः प्राणविचार. द्रव्यायुष्य तथा कालायुष्य विचार. अपवर्तमीयानपवर्तनीय - सोपक्रम निरुपक्रमायुविचार. आयुः पुलक्षय थाय तेनी लाथे स्थितिक्षय शीरीते सोपक्रमनिरुपक्रमनो अर्थ. अपवर्तनीयादि भेदसंवेध. उपक्रमभेदविचार. ( ३ ) श्वासोच्छ्रवास साथै आयुष्यनो अपेक्षाविचार. आयुर्वृद्धि थाय के नहि ? ते विचार. अपवर्तनीयानपवर्तमीयता हेतु विचार. तत्वार्थवृत्युक्त विस्तृत खुलासो ८० ८१ ८२ कया जीवोने कयुं आयुष्य होय ? ते विचार. जीवपरभ्वे आयुर्बन्धकाल विचार. कया जीवने केला प्राण होय तेनो विचार. एकेन्द्रियादिमां उच्छ्वासविचार तथा संमूर्छिममनुष्यना 1600400 ८३ थाय ? ते संबंधीविचार. ८९ ९० ९१ ९१ ९२ ९४ ९४ ८६ ८७ ८७ ८८ प्राणविचार. ९७ जीवतत्वपरिशिष्ट अपेक्षाभेदे जीवोना एकथी बाबीश, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) श्रीनवतत्वविस्तरार्थस्य - विषय. पृष्ठ. . पत्रीश, एकसोसोळ-पांचसोत्रेसठ, पविमोचीराशी . जीवभेदविचार. ९८ पांचसोधेसठ जीवभेदविस्तार. १०० चौदजीवभेदस्थानो. अजीवतत्त्व १४ भेदसूचकगाथा आठमी. धर्मास्तिकायविचार. अधर्मास्तिकायविचार. आकाशास्तिकायविचार. काळविचार. १०८ नैश्चयिककालस्वरूप-वर्तनापर्याय-परिणामपर्याय विचार. १०९ क्रियापर्यायविचार. ११० परत्वापरत्वपर्यायविचार. व्यावहारिककालस्वरूप. स्कन्धविचार. देशविचार. प्रदेशविचार. परमाणुविचार. परमाणुप्रदेशभेदविचार. द्रव्योना स्कन्धादिमेदो तथा तेनी संख्याषिचार अजीवतत्वमां द्रव्य केटला तथा धर्मास्तिकाय-अधर्मा. स्तिकायलक्षणदर्शक गाथा नवमी. पांचद्रव्यर्नु टुंकमां स्वरूप. १२१ आकाशास्तिकायस्वभाष तथा पुद्गलभेददर्शक गाथा दशमी १२३ द्रव्यस्वभावकथनप्रसंगे पुर्लभेदकथनहेतुविचार. पुद्गललक्षणदर्शक गाथा एकादशी. १२६ शब्दभेद तथा उत्पत्तिविचार. १२७ अंधकारविचार, उद्यात-प्रभा--छायाविचार. आतप-वर्णादिविचार. एकमुहर्तनी आवलिका संख्यादर्शक प्रक्षिन गाथा द्वादशी १३४ ११७ . . . १२५ १२८ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका. १४१ १४२ विषय. पृष्ठ. समयथी आरंभी कालचक्रसुधी कालदर्शक गाथा त्रयोदशी. १३४ दृष्टांतोबताषयापूर्वक समयनु सूक्ष्मस्वरूप. आवलिका-क्षुल्लकभव-उच्छवासस्वरूप. १३६ मुहूर्तना चांद्रादिभेदो तथा नामो. १३७ दिवसराविना भेदो-तेनु मान तथा पदरदिवस १५ रात्रि १५ तिथिना नामो. १३८ चंद्रपूर्यादि पांचप्रकारना मासोनुं स्वरूप. अयनस्वरूप-पांच प्रकारना वर्षनु स्वरूप युग पूर्वागथी - आरंभी शीर्षप्रहेलिकासुधीकालनु स्वरूप. १३९ मतांतरथी लतांगादिकालस्वरूप. . पल्योपमसागरोपमस्वरूप. १४० उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, कालचक्रस्वरुप. अतीतानागत कालप्रमाण. अढीछीपवहार कालव्यवहारविचार. कालस्वरूपज्ञापक यंत्र. १४२ छ द्रव्यमा परिणाम्यादिभेदज्ञापक प्रक्षिप्तगाथा चतुर्दशी. १४४ परिणामी-अपरिणामीविचार १४५ जीवद्रव्यमा गत्यादि १० परिणामविचार. १४५ अजीब (पुद्गल) द्रव्यना बन्धनादि १० परिणामविचार.. छ द्रव्यमां जीवाजीवरूप्यपिरूविचार. ૨૪૭ छ द्रव्यमां सप्रदेशाप्रदेशादिविचार. १४८ छ द्रव्यमां नित्यानित्य विषयकनिश्चयविचार. १४९ छ द्रव्यमां कारणाकारणविचार. १५० द्रव्यकृत उपकारादिवर्णन. छ द्रव्यमां कर्तृत्वादिविचार, छ द्रव्यमां सर्वव्यापि-देशव्यापि सप्रवेशाप्रवेशादि विचार. १५३ छ द्रव्योमा परिणाम्यादि विभागयंत्र. छ द्रव्योना द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव, गुण, आकृति वर्णन १५४ अजीवतत्त्वपरिशिष्ट. अजीवना ५६० भेद अरूपिना ३० रूप्यजीवन। ५३० भेद. १५६ १४६ १५१ १५६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) श्रीनवतत्वविस्तरार्थस्य .. - १५८ १६१ विषय. पृष्ठ. भनपि भनीवना १० भेद. १५७ हौकिककालविचार. . दशवकालिकचूणिना अभिप्राये अजीवमेद विचार... पुण्यतत्व प्रारंभ प्रथम १७ भेददर्शक गाथा पंदरमी. १५९ पुण्यशब्दार्थ तथा पुण्यतस्वस्वरुप तथा कयाकया कर्मनी कोणकोण प्रकृति शा हेतुथी पुण्यकर्म कहेवाय ? तेनुं . . विस्तारथी रहस्य. १६० पुण्यवन्धमा ९ कारणो. लौकिकमान्यतानु भस्वीकार्यपणुं. . . १७ पुण्यप्रकृतिओन संक्षिप्तस्वरूप. शेष २५ प्रकृति जणावनारी सोलमी गाथा. . १६७ २५ प्रकृतिओनुं संक्षिप्तवर्णन. तियगायुपुण्यप्रकृतिमां शा हेतुथी ? तथा तिर्यग्गति-आनु... पूर्वीपापमां केम गणी ? तेनु प्रश्नोत्तर साथे वर्णन. १६९ २५ प्रकृतिमां बतावेल असदशक शब्दनो अर्थ जणावनारी । प्रक्षिप्त गाथा सत्तरमी. १७० प्रसादि १० प्रकृतिनुं टुक स्वरूप. पुण्यतस्वपरिशिष्ट--गतीन्द्रियमार्गणाये पुण्यप्रकृतिभेदो. १७२ त वार्थकारमते पुण्यप्रकृतिभेदो. पापतत्वप्रारंभ-पापतत्त्वना ६२भेद दर्शावनार गाथा १८ मी. १७४ पापप्रकृतिवन्धना १८ हेतुओ . १७५ ६२ पापप्रकृतिओर्नु संक्षिप्तवर्णन. . शेष २० भेद जणावनारी गाथा ओगणी समी. २० प्रकृतिओर्नु संक्षिप्त वर्णन, १.८२ अढारमी गाथामां नाम मात्र कहेल स्थावर दशक प्रकृतिओ जणावनारी प्रक्षिप्त गाथा वीशमी. .१८४ पापतत्त्वपरिशिष्ट गतीन्द्रिय मार्गणाये पाप प्रकृतिभेदो. १८५ आप्रवतत्त्वप्रारंभ तेना ४२ भेद दर्शाधनारी गाथा २१ मी. १८७ इन्द्रियोद्वारा कर्म आववान वर्णन. ...१८८ कषाया- तेना उत्तरभेदो- तेथी थता आश्रवनुं वर्णन - ते संबंधी समजवा लायक हकीकत. १८९ १७२ १८१ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (७) विषय. पांच अव्रतस्वरूप तेथी थता आश्रवनुं वर्णन. १९२ त्रण योगर्नु स्वरूप तथा तेथी थता शुभाशुभ आश्रवनु वर्णन. १९४ २५ क्रियाओ पैकी प्रथमनी ८ क्रियायो जणावनारी प्रक्षिप्त गाथा बावीसमी. १९६ आठक्रियाओतुं विस्तृतवर्णन तथा तेना गुणस्थानकी सीमा.१९७ श्रीस्थानांगसूत्र- प्रज्ञापनाजी...नवतत्त्वभाष्यादि ग्रन्थोने । अनुसारे क्रियाओन वर्णन. १९७ नवथी सोळ सुधी क्रियाओ बतावनार गाथा त्रेवीशमी- २०१ सत्तरथी पच्चीस सुधी बतावनार गाथा चोवीशमी. २०५ आश्रयतत्त्व परिशिष्ट-गतीन्द्रियमार्गणाये आश्रवोनी व्हेंचण २०८--क सपरतत्त्व प्रारंभ-मंवरना सत्तावन भेद दर्शावनारी . पचीसमी गाथा २०९ पांचसमिति त्रणगुप्तिनाम दर्शाधनारी प्रक्षिप्त छवीशमी . गाथा. २१० पाचसमितिनुं विस्तृतवर्णन. २११ प्रणगुप्तिवर्णन-समितिगुप्ति भेदविवेचन. बाधीशपरिषही पैको प्रथमना चौद परीषहदर्शक प्रक्षिप्त सत्तावीशमी गाथा. २१३ १ क्षुधापरीषह स्वरूप तथा ते सहन करवा उपर हस्ति मित्र हस्तिभूति मुनिनु दृष्टान्त, २१४ २ पिपासापरीषह स्वरूप तथा ते सहन करवा उपर धन मित्र तथा धम शर्मामुनिनु दृष्टान्त. २१५ ३ शीतपरीषहस्वरूप तथा ते सहन करवा उपर श्रीभद्र बाहुस्वामिमहाराजना. चारमित्र शिष्योनुं दृष्टान्त. २१७ ४ उष्णपरीषहस्वरूप तथा ते उपर अरहन्नकमुनिनु दृष्टान्त. २१८ ५ दंशपरिषहस्वरूप तथा ते सहन करवाउपर श्रमण ___ भद्रमुनिनुं दृष्टान्त. २२० ६ अचेलकपरीषहस्वरूप तथा सहन करवाउपर आर्य रक्षितसरिना पितानुं दृष्टान्त. २२१ । ७ अरतिपरीषहस्वरूप तथा ते सहन करवाउपर राजपुत्र तथा पुरोहितपुत्रनु दृष्टान्त. २२४ २१२ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) श्रीनवतस्वविस्तरार्थस्य • विषय. ८ सीपरीषहम्वरूप तथा ते सहन कराउपर श्रीस्थूलभद्र भगवान् दृष्टान्त. २२६ ९ चर्यापरिषहस्वरूप तथा ते उपर संयमसूरिनु संक्षिप्त वृत्तान्त. २२६ १० नैषेधिकीपरीषहस्वरूप तथा ते उपरकुरूदत्तपुत्रमुनिनु दृष्टान्त. २२७ ११ शय्या परीषहस्वरूप तथा ते सहन करवाउपर सोमदत्तमुनिनु दृष्टान्त. २२७ १२ आक्रोशपरीषहस्वरूप तथा ते सहन करवाउपर . . - तपस्विमुनिनुं दृष्टान्त. २२७ १३ वधपरिषहस्वरूप तथा ते सहन करवाउपर स्कन्दकमुनिना . . शिष्योनु दृष्टान्त. २२९. १४ याचनापरिषहस्वरूप तथा ते सहन करवाउंपर बलभद्र - मुनिनु दृष्टान्त. २३१ - शेषपरिषहोना नाम बतायनार प्रक्षिप्त गाथा अठावीशमी. २३२ १५ अलाभपरिषहस्वरूप ते सहनकरी संतोषराखवा उपर कृष्ण-बलदेव-दारूक-सत्यकनु दृष्टान्त. २३२ १६ रोगपरिषहस्वरूप तथा ते सहन करवा उपर सनत्कुमार . चक्रवर्ति, दृष्टान्त. २३४ १७ तृणस्पर्शपरिषहस्वम्प तथा ते सहन करवा उपर भद्रमुनिनु दृष्टात्त. २३५ १८-१९ मलपरिषह तथा सत्कारपरीषहस्वरूप तथा ते सहन करवाउपर दृष्टांत. २३७ २) प्रज्ञापरिषहस्वरूप तथा ते सहन करवाउपर सागरा. चार्यनु दृष्टान्त. २३७ २१ अज्ञानपरिषहस्वरुप तथा ते सहन करवाउपर मातुषः । मारुषमुनिनु दृष्टान्त. २३७ २२ सम्यक्त्वपरिषह स्वरूप तथा ते सहन करवाउपरं आषाढाचार्यनु दृष्टान्तः २३८ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥विषयानुक्रमणिका ॥ ર૪૮ २२ परीषहमां कर्मोदय अने गुणस्थानयंत्र.. २३९ १० प्रकारे यतिधर्मदर्शावनारी प्रक्षिप्त गाथा ओगणत्रीसमी २४० क्षान्त्यादि दशेधर्मोनुं टुंक विवेचा. . २४० बारभावनाओ पैकी प्रथमनी नव भावनाओ दर्शावनार प्रक्षिप्त गाथा त्रीशमी. २४३ अनित्यतादि भावनाओर्नु संक्षिप्त विवेचन. २४४ शेषभावनाओ बतावनारी प्रक्षिप्त गाथा एकत्रीशमी २४६ लोकस्वभावादि भावनाओन टुं क वर्णन. ર૬ पांच चारित्रो पैकी प्रथमनो चार दर्शावनारी प्रक्षिप्त - गाथा बत्रीशमी. २४८ सामायिकादि चारित्रोनं विवेचन.. परिहारविशुद्धि चरित्रवर्णन प्रसंगे तेना भेदो तथा परिहारविशुद्धिचारित्र उपर क्षेत्रादि वीश द्वारोनुं विवेचन.२५० यथाख्यातचारित्रनुं स्वरूप तथा महिमा सूचवनारी प्रक्षिप्त गाथा तेत्रीशमी. २५४ संवरतत्स्वपरिशिष्ट गतीन्द्रियादिमानणाए संघरोनुं घटावq. २५६ निर्जरातत्त्व प्रारंभ निर्जराना बारभेद तथा बन्धना चार भेद दर्शावनार गाथा चोत्रीशमी. २५३ प्रकृन्यादि. बन्धभेदोन विवेचन. २५७ छ बाह्य तप सूचवनार प्रक्षिप्त गाथा पांत्रीशमी. छ बाह्यतपभेदोनु विवेचन. अणसणना भेदो. पुरुषस्त्रीनपुंसकना आहारनुं प्रमाण. अभ्यन्तरतपो भेदो सूचवनार प्रक्षिप्त गाथा छत्रीशमी. प्रायश्चित्तनु स्वरूप तथा विवेचन. विनय, स्वरूप तथा विवेचन. वैयावृत्त्यस्वरूप तथा विवेचन. स्वाध्याय स्वरूप तथा भेद विवेचन. २६६ आत--रौद्र-धर्म-शुक्लध्यानना विवेचनी तथा भेदो. २६६ उत्सर्गस्वरूप तथा भेदविवेचन. . . . . . प्रकृतिबन्धादिनु स्वरूप सूचवमारी प्रक्षिप्त गाथा ३७ मी. २७१ २६९. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः - प्रकृतिबन्धनादि ४ नु विवेचन. २७१ संक्षेपमा ४ बन्धहेतुओनुं वर्णन. ર૭રૂ मूळ तमा उत्तर कर्मप्रकृतिभेदो दर्शाषनारी प्रक्षिप्त गाथा आडत्रीशमी. २७४ आठ कर्मोन टुंक स्वरूप. २७५ आठ कर्मोना स्वभावसूचक दृष्टान्तो बतावनार प्रक्षिप्त .. गाथा ओगणचालीशमी. २७६ कर्मना आठ दृष्टान्तोनुं विवेचन. .. २७७ उच्चकुलादि विवेक नही माननाराओने शिक्षण. २८० आठ कर्मोपैकी चार कर्मोनी उत्कृष्टस्थिति दर्शावनारी । प्रक्षिप्त गाथा चालीशमी. २८१ शेष चार कर्मोनी उत्कृष्टस्थितिसूचक प्रक्षिप्त ____ गाथा एकतालीसमी. २८२ कर्मोनी जघन्यस्थितिदर्शावनारी प्रक्षिप्त गाथा ४२ मी. २८३ बन्धतत्त्व परिशिष्ट. आठ कर्मोनी उत्कृष्ट-जघन्य स्थिति अबाधाकालदर्शक यंत्र. २८५ मोक्षतत्वप्रारंभ मोक्षतत्त्वना नवद्वार दर्शावनार गाथा ४३ मी २८६ नवद्वारोनु विवेचन. २८७ सत्पदप्ररुपणोद्वारस्वरूप सूचक प्रक्षिप्त गाथा ४४ मी. २८९ मूल चौद - उत्तर बासठ मार्गणा बतावनारी प्रक्षिप्त, . गाथा पीस्तालीशमी. २९२ मार्गणादर्शक यंत्र. २९३ मार्गणाओमां मोक्षपद प्राप्तिदर्शक प्रक्षिप्त गाथा ४६ मी. २९५ द्रव्यप्रमाण तथा क्षेत्रद्वार बतावनारी प्रक्षिप्त गाथा ४७ मी. ३०० स्पर्शना-काल-अन्तरद्वारसूचक प्रक्षिप्त गाथा अडतालीशमी.३०३ भाग तथा भावद्वार बतावनारी प्रक्षिप्त गाथा ४९ मी. ३०६ अल्पबहुत्वद्वार बतावनारी प्रक्षिप्त' गाथा पचासमी. ३०१ नपुंसक भेदो तथा मुक्तियोग्य नपुंसकस्वरूप. समकाले सिद्धियोग्य जीव संख्या यंत्र. ३१४ नवतत्वज्ञान तथा श्रद्वाननु फल सूचवनारी गाथा ५१ मी. ३१६ सम्यक्त्व संबंधमां जाणवायाग्य प्रश्नोत्तरा. ३१८ ३१० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (११) m निश्चल सम्यक्त्व कोने होय ? ते स्वरूप सूचषनार गाथा बावनमी. ३१९ सम्यक्त्वनो महिमा सूचषनार प्रक्षिप्त गाथा तेपनमी. ३२२ पुद्गलपरावर्तन स्वरूपसूचथनार प्रक्षिप्त गाथा चोपनमी. ३२५ बादर सूक्ष्म द्रव्यादि पुद्गलपरावर्तन संक्षिप्त वर्णन. ३२६ सिद्धमा पंदर भेद दर्शावनारी गाथा पंचावनमी. पंदरभेदोन कांइक विस्तृत विवेचन. ३२८ पंदर भेदो पैकी प्रथमना चार भेदोना दृष्टान्त बतावनारी . गाथा छपनमी. ३३४ पंदर भेदोनो परस्पर संवेध. भतीर्थ सिद्ध मरूदेवीमातानुं दृष्टान्त. ३३६ गृहिलिंगसिद्धादि चार भेदोना दृष्टान्त बतावनार . . गाथा सत्ताधनमी. ३३७ गृहलिङ्गसिद्धादि उपर भरत महाराज-वल्कलचीरिमहाराज पदरसो तापसोना संक्षिप्त वृत्तान्तो. ३३८ स्त्रीलिङ्गसिद्धादि उपर चन्दनबालानुं दृष्टान्त. ३३९ पुरुषलिंगसिद्धादि चार भेदना दृष्टान्तो सूचवनारी गाथा . अठावनमी. ३४० पुरुषलिङ्गसिद्धादि उपरगौतमस्वामीजी-गांगेय-करकंडू -कपिलमुनि विगेरेना दृष्टान्तो. ३४० बुद्धबोद्धित सिद्धादि वणर्नु वर्णन करनारी गाथा ५९ मी. ३४५ मोक्षतस्व परिशिष्ट, सिद्धमां नवतत्वभाष्यादिमां वर्णवेलु १२ अनुयोगद्वारोनु समवतारण. ३४७ गतीन्द्रियादिमार्गणाए मुक्तिवर्णन. समयसिद्ध संख्यायंत्र. प्रक्षिप्त गाथाओ साथे एकसो चालीस गाथार्नु 'नवतत्त्व प्रकरण. ३५३ ३५१ ३५२ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) श्रीनवनचविस्तरार्थस्य ॥ नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहनी विषयानुक्रमणिका ।। (सानुवादसंस्कृतसाहित्यानुक्रमणिका) १.उमास्वातिवाचक विनिर्मित नवतस्व प्रकरण गुर्जर . भाषानुवाद साथे. १ २ जयशेखरसूरिरचित नवतत्वप्रकरण गूर्जरभाषामुवाद साथे. ८ ३-४ अभयदेवरिप्रणीत भाष्यसमेत देवगुप्तसूरि संदृष्ध नवतत्वप्रकरण गूर्जरभाषानुवाद साथे. ९ ५ देवेन्द्रसूरि गुंफित नघतत्त्वप्रकरण गूर्जरभाषानुवाद साथे.३६ __ (संस्कृतसाहित्यानुक्रमणिका.) प्राचीनावचूर्णि-साधुरत्न पूरिकृतावधूणि-देवेन्द्रसूरिधिनिमितवृत्ति-वृहन्नवतत्त्वप्रक्षेप गाथा-तदवचूर्णिसमेतश्रीमय तत्त्व प्रकरण. १ नवतत्वोमां जीवाजीवादि विभाग तथा षडद्रव्योमा परिणा म्यादिविभागदर्शक यंत्रो. ८० (गूर्जरभाषानुवादसमेतसप्ततस्वसाहित्यानुक्रमणिका) श्रीहेमचन्द्र सूरिप्रणीत सप्ततस्व प्रकरण गूर्जरभाषानुवाद साथे. १ सात तत्त्वोमां ज्ञेयहेयोदि विभाग सूचक यंत्र. देवानन्दसूरिरचित सप्ततत्त्वप्रकरण गूर्जरभाषानुवाद साथे. १९ * आ नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह, नवतत्त्वप्रकरणविस्तरार्थना परिशिधरूपे योजेल छतां फरमाओ पधी जवाथी तथा विस्तरार्थ बहार पड । प्रेस विगेरेनी अगवडताने लीधे विलंब थवाथी अलग बंधायो छे. पण तेनी विषयानुक्रमणिका त्या दाखल थवी रही गयेल होवाथी अहीं दाखल करी छे. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (गुर्जरभाषासाहित्यानुक्रमणिका . ) श्रीभाग्यविजयजीकृत नवतन्वस्तवन. श्री विवेक विजयजीकृत नवतत्वस्तवन. श्रीज्ञानसारमुनिकृत पद्यबद्ध नवतत्व प्रकरण गद्यभाषा नवतत्त्व प्रकरण. नवतस्वानुं भाषामां टुंक विवेचन. जीवतत्वप्रारंभ तथा भेदवर्णन. पर्याप्त विश्वार. प्राणविचार. अजीतवप्रारंभ तथा भेदवर्णन, षड् द्रव्यविचार. पुण्यतश्वप्रारंभ तथा भेदवर्णन. पापतत्वप्रारंभ तथा भेदवर्णन. ( १३ ) आश्रवतत्त्वप्रारंभ तथा भेदवर्णन. संघरतत्त्वप्रारंभ तथा भेदवर्णन. निर्जरातत्त्वप्रारंभ तथा भेदवर्णन. वन्धतत्वप्रारंभ तथा भेदवर्णन. प्रकृतिबंधविचार. सम्यक्त्वाधिकारवर्णन, अवान्तरकर्मस्थिति विचार. रसबन्धवर्णन. प्रदेशबन्धवर्णन. मोक्षतत्वविचार. नवतत्वबोधफल विचार. पल्योपम सागरोपमं यावत् पुगलपरावर्त पर्यन्तकाल पंदर भेद सिद्धवर्णन १४ २९ ३० ३२ ३२ ३३ ३५. ३६ ३७ ३८ २४० ४० ર ४४ १८ ५१ ५२ ५७ स्वरूप वर्णन ५७. ६० Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ शुद्धिपत्रकम् ॥ पृ. पं. अशु० शुद्ध. । ३७ . १७ मासा भासा १० २२ कहयु का । ३७ २० च्छवा छवा .' ११ २३ अध० अध०१, ३८ ११ वैकि वैकि १७ २१ जोवो जीवो । ३९१० वंधबंध १८ ७ जेवो. जीवो ३९ २३ लब्धि . लब्धि १८ १३ द्रष्टि दृष्टि ४० २३ सभू सम्भू २१ २४ तीज तोज ४० . र्याप्ति र्याप्त . २१ १७ शनि शङ्गि ४० १८ लब्धिलब्धि २१ २४ सिद्ध सिद्धि ४० १८ च्छषा च्छ्वा २२ १८ इहा ईहा । २३ १ जाणा जणा ४२ १९ सिध्धी सिद्धि २३ ४ चैतत्य चैतन्य ४२ २० सुधी सुधी. २३ ७ नीगो निगो ४३ ९ च्छवा च्छ्वा २३ १० अ अ. ४३ २६ प्तेन २३ १२ कोइ कोइने ६ पर्या पर्या .. २४ १४ अश अंश ५० २१ थथ थम २४ १५ धीक ५४ २ पुद्गग पुद् २५ २६ जीवो जीवो ७३ २ घ्राणे घ्राणे २६ ४ उणो ऊणो ७३ २८ मण मणण ७४ १७ अने अने आकाश ३२ २० पुर पुद् ७५ २६ सुघी सुधी ३२ २६ च्छवा च्छवा ७६. १ कता ,ता ३३ १५ रुप रूप । ७८ २१ भते मते ३३ २६ च्छवा च्छ्वा ७८ २४ आ औ ३३ २० अत्त्मा आत्मा ८९ २४ वीजे बीजे ३४ ४ च्छवा च्छवा । ९५ ११ वाप्य व्याप्य ३४ २८ रुपे रूपे । ९६ ८ वाकी बाकी ३५ २, अत्त्मा आत्मा । ९८ ११ १ प १ अप ३६ ४ च्छवा उवा ३६ ६ वन नव १०१ १८ गपती गती . ३६ १४ शेष शेषे १०९ ७ जीष जीव FREE EFFEREE EFFEEEEEER EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ ९. बन्ध ३०२ . ८ जोषो जीव २७६ २२ थ . हि । ३०३ ३ अंत अंतरं "... " वा वान | ३०३ १७ सिध्ध सिद्ध २८८ २० प " " मउ महु २९२ ५ शिरा इया | ३२२ १२ . गद्वा गयद्धा २९८ १९ चार त्रण ३२९ १७ पम एम २९९ १८ रुम रूप | ३३७ ४ हिग गिह सूचना. ___पा. १३४-२८ मी लाइनमां. भगवतीजी-पनवणावृति आदि ने अभिप्राये तेजसवर्गणा अष्टस्पर्शी छे.अने तेथी ते गुरुलघुद्रव्य मान्यु छे. अने चतः स्पीभाषादि वर्गणाओ अगुरुलघुद्रष्य छे. पा. १६५-३ जी लाइनमां " रुढ मुंड " ए शब्द पछी छठी लाइनमा 'जेवु" ए शब्दथी "पुण्यरूप छे" त्यां सुधीनुं वाचवू पछीथी “आ प्रणे' विगेरे वांचधुं. पा. १८२-१४ मो लाइनमा.एकेन्द्रिर्यादि जानिनाम कर्न एकेन्द्रियादिव्यपदेश थवामां अने इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म स्पर्शनादि इन्द्रियो पामवामां फयु छे, ___ पा. १८४-१५मी लाइनमां."होय ते"ए शब्द पछी ८२ हुंडक-जे कर्मना उदय थी शरीरना तमाम अवयवो लक्षणरहित होय ते. पा. २०९-२० मी लाइनमां मनोयोगादिनी वृत्तिओने अशुभ व्यापारमाथी अथवा सर्वथा रोकवी ते गुति. पा. २५ -१५ मी लाइनमां. भिक्षानासंसृष्ट-असंसृष्ट-उध्धृतअल्पलेपकृत-उद गृहीत-प्रगृहीत-उज्झितधर्माए सात भेदो पैकी प्रथमना बेनो त्याग करी पांच भेदे भीक्षा ग्रहण करे तेमां पण निरन्तर बे भेदनो अभिग्रह राखे. नव मुनिगण पैकी अनुचारक तथा वा वनावार्य (कल्पस्थित) निरन्तर आयंबिल करे छ. तप करनार तथा अनुचारकने अतिवारादि कारणे वाचनाचार्य प्रायश्चित्तादि आपे छे. परिहार विशुद्धिकल्प तीर्थकरनी पासे अगर तीर्थकर पांसे जेमणे ते कल्प अंगीकार को होय तेनी पांसे अंगीकार कराय छे. पा. ३३.-२० मी लाइनमां. १५०० तापलोए अष्टापदपर्व तथी ऊतरता गौनमन्वामी महाराज पाले प्रत्रज्या ग्रहण करी अने साधु वेव धो हतो त्यारजाद पारकराऽमुं हतुं. जेथो तेओ स्वलिंग सिद्धज गणी शकाय. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ ९. वध बन्ध । ३०२ ८ जोवो जीव २७६ २२ थ. ३०३ ३ अंत अंतरं "... " वा वान । ३०३ १७ सिध्ध सिद्ध २८८ २० प ५ " " मउ महु २९२ ५ ज्ञिरा इया ३२२ १२. गद्धा गयद्धा २९८ १९ चार प्रण | ३२९ १७ पम एम २९९ १८ रुम रूप | ३३७ ४ हिग गिह सूचना. पा. १३४-२८ मी लाइनमां. भगवतीजी-पनवणावृति आदि ने अभिप्राये तैजसवर्गणा अष्टस्पर्शी छे.अने तेथी ते गुरुलघुद्रव्य मान्यु छे. अने चतः स्पीभाषादि वर्गणाओ अगुरुलघुद्रध्य छे. पा. १६५-३ जी लाइनमा " रुढ मंड " ए शब्द पछी छठी लाइन मां "जेवु" ए शब्दयी "पुण्यरूप २' त्यां सुधीर्नु वांच, पछीथी "आत्रणे" विगेरे वांचषं.. पा. १८२-१४ मो लाइनमा.एकेन्द्रिादि जामिनाम कर्म एकेन्द्रियादिव्यपदेश थवामां अने इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म स्पर्शनादि इन्द्रियो पामवामां फयुछे, पा. १८४-१५मी लाइनमा."होय ते"ए शब्द पछी ८२ हुंडक-जे कर्मना उदययी शरीरना तमाम अवयवो लक्षणरहित होय ते. पा. २०९-२० मी लाइनमां. मनोयोगादिनी वृत्तिओने अशुभ व्यापारमाथी अथवा सर्वथा रोकवी ते गुप्ति. पा. २५ -१५ मी लाइनमां. भिक्षानासंमृष्ट-असंसृष्ट-उध्धृतअल्पलेपकृत-उद गृहीत-प्रगृहीत-उज्झितधर्माए सात भेदो पैकी प्र. थमना बेनो त्याग करी पांच भेदे भीक्षा ग्रहण करे तेमां पण निरन्तर बे भेदनो अभिग्रह राखे. नव मुनिगण पैकी अनुचारक तथा वा बनावायं (कल्पस्थित) निरन्तर आय विल करे छ. तप करनार तथा अनुचारकने अतिवारादि करणे वाचनाचार्य प्रायश्चित्तादि आये छे. परिहार विशुद्धिकल्प तीर्थकरनी पासे अगर तीर्थकर पांसे जेमणे ते कल्प अंगीकार को होय तेनी पांसे अंगीकार कराय छे. पा. ३३: -२० मी लाइनमां. १५०० तापलोए अष्टापदपर्व तथी ऊतरता गौतमब्वामी महाराज पाले प्रत्रज्या ग्रहण करी अने साधु वेष लोधो हतो त्यारवाद पार' कराडं हतुं. जेथो तेओ स्वलिंग सिद्धज गणी शकाय. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलस्वपरसमयपारावारपारीणेभ्यः सत्संयमभृदवतंसकेभ्यो जगदनुग्रहकरणेभ्यस्तपोगच्छाचार्यभट्टारक श्रीमद्विजयने मिसूरीश्वरपादपद्येभ्यो नमो नमः ॥ श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ नीत्वा वरजिनेन्द्र, नतविबुधेशं च नेमिसूरीशम् ॥ नवतत्त्वविस्तरार्थं कुर्वेऽहं बालबोधार्थम् ॥ १॥ ( आर्या ) अवतरण --- आ नवतत्व प्रकरणना प्रारंभमां ग्रन्थकार महाराज वस्तु संकीर्तनरूपमंगलाचरण तथा ग्रन्थाभिधेयादि कहेवा माटे ९ तत्वनां नाम जणावे छे. " मूळ गाथा १ ली. जीवाऽजीवा पुण्णं, पावाऽसवसंवरो य निज्जरणा ॥ बंधो मुरुको य तहा, नवतत्ता हुंति नायव्वा ॥ १ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ जीवाजीव पुण्यं, पापाश्रवौ संवरश्च निर्जरणा बंधो मोक्षश्च तथा, नवतत्त्वानि भवंति ज्ञातव्यानि ॥ १ ॥ शब्दार्थः जीव-जीवतन्त्र. अजीवा - अजीवतच. पुनं - पुण्यतत्व. पाव - पापतच. आसव - आश्रवतच्च. संवरो - संवरतत्त्व. य - अने. निज्जरणा - निर्जरातत्व. बंध-बंधतच्च. मुरुको - मोक्षतव. तहा - तथा, तेमज, तत्स्वरूपे. नवतत्ता - नवतच्चो. हुँति-छे. नायन्या - जाणवायोग्य. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) श्री नवतत्त्व विस्तरार्थः - गाथार्थ:--जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष ए नव (९) तत्वा (सत्यस्वरुपे) जाणवा योग्य छे.. विस्तरार्थ:-आ नवतत्त्व प्रकरणना प्रारंभमां प्रथम नवतत्त्वोनो संक्षिप्त अर्थ आप्रमाणे - ___व्यवहार नये ( स्थूळ दृष्टिए)'शुभाशुभ कर्मोनो कर्त्ता, हा अने भोक्ता ( एटले शुभाशुभ कर्मोंने विनाश करनार अने ते कर्मोंना शुभाशुभ फलोने भोगवनार ) ते जीव कहेवाय, अथवा दुःख सुखादि ज्ञानना उपयोगरुप ( अनुभवरुप ) चैतन्य लक्षणवाळोते जीव कहेवाय, अथवा 'दश बाह्य प्राणो पैकी यथायोग्य प्राणोने धारण करे ते जीव 'कहेवाय, अने ए जीवन जे (लक्षण-भेदादि ) स्वरूप ते जीवतत्व कहेवाय. १ - जीवथी विपरीत लक्षणयुक्त एटले चैतन्यलक्षण रहित जे जड स्वभावी ते अजीव कहेवाय, अने ए अजीव जे लक्षण भेदादि स्वरूप ते अजीवतत्व कहेवाय. २ १ पुण्यकर्म अने पापकर्मनो. २ यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च.. संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षण: अर्थ-जे कर्मभेदोनो करनार, कर्मफलनो भोगवनार, कर्मने अनुसारे एक गतिमाथी बीजी गतिमां जनार, अने कर्मनो अन्त करनार एज लक्षणवाळो आत्मा छे, परन्तु बीजा लक्षणवाळो नहि. ३ " चेतनालक्षणो जीवः” इति वचनात्। ४ ए दश बाह्य प्राणोनुं स्वरूप ७ मी गाथामां कहेवाशे. ५ “ जीवति-दशविधान प्राणान् धारयति इति जीवाः " इति वचनात्. संसारमा रहेला. जीवन ए उपर कहेलं लक्षण जा. णवू. सिद्ध भगवंतोमां तो ज्ञानादिस्वरूप भाव प्राणो होवाथी जीवपणुं कहेलुं छे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्वसंक्षेपस्वरूपम्. जीव जेनावडे सुख भोगवे छे ते कर्म पुण्य कहेवाय, अने ते पुण्यनुं ( शुभ कर्मर्नु ) जे लक्षण भेदादि स्वरूप ते पुण्यतत्त्व कहेवाय छे. अहिं जीवने सुख भोगववामां कारणरूप जे शुभ कर्म ते 'द्रव्यपुण्य कहेवाय, अने ते शुभकर्मने उत्पन्न करवामां कारणरूप जे जीवना शुभ अध्यवसाय (परिणाम ) ते 'भावपुण्य कहेवाय. अथवा पुण्यानुवंधिपुण्य अने पापानुबंधिपुण्य ए प्रमाणे पुण्य वे प्रकारे छे. त्यां जे पुण्य भोगवतां बीजं नवं पुण्य बंधाय ते पुण्यानुबंचिपुण्य, एना उदयथी आ भवमां सुख भोगवी आगळ पण मुख ज भोगवे भरतचक्रचत्ती विगेरेनी माफक. आर्यावर्चना महडिक दानेश्वरी अने धर्मी जीवो आ भवमा पुण्यकर्म भोगवी रहया छे, अने ते पुण्य भोगववाद्वारा बीजुं नवं पुण्य पण उपार्जन करे छे, जेथी आ लोकमां अने परलोकमां (परभवमां ) पण तेओने सद्गतिज प्राप्त थाय छे, माटे ते पुण्यानुबंधिपुण्य कहेवाय छे. अने जे पुण्य भोगवतां बीजु नवु पुण्य, न बंधाय परन्तु पाप बंधाय ते पापानुबंधिपुण्य कहेवाय. जेमके आर्यावर्त्तना अने अनार्यदेशना जे महर्डिक जीवो केटलाएक एवा छे के आ भवमा घणा उंचा प्रकारनो अनेक जातनो वैभव भोगवी रया छे, परन्तु ते वैभव ( पुण्यकर्म ) भोगवतां छतां सत्कार्यों-सदाचार प्रवृत्ति नहिं होवाथी बीजं नवं पुण्य उपार्जन नहिं करतां असदाचार प्रवृत्तिथी अनेक प्रकारनां पापकर्म करी पाप मात्रज बांधी रह्या छे जेथी आ भवमां तो पुण्यकर्मथी सुख भोगवी रह्या छे, परन्तु १ आ स्थाने द्रव्य एटले “ लोकव्यवहारथी, " अथवा " स्थूल दृष्टिए ” एवो अर्थ करवो. . २ आ स्थाने भाव एटले " वास्तविक रीते" अथवा "तत्त्वदृष्टिए" एवो अर्थ करवो.ए बन्ने शब्दोनोअर्थ आश्रवादिकमां पण एज प्रमाणे जाणवो. ३ महाधनवान. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) श्रीनवतचविस्तरार्थः - परभवमां तो ब्रह्मदत्तचक्रवर्तीनी माफक दुःखमय दुर्गनिम छे, एवा प्रकारना पुण्यने पापानुबंधि पुण्य कहेवाकां आवे छे. चालु प्रकरणमां - विशेषतः पुण्यानुबंधिपुण्यनेज पुण्य तरीके मानवु योग्य छे. ३ ' जीवने दुःख भोगववामां कारणरुप जे अशुभकर्म ते द्रव्य पाप, अने ते अशुभ कर्मने उत्पन्न करवामां मूळ कारणरुप जे अशुभ अध्यवसाय ( भाव-परिणाम ) ते भावपाप कहेवाय, अने ए पापर्नु जे लक्षण मेदादि स्वरूप ते पापतत्व कहेवाय. अहिं पाप पण ( पुण्यतत्त्वमां कह्या प्रमाणे) बे प्रकारचें छे. त्यां में कसाइ मच्छीमार वगेरे जीवो आ भवमां दरिद्रतादि अनेक दुःखो (पापो) भोगवी रह्या छे ( भोगवे छे) अने एज पाप भोगववाद्वारा बीजु नवु पाप उपार्जन करे छ जेथी आ भवमां तेओने सुख नथी अने परभवमां पण सुख नथी माटे ते पापानुबंधि पाप कहेवाय. तथा जे जीवो आ भवमां दरिद्रतादि दुःख (पाप) भोगवे है, परन्तु आ दरिद्रता ने पूर्वकृत पापनोज प्रभाव छ एम समजी पोतानी शक्ति प्रमाणे धर्मकृत्यो करें छे जेथी आ भवमां तो तेओने सुख नथी पण परभवमां तो अवश्य सुख थायछे ज माटे ते पुण्यानुबंधि पाप चण्डकौशिक सोदिनी माफक कहेवाय छे. अत्रे बन्ने पापने पाप तरीके मानवु योग्य छे, तोपण वास्तविक रीते पापानुबंधि पापने विशेषतः पाप तरीके मानवु योग्य २. ए प्रमाणे पुण्य पापनी चतुर्भगी (चार भांगा-चार प्रकार) नीचे प्रमाणे थया. ४ १ पुण्यानुबंधि पुण्य-'सुख' छे अनेछ -आप्रकार आदरवा योग्यछे. . १ अर्थात् ( पुण्यानुबंधि पुण्यथी ) आ भवमां सुख छ, अने परभवमां पण सुख छे, ए रीते चार प्रकार समजवा. २ वर्तमानकालनी अपेक्षाए. 3 भविष्यकालनी अपेक्षाए. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्वसंक्षेपस्वरूपम्, (५) नथी, त्याग करवा योग्य नयी -,, २ पापानुबंध पुण्य - सुख' के अने ३ पापानुबंधि पाप - सुख' नयी अने ४ पुण्यानुबंधि पाप - सुख' नथी अने छे जीवोमां कर्मनुं जे आव ते द्रव्य आश्रव, अने कर्म आववा - मां कारण रूप जे जीवनो रागद्वेषयुक्त परिणाम ते भाव आश्रव, अने ए आश्रवनुं जे लक्षण भेदादि स्वरूप ते आश्रव तत्व कहेवाय. अहिं " आश्रव " ए शब्दनो अर्थ " आवकुं " थाय छे. आ आश्रम पुण्यत अने पाप तच्चनो पण समावेश थइ शके छे. कारण शुभ कर्मनुं आवकुं ते शुभाश्रव एज पुण्य, अने अशुभ कर्मनुं आवकुं ते अशुभाश्रव एज पाप कहेवाय छे. ए प्रमाणे वे तनो समावेश करवाथी सर्व तच्च सात छे एम पण शास्त्रोमां कहेलुं छे. ५ "9 " आदरवा योग्य जीवमां आवतां कर्मोनुं जे रोकावुं ( संवर-- रोका, अटकवं, ए अर्थथी ) ते द्रव्य संवर, अने आवतां कर्मोने रोकवामां कार• रुप जे जीवनो शुद्ध अध्यवसाय ( भाव -- परिणाम ) ते भाव संवर, अने ए संवरनं जे लक्षण भेदादि स्वरूप ते संवरतस्व कहेवाय. ६ कर्मोंनो जे देशथी ( अल्पांशे ) क्षय थवो ते द्रव्यनिज्र्जरा, अने कर्मोंनो देशथी क्षयं करवामां कारणरूप जीवनो जे विशुद्ध अध्यवसाय ते भाव निर्जरा अथवा सम्यगदृष्टि जीवनी ( सर्वज्ञ कथित तवज्ञान पर संपूर्ण प्रतीति-- श्रद्धावाळा जीवनी) जे. निज्र्जरा ते सकाम निर्जरा, अने मिथ्यादृष्टि जीवनी ( सर्वज्ञ कथित तत्वज्ञान पर अल्पांशे पण अप्रतीतिवाळा जीवनी) जे निर्जरा ते अकाम निर्जरा. अहिं चालु प्रकरणमां सकाम निर्जराज निर्जरा तरीके गणवी योग्य छे, कारण के . Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) श्रीनवतस्त्वविस्तरार्थः - - - सम्यगद्रष्टि जीव जेटली निर्जरा करे छे तेनाथी नवो कर्मबंध अति अल्प करी शके, अने मिथ्याष्टि जीव तो निजरा अल्प करे अने नवीन कर्मबंध घणोज करे जेथी सर्वकर्मक्षयनो अवसरज न मले, माटे जेमां अल्पकर्मनो बंध छे अने घणा कर्मनी निर्जरा छे एवी सम्यग्दृष्टिनी सकाम निर्जरा ज सर्व कर्मनो क्षय करनारी (मोक्ष प्राप्तिमां कारणवाळी ) होवाथी निर्जरा तरीके गणी शकाय. ७ ____ जीवनी साथे कर्मोनू जे परस्पर मली जवुबंधावू ते द्रव्यबंध, अने ते कर्मोंने बांधवामां कारणरुप जीवनो जे रागद्वेषयुक्त परिणाम ते भावबंध कहेवाय, अने ए बंधनुं जे लक्षण भेदादि स्वरूप ते बंधतच कहेवाय. लोखंडना गोंळामां अग्नि जेम प्रवेश करीने रहे छे, तेम कर्मना अणुओ पण आत्मामां प्रवेश करीने रहे छे. ८ - आत्मानी साथे लागेलां सर्व कर्मोनो जे सर्वांशे संपूर्ण क्षय थवो ते द्रव्यमोक्ष, ते कर्मोंना कारणरूप रागद्वेषादिनो जे साशे संपूर्ण क्षय थवो ते भावमोक्ष, अने ए मोक्षनुं जे लक्षण भेदादि स्वरूप ते मोक्षतत्त्व कहेवाय. ९ उपर बतावेला स्वरूपवाळा नवतच्चो जे प्रमाणे सिद्धान्तो तथा ग्रन्थोमां वर्णव्या छे ते प्रमाणे जाणवायोग्य छे, कारणके तेनुं ज्ञान सम्यकत्व स्थिरता तथा शुद्धिनुं परमकारण छे. ९ तत्त्वोर्मा जीवाजीव विभाग. नव तत्त्वमां जीवतत्व युक्त होवाथी जीवतत्त्व, तथा जीवगुणने ( आत्माना गुणने ) प्रगट करनार होवाथी संवर निर्जरा अने मोक्ष ए चार तत्त्व जीवस्वरुप छे. अने पुण्य--पाप--आश्रव--ने बं Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्व संक्षेपस्वरूपम्. ध ए चार तत्व जडपदार्थना ( पुगलना ) विकार रूप होवाथी अ. जीव छे, अने अजीव तो अजीव छेज, ए प्रमाणे ५ तत्त्व अजीवस्वरूप छे. ९ तत्त्वोमा रुपी अरुपी विभाग. नववत्वमां जीव देहधारी होवाथी रूपी छे, तथा संवर निजरा अने मोक्ष ए त्रणे जीवना परिणाम रूप होवाथी अरूपी छ, तथा पुण्य, पाप, बंध, अने आश्रव ए चारे जडनो (पुद्गलनो कर्मरूप) विकार होवाथी रूपी छे, अने अजीवना केटलाएक भेद रूपी अने केटलाएक भेद अरूपी (२ जी गाथाना विवरणमां कहेवाशे ते प्रमाणे स्कंध-देश-प्रदेश-ने परमाणु ए चार पुद्गलना भेद रूपी छे, अने शेष १० भेद अरूपी) छे माटे अजीवतत्त्व रूपी अरूपी छे. ९ तत्त्वोमां हेय ज्ञेय अने उपादेय. नवतत्त्वमां जीव ने अजीव ए बे तत्त्व ज्ञेय-जाणवा योग्य छे. कारणके ए बे तत्त्वनो आदर अथवा त्याग थइ शकतो नथी, तथा पाप आश्रव बंध ए त्रण तत्व आत्मगुणने आच्छादन करनार ( ढांकनार-प्रकाशित नहि थवा देनार ) होवाथी हेय-त्याग करवायोग्य छे. तथा संवर निर्जरा अने मोक्ष ए त्रण तत्त्व आत्मगुणंने प्रगट करनार होवाथी उपादेय-आदरवायोग्य छे. तथा पुण्यतच ए सुवर्णनी पण बेडी सरखं होवाथी वास्तविक रीते त्याग करवायोग्य छे, तोपण आत्मगुणने प्रगट करवामां ( मोक्षमार्गमां चालता मुमुक्षु जीवोने ) सहायरूप (वळावा सरखं) होवाथी उपादेय ज गणाय छे. " प्रश्न-संवरादितत्त्व जीवस्वरूप होवाथी ज्ञेय, अने आश्र Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) श्री नवव विस्तरार्थः * वादित पण अजीवस्वरूप होवाथी ज्ञेय केम न गणाय ? अथवा संवरादितत्त्वो जो जीवस्वरूप के तो जीवतश्व उपादेय केम न गणाय ? अने आश्रवादितवो जो अजीव स्वरूप के तो अजीवतव हे केम न गणाय ? उत्तर --अहिं हेय ज्ञेयादि विवेचनमां मुख्यताये नवतस्त्वोनी विवक्षा करेली होवाथी स्वतश्वनी मुख्यताये जीवतत्व ते आत्मा ज जाणो, अने अजीवतव ते धर्मास्तिकायादिक ( आगळ कहेवाता) १४ भेद जाणवा, परन्तु आश्रवादिरूप विकारोनी मुख्यare ए बे eat अहिं ग्रहण न करवां, जेथी ए वे तत्त्वो ज्ञेय मात्र ज छे. अथवा सात तत्त्व. चालु प्रकरणमा जो के वो नव कहेल छे, परन्तु संवर निर्जरा अने मोक्ष ए त्रण तत्वने जीवस्वरूप ( प्रथम कह्या प्रमाणे) गणवाथी, अने पुण्य, पाप, आश्रव अने बंध ए चार तत्वो प्रथम कह्या प्रमाणे अजीव स्वरूप गणवाथी मुख्यत्वे जीव अने अजीव ए बेज तत्र गणी शकाय अथवा प्रथम कही गया जब पुण्य अने पापने आश्रaavani अंतर्गत गणतां जीव, अजीव, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष ए प्रमाणे ( तत्वार्थ सूत्रमां कथा प्रमाणे ) सात तत्व पण गणी शकाय, वली नवतत्वोनी उत्पाद, स्थिति, अने व्यय स्वरूपसत्पणानी विवक्षाये सत्स्वरूप एकतन्त्र पण कही शकाय तेम पांचो पण विवक्षा भेदे कही शकाय छे. परन्तु चालु विवेचन नवतने अंगेज छे एम जाणवु. नवतत्त्वक्रम हेतुविचार, सकलतत्त्वनो विचारकरनार - समजनार अजीव पुद्गलादिद्र Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्वक्रमहेतुविचारः - - - व्योनी ग्रहणादि क्रिया करनार, पुण्य-पाप-आश्रव-संवर-बन्ध--निजरा-अने मोक्षतत्त्वनी क्रियाओमां प्रवृत्तिकरनार जीवज छे, तेमज जीव विना तेना विरोधी अजीवनी तथा पुण्यादितत्त्वोनी उपपत्ति पण थइ शके नही माटे प्रथम जीवतत्त्व कयु. जीवोनाते ते भेदोनी व्यवस्था तथा परभवमां गमनागमन विगेरे धर्मास्तिकायादि अजीवतत्त्व सिवायथाय नही माटे बीजं अजीवतत्व. ते अजीवना कर्मस्वरूप विकारोज पुण्य पाप छे, तेमां पण प्रशस्त होवाथी त्रीजुं पुण्यतत्त्व अने चोथु पापतत्त्व. ते बन्नेनुं शुभाशुभ आश्रव विना ग्रहण थइ शके नही माटे पांचमुं आश्रवतत्त्व. ज्यारे आश्रवथी कर्म आवे छे त्यारे तेने रोकनार तत्त्व होवु जोइये माटे छटुं संवरतत्त्व. जेम संवरथी नवांआवतां कमों अटके छे तेम जुना कर्मोंने क्षयकरनार तत्त्व पण होवु जोइए माटे सातमु निर्जरातच का. आश्रवथी आवेलां कर्मों जीवनी साथे सूचिकलापनादृष्टान्ते बद्धस्पृष्टादि अवस्थाये संबद्ध थया सिवाय फळ आपी शके नही. तेमज निर्जराथी जीवसंबद्ध जुनां कर्म ज्यारे वियुक्त थाय छे त्यारे तेनुं विरोधी जीव साथे कर्मोंने संयुक्त करनार तत्व पण कहेवू जोइए माटे आठमुंबन्धतत्त्व कडं. ज्यारे जीवनी साथे कर्मोनो संबंध थाय छे त्यारे तेनो सर्वथा मोक्ष पण होवो जोइए. वळी ते (मोक्ष) सर्वोत्कृष्ट होवाथी अने तेने जमाटे सर्व ग्रन्थनी प्रवृत्ति होवाथी सर्व ग्रन्थना निःस्यन्द( सार ) रूप नवमुं मोक्ष तत्व कयु. - प्रथम गाथार्नु रहस्य. ___ आप्रथम गाथाये करी शिष्टाचारने पाळवा माटे निर्विघ्नपणे ग्रन्थनी समाप्ति थाय ते माटे वस्तुस्वरूपसंकीर्तन' रूप मंगलाचरण १, तथा श्रोतृप्रवृत्तिना हेतुरूप ग्रन्थ- अभिधेय २, तथा नवतचनुं ज्ञान मे १-२ एमां नमस्कार, आशीर्वाद, अने वस्तुसंकीर्तन, ए Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः. ळवई ते अने परंपराए मोक्षरूप फळ ३, क्ली अभिधेय अने अन्थनो वाच्य वाचक भाव संबन्ध ४, तथा नवतत्त्वमो जिज्ञासु आत्मा अधिकारी ५, एप्रमाणे मंगल तथा अनुबन्धचतुष्टयनुं वर्णन कर्यु, जेयी मोक्षाभिलाषी जीवोने आ ग्रन्थनी आदरयोग्यता प्रदर्शित करी. अवतरण-पूर्व गाथामां ९ तत्वनां नाम कहीने हवे आ गायामां कया तत्त्वना केटला भेद छे ? ते दर्शावे छे. . ...... ... मूळगाथा. २ जी. चउदस घउदस बाया--लीसा बासी अ हुँति बायाला सत्तावन्नं बारस, चउ नव भेया कमेणेसि ॥२॥ संस्कृतानुवादः । चर्तुदश चर्तुदश द्विचत्वारिंशत् , इत्यशीतिश्च भवति द्विचत्वारिंशत् ।। सप्तपंचाशत द्वादश, चतुर्नवभेदाः क्रमेणैषां ॥२॥ शब्दार्थः चउदस-चौद. बारस-बार. वायालीसा-वेतालीश. चउ-चार. आसी-व्याशी. नव-नव. हंति-छ. मेया-भेद. बायाला-बेतालीश. कमेण-अनुक्रमे सत्तावन्न-सत्तावन. एसिं-ए ९ तत्वोना. ४ प्रकारनां मंगलाचरणमाथी त्रोनुं वस्तुस्वरूपसंकीर्तन नामनुं मंगलाचरण कहयुं छे. तथा नवतत्त्वोनां नाम कहेवाथी अभिधेय, "नायव्या" ए पदथी प्रयोजन, अने अर्थापत्तिथी संबंध, तथा अधिकारी. ए प्रमाणे अनुबंध चतुष्टय कहेलुं जाणवू. . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतश्वमतिभेदस्वरूपम्. (११) गाथाए ९ तत्वोमां अनुक्रमे जीवना १४, अजीवना १४, पुण्यना ४२, पापना ८२, आश्रदना ४२, संवरना ५७, निजराना १२, बंधना ४, अने मोक्षतचना ९ ए प्रमाणे ( सर्व मळी २७६ ) भेद छे. विस्तरार्थ:-गाथामां कहेला सर्व मळी २७६ भेद ते ते तवना विवेचन प्रसंगे कहेवाशे. तथा प्रथम गाथाना अर्थमां द वेिल जीव, अजीव, रूपी, अरूपी, हेय, ज्ञेय, ने उपादेय ए सात विभागमां कया तत्त्वना केटला केटला भेद प्राप्त थाय छे तेनो संक्षेप गाथा अने यंत्रद्वारा दर्शावाय छे. "चम्माऽधम्माऽगासा, तिय तिय अद्धा अजीव दसगा य ॥ . सत्तावत्रं संवर, निन्जर दुदस मुत्ति नवगा य ॥ १॥ अट्टासि अरूवि हवइ, संपइ उ भणामि चेव रूवीणं ॥ परमाणु देस पएसा, खंध चउ अज़ीवरूवीणं ॥२॥ जीवे दसचउ दुचऊ, बासी बायाल हुति चत्तारी ॥ सय अट्ठासी रूवी, दुसय छस्सत्त नवतत्ते ॥३॥" गाथार्थ:-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अने आकाशास्तिकाय तेना 'प्रण प्रण भेदो एटले के नव भेदो, तथा अद्धा एटले काळ ए अजीवना १० भेदो, तथा ५७ भेद संवरना, निर्जराना १२ भेद, मोक्षतत्वना ९ भेद, ॥१॥ ए ८८ भेदो अरूपी होय छे, हवे निश्च यथी रूपीना भेदो कहुंछु, परमाणु, देश, प्रदेश अने स्कन्ध ए चार पुद्गलना भेदो रूपी अजीवना ॥२॥ तथा 'जीवना १४ भेद, पुण्यतत्त्वना ४२, पापतत्त्वना ६२, आश्रवना ४२, बंधतत्त्वना ४, ए १ धर्मस्तिकाय १, देश २, प्रदेश ३, ए प्रमाणे अध० देश, २ प्रदेश ३, आका० १, देश २, प्रदेश ३. २ संसारी जीव सर्वदा कर्मयुक्त होवाथी. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) श्रीनक्तत्व विस्तरार्थः सर्व मळी १८८ रूपीना भेदो जाणवा. रूपी तथा अरूपीना मळीने नवतस्त्वना २७६ भेदो थया ॥३॥ . २७६ भेदमां. २७६ भेदमां. २७६ भेदमां. जीव अजीव रूपी अरूपी. हेय. झेय. उपादेय. तत्त्वना. जीवतखना. १४ १४ ० ० ० . * अजीवतखना. १४ । ४ ० ० . पुण्यतत्त्वना. ० ० . ० पापतत्वना. . ० ० आश्रवतत्त्वना. ० . ० - ० . ० ५७ २ ० संवरतत्त्वना. निर्जरातत्त्वना. ० ० पंचतत्त्वना. . ० ० . ० . मोक्ष सत्चना. ० | ९२ १८४ १८८ ८८ १२८२८ १२० ॥ अथ प्रथमं जीवतत्त्वम् ॥ . अवतरण-पूर्वगाथामा सामान्यथी नवतत्त्वनी भेद संख्या Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाविधजीवभेदस्वरूपम्. (१३) कहीने हवे आ गाथामां जुदी जुदी अपेक्षाएप्रथम जीवतत्वना भिम भिन्न भेद (आगल ४ थी गाथामां कहेवाता १४ भेदयी) शुदे प्रकारे कहेवाय छे. मूळगाथा ३ जी एगविह दुविह तिविहा, चउबिहा पंचछविहा जीवा॥ चेयण तसइयरेहिं, वेय-गई-करण-काएहिं ॥ ३॥ ॥संस्कृतानुवादः ॥ एक विधद्वि विधत्रिविधा, श्चतुर्विधाः पंचषविधा जीवाः॥ चेतनत्रसेतरै-र्वेदगतिकरणकायैः ॥३॥ ___ शब्दार्थः एगविह-एक प्रकारना चेयण-चेतन(ए एकज मेद वडे) दुविह-बे प्रकारना तस-त्रस ( अने) तिविहा-त्रण प्रकारना इयरेहि-स्थावर वडे चउबिहा-चार प्रकारना वेय-वेद( ना भेद वडे) पंच (विहा)-पांच प्रकारना गइ-गति( ना भेद वडे) छबिहा-छ प्रकारना करण-इन्द्रिय( ना भेद वडे) जीवा-जीवो काएहिं-काय ( ना भेद बडे ) गाथार्थ-सर्वे जीवो चेतन (चैतन्य लक्षण युक्त ) होवाथी एकज प्रकारना छे, अथवा ( आ जीवतत्वमा सर्वत्र संसारी जीवोनो विचार करेल होवाथी सिद्ध जीव सिवायना) सर्वे जीवो त्रस अने स्थावर एबे भेदमा अंतर्गत होवाथी २ प्रकारना छे, अथवा सर्वे जीवोनो त्रण वेदमा समावेश थतो होवाथी ३ प्रकारना छ, अथवा सर्व जीवो गतिना चार भेदमा अंतर्गत होवाथी ४मकारना छ, अथवा सर्वे जीवो इन्द्रियोना ५ भेदमां अंतर्गत होवाथी ५ प्रकारना छ, अथवा सर्वे जीवनो छ कायमा समावेश थतो Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनवतत्वविस्तरयः । होचायी जीवो ६ प्रकारका पण छे. विस्तरार्थ:--सर्व जीयो चैतन्य लक्षण युक्त होवायी (चैतन्य लक्षण रूप भेदवडे सर्व जीवो) एकज प्रकारना छे, परन्तु केटलाएक जीवो चैतन्य लक्षणयुक्त अने केटलाएक जोवो चैतन्य लक्षण रहित एम वे प्रकारना जीवो नथी, माटे सर्व जीवो चैतन्य लक्षणवडे एकज प्रकारना छे. लब्धिअपर्याप्ता सूक्ष्मैकेन्द्रिय जेवा जघन्य जीवोमां पण ज्ञान मात्रा अनन्तमा भाग जेटली सदाकाळ होयज छे. जेनुं स्वरूप आगळ कहेवाशे. " अथवा संसारी जीवोमों केंटलाएक जीवो वस (त्रास-भय पामी एक स्थानथी बीजे स्थाने गमन करनार ) छे, अने केटलाएक जीवो स्थावर (भय पामीने पण स्थानान्तर जवाने अशक्त) छे, अहिं अग्नि अने वायु गतिवडे त्रस छे पण वास्तविक रीते स्थावरछे ए हेतुथी संसारी जीवो त्रस अने स्थावर एम बे प्रकारना पण गणी शकाय छे.. ' अथवा संसारी जीवोमा केटलाएक पुरुषवेद (स्त्री उपर अभिलाप ) वाळा, केटलाएक जीवो स्त्रीवेद वाळा ( पुरुष उपर अभिलाप वाळा ), अने केटलाएक जीवो नपुंसकवेदवाळा (स्त्री अने पुरुष एपने उपर अभिलाषवाळा) होवाथी संसारी जीवो पुरुषवेदी, स्त्रीवेदी, अने नपुंसकवेदी एम त्रण प्रकारना पण गणी शकाय. ___ अथवा संसारी जीवोमां केटलाएक देव, केटलाएक मनुष्य, केटलाएक तियेच, अने केटलाएक नारक होवाथी गतिभेदे (देवादिक गतिना भेदवडे) संसारी जीवो चार प्रकारना पण गणी शकाय. ___अथवा संसारी जीवोमां केटलाएक जीवो मात्र एक स्पर्श इन्द्रियवान, केटलाएक स्पर्श अने जीव्हा ए वे इन्द्रियवाळा, केटलाएक स्पर्श-जीव्हा-अने नाक ए त्रण इन्द्रियोवाळा, केटलाएक स्पर्शजीव्हा-नाक अने चक्षु ए चार इन्द्रियवाळा, अने केटलाएक जीवो Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाविधजीवभेदस्वरूपम्, (१५) स्पर्श-जीव्हा-नाक-चक्षु--अने कान ए पांच इन्द्रियो वाळा पण छे, ए हेतुथी संसारीजीवो एकेन्द्रिय-बीन्द्रिय-वीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियअने पंचेन्द्रिय एम पांच प्रकारना पण गणी शकाय.. ___ अथवा संसारी जीवोमां केटलाएक जीवो पृथ्वीकाय ( पृथ्वी रूप देहने धारण करनारा ) छे, केटलाएक अपकाय (जळ-पाणी रूप देहने धारण करनारा ), केटलाएक तेजस् (अग्नि रूप शरीरने धारण करनारा ), केटलाएक वायुकाय ( वायु-हवारूप देहवाळा ) केटलाएक वनस्पतिकाय ( वनस्पति रूप देहवाळा), अने केटलाएक जीने त्रसकाय (सनामकर्मना उदयथी गमन शक्तिवाली देहने धारण करनारा) होवाथी जीवो छ प्रकारना पण गणी शकाय. शिष्य-बीजी गाथामांकहेलाउद्देश प्रमाणे जीवना १४ भेद दविवाने बदले आ विचित्र रीते जीवना ६ भेद दर्शाव्या ते शृं? . गुरु-हे जिज्ञासु जीवनाजे १४ भेद सामान्यथी बीजी गाथामां कह्या छे ते आगळनी ४थी गाथामां विशेषतः कहेवाशे, परन्तु अत्रे तो प्रसंगोपात्त जुदी रीते६ भेद दर्शाव्या छे. वळी आ गाथामां दर्शाव्या प्रमाणे जीवो जुदी जुदी रीते ६ प्रकारना छ एटलुंज नहिं परन्तु एथी पण अधिक सात प्रकारना, आठ प्रकारना, नव प्रकारना इत्यादि अनेक प्रकारना छे, जे प्रज्ञापनादि सिद्धांतर्थी जाणवा योन्य छे. अवतरण--पूर्व गाथामां जुदा प्रकारे जीवभेद कहीने हवे आ गाथामां (बीजी गाथाना उद्देश प्रमाणे ) जीवना १४ भेद कहछे. मूळ गाथा ४ थी. - एगिंदिय सुहुमियरा, सन्नियरपणिदिया य सबितिचऊ॥ अपजत्ता पजत्ता, कमेण चउदस जियट्ठाणा ॥१॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) श्रीनवतत्वविस्तरार्थः ........ ॥ संस्कृतानुवादः॥ एकेन्द्रियाः सूक्ष्मेतराः, संज्ञीतरपंचेन्द्रियाश्च सद्वित्रिचतुः ।। अपर्याप्ताः पर्याप्ताः, क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि ॥४॥ शब्दार्थ. एगिदिय-रकेन्द्रिय जीवो. बि-दीन्द्रिय. ति-त्रीन्द्रिय. 'इयरा-बादर. . चउ-चतुरिन्द्रिय. समि-संजिपंचेन्द्रिय. अपजत्ता-अपर्याप्ता. इयर-असंज्ञिपंचेन्द्रिय. पज्जत्ता-पर्याप्ता. (पणिदिया-पंचेन्द्रिय) कमेण-अनुक्रमे. य-अने, तथा. चउदस-चौद. स-सहित. जियहाणा-जीवना भेद. गाथार्थ:-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, अने चतुरिन्द्रिय सहित संज्ञिपंचेन्द्रिय तथा असंज्ञि पंचेन्दिय ए साते अपर्याशा अने साते पर्याप्ता गणतां अनुक्रमे १४ जीवभेद थाय. १-२ श्रीजी गाथामां " इयरेहिं " शब्दनो अर्थ " स्थावर वडे " कहेल छे अने आ गाथामां इयरा तथा इयरना अर्थ जुदा जुदा करा तेर्नु कारण ए छे के: इयर-इतर शब्द जे नामने जोडायलो होय ते नामथी विपरित अर्थ थाय छे, जेमके सूक्ष्मनु इतर बादर, स्थावरनुं इतर प्रस, संचिर्नु इतर असंज्ञि, पर्याप्तनुं इतर अपर्याप्त, अने लघुर्नु इतर गुरु इत्यादि रीते इयर-इतर शब्दनो अर्थ प्रतिपक्ष (वि. परीत ) करतो. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशजीवमेदस्वरूपम. (१७) विस्तरार्थ:-गाथामां कहेला जीवना १४ भेदनो अनुक्रम ( अनुक्रमे १४ भेद) आ प्रमाणे के १ अपर्याप्सा सूक्ष्म एकेन्द्रिय. ८ पर्याप्ता त्रीन्द्रिय. २ पर्याप्ता सूक्ष्म एकेन्द्रिय. ९ अपर्याप्ता चतुरिन्द्रिय. ३ अपर्याप्ता बादर एकेन्द्रिय. १० पर्याप्ता चतुरिन्द्रिय. ४ पर्याप्ता बादर एकेन्द्रिय. ११ अपर्याप्ता असंशि पंचेन्द्रिय. ५ अपर्याप्ता द्वीन्द्रिय. १२ पर्याप्ता असंज्ञि पंचेन्द्रिय. ६ पर्याप्ता द्वीन्द्रिय. . १३ अपर्याप्ता संज्ञि पंचेन्द्रिय. । ७ अपर्याप्ता त्रीन्द्रिय. . १४ पर्याप्ता सहि पंचेन्द्रिय... उपर कहेला १४ भेदमां सर्व संसारी जीवोनो समावेश थइ - के छ, अर्थात् ए १४ भेदयी व्यतिरिक्त (भिन्न-जुदो) कोइपण संसारवर्ती जीव नथी. ए १४ भेदमा जे जीवो (६ ही गाथामां कहेवाशे तेवा स्वरुपवानी ) स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या विना मरण पामे ते अपर्याप्ता,अने स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण करीनेज मरण पामे ते पर्याप्ता जीवो कहेवाय छे. सूक्ष्म एकेन्द्रियादिकनुं स्वरूप अन्य स्थले विस्तृत छे तोपण अति संक्षेपथी कहेवाय छे. आ सिवाय बीजा पण ३२-५६३ विगेरे भेदो थाय छे जे परिशिष्टयी देखवा.. जे एकेन्द्रिय जीवो (अर्थात एकेन्द्रियजीवोनां शरीर)घणाएकव थया छतां पण चक्षुगोचर (दृष्टिगोचर) अथवा कोइपण इ न्द्रियने ग्राह्य (इन्द्रिय गोचर ) न थइ शके तेवा सूक्ष्मनामकर्मनाउदयवाळा एकेन्द्रिय जीवो सूक्ष्मएकेन्द्रिय कहेवाय छे. आ जीवो चौद राज प्रमाण लोकमां (आखा जगतमां) सर्वत्र रहेला छे. अर्थाः व सकल विश्वमां एवी कोइ पण जग्या नथी के ज्यां सूक्ष्म एकेन्द्रियो न रह्या होय. ए जीवो सूक्ष्म होवाथी कोइ पण इन्द्रिय द्वाराजाणी शकाता नथी, परन्तु सर्वज्ञोक्त सिद्धांतोमा तेओर्नु अस्तित्व (विद्यमानता) कहेल होवाथी आपणे मानवा योग्य छे के जगत Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) . श्रीनवतत्व विस्तरार्थः मां एवा प्रकारना पण 'असंख्य तथा 'अनंत सूक्ष्म जंतुओ रहेला छे. 'बळी सूक्ष्मदर्शक यंत्रथी जोवा इच्छीए तोपण ते देखी शकाय नहि कारणके हवा बादर (एटले इन्द्रिय गोचर) होते छते पण गमे तेवा सूक्ष्मदर्शकथी जोइ शकाय नहिं तो ते सूक्ष्मदर्शक यंत्रथी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जंतुओं केवी रीते देखी शकाय ? वळी ए सूक्ष्म एकेन्द्रियमां सूक्ष्म पृथ्वीना जंतुओ (सू० पृथ्वीकाय ) असंख्य छे, तेमज सूक्ष्म अप्कायादि (पाणी अग्नि अने वायुना) जीवो पण असंख्य छे. परन्तु सूक्ष्म वनस्पति जंतुओ तो आ जगतमां तेथी पण अधिक एटले अनंत छे. कारणके अनन्त सूक्ष्म वनस्पतिकाय, एक शरीर जेने सूक्ष्म साधारणशरीर वा सूक्ष्म निगोद अथवा सूक्ष्म अनन्तकाय कहे छे तेवी असंख्यात निगोदोनो एक गोलक ( गोळो ) बने तेवा असंख्यात गोलको ( गोळाओ) चौदराज लोकनी अंदर छे. • तथा जे पृथ्वी--जळ--अग्नि-अने वनस्पति द्रष्टि स्पर्शनादि इन्द्रिय गोचर थाय के अने जे हवा स्पर्शगोचर थाय छे ते पृथ्वी वगेरे सर्वे वादर एटले स्थूळ छे, अने ए पृथ्वी-जळ-अग्नि--हवा अने वनस्पति सर्व जीव युक्त छे, माटे ए पृथ्वी विगेरे जीवो बादर एकेन्द्रिय कहेवाय छे. बादर वनस्पतिकायमा केटलाक साधारण शरीरी छे, जेवां के जमीनकंद, आद, मूळा, शेवाल विगेरे. केटलाक प्रत्येक शरीरी छे, जेवा के आम्र, निंब, फळ, फुल विगेरे. तथा शंख-कोडी--जळो-अलसीयां--पूरा-कृमी इत्यादि द्वीन्द्रि १ सूक्ष्म पृथ्वी-अप्-तेउ-वायुकाय ए चारनी अपेक्षाये. ... २ सूक्ष्मसाधारण वनस्पतिकाय (सूक्ष्मनिगोद )नी अपेक्षाये. ३ एक शरीरमां अनन्तजीवो होय ते साधारण शरीरी, के जओ सरखी रोते उच्छवास आहारादि लेनारा छे. . ४ एक शरीरमां एक एक जीव अलग अलग होय ते प्रत्येक घरीरी. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशजीवमेदस्वरूपम्. य जीवो छ, अने ते मात्र बादर ज होवायी सूक्ष्म बीन्द्रिय अने बादर बीन्द्रिय एवा बे भेदवाळा नथी, एज प्रमाणे आगळ त्रीन्द्रियादि जीवो पण सर्वे एक बादर भेदवाळाज छे परन्तु सूक्ष्म नथी. शिष्य-दीन्द्रियादिजीवोबादरज होय छे, एम केम कहेवाय ? कारणके ए जीवो एवा सूक्ष्म पण होय छे के जे चक्षुथी देखी शकाता नथी, पण सूक्ष्मदर्शक यंत्रनी मददथी देखी शकाय छे, वळी एथीपण वधु सूक्ष्म होवानो संभवछे के जेओ सूक्ष्मदर्शकनी मददथी पण देखी शकाय नहिं, तो तेवा अतिवारीक द्वीन्द्रियादि जंतुओनो संभव होगाथी द्वीन्द्रियादि जीवो सूक्ष्म पण केम न कहेवाय ! ____ गुरु-हे जिज्ञासु? तेवा अतिबारीक जंतुओ लोकव्यवहारमा भले सूक्ष्म कहेवाय, परन्तु वास्तविक रीते तो सूक्ष्मनामकर्मना उदय वाळा अने जे अनेक जंतुओनां देहपुद्गलो एकत्र पिंडित यया छ तां पण न देखी शकाय ते जीवो सूक्ष्म गणी शकाय छे. अने दीन्द्रियादि जीवो तो एवा छे के तेओनां देहपुदलोने घणा प्रमाणमां एका पिडित करतां अवश्य चक्षुआदि इन्द्रियने ग्राह्य थइ सके छे मारे नेवा जीवो अत्रे सूक्ष्म तरीके गणी शकाता नथी. तथा गधइया-धनेरीयां-येळ-मांकड-जू-कुंथुआ-कीडी-मकोडावीमेल इत्यादि त्रीन्द्रिय जीवो छ - तथा भ्रमर-विच्छु-बगाइ-करोळीआ-कंसारी-तीड-इत्यादि चतुरिन्द्रिय जीवो छे. ... तथा मातपिताना संयोग विना जगदिक सामग्रीथी एकाएक उत्पन्न थनारा देडका-सर्प-मच्छ इत्यादि.तिर्यंच पंचेन्द्रियो, अने म. नुष्यना मळमूत्रादि (१४) अशुचि पदार्थोमा उत्पन्न थता समुछिम मनुष्यो सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय कहेवाय , पुनः ए समूर्छिम Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) श्री नवस्व विस्तरार्थः जीवो सर्वे तथा प्रकारना विशेष मनोविज्ञान रूप संज्ञा रहितज होय छे माटे असंज्ञि पंचेन्द्रिय कहेवायचे. तथा जे जीवो मातपिताना संयोगवडे गर्भाशयमां उत्पन्न थाय छे ते गर्भज पंचेन्द्रिय जीवो ( पर्याप्तावस्थामां) अवश्य मनोविज्ञान सहितज होय छे माटे ए जीवो संज्ञिपंचेन्द्रिय कहेवाय छे. ए प्रमाणे जीवभेदनु कंइक स्वरूप स्थानशून्य नहि रहेवा माटे कशुं, विशेष स्वरूप तो जीवविचारथी अथवा बीजा ग्रंथोथी जाणवा योग्य हे. अवतरण - पूर्व गाथामां जीवना १४ भेद कहीने हवे आ गाथामां जीवनुं लक्षण शुं ? ते कहे छे. 'नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लख्खणं ॥ ५॥ ( संस्कृतानुवादः) ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं च तपस्तथा ॥ वीर्यमुपयोग - तज्जीवस्य लक्षणम् ॥ ५ ॥ शब्दार्थः नाणं- ज्ञान च - अने ( वा पदपूरणार्थे ) दंसणं-दर्शन चैव निश्चय चारितं - चारित्र च - अने ( वा पदपूरणार्थे ) तवो-तप wod तहा - तथा वीरियं वीर्य उवओगो - उपयोग अ- अने ( वा पदपूरणायें ) एयं - ए जीवस्स - जीवनुं . लक्खणं - लक्षण, चिन्ह Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवत वेजीवलक्षणवर्णनम्, (२१) - गाथार्थ:-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, अने उपयोग ए जीवनां ६ लक्षण' छे. विस्तरार्थ:-हवे नवतत्त्वमा प्रथम जीवतत्त्वना वर्णनमां जीव १४ प्रकारना छे एम कड्यु, परन्तु जीव एटले शुं ? अने जीवना लक्षण-चिन्ह शुं ? ते आ गाथामां दर्शावाय छे. त्यां प्रथम ज्ञान ए जीवनु लक्षण-चिन्ह छे, तेमज दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य अने उपयोग ए ६ जीवनां चिन्ह छ, अर्थात् ए ६ गुण जे पदार्थमा होय ते पदार्थ "जीव" कहेवाय छे. हवे ए ६ गुण नुं ( जीवना चिन्हमुं) स्वरूप, तथा कया जीवोने केवी रीते होय छे ! ते कहेवाय के. १ जेनाथी वस्तु जणाय (“ लक्ष्यते अनेनेति लक्षणम्" . " असाधारण धर्मो लक्षणम् " ) तेवो असाधारण ( ते वस्तुथी अन्यमां नही रहेनारो) जे धर्म तं लक्षण कहवाय. लक्षणर्नु इतरभेद ज्ञान ए फळ छे, • लक्षण अव्याप्ति-अतिव्याप्ति-असंभव ए पण दोष रहित होवु जोइए तोज ते सदलक्षण कहवाय. जे वस्तुनुं लक्षण अभिप्रेत होय ते वस्तुना अमुक अंशमांन रहेवू ते अव्यानि, लक्ष्यथी अधिकमांरहेवु ते अतिव्याप्ति.लक्ष्य मात्रमा न रहेg ते असंभव, जेम गायतुं 'कपिलत्व' अव्याप्ति दोषग्रस्त छे, 'शृंङ्गित्व' अतिव्याप्ति दोष दुष्ट छ 'एकशफत्व ' असंभव दोषयुक्त छे अने 'सास्नावत्त्व' ए सदुलक्षण छे. सामान्य ज्ञानिओने मतीन्द्रिय पदार्थना झानने माटे अनुमाननी जरुर छे, जेम पर्वतमां वद्विज्ञान धूमहेतुथी महानस ( रसोडा)ना दृष्टान्ते थाय छे, तेम पुलनो आश्रय करनारा वर्णादिगुणना दृष्टान्ते ज्ञानादि गुणो आधारवाला होवाथी तेना (शानादिना ) आधारपणे आत्मा ( जीव ) नी सिद्धि थाय छे. "ज्ञानादयो द्रव्याश्रिताः गुणत्वाद्रपवत्" “न पृथ्व्यादिभूताश्रिताः प्रत्येकं तेष्वनुपलभ्यमानत्वात् , यन्नैवं तन्नैवं यथा सत्त्वकठिनत्वादि " " भूतादिव्यतिरिक्त( जीव द्रव्याश्रिता भूताद्यनाश्रितत्त्वे सति साश्रितत्वात्, यौवं तन्नैवम्. .. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) খলনজনিন: जगत्मा सर्व पदार्थों सामान्य धर्म ('आ कंडक छे, अथवा र आ घट छ, आ पट छे इत्यादि सामान्य बोधक धर्म) अने विशेष धर्म (आ. अमुक छे, अथवा आ घट वा पट अमुक वर्णनो, अमुक स्थाननो, अमुक कत्र्ता नो इत्यादि विशेषबोधक धर्म ) युक्त छे. तेमां पदार्थोंना सामान्य धर्मनो अवषोध ( ज्ञान ) ते दर्शन, अने विशेष धर्मनी अवबोध ते ज्ञान कहेवाय छे. अथवा जीवनो सामान्य (वस्तुना सामान्य-साधारण धर्म संबंधि ) उपयोग ते दर्शन, अने विशेष उपयोग ते ज्ञान. अथवा 'निराकार उपयोग ते दर्शन, अने 'साकार उपयोग ते ज्ञान, ए सर्व अर्थ परस्पर सरखा अर्थवाला छे. ए प्रमाणे दर्शनगुण अने ज्ञानगुण ए जीवना मुख्यधर्म मुख्यलक्षण अथवा मुख्य चिन्ह छ, कारणके जीव सिवाय बीजा कोइ पदार्थमां थोडे अंशे वा घणे अंशे विज्ञानशक्ति लेश पण होती नथी, अने विज्ञानशक्ति वडेन मा जीव छै एम ओळखाय छे. आ दर्शन गुण अने ज्ञान गुण अपर्यातसूक्ष्म एकेन्द्रियथी प्रारंभीने पर्याप्त संनि पंचेन्द्रिय सुधीना सर्व जीवभेदमां थोडे घणे अंशे होय छे, पुनः पृथ्वी जळ-अग्नि इत्यादि . १ ए नैषयिक अर्थावग्रहनी मुख्यताए दर्शन ते निराकार उपयोगमां गणाय छे, उपलक्षणथी नैश्चयिक इहा तथा व्यंजनावग्रह पण दर्शनरूप ज छे. २ "आ घट छे" ए जोके नैश्चयिक अपाय होवाथो ज्ञानरूप छे परन्तु व्यवहारिक अर्थावग्रहनी मुख्यताए दर्शनरूप छे. .. ३ “ आ अमुक छे” ए नैश्चयिक अपायनी मुख्यताए शानरूप छे, अन्यथा दर्शनरूप तो गणेल ज छे. ...४ निराकार एटले सामान्य. ५ साकार एटले विशेष ( आकार सहित.) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्वेजीवलक्षणवर्णनमः एकेन्द्रिय जीवोमां विज्ञान शक्ति नहिं जणाती होवाथी तेश्रोमां विज्ञान शक्ति बिलकुल नथी एम न कही शकाय, कारणके 'औ. षधी प्रयोगवडे बेशुद्ध-बेभान थएला मनुष्योमा जेम अव्यक्त चैतन्य ( विज्ञान शक्ति) विद्यमान छ, तेम एकेन्द्रियमां पण अव्यक्त चैतन्य विद्यमान छे. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय जीवोनी विज्ञानशक्ति अव्यक्त अने अल्प होवाथी बीजा जीवोनी माफक प्रत्यक्ष अनुभवमां आवी शकती नथी, पण श्री सर्वज्ञोए अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद सरखा जीवने पण अक्षरनो (ज्ञाननो) अनंतमो भाग उघाहो कहो छे, अने एटलो' निकृष्ट ज्ञानांश पण जो ते जीवने न होय वो ते जोव नहिं पण अजीव सरखोज गणाय. ए रीते अ सर्वज्ञ संसारी जीवोने दर्शनगुण अने ज्ञानगुण कोइने व्यक्त तो कोइने अव्यक्त कोइने अल्प तो कोइने अधिक पण होय छे, अने सर्वज्ञने तो ज्ञान गुण दर्शन गुण बन्ने सर्वांशे संपूर्ण होय छे. पुनः असर्वज्ञ जीवोने 'प्रथम दर्शन (एटले सामान्य उपयोग ) अने पछी ज्ञान (एटले विशेष उपयोग ) होय छे, अने सर्वज्ञने तो प्रथम समये ज्ञान बीजे समये दर्शन त्रीजे समये ज्ञान अने चोथे समये दर्शन ए प्रमाणे प्रथम ज्ञान पछी दर्शन अनुक्रमे परावर्तमान पाम्या करे छे. पुनः असर्वज्ञ जीवोनुं ज्ञान अथवा दर्शन अन्तर्मुहूर्त (बे घडीनी अंदरना काळ ) प्रमाण होय छे, अने स . १ दरदीने शस्त्रप्रयोग अजमावतां औषधीना प्रयोगथी बे. शुद्ध करवो पडे छे. जे प्रयोग जगप्रसिद्ध छे. २ बीजाने अनुभवमा न आवी शके तेवी रीते अप्रन्ट. .३ अति अल्प. ४ प्रथम एटले जे समये सर्वज्ञत्व (केवलज्ञान ) प्राप्त थाय ते समये .. . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (२४) श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः वैज्ञनुं ज्ञान दर्शन एकेक समय होय छे. ए प्रमाणे जीवना मुख्य लक्षण ज्ञान अने दर्शननुं किंचित् स्वरूप कडं. - तथा ज्ञानादि गुणमा (ज्ञान-दर्शनमां) रमणता करवी ते चारित्र कहेवाय, अथवा मोहाधीन प्राणीओ मोह दूर करवाने माटे जे अभ्यास रूप यम नियमादि (व्रतादि) अंगिकार करे ते चारित्र कहेवाय. आ चारित्र गुण पण सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रियादि सर्व जीवोने थोड़े घणे अंशे होय छे, तेमां समोही छमस्थ जीवोने (मोहनी सत्तावाला जीवोने)'अनंतमा अंश जेटलं चारित्र होय छे, अने क्षीणमोही मुनिराजने, भवस्थ ( देहधारी) केवली भगवंतने अने मोक्षमां पहोचेला सिद्धपरमात्माओने सर्वांशे संपूर्ण चारित्र होय छे. ए प्रमाणे सर्व जीवो चारित्र गुण युक्त होवायी अने चारित्र गुण ते जीव सिवाय अन्य पदार्थमां नहिं होवाथी चारित्र ए जीवनुं लक्षण के .... १ए अनंतमी अंश पण जुदा जुदा जीवोनी अपेक्षाये घणी तारतम्यता वाळो [ होनाधिक ) होय छे, जेमके सू० निगोदने प्रथम समये जे अव्यक्त चारित्र गुण वतै छे ते करतां अन्य सू० निगोद जीवनो चारित्रगुण अनंतगुण अधिक पण होय, अने सर्वोत्कृष्ट चारित्र तो क्षीणमोही मुनिराजने होय. . २ शंका-" सर्व जीवो चारित्र गुणयुक्त छे ” एम कहे युक्त नथी. कारणके मिथ्यादृष्टि वगेरे जीवो अथवा सू० निगोदादि जीवो के जेओए देशविरति गुणस्थान प्राप्त कर्यु नथी सेवा (अनंतानुबंधि-अप्रत्याख्यानीरूप सर्व घाती कषायना उदयवाळा) जीवोने लेश मात्र पण चारित्र गुण संमवतो नथी. कारणके ए ये सर्वघाती कषायोदयवाला जीवोने लेश पण Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवत जीवलक्षणवर्णनम्, (२५) २ तथा इच्छानो अभाव ते तप कहेवाय छे, अथवा ते इच्छा निरोध करवाना ' अभ्यासरूप ' हेतुरूप अने ' चिन्हरूप जे अनशनादि ( उपवासादि ) ते पण व्यवहारथी तप कहेवाय. ए. तप गुणपण सर्वज्ञने सर्वोशे संपूर्ण होय छे, अने ' शेष जीवोने थोडे घणे अंशे होय . ४ ५ चारित्र गुण होय नहिं, पुनः जे अनंतानुबंधि कषाय जीवना सम्यक्त्व गुणने पण रोकी राखे छे ते अनंतानुबंधिना उदयवाळा सू० निगोदादि मिथ्यादृष्टिओने चारित्र गुणनों लेश पण केम संभवे ? पुनः सू० निगोदादि मिथ्यादृष्टि जीवोने पण जो लेश मात्र चारित्रगुण होय छे, तो देशविरति गुणस्थानवाळा श्राकने देशथी (लेश ) चारित्रनो उदय मानवों ते शा माटे ? कारणके प्रथम गुणस्थानथी पांचमा गुणस्थान सुधीना सर्व जीवोने तमारा कहेवा प्रमाणे देश चारित्र गुण तो प्रगट थलोज छे. उत्तर:- हे जिज्ञासु ! ए. शंका योग्य छे, परन्तु सर्वघाति 'कषायोदयवाळा जीवने पण चारित्रगुणना केटलाएक पर्याय उघाडा छे, जेम अति गाढ मेघावृत दिवसमां सूर्यनो प्रकाश किरणना रूपमां तो बिलकुल नथोज तोपण सर्वथा अंधकार नथी, परन्तु ते दिवस अति अल्प प्रकाशयुक्त छे, अने जो तेम पण न होय तो दिवस अने रात्रिनो भेद न पडे, अर्थात् दिवस रात्रि एक सरखी थाय. तेवी रीते श्रद्धापूर्वक कंडक व्रतादि अंगीकार करी शके तेवो चारित्र गुण तो ए जीवोमां नथी, परन्तु अव्यक्त अने अति अल्प क्रोधादिनी मंदतारूप चारित्र गुण तो अवश्य वत्तै छे, कारणके अनंतानुबंध्यादि सर्वघाती कषायो सर्वोत्कृष्ट होय तोपण चारित्र गुणना केटलाक पर्यायो निरावरणीय रहेवाथी प जीवोमां अव्यक्त चारित्र गुण होइ शके छे, श्री कर्मप्रकृति ग्रंथमां उदीरणा करणनी ४८ मी गाथामां " मोहनीयनी २८, अन्तरायनी ५, केवळज्ञानावरण अने केवळदर्शनावरण ए ३५ प्रकृतिओ जीवद्रव्यने संपूर्ण हणे पण जीवना सर्व पर्या- C Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः योने न हणे” ए प्रमाणे कहेलु होवाथी उपरना. सर्वे विरोध उपशान्त थाय छे. पुनः आ समाधान तफ-वीर्य-अने उपयोगना संबंधमां पण विचारवं. १ उपवास अने उणोदरी इत्यादि व्यवहार तपना मभ्यासथी इच्छानिरोधरूप नैधायिक तप प्राप्त थाय छे, माटे व्यवहार तप ते निश्चय तपना अभ्यासरूप छे. २ उपवासादि व्यवहार तप ते इच्छानिरोधरूप नैश्चयिक तपने उत्पन्न करे छे माटे व्यवहार तप नैश्चयिक तपना हेतुरूप छे. ... ३ सर्व मिष्ट पदार्थों प्राप्त थयेला होय अथवा प्राप्त थर शके तेम होय छतां पण तेनो त्याग करी परम श्रद्धालु जीवो उपवासादि व्यवहार तप अंगीकार करे छे, तो तेथी अनुमान धाय छे के ए जीवने अवश्य कंइक, अंशे पण इच्छानिरोधपणुं : प्रगट थयेल छे, ए प्रमाणे व्यवहार तप ते नैश्चयिकतपना चिन्हरूप छे. ४ शंका-सर्वज्ञने जो सर्वाशे संपूर्ण तप गुण प्रगट थयेल छे तो सर्वज्ञो आहार नहि लेता होय एम संभवे छे. .... उत्तर-सर्वज्ञ महात्माओ इच्छा-ममत्वने आधीन था बि. लकुल आहार लेता नथी. परन्तु पोतानी औदारिक काया आहार विना टकी शके नहिं माटे औदारिक कायाना निभाव अथैज आहार ग्रहण करे छे,. माटे ममत्वभावना अभावे संपूर्ण तफ गुणने हानी पहोचती नथी. जेम व्याधि शान्त करवाने लीधेलं कडवू औषध इच्छापूर्वक लीधुं न कहेवाय, तेम सर्वझोए कायाना निभाव माटे ग्रहण करेलो आहार इच्छापूर्वक न कहेवाय. ५ शेष जीवोने-सूक्ष्म एकेन्द्रियादिकोने पण इच्छानिरोध रूप तपगुणनो लेश केवी रीते होइ शके ? ए शंकानुं समाधान पण चारित्रगुणना लेशवत् जाणवु. अर्थात् इच्छा ते मोहनीय 'कर्मना उदयथी छे, अने मोहनीय कर्मनो उदय जीवना सर्व पर्यायोने उपघात करी शके नहिं तेथी अनुपहत पर्याय पूरतो तप गुण पण सू० एकेन्द्रियादिने संभवे. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतचे पर्याप्तिस्वरूपवर्णनम. ( २७ ) तथा आत्मानी जे शक्ति ते वीर्य कहेवाय, ए वीर्य गुण पण समां सर्वोशे संपूर्ण अने सु० एकेन्द्रियादि जीवोमां तेथी अनंतमे अंगे हीनाधिकपणे होय छे. तथा जेना वडे ज्ञान अने दर्शन गुणनी प्रवृत्ति थाय ते उपयोग. ए उपयोग ज्ञान अने दर्शनमां साधारण पणे वर्त्ते छे, केमके ए उपयोग ज्यारे वस्तुना विशेष धर्मोपर वर्ततो होय त्यारे एज उपयोगने " ज्ञान " संज्ञा होय. छे, अने एज उपयोग ज्यारे वस्तुना सामान्य धर्म पर वर्ततो होय हे त्यारे "दर्शन" कहेवाय के, ए प्रमाणे जोवा जतां जीवनुं मुख्य लक्षण उपयोग ज है, ज्ञान तथा द र्शन तो उपयोगान्तर्गत छे, छतां ए बेनी मुख्यता अंगीकार करीने ज्ञान अने दर्शन लक्षण उपयोगयी भिन्न कहेल छे. जो के ज्ञान, दर्शन, अने उपयोग ए त्रणे जीवनां लक्षण होवाथी जीवना स्वत्वरूप छे छतां कर्मवशवर्ति जीव होवाथी उपयोगनुं निरन्तरपणुं रहेतुं नवी, तेमज ज्ञानोपयोगनो वस्तुनिश्चायकत्व स्वभाव छतां पण संशयादि थवामां विरोध नथी. ए उपयोग गुग पण सर्वज्ञने सर्वाशे अने शेष जीवोने थोडे घणे अंशे प्रगट होय छे. उपर कहेली ए लक्षणो सर्व जीवोने सत्तापणे तो सरखांज छे, परन्तु सकर्म जीवोने कर्मना प्रभावे हीनाधिक पणे प्रगट होय है, अने अकर्म जीवोने ते सर्व लक्षणो संपूर्ण पणे प्रगट होय छे. अवतरण - पूर्व गाथामां जीवनां लक्षण कहीने हवे आ गाथामi ( ४ थी गाथामां जीवना जे अपर्याप्त अने पर्याप्त भेद कहला तेना सबंधम ) पर्याप्ति ते कइ ? अने कया जीवने केटली होय ? ते दर्शावे छे. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FO (२८) श्रीमवतस्वविस्तरार्थक - आहारसरीरिंदिय, पज्जत्ती आणुपाणभासमणे घर पंचपंच छप्पिय, इगविगलाऽसन्निसन्नीणं ॥६॥ संस्कृतानुवादः . आहारशरीरेन्द्रिय-पर्याप्तय आनप्राणभाषामनांसि ॥ चतस्रः पंच पंच पडपि चै-कविकलाऽसंज्ञिसंज्ञिनाम् ॥६॥ शब्दार्थः आहार-आहारपर्याप्ति : पंच-पांच पर्याप्ति सरीर-शरीरपर्याप्ति छप्पि-छए पर्याप्ति । इंदिय-इन्द्रियपर्याप्ति य-(पदपूरणार्थ ] काळी पज्जति-पर्याप्ति इग-एकेन्द्रियजीवोने आणपाण-श्वासोच्छवास पर्याप्ति विगल-विकलेन्द्रियजीवोने, भास-भाषा पर्याप्ति असन्नि-असंज्ञि पंचेन्द्रियने मणे-मन पर्याप्ति सन्नीणं-सज्ञिपंचेन्द्रियजीवोने चउ-चार पर्याप्ति ___गाथार्थः-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति अने मनापर्याप्ति, ए ६ पर्याप्तिमांथी एकेन्द्रिय जीवोने चार, विकलेन्द्रिय जीवोने पांच, असंज्ञि पं. चेन्द्रियने पांच, अने संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवोने छए पर्याप्तिो होय छे. विस्तरार्थः-जीव जे भवमा उत्पन्न थाय छे ते भवमां जीवनशक्तिना निर्वाह माटे ( जीवित टकी रहेवा अने ते जीवनमा करवा योग्य अवश्य कार्यों माटे ) जे आहारग्रहणादि-अवश्य क्रियाओ करवी पडे छे, अने ते क्रियाओ माटे जे सामर्थ्य-शक्ति उत्पन न Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्त्वे पर्याप्तिस्वस्सूवर्णनम..(7 करवी पडे छे ते शक्तिनुं नाम पर्याप्ति कहेवाय. वण जीवमाए शक्तिओ जे उत्पन्न थाय छे, ते पण पुद्गलसमूहना 'आलंबनयी-नि* मित्तथीज उत्पन्न थाय छ, माटे ते ते शक्ति उत्पन्न वामां निमित्त भूत-कारणभूत जे पुद्गलोपचय ( पुद्गलोनो समूह ) ते पण (कारणमां कार्य भावनो आरोप करवाथी ) पर्याप्ति कहेवाय छे. ए हेतुथीज पर्याप्ति-जीवशक्तिओ पुद्गलोपचयजन्य (पुगलसमूहथी उत्पन्न थरली ) अथवा पुद्गलरूप कहेवाय छे. ए भावार्थ घणा ग्रंथोनो, अने श्री तत्वार्थभाष्य तथा वृत्तिमांतो कहुं छे के "ते ते शक्तिमा निमित्तभूत पुगलसमूहसंबंधी क्रियानी परिसमाप्ति ते पर्याप्ति कहेवाय छे." ए प्रमाणे पर्याप्ति एटले शक्ति, शक्तिजनक पुद्गल, अने समाप्ति ए त्रण अर्थ थाय छे.. ___ श्री बृहत्संग्रहणी विगेरे अनेक शास्त्रोमां कहुं छे के-"पर्याप्ति एटले शक्ति अर्थात् सामर्थ्य विशेष, ते (शक्ति) पुद्गलद्रव्यना उपचयथी (समूहथी) थायछे, अर्थात् उत्पत्ति स्थानमां आवेला जीवे प्रथम समये जे पुद्गलो ग्रहण काँ तेनी अने प्रतिसमय ग्रहण करातां बीजां पुद्गलो के जे तेना (प्रथम समय गृहित पुद्गलोना) संबंधथी तत्स्वरूपे थएलां छे तेनी जे शक्ति आहारादि पुद्गलोने खल रसादिरूपे बनाववामां कारणभूत छे (ते पर्याप्ति.) जेम उदरमा रहेलां (तथा पकारनां तैजसादि) पुद्गलो (नी शक्ति) ग्रहण करायेल आहार पुद्ग १ संसारी जीवोना सर्व पौगलिक व्यापारो पुद्गलसमूहना आलंबनथी ज होय छे, जीवनी जो के स्वतंत्र शक्ति छे पण ते शक्ति सिद्ध जीवोमां अपौलिक अने संसारी जीवोमां पौगलिक होय छे. श्री कर्मप्रकृति विगेरेमा कड्यु छ के-" द्रव्यनिमित्तं हि संसारिणां वीर्यमुपजायते" एटले संसारी जीवोनुं वीर्य पुद्गलद्रव्यना निमित्तथीज होय छे. माटे आहारग्रहणादि पौद्गलिक शक्तिओ पण पुद्गलद्रव्यना निमित्तथीज छे. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः . लोने खल रसादिरूपे बनाववामां कारण रूप छे तेम तेवा प्रकारनी ते पुदलोनी (प्रथमादि समय गृहित पुद्गलोनी) जे शक्ति ते पर्याप्ति कहेवाय." ए अनेक ग्रंथोमां कहेलो शब्दार्थ कह्यो, अने तत्वार्थसत्रमा जे विशेषता छे ते चालु वर्णनमांज स्पष्टरीते आगळ दर्शावीश. वळी बृहत्संग्रहणिमां तो "आहार सरीरिदिय" इत्यादि वचनथी शक्तिने आहारादिनी परिणमन क्रियामां 'करणरूप कही छे ते नीचे स्फुटनोटमां दविल छे . .....६ पर्यातिओनां नाम अने अर्थ, .१-जीव (पुद्गलसमूहना आलंबनथी उत्पन्न थयेली) जे शक्तिवडे आहार ग्रहण करी खल रस पणे परिणमावे ते शक्ति आहार पर्याप्ति कहेवाय. [ ए भावार्थ घणा ग्रंथोमां कह्यो छे. अहिं खल एटले मळ अने मूत्र विगेरे रूपे थयेलाआहारना कूचा, अने रस ते सात धातु पणे परिणमवा योग्य जळ सरखो प्रवाही पदार्थ.)-अथवा शरीर-इंन्द्रिय-उच्छवास-भाषा-अने मन एपांच पर्याप्ति प्रायोग्य [पांच प्रकारनी योग्यतावाळां] पुगलोने आहरण एटले ग्रहण १ माहार सरीरिदिय, ऊसास वओ मणोऽभिनिव्वत्ती ॥ होइ जओ दलियाओ, करणं पर सा उ पजत्ती ॥ १॥ _ व्याख्या-आहारशरीरेन्द्रियोच्छवासवचोमनसामभिनिर्वृत्तिरभिनिष्पत्तिर्यतो दलिकाबलभूतात् पुद्गलसमूहात्तस्य दलिकस्य स्वस्वविषये परिणमनं प्रति यत् करणं शक्तिरूपं सा पर्याप्तिः अर्थ-जे दलिकरूप पुगलसमूहथी आहार-शरीर-इन्द्रियउच्छवास-वचन अने मननी रचना (उत्पत्ति ) थाय छे ते दलि. कनु पोतपोताना विषयरूपे जे परिणमवं. ते परिणमन प्रत्ये (ए. टले ते परिणमवामां कारण भूत पुद्गलोरचयना आलंबनथी उ. त्पन्न थयेली आत्मानी ) शक्तिरूप जे करण ते पर्याप्ति कहेवाय. एमां जीव कर्ता, पुद्गलोपचयज शक्ति ते करण, अने आहारादि परिणमन से क्रिया छे. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्त्वे पर्याप्तिस्वरूपवर्णनम्. करवारूप क्रियानी परिसमाप्ति ते आहार पर्याप्ति कहेवाय [ए भावार्थ श्री तत्वार्थभाष्य अने वृत्तिमा छे ). वळी ए भाष्य अने वृत्तिमांज एम पण कर्जा छे के आहारने ग्रहण करवामी समर्थ एवा करणनी (एटले पुगलसमूहनी] निष्पत्ति ते आहार पर्याप्ति ए रीते आहारपर्याप्तिमा ४ भावार्थ जुदा जुदा छ माटे पर्याप्ति एटले शक्ति अथवा पर्याप्ति एटले क्रियासमाप्ति एम बन्ने अर्थ थाय. २-जीव ( पुद्गलोपचयना आलंबनथी उत्पन्न थएली)जे शक्तिवडे रसरुप थएला आहारने सात धातु पणे परिणमावी शरीर रचे ते शक्ति शरीरपर्याप्ति कहेवाय. (रसरूपथयेल आहारमा लोमाहार अने कवलाहार पण लेवा एम श्री 'विचारसारमा कयु के. परन्तु त्वचा निष्पत्ति पहेलानो तो ओज आहारज होय छे. अने रस-रुधिर-मांस-मेद-हाड-मिजा-अने वीर्य ए सात धातु के के जेनाथी औदारिकशरीरनी निष्पत्ति थायछे. ए भावार्थ घणाग्रंथोमां कह्यो छे. अने श्री तत्वार्थ भाष्यमां तो--(प्रथम समये) . सामान्य पणे ग्रहण करेला पुद्गलोमांथी जे पुद्गलो शरीरमायोग्य (शरीर रची शकाय तेवां) होय ते पुद्गलोने शरीर स्वरूपे स्थापवा (रचवा ) रूप क्रियानो परिसमाप्ति ते शरीरपर्याप्ति ३--जीव ( पुद्गलोपचयना आलंबनथी उत्पन्न थयेली) जे शक्तिबड़े धातुरूपे परिणमेला आहारने (एटले बनेली सात धातु ओमांथी दरेकनो केटलोएक भाग लइने ) इन्द्रियरूपे परिणमा ते शक्ति इन्द्रियपर्याप्ति कहेवाय-अथवा पांच इन्द्रिय प्रायोग्य पुद्गलो ग्रहण करी अनाभोगवीर्यवडे (जे क्रियामां आत्मानो स्पष्ट ज्ञानोपयोग नथी प्रवर्ततो तेवी क्रियावडे ) ते: पुद्गलोने इन्द्रियस्वरूपे ___? यया लोमादि आहारमादाय खलरसरूपतया परिणामय ति सा आहारपर्याप्तिः (विचारसारमा ३४ मी गाथानीटकिामां.) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) श्रीनवतत्वविस्तरार्थः . बनाववानी (एटले परिणमाववानी ) जे शक्ति ते इन्द्रियपर्याप्ति कहेवाय. ए बन्ने अर्थ श्री *प्रज्ञापमा सूत्र विगेरेमां छे.-अने 'बृहत्संग्रहणि विगेरेमां तो आत्मा जे शक्तिवडे धातुरूपे परिणमावेला आहारमांथी १-२-३-४-५ इन्द्रियप्रायोग्य पुद्गलो ग्रहण करी १-२-३-४-५ इन्द्रियरूपे परिणमावी स्वस्वविषय ( ते ते इन्द्रियने योग्य विषय ) जाणवामां समर्थ थाय ते इन्द्रियपर्याप्ति कहेवाय एवो भावार्थ कह्यो छे.-तथा श्री तत्वार्थभाष्य अनेवृत्तिमा तो स्पर्शेन्द्रियादि पांच अने छटुं मन ए ६ इन्द्रियोनुं स्वरूप रचवारूप क्रियानी परिसमाप्ति ते इन्द्रियपर्याप्ति एम कयुं छे. (ए स्वरूप आगळ कहेवाता तत्वार्थोक्त पर्याप्तिना स्वरूपमाथी जोवु.) ४-जीव ( पुद्गलोपचयना आलंबनथी उतन्न थएली) जे शतिवडे श्वासोच्छवासयोग्य वर्गणा ग्रहण करी श्वासोच्छवास पणे 'परिणमावी अवलंबीने विसर्जन करे ते शक्ति श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति कहेवाय. घणा ग्रंथोमां ए भावार्थ छे. अने श्री तत्वार्थभाष्य अने वृत्तिमां तो श्वासोच्छवास क्रियाप्रायोग्य द्रव्य ग्रहण अने विसर्जन करवानी शक्तिने रचवा रूप क्रियानी परिसमाप्ति ते श्वासोच्छवास पर्याप्ति एम कहुं छे... . * यया धातुरूपपरिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः-तथा चायमीऽन्यत्राऽपि भंग्यन्तरेणोक्तः, पंचानामिन्द्रियाणां प्रायोग्यान् पुबलान् गृहित्वाऽनाभोगनिवर्तितेन वीर्येण तद्भावनयनशक्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः १ यया धातुरूपतया परिणमितादाहारादेकस्य द्वयो त्रयाणां चतुर्णा पंचानां वेन्द्रियाणां प्रायोग्याणि द्रव्याण्युपादायैकद्वि-यादी. न्द्रियरूपतया परिणमरय स्वस्वविषयेषु परिज्ञानसमर्थो भवति सेन्द्रियपर्याप्तिः २ परिणमावी एटले श्वासोच्छवासादिरूप बनावी.. ३ जे वस्तुने एकदम छोडवी होय छे ते वस्तुने छोडया Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्त्वे पर्याप्तिस्वरूपवर्णनम्. (३३) - ५-जीव ( पुद्गलोपचयना आलंबनथी उत्पन्न थएली) जे शक्तिवडे भाषायोग्य वर्गणा ग्रहण करी भाषापणे परिणमावी अवलंबीने विसर्जन करेते शक्ति भाषापर्याप्ति कहेवाय. घणा ग्रंथोमां ए भावार्थ छे, अने तत्वार्थ वृत्तिमा तो-" अहिं पण वर्गणाना अनुक्रम प्रमाणे भाषायोग्य द्रव्य ग्रहण विसर्जन करवा संबंधिशतिने रचवारूप क्रियानी समाप्ति ते भाषापर्याप्ति.' एम कयुं छे. ६-जीव ( पुद्गलोपचयना आलंबनथी उत्पन्न थएली) जे शक्तिवडे मन योग्य वर्गणा ग्रहण करी मन पणे परिणमावी अवलंबीने विसर्जन करे ते शक्ति मनःपर्याप्ति कहेवाय, ए भावार्थ घणा ग्रंथोमां छे. अने श्री तत्वार्थभाष्य तथा वृत्तिमां तो मनःपर्याप्तिने इन्द्रियपर्याप्तिमा अन्तर्गत गणी छे, अने केटलाएक आचार्योंना अभिप्रायथी जूदी गणी ते वखते एवो अर्थ कह्यो छे के-"मनपणाने योग्य एटले मनोवर्गणा प्रायोग्य अर्थात् मनपणे परिणमवामां समर्थ जे द्रव्यो तेने ग्रहण अने विसर्जन करवासंबंवि सामर्थ्यनी रचना रूप क्रियानी परिसमाप्ति ते मनःपर्याप्ति एम केटलाएक आचार्यों मनःपर्याप्ति जूदी कहे छे” इत्यादि. ___ए६ पर्याप्तिओमांथी प्रथमनी आहार शरीर अने इन्द्रिय ए पहेलां कंडक प्रयत्न करवो पडे छे ते प्रयत्ननुं नाम अवलंबन छे, के जे प्रयत्न करवाथी ते वस्तु एकदम विसर्जन करी शकाय छे. जेम बाणने धनुष्यमांथी फेंक, होय छे तो पणछ पर चढावी पार्छ खेच, पडे छे, कुदको ( फलंग ) मारवी होय तो शरीरने प्रथम संकोचवू ( नीचुं नमावq ) पडे छे तोज फलंग मारी शकाय छे. ए प्रमाणे जेम बाणनो पश्चादाकपण ( पाछु खेचवा ) रूप प्रयत्न, अथवा अंगनो संकोचरूप प्रयत्न ते आलंबन के अवलंबन अथवा अवष्टंभ कहेवाय छे, तेम श्वासोच्छवास भाषा अने मनने एकदम विसर्जन करवा माटे जे प्रथम प्रयत्न करवो पडे छे ते आलंबन कहवाय छे. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ३ पर्याप्तिओ सर्व जीवो अवश्य पूर्ण करीनेज मरण पामे माटे गाथामां पण "पज्जत्ति" ए शब्द प्रथमनी ३ पर्याप्तिओ पछी राखेलो छे. .. पर्याप्ति संबंधि पुद्गलो. दरेक पर्याप्तिने जे पुद्गलोपचयरूप कही छे ते पुद्गलो कयां ? तेनो यथार्थ निर्णय तो श्री बहुश्रुतगम्य छे, परन्तु अनेक ग्रंथोमां पर्याप्तिओनां स्वरूप वांचवाथी मने जे भावार्थ समजायो छे ते हुं लखु छु. तेमां पण विशेष अभिप्राय तत्त्वार्थने अनुसरी कहेलो छे. .... प्रथम समये सामान्य स्वरूपे ग्रहण करेलां शरीर, इन्द्रिय, उच्छवास, भाषा अने मन ए ५पर्याप्तिप्रायोग्य पांच स्वभाववाळां पुद्गलो ते आहारपर्याप्ति संबंधि जाणवां.वळी ए पांचे योग्यतावालां पुद्गलो औदारिक देहधारी जीवने औदारिक वर्गणानां, वैक्रियदेहधारीने अने उत्तर वैक्रिय रचनारने वैक्रियवर्गणानां, अने आहारक शरीर रचनारने आहारक वर्गणानां जाणवां अहिं उत्तर शरीर रचती वेळाए पण वायुने ४ अने बीजा जीवोने ६ पर्याप्तिओ ते ते शरीर संबंधि जूदी रचवी पडे छे, माटे ए त्रण वर्गणानां पुद्गलो जे प्रथम समये ग्रहण कराय छे ते आहारपर्याप्ति संवघि संभवे छे. प्रथमादिसमये सामान्यस्वरुपे ग्रहण करेलां औदारिकादि ३ वर्गणानां पुद्गलोमांथी जेटलां पुद्गलोनुं भवधारणीय शरीर (तैजस कार्मणसिवायनां ३ शरीर ) बने छे तेटलां देहपणे परिणमेला पुद्गलो शरीरपर्याप्ति संबंधि जाणवां. ए पुद्गलो पण पूर्वोक्त रीते ३ वर्गणानां जाणवां. . ___अभ्यन्तर निर्वृत्ति इन्द्रियरूप पुद्गलो ते इन्द्रियपर्याप्ति संबं १ अहिं श्री आचारांगजीमां कहेली शुद्धात्मप्रदेशरूप अभ्यन्तरनिर्वृत्ति इन्द्रिय नहिं, पण अनेक शास्त्रमा कहेली शुद्ध पुद्गलप्रदेशरूप अभ्यन्तरनिर्वृत्ति इन्द्रिय जाणवी. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्त्वे पर्याप्तिस्वरूपवर्णनम्, (३५) धि नाणवां. कारण के शब्दादिविषय ग्रहण करवानी शक्ति ए पुद्गलोना आलंबनवडे ज उत्पन्न थाय छे. बाह्यनिवृत्ति इन्द्रियनां पुद्गलो तो शरीरना उपांग रूप होवाथी इन्द्रियपर्याप्ति संबंधि न गणाय, परन्तु शरीर संबंधिज गणाय. आ इन्द्रियपर्याप्ति संबंधि पुद्गलो पण त्रण भवधारणीय देहवर्गणानां जाणवां. ___प्रथमादिसमये सामान्यस्वरूपे ग्रहण करेलां पुद्गलोमांयी तथा विध परिणाम पामेलो जे पुद्गलसमूह आत्माने उच्छवासक्रियामा (ग्रहण परिणमन अने. आलंबनरूप त्रणे क्रियामां) न्याप्त ( व्यापारित ) करवानुं सामर्थ्य आपवावाळो छे ते पुद्गलसमूह उच्छवास पर्याप्तिसंबंधि संभवे छे. परन्तु श्वासोच्छास वर्गणानां पुद्गलो ते उच्छवासपर्याप्ति संबंधि नहिं, कारणके उच्छवासपर्याप्ति संबंधि पुद्गलो तो त्रण भवधारणीय देहवर्गणानां छे. प्रथमादि समये सामान्यस्वरूपे ग्रहण करेलां पुद्गलोमांयी तथाविध परिणाम पामेलो जे पुद्गल समूह आत्माने वचनक्रियामां (ग्रहणादि क्रियामां ) व्यापृत थवा समर्थ करे ते पुद्गलसमूह वचनपर्यातिसंबंधि छे. परन्तु भाषावर्गणानां पुद्गलो ते भाषापर्याप्ति संबंधि नहिं, अर्थात् वचनपर्याप्ति संबंधि पुद्गलो पण पूर्वोक्त ३ वर्गणानां छे. प्रथमादि समये सामान्य स्वरूपे ग्रहण करेलां पुद्गलोमांथी तथा विध परिणाम पामेलो जे पुद्गलसमूह अत्त्माने मनःक्रियामां व्यापृत थवा समर्थ करे छे ते पुद्गलसमूह मनःपर्याप्ति संबंधि छे, परन्तु . मनोवर्गणानां पुद्गलो मन:पर्याप्ति संबंधि न गणाय, कारणके मनःपर्याप्ति संबंधि पुद्गलो तो पूर्वोक्त ३ वर्गणानां छे. शंका-पर्याप्ति संबंधि पुद्गलो शरीरमां कये स्थाने रहे छ ? Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) . श्रीनवतत्त्व विस्तरार्थः । ___उत्तर-आहार शरीर अने मन:पर्याप्ति संबंधि पुद्गलो शरीरमां सर्वत्र व्याप्त संभवे छे. श्री तत्वार्थसूत्रना बीजा' अध्यायना ११मा सूत्रनी 'वृत्तिमां द्रव्यमनना अर्थमां मनःपर्याप्तिनां पुद्गलो सर्व आत्मप्रदेशवर्ती कह्यां छे, उच्छवास अने भाषापर्यातिनां पुद्गलोर्नु स्थान स्पष्ट कहेवू अशक्य छे, अने इन्द्रिय पर्याप्तिनुं स्थान इन्द्रिय स्थावनत् अमुक नियतस्थानवर्ती छे. .. पर्याप्तिओनी समाप्तिनो अनुक्रम पूर्वोक्त ६ पर्याप्तिओमां जे जीवने जेटली पर्याप्तिओ होय छे ते जीव तेटली पर्याप्तिओने सपकाळे प्रथमसमयेज प्रारंभे छे, पण संपूर्ण अनुक्रमे करे छे. कारणके आहारादि पर्याप्तिओनां पुद्गलो अनुक्रमे सूक्ष्म सूक्ष्मतर परिणामवाळां रचवां पडे छे. जेम एक शेर रुइमांथी जाडं सूत्र व्हेल कंताय, अने झीj सूत्र घणे काळे कंताय तेम प १ ते वृत्तिनो पाठ आ प्रमाणे-तत्रमनोऽभिनिर्वृत्यै यहलिकद्रव्यमुपात्तमात्मना सा मनःपर्याप्तिर्नामकरणविशेषण सर्वास्मप्रदेशवत्तिना याननन्तप्रदेशान्मनोवर्गणायोग्यान्स्कंधान चित्तार्थमादत्ते ते करणविशेषपरिगृहिताः स्कन्धाः द्रव्यमनोऽभिधीयन्ते. अर्थः-त्यां मन रचवा माटे आत्माए जे दलिकद्रव्य ग्रहण कयु छे ते मनःपर्याप्ति एटले करण विशेष छे, ते सर्व आत्मप्रदेशमा व्याप्त थयेला करणविशेष वडे जे मनोवर्गणा योग्य अनंतप्रदेशी स्कंधोने चित्तने माटे ग्रहण करे छे, ते करणविशेष वडे ग्रहण करेला पुद्गलस्कंधो द्रव्यमन कहेवाय छे. ( एमां मनःपर्याप्ति संबंधी पुद्गलोने सर्वात्मप्रदेशवर्ती कयां छे.) २ कारणके इन्द्रियपर्याप्तिमां स्पर्शेन्द्रियनां पुद्गलो चांदीना पुतळाने चढावेला सोनाना गिलिटनी माफक शरीरनी उपर अने (मध्यभाग विना) अंदरना भागमा प्रतररूपे. · अविच्छिन्न व्याप्त थयेलां छे, अने जीव्हेन्द्रियादिकनां पुगलो ते ते वाद्याकारने स्थानेज गोठवायलां छे माटे शरीरमां सर्वव्याप्त नहि. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • जीवतत्त्वे पर्याप्तिस्वरूपवर्णनम्, (३७) र्याप्तिओमां पण जाण, (ए भावार्थ श्री तत्वार्थभाष्यनो छे). हवे ते समाप्तिनो अनुक्रम आ प्रमाणे--औदारिकशरीर संबंधि पर्या प्तिओमां प्रथम आहार पर्याप्ति हेले समयेज पूर्ण थाय छे, त्यार वाद अन्तर्मुहूर्त शरीरपर्याप्ति, त्यारवाद अन्तर्मुहुर्ते इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण थायछे, एप्रमाणे पांचे पर्याप्तिओ अन्तर्मुहर्त अन्तर्मुहत्तने अन्तरे संपूर्ण थाय छे. पुनः आहारक अने वैक्रियशरीर संबंधि पर्याप्ति ओमां तो प्रथम आहारपर्याप्ति प्हेले समयेज पूर्ण थाय छे, बीजी शरीरपर्याप्ति अन्तर्मुहूर्त बाद पूर्ण थाय छे, अने इन्द्रियादि चारपर्याप्तिओ एकेक समयने अन्तरे पूर्ण थायछे. (पुनः श्री भगवतीजी विगेरे मूळ सूत्रमा तो देवोने भाषा अने मनपर्याप्ति समकाळे कही छे जेथी त्यां देवोने 'पांच पर्याप्तिवाला कह्या छे. श्री जीवाभिगमादि वृत्तिमा ए बे पर्याप्तिमा एकत्वनी विवक्षा अल्प अन्तरे पूर्ण थवानी अपेक्षाए कही छे. . शंका-वैक्रिय शरीरी अने आहारक शरीरीने तथा एकेन्द्रियोने १ तएणं से ईसाणे दविंदे देवराया पंचविहाए पजत्तीए पजत्तिभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपजत्तीए-शरीरपजत्तीए-- इंदिय पजत्तीए-आणपाण पजत्तीए-मासामण पजत्तीए-ते का. ळने विषे ते इशान देवेन्द्र देवराजा पांच प्रकारनी पर्याप्तिवडे पर्याप्तिभावने पामे ते आ प्रमाणे-आहार पर्याप्तिवडे, शरीर पर्याप्तिवडे, इन्द्रियपर्याप्तिवडे, श्वासोच्छवास पर्याप्तिवडे, अने भाषामन पर्याप्तिवडे ( प्राचीन कर्मग्रंथ टीकामांथी ). २ नपरमिह भाषामनःपर्याप्त्योः समाप्तिकालान्तरस्य शेषपर्याप्तिकालान्तरापेक्षया स्तोकत्वादकत्वेन विवक्षणमिति. __तत्त्वार्थ सूत्रमा इन्द्रिय पर्याप्तिमा मन पर्याप्तिनो अंतर्भाव करीने पांच पर्याप्तिओ कहेली छे ते वात चालु वर्णनमांज कही छ अने कहेवाशे. ए प्रमाणे बन्ने शास्त्रोमां वे रीते पांच पर्याप्तिओ कहेली छे. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) श्रीनवतचविस्तरार्थः आहारपर्याप्ति तथा शरीरपर्याप्ति कही तो तेओ ग्रहण करेला आहार ने शुं खल रस पणे परिणमावे छे? अने ते रसीभूत आहारमाथी सात धातुओ पण बनावे छे ? कारणके तेओने खल रस के सात धातुमय शरीर होतु नथी एम जैन शास्त्रमा कहेलं छे तो ते त्रणे जीवोने आहार अने शरीरपर्याप्ति केवी रीते होय ? उत्तर-ए त्रणेने खलरस परिणमन अथवा सात धातुमय शरीर जोके छ नहिं तो पण आहारनुं ग्रहण अने ते आहारने शरीर पणे परिणमावq होय छे, ते कारणथी ए त्रणनी आहारपर्याप्ति आहारने ग्रहण करवानी क्रिया समाप्तिथीज होय छे, जे वर्णन आगळ शंका समाधान पूर्वक कहेवाशे. वळी ते आहारद्वारा प्राप्त करेल पुद्गलोने वैकिय-आहारक-अने (एकेन्द्रिय संबंधि) औदारिक शरीर पणे परिणमावे ते शरीर पर्याप्ति जाणवी. पुनः आहारने उहण करवाथी पण आहारपर्याप्ति नवतत्वमाष्यमां कही छे ते आ प्रमाणे"-आहाराइग्गहणे जा सत्तीतं भणंति पजत्ती"अर्थ:-आहारादि ग्रहण करवामां (जीवनी) जे शक्ति ते शक्तिने पर्याप्ति कहे छे" पुनः शरीरपर्याप्तिमा सात धातुपणे परिणमाववानी शक्तिरूप अथं तो औदारिक शरीरनी मुख्यताएज सर्व शास्त्रकारोए कहेलो छे, ने ते अनुसारे में पण अत्रे कहेल छे, तो पण वस्तुतः तो जे जीवन जेवु शरीर होय तेवू शरीर रचवानी शक्तिने अथवा रचवानी क्रियासमाप्तिनेज शरीरपर्याप्ति गणी शकाय छे. शंका-६ पर्याप्तिओनो आरंभ समकाळे थाय अने समाप्ति अनुक्रमे थाय तेनुं शुं कारण ? उत्तर--जेम एक शेर रुमाथी जाडु सूत्र कांतवं होयतो शेर रु व्हेलुं पूर्ण थाय, अने झी' सूत्र कांतवु होय तो घणे काळे कताइ रहे तेम आहारादि पर्याप्तिओ अनुक्रमे सूक्ष्म सूक्ष्मतर परिणामवाली Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतचे पर्याप्तस्वरूपवर्णनम. ( ३९ ) होवाथी समाप्तिमा अनुक्रमे अधिक अधिक काळ लागे छे. ए भावार्थ श्रीतत्वार्थ सूत्रमाथी आगळ कहेवाशे. शंका- - प्रथमनी त्रण पर्याप्तिओ सर्व जीवो अवश्य पूर्ण करे अने शेषपर्याप्तिओ करे अथवा न करे तेनुं शुं कारण ? उत्तर - जीव आ भवमां परभवनं आयुष्य बांध्या पछी अन्तमुहूर्त आ भवमां रही त्यारबाद मरण पामीने परभवमां उत्पन्न थइ शके, अने आयुष्यनो बंध इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण कर्या विना न थाय एवो नियम छे, माटे प्रथमनी त्रण पर्याप्तिओ पूर्णकरीने चोथी पर्याप्ति ना चालु काळमां (असमाप्त. काळमां ) अंतर्मुहूर्तसुधी आयुष्यनो बंध करी (बांधी) तदनंतर पुनः अन्तर्मुहूर्त्त जीवित भोगवी मरण पामे त्यांसुधी पण ए जीवनी चोथी पर्याप्ति पूर्ण थइ शकती नथी. माटे सर्वे पर्याप्ता जीव पण प्रथमनी ऋण पर्याप्ति पूर्ण करे ज एवो नियम छे, अनं शेषपर्याप्तिओ माटे एवो नियम नथी. या जीवने केटली पर्याप्तिओ होय ? पूर्व कहेली ६ पर्याप्तिओमांथी सर्व एकेन्द्रिय जीवोने प्रथम - नी ४ पर्याप्ति के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, अने चतुरिन्द्रियजीवोने प्रथमनी ५ पर्याप्ति, तेमज असंज्ञि ( सम्मूच्छिम ) पंचेन्द्रियने प्रथमनी ५ पर्याप्ति, अने संज्ञिपंचेन्द्रियने ६ पर्याप्ति होय छे. ए प्रमाणे सामान्यथी गाथाने अनुसारे जीवोमां पर्याप्तिओ कही, अने विशेपथी आ प्रमाणे सर्व लब्धपर्याप्त जीवोने ३ पर्याप्तिओ प्रथमनी होय छे. जेथी सर्व अपर्याप्त सम्मूर्च्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यच, समूच्छिम मनु १ लब्धि पर्याप्त तथा अपर्याप्त वगरेनुं स्वरूप आगळ कहवाय छे. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : (४०) श्रीनवतश्वविस्तरार्थः * अने अपर्याप्त एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय ए सर्वने आहारशरीर अने इन्द्रिय ए ३ पर्याप्तिओ होय छे तेमज लब्धिअपर्याप्त गर्भज (संज्ञि) तिर्यच पंचेन्द्रिय अने गर्भज ( संज्ञि ) मनुष्यने पण एज ३ पर्याप्तिओ होय छे तथा लब्धिपर्याप्तएकेन्द्रियोने ४ पर्याप्ति, लब्धिपर्याप्त विकलेंद्रिय (दीन्द्रि-त्रीन्द्रिय- अने चतुरिन्द्रिय) ने तथा लब्धिपर्याप्ता असंज्ञि (समूर्च्छिम तिर्यच ) पंचेन्द्रियने ५ पर्याप्तिओ प्रथमनी होय छे, ( अहिं समृच्र्च्छिम मनुष्यो लब्धिपर्याप्ति होइ शके नहिं तेथी तेओ ग्रहण कर्तुं नथी, ) अने लब्धिपर्याप्ति मनुष्य- ल० प० ग० तिर्यच सर्व देव अने सर्व नारक जीवोने छ ए पर्याप्तिओ होय छे. कारणके लब्धिपर्याप्त तिच अने मनुष्य अपूर्ण पर्याप्तिए मरण पामे नहि, तेमज देव अने नारक लब्धिअपर्याप्त होता नयी पण लब्धि पर्याप्ता ज होय छे माटे तेओ पण अपूर्ण पर्याप्तिए मरण पा मता नथी. पर्याप्तिना संबंधमां लब्धि अने करण भेदनी विवक्षा चालु प्रकरणमां तेमज बीना पण अनेक ग्रंथोमां लब्धि अपर्याप्त * लब्धि अपर्याप्त सम्मूच्छिम मनुष्योने उच्छवासपर्याप्ति संभवे नहि कारणके सर्वे लब्धि अपर्याप्ताने ३ पर्याप्तिओज समाप्त थाय एवो कर्मग्रंथनो नियम छे तो पण जीवविचारावचूरीमां अने श्री द्रव्यलोकप्रकाशमां समु० मनुष्योने ७-८ प्राण, अने बृहत्संग्रहणि वृत्तिमां ९ प्राण कह्या होवाथी उच्छवास अने भाषा प्राण कहेलो गणाय, अहीं उच्छवास प्राण को परन्तु अपर्याप्तनामकर्म अने उच्छवासनामकर्म ए बेनो समकाळे उदय कोइपण शास्त्रमां अंगीकृत कर्यो नथी तो लब्धि अपर्याप्त सम्मू० मनुष्यने उच्छवास प्राण अने वचनप्राण उच्छवास अने वचनपर्याप्ति पूर्ण कर्या विना केषी रीते होय ? ते बहु विचारवा योग्य छे. वळी ९ प्राणो कहेवाथी तो ते पर्याप्तो थाय छे. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्वे पर्याप्तिस्वरूपवर्णनम्. ( ४१ ) अने लब्धि पर्याप्त, तथा करण अपर्याप्त अने करणपर्याप्त जीवोनो संबंध घणी वार आवतो होवाथी अत्रे पर्याप्तिना प्रसंगमां ते चारे जीवोनुं किंचित् स्वरुप अर्थ मात्रथी कहेवाय छे जे जीव स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या विनाज मरण पामे ते लब्धिअपर्याप्त कहेवाय. जेमके एकेन्द्रिय जीवने स्वयोग्य पर्या लिओ ४ होय छे, तो ते चार पर्याप्तिओ पूर्ण न करे अने त्रण पूof करीने ज ( चालती चोथी पर्याप्तिमां ) मरण पामी जाय तेवा एकेन्द्रियजीवी लब्धि अपर्याप्त एकेन्द्रिय कहेवाय छे, अहिं लब्धि ते अपर्याप्तनामकर्मना उदय संबंधि जाणवी पुनः ए प्रमाणे विकलेन्द्रिय विगेरे स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण कर्याविना मरण पामे तो ओलब्धि अपर्याप्त विकलेन्द्रियादि कहेवाय. सर्व लब्धिअपर्याप्त जीवो ण पर्याप्तिओ पूर्ण करे छे ते आगळ कहेवाशे. तथा जे जीव स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण करीनेज मरण पामे एवी योग्यतावाको जीव लब्धिपर्याप्त कहवाय. (अहिं लब्धि ते पर्याप्तनामकर्मना उदय संबंधि जाणवी.) जेमके जे एकेन्द्रिय जीव स्वयोग्य ४ पर्याप्तओ, अने जे विकलेन्द्रिय अने असंज्ञिपंचेन्द्रिय जीव स्वयोग्य ५ पर्याप्तओ पूर्ण करीनेज मरण पामेतो तेवा एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-अने असंज्ञिपंचेन्द्रिय जीवो लब्धिपर्याप्त कहेवाय. तथा जे जीवे स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण करी नथी परन्तु पूर्ण करशे ते जीव करणअपर्याप्त कहेवाय. जेमके स्वयोग्य चारे पर्या वे पछी पूरी करशे एवा जीवे जो एक वा बे पर्याप्तिओ वापर्याप्त पूर्ण करीय अने शेष अधूरी होय तो ते करण अपर्याप्ता एकेन्द्रिय कहेवाय छे तेमज स्वयोग्य छए पर्याप्त पूर्ण करशे एवा मनुष्ये एक वे ऋण चार के पांच पर्याप्तिओज पूर्ण करी होय तो पण ते करणअपर्याप्त मनुष्य कहेवाय. करणअपर्याप्त प Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .(४२) श्रीनवतत्वविस्तरार्थः णानो आ अर्थ मात्र लब्धिपर्याप्त जीवने ज लागु पडतो होवाथी 'लब्धि अपर्याप्तजीवने पण करणअपर्याप्तपणुं संभवे तेवो अर्थ आप्रमाणे छे.-स्वयोग्य पर्याप्तिओमांथी जे जीवे स्वयोग्य पर्याप्ति ओ ज्यांसुधी पूर्ण नथी करी त्यांसुधी ते जीव करणअपर्याप्त कहेवाय. जेम लब्धिअपर्याप्त एकेन्द्रिय जीव श्वासोच्छवास पर्याप्ति वडे करणअपर्याप्त ( अने लब्धिअपर्याप्त पण ) छे, पुनः एज जोवे वाटे वहेता एकपण पर्याप्ति प्रारंभी नथी तो ते चारे पर्याप्तिवडे करणअपर्याप्त कहेवाय. ए प्रमाणे ज्यांसुधी स्वयोग्य प र्याप्तिओमांनी एक पण पर्याप्ति करवी अधूरी होय तो ते अधूरी रहेली पर्याप्तिनी अपेक्षाए करणअपर्याप्त ज कहेवाय. ए प्रमाणे ज लब्धिपर्याप्त मनुष्य भवांतरथी आवतां रस्तामां सर्व (छए) पर्याप्तिओवडे करण अपर्याप्तो छे, त्यारंवाद आहार पर्याप्ति पूर्ण थतां शेष पांच पर्याप्तिवडे करणअपर्याप्त, शरीर पर्याप्ति पूर्ण थतां शेष चार पर्याप्तिवडे करणअपर्याप्त, इत्यादि रीते यावत् पांच पर्याप्तिओ पूर्ण थया बाद मनःपर्याप्तिनी समाप्ति ना उपान्त्य समय सुधी पण मनःपर्याप्तिवडे करण' अपर्याप्त कहेवाय. तथा स्वयोग्य पर्याप्तिओ जे जीवे पूर्ण करी लीधी ते जीव (पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या बाद ) करणपर्याप्त कहेवाय. १-२ आ संबंधमां एवी पण प्रसिद्धी छे के करण एटले " इन्द्रिय सुधीनी प्रथमनी ३ पर्याप्तिओ" समाप्त थतां करणपर्याप्त अने समाप्त न थाय त्यां सुधी करणअपर्याप्त कहवाय. परन्तु ए अर्थ सम्यक् प्रकारे संभवतो नथी, कारणके करण एटले " शरीर इन्द्रिय विगेरे ( स्वयोग्य पर्याप्तिओ )." एषो अर्थ सम्यक् संभवे छे. श्री द्रव्यलोकप्रकाशमां का छे के . . करणानि शरीराक्षा-दीनि निर्तितानि यः । ... ते स्युः करणपर्याप्ताः, करणानां समर्थनात् ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिपर्याप्त जीवतत्त्वे पर्याप्तस्वरूपवर्णनम. पर्याप्त भेदाः पर्याप्त करणअपर्याप्त करणपर्याप्त ( ४३ ) for पर्यास करण अपर्याप्त निर्व्वर्तितानि नाद्याऽपि, प्राणिभिः करणानि यैः । देहाक्षादीनि करणाsपर्याप्तास्ते प्रकीर्त्तिताः = ए बने गाथाओभां " करण पटले शरीर अने इन्द्रियो वि गेरे " एम कहां छे. एमां " विगेरे " शब्दथी उच्छवासादि स्वयोग्य पर्याप्तिओज ग्रहण करवी. श्री विचारपंचाशिकामां कां छे के नजवि पूरेइ परं पूरिस्सर स इह करणअपज्जतो । सो पुण करणत्तो, जेणं ता पूरिया हुंति ॥ ३९ ॥ ए गाथानो टीकार्थः - " अहिं करण पटले शरीर भने इन्द्रियादिवडे अपर्याप्त ते करण अपर्याप्त तेज जीव कहेवाय के जे जीवे पर्याप्तिओ हजी सुधी समाप्त करी नथी अर्थात् बनावी नथी परन्तु केवळ आगळ समाप्त करशे पटले अवश्य स्वयोग्य पर्याप्तिओ बनावशेज. वळी करणपर्याप्त ते कहेवाय के जेणे ते पोतानी ( स्वयोग्य ) पर्याप्तिओ पूर्ण करेली छे एंटले बनावेली छे. " शंका- द्रव्य लोकप्रकाश विगरेमां "लब्धिअपर्याप्त जीवो पण अवश्य करणपर्याप्ता थइनेज मरण पामे " एवो भावार्थ को छे तो ते केम बनी शके ? उत्तरः- ते स्थाने करणपर्याप्त पटले इन्द्रियपर्याप्त अर्थ थाय छे, पण लब्धि विगेरे चार भेदमांनो करणपर्याप्त भेद न गणवो. वळी करण अपर्याप्तेन सास्वादमसम्यक्त्व विगेरे होवानुं Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) श्री नवतश्व विस्तरार्थः एक जीवमां समकाळे लबुध्यादि पर्याप्तभेद. जे जीव लब्धिअपर्याप्त छे ते जीव करण' अपर्याप्त पण छे. पुनः जे जीव लब्धिपर्याप्त छे ते जीव करणअपर्याप्त अने करणपर्याप्त पण छे. कारणके लब्धिपर्याप्त जीवे ज्यां सुधी स्वयोपर्याप्त पूर्ण नथी करी त्यां सुधी करणअपर्याप्त कहेवाय, अने स्वयोग्य पर्याप्त पूर्ण कर्या बाद करणपर्याप्तं कहेवाय. अने जे लब्धिपर्याप्त होय ते जीव लब्धिअपर्याप्त न होय, अने लब्धिअपर्याप्त जीव लब्धिपर्याप्त न होय. तथा जे जीव करणपर्याप्त हैं ते जीव लब्धिपर्याप्त ज छे, परन्तु लब्धअपर्याप्त के करण अपर्याप्त नथी. कारणके लब्धिपर्याप्तपणा बिना करणपर्याप्तपणं संभवेज नहिं, अने करणअपर्याप्तपणं अने लब्धअपर्याप्तपणुं तो ए जीवने प्रत्यक्ष बिरुडज छे. तथा जे जीव करणअपर्याप्त छे ते जीव लब्धिअपर्याप्त अने लब्धिपर्याप्त पण होय. कारणके लब्धिअपर्याप्त जीव तो प्रथम कह्या प्रमाणे करणअपर्याप्तज होय छे, अने लब्धिपर्याप्तजीवे पण ज्यां सुधी स्वयोग्य पर्याप्त पूर्ण नथी करी त्यां सुधी ते जीव करणअपर्याप्तज ज्यां क होय त्यां लब्धिपर्याप्तान्तर्गत करणअपर्याप्तपणुं अंगी - कार करवुं, पण लब्धिअपर्याप्त जीव संबंधि करणअपर्याप्तपणुं नहिं. १ चालु ग्रन्थाधिकारमां स्वयोग्य पर्याप्तिवडे अपर्याप्तने करण अपर्याप्त कहेलो होवाथी लब्धिअपर्याप्तने करणअपर्याप्त कयो छे, परन्तु ए जीव स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण करशे प अपेक्षार करणअपर्याप्तपणुं न जाणवुं. अथवा लब्धिअपर्याप्ता जीवो ad free अपर्याप्तरूप एकज प्रकारना होवाथी तद्गत इतर भेदना अभावनी अपेक्षाए करणअपर्याप्तपणानी विवक्षा शास्त्रमां करी नथी ते पण योग्य छे. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .जीवतत्वे पोतिस्वरूपवर्णनम्. (४५) छे, अने करणपर्याप्तपणुं तो ए जीवने प्रत्यक्ष विरोधीज छे. ए प्रमाणे चारेमां परस्पर भेदसंक्रान्ति नीचे प्रमाणेलब्धिअपर्याप्तमां | १ लब्धिअप० २करणअप०(अपेक्षाएक०प०) लब्धिपर्याप्तमां | १ लब्धिपर्या० २ करण अप०, ३ करणपर्या० करणअपर्याप्तमां | १ करणअप० २ लब्धिअप० ३ लब्धिपर्याप्त करणपर्याप्तमां । १ करणपर्या० २ लब्धिपर्या. लब्धिकरण पर्याप्तापर्याप्तपणानो काळ. जीवने लब्धिअपर्याप्तपणुं अन्तर्मुहूर्त सुधी ( एक भव आश्रयी ) होय छे, कारणके लब्धिअपर्याप्त जीवनुं आयुष्य अन्तमुहूर्त्तथी अधिक होय नहि.-तथा लब्धिपर्याप्तपणुं भवना प्रथम समयथी भवना अन्त्य समय सुधी रहे, कारणके लब्धिपर्याप्त जीवन लब्धिपर्याप्तपणु भवना प्रथम समयथी गणाय ते पण ज्यां सुधी जीवे त्यां सुधी ते जीव लब्धिपर्याप्तन कहेवाय. शास्त्रोमां ज्या ज्यां पर्याप्त जीव कह्या होय त्यां त्यां सर्वत्र लब्धिपर्याप्त जीवोज जाणवा. ज्यां ज्यां अपर्याप्त जीवो कह्या होय त्यां त्यां प्रायः लब्धि जीवो जाणवा (कदाच करणअपर्याप्त जीवो पण देव-नारकना १९८ भेद तथा १४ जीव भेद विगैरेनी पेठे गणाय छे). तथा करणअपर्याप्त पणुं जीवने एक अन्तर्मुहूर्त सुधीज होय छे, कारणके अन्तर्मुहूर्त व्यतीत थतां स्वयोग्य सर्व पर्याप्तिओ पूर्ण थाय छ.-तथा करण पर्याप्तपणानो काळ अन्तर्मुहूर्त न्यून स्वआयुष्यप्रमाण जाणवो. कारणके जीव विवक्षित भवमां गया पछी अन्तर्मुहूर्तबाद पर्याप्तिओ पूर्ण करवाथी करणपर्याप्त थाय छे ने ते पछी . आखा भव सुधी करणपर्याप्त कहेवाय छे. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) श्रीradaविस्तरार्थः पर्याप्तापर्याप्त काळ प्रमाण, अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त आयुष्यपर्यन्त अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त स्व आयुष्यपर्यन्त पुनः कार्यस्थितिकाळनी विवक्षा करी तो लब्धिअर्पाप्तपणानो जघन्य अने उत्कृष्ट कार्यस्थिति काळ अन्तर्मुहूर्त छे, ( एटला काळ सुधी जीव लब्धिअपर्याप्तपणे केटलाक भव करे ), अने लब्धिपर्याप्तपणानो काळ जघन्य अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्ट सागरोपमशतपृथक्त्व ( घणा सेंकडो सागरोपम ) छे, ए प्रमाणे श्री प्रज्ञापना सूत्रमां कार्यस्थितिपदमां कशुं छे. अने शेष बेनो कार्यस्थिति काळ तो पूर्वोक्त सामान्य काळवत जाणवो. लब्धि अपर्याप्त । भव प्रथम समयथी लब्धि पर्यास्त :करण अप्रर्याप्त करण पर्याप्त "" 99 अन्तर्मुहूतन्यून शंका:- कोई भी पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या विना मरण पामे अनेको जीव पर्याप्त पूर्ण करीनेज मरणं पामे तेनुं कारण शुं ? उत्तर:- जे जीवे प्रथमना (पूर्व ) भवमां पर्याप्तनाम कर्म उपार्जन करेलुं होय ( बांधेलुं होय, ) ते जीव आ भवमां आवी पर्याप्तिओ पूर्ण करीनेज मरण पामे, अने जे जीवे अपर्याप्त नाम कर्म बांध होय तो ते अपर्याप्तनामकर्मना उदयवडे पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या विनाज मरण पामे. ए प्रमाणे पर्याप्तिओ पूर्ण भवामां अनेन थवामां ' नामकर्म मूळ कारण छे. १ नामकर्मजन्य अपर्याप्तलब्धि अथवा पर्याप्तलब्धि मानवानी शी जरूर छे ? कारण के पर्याप्ति पूर्ण थवीन थवी तेमां तो अल्प- दीर्घा युष्यज कारणरूप होई शके. अर्थात् आयुष्य अल्प होय तो पर्यातिओ पूर्ण न थाय अने आयुष्य अधिक होयतो पर्याप्तिओ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्त्वे पर्याप्तिस्वरूपवर्णनम्, (४७) समाप्त थएली पर्याप्तिओनुं कार्य. प्रति समय आहार ग्रहण करवारूप क्रिया, अथवा गृहित आहारने खल रसरूपे परिणमाववानी क्रिया आहारपर्याप्तिरूप जीवशक्ति वडे थाय छे. ___काययोगरूप शरीर चेष्टा ( शरीरद्वारा आहारग्रहणादि कार्य करवू ) तथा धावन वल्गनादिमां समर्थता थवी, अने देहप्रायोग्य ग्रहण कराता लोमाहार या कवलाहारद्वारा प्राप्त थयेल पुद्गलोने शरीरपणे परिणमविवारूप क्रिया करवी र शरीरपर्याप्ति समाप्त थवाथी थाय छे. (आ पर्याप्ति पूर्ण थवाथी श्री शीलांकाचार्य मते आगळनी ७ मी गाथामां कहेवातो भवधारणीय देह संबंधि काय योग प्राप्त थाय छे). इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण थवाथीजीव इन्द्रियोद्वारा विषयबोध करी शके छे. ___ तथा श्वासोच्छवासने ग्रहण करी परिणमावी अवलंबीने मकवानी क्रियारूप जे उच्छवास प्राण ते श्वासोच्छवास पर्याप्तिवडे उत्पन्न थाय छे. अवश्य पूरी थायज. माटे पर्याप्तिओ पूर्ण थवा नहिं थवामां जूदुं नामकर्मजन्य लब्धिरूप कारण मानवं ते आवश्यक नथी. उत्तर:-पक्षीने उडवामां हवा, चक्षुने देखवामां प्रकाश, अने मत्स्यने तरवामां जळ जो के अवश्य साधनरूप छे, परन्तु पक्षी विगेरेनी पोतानी शक्ति विना उडवा विगेरेनुं कार्य बने नहिं, तेम पर्याप्तिओ अपूर्ण रहेवामां के पूर्ण थवामां आयुष्य सहकारी कारण अवश्य छे, परन्तु पूर्ण थवा न थवानी योग्यता तो नाम कर्मजन्य गणी शकाय. जेम मुद्गर न मारे तो घडो न फुटे अने मुद्र मारे तो घडो फुटे ए वात खरी पण घडामां फुटवा नहिं फुटवानी योग्यता तो प्रथम अन्य कारणथीज रहेली गणी शकाय. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) श्रीनवतत्वविस्तरार्थः तथा भाषा बोलवानी क्रियारूप के वचनवळ प्राण ते भाषापयाप्तिथी अने मनपर्याप्ति पूर्ण थवाथी जीवने चितवन व्यापाररूप मनोबळ प्राण प्राप्त थाय छे. ए प्रमाणे जीवने जीवित पर्यन्त करवायोग्य ९ प्राणरूप ९ कार्यों ए ६ पर्याप्तिी पूर्ण थवाथी प्रवर्ती शके छे. अने आयुष्य प्राण माटे कोइ शक्तिनी जरुर नहि होवाथी आयुष्य प्राणना कारणरूप कोइ पर्याप्ति नथी. अथवा तो तेमां पण आहार पर्याप्ति आयुष्य प्राणने टकाववामां मुख्यत्वे सहकारी कारण गणाय, कारणके आहार ग्रहण विना जीवित टकी शकतुं नथी ए स्पष्ट छे. . पर्याप्ति संबंधि पूर्वोक्त स्वरूप घणा ग्रंथोमांथी मळी आवे छे, अने श्रीतत्त्वार्थ सूत्रमा पर्याप्ति संबंधि जे विशेषता छे ते नीचे लखेला अक्षरशः भाषान्तरथी समजाशे. श्री तत्त्वार्थ सूत्रने अनुसारे ६ पर्याप्तिनु स्वरूप. - भाष्यार्थः-पर्याप्ति ५ प्रकारनी छे ते आ प्रमाणे--१ आहार पर्याप्ति, २ शरीर पर्याप्ति, ३ इन्द्रिय पर्याप्ति, ४ उच्छवास पर्याप्ति, अने ५ भाषापर्याप्ति. आत्मानी क्रियानी समाप्ति ते पर्याप्ति कहेवाय. टीकार्थ:--पर्याप्ति पांच प्रकारनी छे इत्यादि कह्यं त्यां पर्याप्ति ते पुद्गलस्वरूप छे, के जे कर्ता एवा आत्मानुं करण विशेष छे, अर्थात् जे करणविशेष वडे आत्माने आहारादि ग्रहणशक्ति उत्पन्न थाय छे, अने ते करण जे पुद्गलोवडे बने छे ते आत्माए प्राप्त करेला तथा प्रकारना परिणामवाळा पुद्गलोज पर्याप्ति शब्दवडे कहेवाय छे. ए प्रमाणे सामान्यथी उद्देश करायली पर्याप्तिओने • नामग्रहण पूर्वक विशेषपणे दर्शावतां (भाष्यकार) आ प्रमाणे कहे छे. भाष्यार्थः-आहारने ग्रहण करवामां समर्थ एवा करणनी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पत्ति ते आहार पर्याप्ति, शरीर करणनी उत्पत्ति ते शरीर पर्याप्ति, इन्द्रियकरणनी उत्पत्ति ते इन्द्रिय पर्याप्ति प्राणापाम एटले उच्छवास निःश्वासने योग्य करणनी उत्पत्ति ते प्राणापान पर्याप्ति, भाषा योग्य पुद्गलोने ग्रहण विसर्जन करवामां समर्थ एवा करणनी उत्पत्ति ते भाषा पर्याप्ति. कमु छ केआहारसरीरिंदिय-उस्सासवओमणोऽहिनिवित्ती॥ होइ जओ दलियाओ, करणं पइ सा उ पज्जत्ती ॥ (अर्थ:-जे दलिकवडे आहार शरीर इन्द्रिय उच्छवास वचन अने मननी निष्पत्ति थाय छे, ते प्रत्ये (शक्तिरुप ) जे करण ते पर्याप्ति कहेवाय ) इति शब्द “ एटलीज पर्याप्तिओ छे" एम दर्शाववा माटे छे. अहिं शंका थाय के-परममुनिओना वचनथी प्रसिद्ध थयेली पर्याप्तिओ ६ छे, तो अहिं ५ केम कही ? तेना जवाबमां जाणवं के अहिं इन्द्रियपर्याप्ति ग्रहण करवाथी मनःपर्याप्तिनुं पण ग्रहण थ. युं जाणवू, माटे पर्याप्तिओ पांच छे एज निर्णय छे. वळी शंका थाय के शास्त्रकारोए तो मनने अनिन्द्रिय कहेल छे तो इन्द्रियना ग्रहगथी (अनिन्द्रियरूप) मन केम ग्रहण कराय ? तेनो जवाब ए छे के जेम चक्षु आदि इन्द्रियो शब्दादि विषयने साक्षात् ग्रहण करे छे तेम मन (साक्षात् विषयग्राही) नथी, परन्तु सुख विगेरेने साक्षात् ग्रहण करनार होवाथी मन अपूर्ण इन्द्रियस्वरूप छे माटे मनने अनिन्द्रिय का छे. अने मन ते इन्द्रनु-आत्मानुं लिंग होवाथी इन्द्रिय पण कहेवाय छे. तथा केटलाएक आचार्यों मनः । पर्याप्ति जूदी कहे छे एम आगळ कहेवामां आवशे. वळी पर्याप्तिओ पांचज छे एम जे निर्णय कह्यो ते बाह्यकरणोनी अपेक्षाए Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणवं, अने मन तो अभ्यन्तर करण छे माटे मनःपयोप्ति जूदी कहे'नामां कोई दोष नथी. बन्ने रीते मनःपर्याप्तिनो संभव छे. हवे प. योति एटले समाप्ति अर्थात् विवक्षित क्रियानी समाप्ति तैजस अने कार्मण शरीर वाला आत्मानेज औदारिक विगेरे शरीर प्राप्त करवार्नु होवा छतां प्रथम समये उत्पत्ति वखतेज.ए पर्याप्तिभोनो विचार कराय छे, अर्थात् ए परभव ग्रहण वखतनी छे. वळी ए ६ पयाप्तिओ समकाळे प्रारंभाय छे अने अनुक्रमे समाप्त थाय छे पण समकाळे समाप्त थती नथी. कारण के उत्तरोत्तर पर्याप्तिओनो अनुक्रमे अधिक अधिक काळ छे. ते समाप्त थवाना अनुक्रममा प्रथम आहार पर्याप्ति, अने त्यारवाद अनुक्रमे शरीर, इन्द्रिय, उ. च्छवास, भाषा, अने मनःपर्याप्ति छे. त्यां प्रथम आहारपर्याप्तिन स्वरूप निरूपण करवाने माटे (भाष्यकार) आ प्रमाणे करे छे. - भाष्यार्थ-शरीर, इन्द्रिय, वचन, मन, अने उच्छवास योग्य दलिकद्रव्यने ग्रहण करवा रूप क्रियानी समाप्ति ते आहार पर्याप्ति, ग्रहण करेल ( दलिक) ने शरीरपणे स्थापना रूप क्रियानी समाप्ति ते शरीर पर्याप्ति, अहिं स्थापq एटले रचवू अथवा घडवू एवो अर्थ छे. टीकार्थ-शरीर इन्द्रिय वचन मन अने उच्छवासनां आगम प्रसिद्ध वर्गणाओना अनुक्रम प्रमाणे जे तत्मायोग्य दलिकद्रव्यो तेनी आहरणक्रिया एटले ग्रहणक्रिया तेनी समाप्ति ते आहारपर्याप्ति ते करण विशेष छे. अहिं मन ग्रहण करवाथी प्रथथ इन्द्रिय ग्रहण वडे मननुं जे ग्रहण कयु हतुं ते स्पष्ट कयु. तथा सामान्य पणे (शरीरादि अमुक रुपेज एम नहिं एवा ) ग्रहण करेल योग्य पु. गल समूहनु शरीर अने ( ते शरीरना) अंगोपांगपणे स्थापवानी क्रिया एटले रचवानी क्रिया तेनी समाप्ति ते शरीरपर्या SEEEEEEEEEEEEE Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) प्ति. अहिं स्थापन शब्दनो अर्थ ( भाष्यकर्ता पोतेज ) बीजा एकार्थवाचक शब्दोवडे जणावे छे के स्थापq एटले रचवू अथवा घडवू, अर्थात् शरीर वर्गणा प्रायोग्य पुद्गलोनी अमुक प्रकारे रचना ( ते शरीरपति ). भाष्यार्थ-त्वचा विगेरे इन्द्रियोने रचवारूप क्रियानो स. माप्ति ते इन्द्रियपर्याप्ति. टीकार्थ-त्वचा एटले स्पर्शेन्द्रिय ते विगेरे इन्द्रियो एटले स्पर्श, रसने०, घाणे), पशु, बने श्रोत्रेन्द्रिय, अने मन ए ६ इन्द्रियोन स्वरूप रचवारूप क्रियानी समाप्ति ते इन्द्रियपर्याप्ति. भाष्यार्थ-प्राणापान क्रिया योग्य द्रव्यनुं ग्रहण अने विस- . जैन करवानी शक्तिने रचवारूप क्रियानी समाप्ति ते प्राणापानपर्याप्ति.. टीकार्थ-प्राणापान एटले उच्छवास अने निःश्वासक्रिया स्वरुप ते बन्नेनां वर्गणाना क्रम प्रमाणे योग्य द्रव्य ग्रहण ( अने विसर्जन ) करवानुं सामर्थ्य ते ( सामर्थ्य ) ने रचवारुप क्रियानी समाप्ति ते उच्छवासपर्याप्ति. ___ भाष्यार्थ-भाषा योग्य (दलिक) ने ग्रहण विसर्जन करवानी शक्तिने रचवारूप क्रियानी समाप्ति ते भाषापर्याप्ति. टीकार्थ-अहिं पण वर्गणाना अनुक्रम प्रमाणे भाषा प्रायो. ग्य द्रव्यने ग्रहण विसर्जन करवा संबंधि जे शक्ति-सामर्थ्य ते (शक्तिने ) रचवारुप क्रियानी समाप्ति ते भाषापर्याप्ति. भाष्यार्थ-मनपणाने योग्य द्रव्यो ग्रहण विसर्जन करवानी शक्तिने रचवारूप क्रियानी समाप्ति ते मनःपर्याप्ति एम केटला एक आचार्य कहे छे. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकार्थ-मनपणाने योग्य एटले मनोवर्गणा प्रायोग्य अर्थात् मनपणे परिणमवामां समर्थ जे द्रव्यो तेने ग्रहण अने विसर्जन करवा संबंधि सामर्थ्यनी रचनारूप क्रियानी परिसमाप्ति ते मनःपयाप्ति, एम केटलाएक आचार्यो मनःपर्याप्ति जुदी कहे छे, अर्थात् इन्द्रियपर्याप्ति अने नोइन्द्रियपर्याप्तिना ग्रहणमा ( मनःपर्यालिने ) भेगी गणता नथी, इन्द्रिय पर्याप्तिथी भिन्न गणे छे, परन्तु मनःपर्याप्तिने केटलाएक आचार्य माने छे, अने केटलाएक नथी मानता एम नहिं. ____ "भाष्यार्थ-ए पर्याप्तिओ समकाळे प्रारंभाय छे छतां पण समाप्त अनुक्रमे थाय छे तेनुं कारण ए छे के ए पर्याप्तिओ उत्तरोत्तर ( अनुक्रमे ) सूक्ष्म सूक्ष्मतर छे, तेनां दृष्टांतो सूत्र कांतवा अने काष्ट घडवाना अनुक्रमे ( आ प्रमाणे ) छे. टीकार्थ-ए छए पर्याप्तिओ समकाळे आरंभाइ छती अनुक्रमे समाप्त थाय छे ते दर्शावे छे के पर्याप्तिओ विषमकाळे समाप्त थाय छे तेनु शुं कारण ? ( तेनो उत्तर ) कहे छे के पयाप्तिओ अनुक्रमे सूक्ष्म सूक्ष्मतर छे. अर्थात् आहारपर्याप्तिथी शरीरपर्याप्ति अति सूक्ष्म छे, एटले अति सूक्ष्म द्रव्यना समूहवडे रचायली छे, तेथी पण इन्द्रियपर्याप्ति अतिशय सूक्ष्म, तेथी पण उच्छवास पर्याप्ति, तेथी पण वचनपर्याप्ति, अने तेथी पण मनः पर्याप्ति अति सूक्ष्म छे. माटे तेनुं अनुक्रमे सूक्ष्मपणुं दृष्टान्तथी जणावे छे के सूत्र कांतवा अने काष्ट घडवाना दृष्टांते (ए पर्याप्तिओ सूक्ष्म सूक्ष्मतर छे ) अर्थात् जाडं सूत्र कांतनारी अने वारीक सूत्र कातनारी सूत्र कांतवानो समकाळे प्रारंभ करे तोपण जाडं सूत्र कांतनारो कोकडु व्हेलं पूरुं करे, अने बीजी घणे काळे पूरु करे. तथा काष्ट घडवामां पण एज क्रम जाणवो के स्तंभ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) विगेरेनो स्थूल आकार बनाववो अने तेने समचोरसरूपे करवो ते अल्पकाळमां कराय, अने तेज स्तंभने नीचेना भांयतळी - आना ( कुंभी विगेरेना ) भागमां पांदडीओ पाडी पूतळीओना समूह सहित बनाववो होय तो समकाळे प्रारंभ्या छतां पण घणे काळे बने. (भाष्यमा कहेला) विगेरे शब्दथी चित्र पुस्त (पुतळी) अने लेप (रंगनुं चित्र ) विगेरेतुं ग्रहण करं. तथा ( भाष्यमां कला ) " अनुक्रमे दृष्टांतो ( आ प्रमाणे ) " ए वचनथी छए पर्याप्तिओनुं स्वरूप अनुक्रने छ दृटांतोडे कवानो प्रारंभ करे छे. माटे दृष्टान्तनुं प्रतिपादन करवा माटे ( नीचे प्रमाणे भाष्यकार ) कहे छे. भाष्यार्थ - घरना दलिकनुं (काष्टादि सामग्रीनुं ) ग्रहण, स्तंभ अने स्थूणा ( आडी पाटडी) नुं रचवुं द्वारवडे प्रवेश करवा अने निकलवाना स्थाननुं रचवुं, सूवा बेसवा विगेरे क्रिया (योग्य स्थान ) नुं रचवुं, ते सरखं पर्याप्तिनुं रचतुं छे. पर्याप्ति एटले ते ते परिणामने योग्य दलिक के जे आत्माए ग्रहण करेल होय ते. टीकार्थ - अहिं ( भाष्यकार ) घरना दलिक ( काष्ट-इंटमाटी - चूनो इत्यादि ) वडे आहार पर्याप्ति समजावे छे. जेम घर कर होय त्यारे सामान्यपणे साग विगेरेना काष्ट रूप घरनुं दलिक (काष्टादि सामग्री) एकटुं कराय छे. (तेम सामान्यपणे ते ते योग्यतावाळा पुगलनं केवळ ग्रहण ते आहार पर्याप्ति). त्यार बाद सामान्यपणे ग्रहण करेला दलिकमां अहिं स्तंभ वा स्थूणा ( मोम - आई काष्ट ) थशे एम निरूपण कराय छे ( विचाराय छे) ते प्रमाणे अनेक पुगको ग्रहण कर्ये छते एमां आ पुनको Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) शरीर वर्गणा योग्य छे अर्थात् शरीर निष्पादन करवामां (नि. ष्पत्तिमां ) समर्थ छे, ( ते पुद्गलोवडे अथवा ते पुद्गगलोर्नु शरीर बनावq ) ते शरीर पर्याप्ति. तथा घरैनी भींत विगेरेनी उंचाइ रूप विचार करवानो छे तो पण (भीत विगेरेथी घर रच्ये छते पण) तेने केटलां द्वार बनाववां, अने तेमां पण आ (अमुक) द्वार पूर्वमुखे अने आ द्वार उत्तरमुखे पेसवा निकळवा माटे. ( ठीक पडशे एम ) विचाराय छे ( बनावाय छे ) तेम इन्द्रियपर्याप्ति पण आत्मोपयोगनी वृत्तिए पेसवा निकळवाना द्वार सरखी छे. ए प्रमाणे उच्छवास पर्याप्ति अने भाषापर्याप्ति पण एज दृष्टांतवडे समजवी, ( कारण के ) दार्शन्तिकना भेदथी द्रष्टांत भिन्न होय छे (पण अहिं दार्शन्तिकनो भेद नथी तेथी दृष्टांत भिन्न आप्यु नथी, कारण के उच्छवास अने भाषामां पण प्रवेश निर्गमन वृत्ति इन्द्रियपर्याप्ति तुल्यज छे ). त्यारबाद द्वार सहित घर बन्ये छते पण अहिं आसन ( दिवानखानुं ), अहिं सूबान ( शय्यागृह ), अने अहिं भोजन भूमि ( भोजनगृह ) बेसवा सूवा अने जमवानी क्रियाओ करवा माटे गृहस्थो विचारे छे (बनावे छे ) तेनी पेठे हितनी प्राप्त अने अहितना त्यागनी अपेक्षारूप लक्षणवाळी मनःपर्याप्ति जाणवी. ए प्रमाणे ए ६ पर्याप्तिओने जे कर्म बनावे ते कर्म पयाप्ति नामकर्म ते भट्टीमां मुकेला तैयार थयेला घट सरखं जाणवू अने अपर्याप्ति नामकर्म तो नहिं बनेल अने बनेल पण विनाश पामवा योग्य घटतुल्य छे, घट सरखं छे. (इति तत्त्वार्थ भाषान्तर समाप्त. आ भाषान्तरमां कौंसमां आवेला शब्दो लेखकना छे). पर्याप्तिओनो प्रारंभ अने पूर्णता एटले शुं ? ६ पर्याप्तिओमां प्रथमनी ३ पर्याप्तिओनुं कार्य (शक्ति अने शक्तिथी यतुं कार्य ) प्रथम समयथीज प्रारंभायुं छे, अने उच्छवा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) सादि ३ पर्याप्तिओन कार्य जे उच्छवासादि वर्गणाओनुं ग्रहण ते उच्छवासादि पर्याप्तिरूप पुद्गलो रचाया वाद थाय छे. परन्तु ते उच्छवास पर्याप्ति स्वरूप पुद्गलोनो रचना प्रारंभ तो प्रथम समयथीज शरु थयेलो छे, माटे सर्वे पर्याप्तिओनो एटले पर्याप्ति संबंधि पुद्गलोनो रचना प्रारंभ तो प्रथम समयथीज शरु थयेलो गणाय, परन्तु ते पर्याप्तिरूप पुद्गलोनी समाप्ति तो पूर्वे कह्या भ. माणे अनुक्रमेज थाय छे. ते आ प्रमाणे--- . प्रथम समये जे पुद्गलो सामान्य स्वरूपवाळां ग्रहण कयों ते पुद्गलोमांथी तेज समये केटलांएक पुद्गलोने शरीरपणे स्थाप्यां, केटलांएक पुद्गलोनी अभ्यन्तर निर्वृत्तिइन्द्रिय बनावी, केटलांएक पुगलो उच्छवास करणरुपे रच्यां, केटलांएक पुद्गलो भाषाकरणरूपे रच्यां, अने केटलांएक पुद्गलो मनःकरणरूपे रच्यां, अने शरीरादिपणे नहिं परिणमो शके एवां पुद्गलोनो बोजे समये त्याग करशे. ए प्रमाणे प्रथम समये पुगलो ग्रहण करवा. नी जे आत्मशक्ति ते पुद्गलोना ग्रहण निमित्ते प्रवर्ती ते " प्रथम समये आहारपर्याप्ति समाप्त थइ” एम कहेवाय, ___ शंका-पुद्गलोनो आहार तो प्रथम समय बाद पण चालु रहेवानो छे तो प्रथम समये आहारपर्याप्ति रूप शक्ति समाप्त थइ केम गणाय ? उत्तर-ग्रहणकार्य गमे तेटला काळ सुधी चालु रहे पण ग्रहणशक्ति तो ग्रहणकार्य चालु थयानी अपेक्षाए प्रथम समये संपूर्ण थइ गणाय. अने ते प्राप्त थयेलो शक्ति जेटला काळ सुधी टके तेटला काळ सुधी ग्रहणकार्य थवामां कोई विरोध नथी. ___ शंका-प्रथम समये प्राप्त थयेली शक्तिवडे पुद्गल ग्रहण कया? के पुद्गलग्रहण बडे शक्ति आवी कहेवाय ? Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उत्तर-प्रथम समये ( आत्मामां प्रथमथी रहेली) शक्तिवडे पुद्गल ग्रहण कयो एम कहेवाय. .. शंका-जो एम होय तो पर्याप्ति के जे पुद्गलना आलंबनवडे कहेवाय छे ते न बनी शके ! उत्तर-ए वात सत्य छे, परन्तु (प्रथम समयनी) ग्रहणशक्ति तो तैजसकार्मणदेहना आलंबनथी जीवमां प्रथमथीज हती, परन्तु ते शक्ति उत्पत्ति स्थाने जीव आव्यो नहोतो त्यां सुधी कार्य करनारी न हती, अने हवे उत्पत्तिस्थाने (ग्रहण करवा योग्य पुद्गलोना स्थानमां) आववाथी ते शक्ति स्वकार्य करनारी थइ ए हेतुथीज प्रथम समये आहारग्रहण शक्ति प्राप्त थइ गणाय. ए प्रमाणे शरीरादि रचनानी शक्ति अने शरीर रचनानी शरुआत पण जीव मां प्रथम समयथीज छे, परन्तु ते शरीर विगेरे ज्यां सुधीस्वकार्य सामर्थ्य पूरतुं न रचाय त्यां सुधी शरीरादिक वडे जीव अपर्याप्तअशक्त गणाय, अने शरीरादि स्वकार्य सामर्थ्य जेटलुं रचाइ रहे त्यारे शरीरपर्याप्त (शरीरोपष्टंभ द्वारा उत्पन्न थयेली जीवशक्तिवाळो) गणाय. शरीर जो के उत्पत्तिना प्रथम समयथो आखा भव सुधी प्रतिसमय रचाया करशे, परन्तु स्वकार्य सामर्थ्य पूरतुं रचावाना कारणथी "शरीरपर्याप्ति समाप्त थई" अथवा "श. रीर निष्पत्ति थइ " इत्यादि व्यपदेश थइ शके. ए प्रमाणे अभ्यन्तरनिर्वृत्तिइन्द्रिय स्वकार्य सामर्थ्य पूरशी रचाय अने तेथी जीव अभ्यन्तरनिर्वृत्तिइन्द्रिय द्वारा शब्दादि विषय जाणवा समर्थ थाय के तुर्तज "इन्द्रियपर्याप्ति अथवा इन्द्रियरचना समाप्त थई" एम गणाय. वळी ए प्रमाणेज उच्छवास विगेरे वर्गणा ग्रहणादिनु कार्य थइ शके तेटलां उच्छवासादि करणनां ( औदारिकादिनुं ३ वर्गणामांथी रचायलां) पुद्गलो रचाइ रहे त्यारे “ उच्छवासादि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवतत्त्वे पर्याप्तस्वरूपवर्णनम् ॥ (५७) पर्याप्त समाप्त थइ एवो व्यपदेश थाय. शंका - आहार पर्याप्तिना अर्थभां " जे शक्ति वडे आहत पुगलो खलरस पणे परिणमे ते आहार पर्याप्ति" एमां खलरस परिणमन ते शुं ? कारणके मलादि रूप विशिष्ट खल तो शरीर पर्याप्तने लोमहारथी पण न संभवे तो ते वखतना ओजस आहारथी केम होय ? वळी जेमांथी हाड विगेरे बने छे ते रस तो मात्र औदारिक शरीरी सजीवो ने ज होइ शके छे तो दरेक जीवमां ए आहार पर्याप्तिनो अर्थ केवी रीते जाणवो ? उत्तर -- ग्रहण करेलां पुद्गलोमांथी जे योग्य पुद्गलो छे तेने शरीरादि रूपे रचवा, अने अयोग्य पुद्गलोने अलग करवा ते खल रस परिणमन कहेवाय. मात्र मळ प्रमुखने न खल अने हाड विगेरे मां बनी शके ते रस एवो एकान्त अर्थ नथी. ए अर्थ तो मुख्यवेस जीवनी औदारिक शरीर संबन्धी पर्याप्तिओ आश्रयी कलाहाने अंगे जाणवो. शंका- शरीरपर्याप्ति रचाया बाद जे शरीरनिष्पत्ति कहेवाय ते कया सामर्थ्यथी ? उत्तर -- भवधारणीय काययोगनी प्रवृत्तिथी अने ते काययोग वढे शरीरद्वारा लोमाहार ग्रहण करवाथी नवा शरीरनी froft eat मांडे. अहिं शरीरपर्याप्ति समाप्त थया बाद भवधारणीय काययोग 'श्री शीलांकाचार्यै' मानेलो छे. अने 'पंचसंग्रहमां' अन्य आचार्यना अभिप्रायथी शरीरपर्याप्ति बाद भवधारणीय काययोग मान्यो छे अने 'कर्मग्रंथादिकमां' तो पर्याप्तने ज भवधारणीय काययोग मान्यो छे. ॥ इति षष्ठ गाथा विस्तरार्थः ॥ अवतरण - पूर्व गाथामां कया जीवने केटली पर्याप्तिओ होय ते कहीने हवे आ गाथामां पूर्वोक्त पर्याप्तिओथी थनारा भा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) .. ॥ श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ वो ( धर्मों जीवना पर्यायो ) के जेना संयोगे . तत्तदेवनिवास रूम. जीवन जीवन तथा जेना वियोगे मरण कहेवाय छे तेमज जीव जेना बडे ओळखायं अथवा कहेवाय एवां बाह्य लक्षणो अने ते बाह्य लक्षणो कया जीवने केटलां होइ शके ते पण कहेवाय छे.. पणिदियत्तिबलसा-साऊ दस पाण चउ छ.सगअह॥ इगदुर्तिचउरिदीणं, असन्निसन्नीण नव दस य ॥७॥ संस्कृतानुवादः पंचेन्द्रियत्रिबलोच्छवासाधूषि दश प्राणाश्चत्वारःषट् सप्ताष्टौ॥ एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणा-मसंज्ञिसंज्ञिनां नव दशा च ॥७॥ शब्दार्थः पणिदिय-पांच इन्द्रियो .... | अट्ठ-आठ ...। मित्रण | इग-एकेन्द्रिय जीवोने : बल-बळ, योग, दु-दीन्द्रियने ... उसास-श्वासोच्छवास ति-त्रीन्द्रियने आऊ-आयुष्य चउरिंदीणं-चतुरिन्द्रियने दस-दश .. . असन्नि-असंज्ञि पंचेन्द्रियने पाण-प्राणो छे. सन्नीण-संज्ञिपंचेन्द्रियने नव-नव दस-दश सग-सात . यअने ( वा पादपूरणार्थ ) ___गाथार्थ:--५ इन्द्रियो, ३ बळ ( योग ),१ श्वासोच्छ्वास, अने १आयुष्य ए १० प्राणो छे, तेमांथी एकेन्द्रियने ४, बीन्द्रियने ६, श्रीन्द्रियने ७, चउरिन्द्रियने ८, असंज्ञि पंचेन्द्रियने ९, अने संज्ञिपंचेन्द्रियने १० प्राण होय छे. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D ॥ जीवतत्त्वे पञ्चेन्द्रियप्राणवर्णनम् ॥ (५९) विस्तरार्थः-पूर्वगाथामां पर्याप्तिनुं वर्णन कर्याबाद हवे आ गाथामां ते पर्याप्तिनां कार्यरूप प्राणोन विवेचन कराय छे. ॥५ इन्द्रिय ५ प्राणो. ॥ आत्मा जे इन्द्रियोद्वारा विषय ( पदार्थ ) जाणी शके छे, ते इन्द्रियो स्पर्शन-रसना-घाण-चक्षु अनेश्रोत्र ए प्रमाणे पांच छे. इन्द्रिय शब्द इन्द्र उपरथी बनेलो छे, इन्द्र एटले आत्मा तेनुं जे चिहते इन्द्रिय कहेवाय, ते इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय अने भावेन्द्रिय एम बे प्रकारे छे, पुनः निर्वृत्ति अने उपकरण एम द्रव्येन्द्रिय के प्रकारनी छे, पुनः निवृत्ति अने उपकरण द्रव्येन्द्रिय पण अभ्यन्तर अने बाह्य एम बेबे प्रकारनी छे, तथा लब्धिभावेन्द्रिय अने उपयोगभावेन्द्रिय एम भावेन्द्रिय पण बे प्रकारनी छे, तेनी भेद स्थापना आ प्रमाणे छे. . ५ इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रिय निवृत्ति उपकरण. लब्धि उपयोग अभ्यः बाह्य अभ्यः बाह्य ॥ इन्द्रियभेदना अर्थ. ॥ इन्द्रियोने स्थाने इन्द्रियोने आकारे गोठवायला विषय ग्रहण करवानी शक्तिवाळा अतिस्वच्छ- पुद्गलो ( इन्द्रियना पुद्गलो) अथवा आत्मप्रदेशो ते 'अभ्यन्तरनिवृत्ति द्रव्येन्द्रिय' कहेवाय. जेम चक्षुमां कीकी इत्यादि, एमां अभ्यन्तर स्पर्शननिर्वृत्ति द्रव्येन्द्रियनो आकार दरेक जीवनो देहना आकारसरखो होय छे, इत्यादि सर्व Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) ॥श्रीनवतत्वविस्तरार्थः ॥ जीवोने अभ्यन्तर निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रियना आकारो नियतज होय छे, जे आगळ कहेवाय छे. . . । इन्द्रियोने स्थाने देखातो कर्णपर्पटिकादि बाह्य अंगनो आकार ते 'बाह्यनित्ति द्रव्येन्द्रिय,' जेम चक्षुना डोळा इत्यादि, ए बाह्य अंगरचनारूप इन्द्रियोनो आकार दरेक जीवने जुदी जुदी जातनो होय छे. आगळ कहेवाता इन्द्रियोना आकार आ बायनिकृत्तिना नहि पण अभ्यंतरनिर्वृत्तिना जाणवा. अहिं बन्ने स्थाने 'नित्ति एटले रचना' अर्थात् इन्द्रियोनी जे अंदरना भागनी रचना ते अभ्यन्तरनिर्वृत्ति अने इन्द्रियोनी बहारनी जे रचना ते बाह्यनिवृत्ति कहेवाय, अथवा निवृत्ति एटले आकृति एवो अथं करतां इन्द्रियोनी अंदरना भागनी जे चक्षुगोचर न थइ शके तेवा सूक्ष्म अने स्वच्छ पुद्गलोनी अथवा आत्मप्रदेशोनी जे आकृति ते अभ्यंतरनिर्वृत्ति अने बहारना भागमा सर्वने साक्षात् देखाता कर्णपर्पटिका (कानपापडी) विगेरे आकृति ते बाह्यनिवृत्ति 'कहेवाय. ___ इन्द्रियनी अभ्यन्तर आकृतिमां ( अभ्यन्तरनिर्वृत्ति द्रव्येन्द्रियमां ) रहेली जे विषय ग्रहण करवानी शक्ति ते 'अभ्यन्तर उपकरणेन्द्रिय' कहेवाय. अहिं ( उपकरण एटले ) इन्द्रियने विषय ग्रहण करकामा उपकार करनार जे शक्तिविशेष ते उपकरण कहेवाय, जेम श्रोत्रेन्द्रियनी श्रवणशक्ति अने रसनेन्द्रियनी आस्वादनशक्ति. तथा जीवने इन्द्रिय द्वारा विषयबोध करवानी जे शक्ति, (अथवा इन्द्रियावरणकर्मनो क्षयोपशम) ते 'लब्धि भावेन्द्रिय' कहेवाय. . १ कर्णन्द्रियादिनो जेम पर्पटिकादि बाह्य आकृति छे तेवीरीते स्पर्शन्द्रियनी बाह्य आकृति जुदी नहिं होवाथी स्पर्शेन्द्रियनी अभ्यन्तराकृति अने बाह्याकृति एकज छे... Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीव पञ्चेन्द्रियमाणवर्णनम् ॥ (६१) तथा जीव जे इन्द्रियना उपयोगमां ( विषय ग्रहणमां ) व तो होय ते इन्द्रिय 'उपयोग भावेन्द्रिय' कहेवाय. पूर्वे कट्टेल लब्धि तो एक जीवने पांचे इन्द्रियोनी एकीसमये (समकाळे ) होयछे, परन्तु ते विषयावबोध करवानो व्यापार तो एक समये एकज इन्द्रियद्वारा होवाथी एक जीवने समकाळे लब्धिथी पांचे इन्द्रियो संभवे छे अने उपयोगथी एक जीवने एकज इन्द्रिय कहेवाय अथवा एकेन्द्रियादि सर्व जीवोने लब्धि तो (इन्द्रियावरणक्षयोपशमतो ) पांचे इन्द्रियोनी होय छे, परन्तु द्रव्येन्द्रिय कोइने एक तो कोने से ए प्रमाणे हीनाधिक छे, अने तेमां पण उपयोगतो एकज इन्द्रियनो होइ शके छे. ए हेतुथी सर्वे जीवो लब्धि इन्द्रियवडे पंचेन्द्रिय छे, द्रव्येन्द्रिय वडे एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ने पंचेन्द्रिय छे, अने उपयोगेन्द्रियवडे सर्व जीवो एकेन्द्रिय छे एम पण कहीशकाय. ॥ इति इन्द्रियभेदार्थः ॥ || इन्द्रियोनुं स्थान. ॥ स्पर्शेन्द्रियनुं स्थान सर्व शरीर छे. अर्थात् सर्वदेहमां उपरना भागमां अने अंदरना भागमां स्पर्शेन्द्रियना ( अभ्यन्तर निर्वृत्ति स्पर्शेन्द्रियना ) अणुओ (पुद्गल प्रदेशयुक्त आत्म प्रदेशो ) व्याप्त थयेला छे, अथवा शरीरनी त्वचाना ( चामडीना ) बहारना भागमां अने अंदर पण अभ्यन्तर स्पर्शेन्द्रियना परमाणुओं व्याप्त थयेला होये छे. तेथीज पीथेला शीतल पाणीनो अंदरना भागमां पण अनुभव थाय छे, वळी ए इन्द्रिय अबरखना पड सरखी छे, त्यां त्वचानी बहार अने अंदरनुं पड जू नथी पण एकज छे. १ तथा मुखनी अंदर जे जिह्वा (बाह्य निर्वृचि रूप) देखाय छे ते जीह्वामां उपर अने नीचेना भागमां रसनेन्द्रियना परमाणुओं ( अभ्यन्तर Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ६२ ) ॥ श्रीवतत्व विस्तरार्थः ॥ निर्वृत्तिनुं ) एकज पड ( अंगुलना असंख्यतमा भागनुं जाडुं ) पथराइ रहेलुं छे, ते इन्द्रिय परमाणुओना पडवडे जीह्राषर आवेला खारा खाटा पदार्थनो अनुभव करी शकाय छे, परन्तु देखाती जी .. भवडे खारा खाटा पदार्थना रसनो अनुभव जीवने होइ शके नहि. २ तथा देखाती नासिकाना पोलाणमां उपरना भागमां अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली घ्राणेन्द्रियनी अभ्यन्तर आकृति छे तेज गंध विषयने ग्रहण करी शके छे. ३ तथा चक्षुमां कीकीनी अंदर अंगुलना असंख्यातमा भागजेवडी सूक्ष्म अभ्यन्तर इन्द्रियाकृति छे तेज रूप वा आकार देखी शके छे, परन्तु आंखनी कीकी मात्र विषय ग्रहण करी शकती नथी. ४ तथा कर्णपर्पटिकाना पोलाणमां अंगुलना असंख्यातमा भाग जेवडी सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय पुनलोनी अभ्य न्तर आकृति गोठवायली छे, जे शब्दने ग्रहण करी शके छे. ५ उपर प्रमाणे होवाथी त्वचा ए स्पर्शेन्द्रियनो आधार (स्थान) छे, पण त्वचा ए पोते स्पर्शेन्द्रिय नथी, पुनः जीह्वा ए रसनेन्द्रि यनुं स्थान छे पण जीह्रा पोतेज रसनेन्द्रिय नथी. पुनः नासिका ए घ्राणेन्द्रियनुं स्थान छे पण नासिका पोते घ्राणेन्द्रिय नथी, तथा आंख - नेत्र ए चक्षु इन्द्रियनुं स्थान छे, पण आंख (डोoा के कीकी) पोते चक्षुइन्द्रिय नथी, तेमज कान ए कर्णेन्द्रियनुं स्थान छे पण कान पोते कर्णेन्द्रिय नथी ए प्रमाणे स्थान रूप बाह्य निर्वृत्ति अने बिषय ग्रहण करनार अभ्यन्तर निर्वृत्ति बन्ने भिन्न छे एम समज. ॥ इति इन्द्रियस्थान विचारः || ॥ अभ्यन्तरेन्द्रियना आकार ॥ अभ्यन्तर स्पर्शेन्द्रिय जे जीवनुं जेतुं शरीर होय तेवा आकारनी है, अर्थात् भिन्न भिन्न आकारनी छे – अभ्यन्तर रसनेन्द्रिय Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवत पञ्चेन्द्रियमाणवर्णनम. ॥ ( ६३ ) खुरपकारे ( अखाने आकारे ) छे. - अभ्यन्तर घ्राणेन्द्रिय 'काहल 'नामना वाजत्र विशेषने आकारे छे. अथवा ' अतिमुक्तकपुष्पना आकारे छे. - अभ्यन्तर चक्षुरिन्द्रिय मसुर वा चंद्र सरखा आकारखाकी छे. - अने अभ्यन्तर श्रोत्रेन्द्रिय कदंबवृक्षना पुष्प सरखा आकारनी मांसनी एक गोळी रूप छे. पुनः बाह्यनिर्वृत्ति इन्द्रियो ( एटले इन्द्रियोनी वाह्य आकृतिओ ) तो दरेक जातना जीवनी जुदी जुड़ी होवाथी नियमित आकार कही शकाय नहि, जेमके कर्णेन्द्रि यनी बाह्याकृति मनुष्यने वे चक्षुओने पडखे लंबवर्तुल उंचा नीचा भागयुक्त छीप सदृश छे, अने अश्वनी बाह्य कर्णेन्द्रिय नीचेथी पोळी अने उपरथी हीन थती छेडे अणीदार अने वळी गयेला पडवाळी चक्षुओनी पडखे उपर होय के अने हाथीनी तो तद्दन पडा सरखी बाह्यकर्णाकृति होय छे. ए प्रमाणे बाह्याकृतिओ (बाह्य निवृत्तीन्द्रियो) दरेक जातिना जीवने भिन्न भिन्न होवाथी अमुक नियमित आकारनी कही शकाय नहि, अने अभ्यन्तर आकृतिओ सर्व जीवने एक सरखा आकारवाळी होवाथी उपर कहेली छे. || इन्द्रियोनी लंबाई पहोळाइ अने जाडाइ ॥ अभ्यन्तर स्पर्शेन्द्रिय अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली जाडी, अने स्वस्वदेह प्रमाण लांबी होळी छे. जेथी ए इन्द्रियनुं अति पापड त्वचाना उपर अने अंदरना भागमां जूर्दु नहिं पण एकज पथराय ले, परन्तु स्वचाना मध्य भागमां ( एटले त्वयानी 9 पडघम नामनुं वाजत्र. २ अतिमुक्तक प वृक्ष विशेष छे. ३ स्पर्शेन्द्रियनी लंबाई होळाइ उत्सेधांगुलने अनुसारे छे, अने रसनेन्द्रियादिनी लंबाई होळाइ आत्मांगुलने अनुसारे जाणवी. पुन: जाडाइ तो सर्वनी उत्सेधांगुलथी संभवे छे. ए संबंधि विस्तार ग्रंथान्तरथी जाणवो. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) ... ॥श्रीनवतत्त्व विस्तरार्थः।। मध्य जाडाइमा) ए इन्द्रियना अणुओ नथी. ए हेतुथी ए अभ्यन्तर " स्पर्शेन्द्रिय अंदरना भागमां ( एटले त्वचाना मध्य भागमां ) पोक..( मुषिरयुक्त-पोलाण वाळी ) छे.-तथा रसनेन्द्रिय अंगुलना असंख्यातमा भागप्रमाण जाडी, अने अंगुल पृथत्त्व (बधुमां वधु ९ आंगळ ) जेटली लांबी होळी छे. आ रसनेन्द्रियर्नु पण अति पातछैपड जिताना उपर-नीचेना भागमा पथरायेलं छे, पण मध्य भागमा नहिं-तथा प्राणेन्द्रिय अंगुलनाअसंख्यातमा भाग जेटली जाडी अने लांकी पहोळी के ए हेतुथी आइन्द्रिय पातळ पड नथी. पण तथामका...नोवृत्ताकार संभवेछे,-तथा चक्षु अने श्रोत्रेन्द्रियनी लंबाइ प्होळा. इ अने जाडाइ पण अंगुलना असंख्यातमा भागनी, वृत्ताकारे छे, ॥ इन्द्रियोनो विषय अने विषय ग्रहण क्षेत्र. ॥ १ स्पर्शेन्द्रियनो विषय पदार्थमा रहेला स्निग्ध-क्ष-शीत-उ" ष्ण-मृदु-कर्कश-गुरु-अने लघु ए आठ प्रकारना स्पर्श जाणवानो छे. अने '९ योजन दूर रहेला पदार्थोना तेमाथी नीकळेला केटलाक पुद्गलो आवी स्पर्शेन्द्रियने अडे छे तेथी ते दूरना पदार्थोना पण स्पर्शोने जाणी शके छे. एथी अधिक .. दूर रहेला पदार्थोथी नीकली आवेला स्पर्शयुक्त पुद्गलो स्वभा वेज अयोग्य थवाथी स्पर्शेन्द्रिय ग्रहण करी शके नहि. पुनः 'स्निग्धादि स्पर्शी तो प्राप्त पदार्थना अनुभवी शके एम संभवे छे. __ २ रसनेन्द्रियनो विषय पदार्थोमां रहेला तीखा-कडवा-मधुरखाटा--तूरा ( तिक्त-कटु-मधुर--आम्ल-अने कषायलो) ए पांच प्रकारना रस जाणवानोले, अने नव योजन दूर रहेला पदार्थोना तेमां १ अहिं कहेवातुं विषयोनुं क्षेत्र आत्मांगुलने अनुसार जाणवु. . २ ए वातनो स्पष्ट उल्लेख ग्रंथान्तरोमां-देखातो नथी परन्तु अनुभव सिद्ध सर्वने होवाथी लखेल छे. . - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवत् पञ्चेन्द्रियमाणवर्णनम् ॥ ( ६५ ) श्री नकळेला केटलाक पुद्गलो आवी रसनेन्द्रियने अडेछे तेथी ते दूरना पदार्थोंना पण रसने रसनेन्द्रिय ग्रहण करेछे, अने अधिक दूर रहेला पदार्थोंमांथी नीकळेला रसयुक्त पुद्गलो स्वभावेज रसनेन्द्रियने अयोग्य थाय छे, (अहिं खारो रस मधुररसमां अंतर्गत जाणवो.) ३ घ्राणेन्द्रिय पदार्थोंमां रहेल सुगंध वा दुर्गंधने जाणी शके छे. अने ९ योजन दूरथी आवेलो गंध ग्रहण करी शके छे. पूर्वनी माफक योग्यायोग्यत्वनी भावना विचारी लेबी. ४ चक्षु इन्द्रिय पदार्थोंना रूप-वर्ण अने आकारने देखी शके छे. अने ते वधुमां वधु लाख योजऩ दूर रहेला निस्तेज पदार्थोंने देखी शके छे, अने चंद्र सूर्यादि तेजस्वी पदार्थोंने तो घणा लाख (२१ लाख - उपरांत योजन दूरथी पण पुष्करार्धना मनुष्यो ) देखी शके छे. आ रूप पण कृष्ण - नील - पीत-रक्त अने श्वेत ( काळो - लीलो-पीळो--लाल- अने धोको ) एम ५ प्रकारे छे. ३ ५ श्रोत्रेन्द्रिय सचित्त अचित्त अने मिश्र शब्द - अवाजने सांभळी शके छे, अने ते १२ योजन दूरथी आवेल शब्दने सांभ - ळी शके छे. ए. प्रमाणे उत्कृष्ट क्षेत्रमर्यादा कही, अने जघन्य (लघुमां लघु ) क्षेत्रमर्यादा आ प्रमाणे – चक्षु इन्द्रिय अंगुलना संख्यातमा भाग जेटले दूर रहेलो पदार्थ देखी शके, अने शेष इन्द्रियो अ १ सजीव वस्तुमांथी प्रगट थयेलो शब्द सचित्त गणाय जेम जीवनो. २ निर्जीव वस्तुमांथी प्रगट थयेलो शब्द अचित्त गणाय जेम पथरानी साथे अफळायला पृथ्थरनो. ३ जीव प्रयत्नथी थयेलो निर्जीव पदार्थनो शब्द मिश्र गणाय. जेम मोंढाथी वागती मूंगळ वगेरेनो, अहिं प्रसंगे ८ स्पर्श५ रस- २ गंध-९ रूप ( वर्ण ) - अने ३ शब्द मली पांच इन्द्रि योना २३ विषयो पण कह्या. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) ॥ श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ गुलना असंख्यातमा भाग जेटले दूरथी आवेला विषयने ग्रहण करी ( अनुभवी) शके. ॥ इन्द्रियोनुं प्राप्यकारी अने अप्राप्यकारी पणु.॥ ' स्पर्शेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-अने श्रोत्रेन्द्रिय ए चार इन्द्रियो पोताने प्राप्त थयेला विषयनेज ग्रहण करी [ जाणी] शके छ माटे प्राप्यकारी छे, कारणके स्पर्शेन्द्रियने उष्ण वा शीत जलनो स्पर्श थया सिवाय ( बन्मेनो परस्पर संबंध थया सिवाय ) जळनी उष्णता अथवा शीतलता मालूम पडती नथी. ए प्रमाणे रसनेन्द्रियादिमां इन्द्रिय अने विषयनो परस्पर संबंध थाय तोज ते विषयनो अनुभव थइ शके छे माटे प्राप्यकारी छे.. तथा चक्षु अने मन ए बे इन्द्रियो अप्राप्त विषयने (एटले पोताने संबंध करीने रहेला विषयने नहिं पण दूर रहेला विषयने ) अनुभवी शके छे ( देखी या चीतवी शके छे ) माटे अप्राप्यकारी छे. कारणके चक्षुमां पडेलु तृणखलं चक्षु देखी शके नहिं, अने मन जे पदार्थने चिंतवे छे ते पदार्थ' मनः पुद्गलोनी साथै आवीने संबंधवाळो थतो नथी, तेमज मनना पुद्गलो पण त्यां जइने लागता नथी, माटे ए बन्ने अप्राप्यकारी छे. ( अहिं प्रकरण इन्द्रियोनुं चाले छे, तोपण अप्राप्यकारीपणाने प्रसंगे मन नोइन्द्रिय होवा छतां पण मननु अप्राप्यकारीपणुं कर्तुं.) ॥ इन्द्रियोना अणु तथा क्षेत्रनुं अल्पबहुत्व. ॥ सर्व इन्द्रियो ( अभ्यन्तर इन्द्रियो ) अनंत परमाणुनी बनेली १ मन ए पुद्गलस्वरूप छे ते संबंध चालु विवेचनमां ज मनोबल वखते कहवाशे. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवंतत्त्वे पञ्चेन्द्रियप्राणवर्णनम् ॥ (६७) छे, तथा असंख्य आकाश प्रदेश जेटलाक्षेत्रमा रहेली छे तोपण परस्पर होनाधिकता कहेवाय छे-चक्षु इन्द्रिय सर्वथी ओछा (पण असंख्य) आकाश प्रदेशमा रहेली छे. अर्थात् चक्षु इन्द्रियर्नु 'कद सर्वथी नानुं छे, तेथी कर्णेन्द्रिय संख्यातगुणी मोटी छे, तेथीघ्राणेन्द्रिय संख्यातगुण मोटी छे. तेथी रसनेन्द्रिय असंख्य गुण मोटीछे, अने तेथी स्पर्शेन्द्रिय संख्यात गुण मोटीछे, तथा चक्षुइन्द्रिय अल्प परमाणुनी बनेली छे, तेथी श्रोत्रेन्द्रिय संख्यात गुण परमाणुनी बनेली छे, तेथी घ्राणेन्द्रिय असंख्य गुण परमाणुनी बनेली छे, तेथी जीहा असंख्य गुण परमाणुनी बनेली छे, अन तेथी स्पर्शेन्द्रिय असंख्यगुण परमाणुओनी बोली छे. पुनः संज्ञी जीवमां आ इन्द्रियो विषय ग्रहण करो मनने जागृत करे, अने ते मनद्वारा जीवने विषयबोध थाय, परन्तु मन विना इन्द्रिय मात्रथी ज संज्ञी जीवने विषयबोध न होय, अने असज्ञि जीवो तो मननी सहाय विना परभार्यो इन्द्रियद्वारा विषयबोध करी शके छे. ॥ कइ इन्द्रिय कया जीवने होय?॥ स्पर्शेन्द्रिय सर्व संसारी जीव मात्रने होय, रसनेन्द्रिय पृथ्वी १ आहि कद् ते लंबाइ प्होळाइरूप गणवू पण जाडाइरूप नहिं. कारणके जाडाइ तो सर्वनी अंगुलनो असंख्यातमो भाग ज छे. २ अंगुलना असंख्यतमा भाग करतां अंगुल पृथक्त्व असंख्यगुण मोटु होवाथी. ३ ९ आत्माअंगुलथी ३ गाउ ( स्पर्शन्द्रिय वधुमां वधु ३ गाउ मोटी होषाथी ) एटले ५७६००० उत्सेध अंगुल संख्यात गुण होवाथी. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) ॥श्रीनवतत्वविस्तरार्थः । जळ अग्नि वायु ने वनस्पति ए पांच स्थावर विना सर्व जीवने होय, घाणेन्द्रिय स्थावर अने द्वीन्द्रिय सिवायना सर्व जीवने होय, चक्षु इन्द्रिय स्थावर-वे इन्द्रिय-अने त्रीन्द्रिय सिवाय सर्व जीवने होय, अने श्रोत्रेन्द्रिय फक्त पंचेन्द्रिय जीवोने ज होय. ॥ कइ इन्द्रियो अल्प अने कइ अधिक छे? ॥ सर्व जगतमां कर्णेन्द्रियनी संख्या अल्प छे ( कारणके पंचेन्द्रिय जीवो थोडाज छे), तेथी चक्षु इन्द्रिय विशेषाधिक छे (एटले दिगुणयी न्यून छ. ), तेथी घाणेन्द्रिय विशेषाधिक छे, तेथी रसनेन्द्रिय विशेषाधिक छे, तेथी स्पर्शेन्द्रिय अनंत गुण छे. ( कारणके साधारण वनस्पति अनंत छे ) ए प्रमाणे ५ इन्द्रिय प्राणर्नु किंचित् स्वरूप कहीने हवे छट्ठा मनोबल प्राणनुं स्वरूप कहेवाय छे. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || जीवतत्वे पश्येन्द्रियमाणवर्णनम् ॥ * नि० उप० (अभ्य.) बाझ स्पर्शेन्द्रिय रसनेन्द्रिय प्र०स्प० भा०प० प्र०र० भा०र० प्र०ना० भावत्रा० fro ॥ इन्द्रियोना २९ भेदनी ॥ इन्द्रिय ॥ अभ्य० बाह्य अ० उपक० बाझ अ० ( ६९ ) बाह्य अ० घ्राणेन्द्रिय बाध उपक० अ० लब्धिस्प० उपस्प० ल०र० उप०र० ल०घ्रा० उप०घ्रा० * स्पर्शेन्द्रियमां द्रव्यनिर्वृत्तिना बाह्य अने अभ्यन्तर एवा बे भेद नथी. अथवा केवळ अभ्यन्तर निर्वृत्तिस्पर्शेन्द्रिय छे. पण बाह्मनिर्वृत्तिस्पर्शेन्द्रिय नथी. 4 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ॥ श्रीअनुसन्न निस्वार्थः ॥..... CLICti DUSINE स्थापना.॥ चक्षुरिन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय द्रव्यचक्षु० भावचक्षु० द्रव्यश्रो० भावी उपका निर्वत्ति उपक० वाद्य अ०. बाह्य अ० बाय अ०. बाह्य अ० । लब्धिचक्षु उपयोगच० लब्धिश्रोत्रे० उपयोगश्रोत्रे Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ इन्द्रियोमा ९ द्वारनो यन्त्र.॥ (४ द्वारो.) इन्द्रियोनां नाम.॥जाडाइ प्रमाण १॥ विस्तार प्रमाण? २ | जघन्ये केटले दूर रहे- पाप्यकारी के अमाप्य लो विषय आहे? ३ | कारी ? ४ स्पर्शेन्द्रिय. १ | अंगुलासंख्ये० भा० | स्वदेहममाण.. | अंगुलासंख्येयभाग. प्राप्यकारी. रसनेन्द्रिय. २ आत्मांगुलपृथक्त्व ॥ जीवतत्त्वे पश्चेन्द्रियमाणवर्णनमः ॥ । ध्राणेन्द्रिय. ३ आत्मांगुलनो असंख्यातमोभाग. चक्षुरिन्द्रिय.४ अंगुलसंख्येयभाग. अप्राप्यकारी. श्रोत्रेन्द्रिय. ५ अंगुलासंख्येयभाग. प्राप्यकारी. (७१) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस्पृष्ट-स्पृष्ट के उत्कृष्टथी केटलेदूर रहेलो विषय ग्रहे ? ५ अस्पृष्ठ विषय ग्रहे ? ६ ९ योजन (आत्मां गुलथी ) ܐܕ ܪܕ साधिक १ लाखयोजन अभास्वर वस्तु आश्र'यी) (आत्मांगुलथी) १२योजन (आत्मांगुले) बध्ध स्पृष्ट ܕܕ " · अस्पृष्ट स्पृष्ट ( ५ द्वारो. ) अवगाहनानुं अल्पबहुत्व ? ७ रसने ०थी संख्यगुण रसने०थी असंख्य गुण केटला प्रदेशनी बने ली ? ८ घ्राणे-थी असंख्यगुण घ्राणे०थी असंख्य गुण श्रोत्रथी संख्येयगुण श्रोत्रथी असंख्यगुण. सर्वथी अल्प अवगा - हनावाळी अनंतमदेशी. चक्षुथी संख्येयगुण | चक्षुथी संख्येय गुण. द्रव्येन्द्रियो केटली ? ९ १ ل ४ ( 26 ) ॥ श्रीनवत व विस्तरार्थः ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥जीवतत्त्वे मनवळपाणवर्णनमः ॥ . (७३) ॥छटो मनबल प्राण.॥ जे द्वारा संज्ञि जीव मनन चितवन करी शके ते मन कहेवाय. ए मन मनोवर्गणा रूप पुद्गलपरमाणुओना समुदायतुं बने छे. वळी ए मन मात्र गर्भज तथा औपपातिक ( देव-नारक) जीवोनेज होय छे, मन पण द्रव्यमन अने भावमन एम बे प्रकारनुं छे. त्यां मनःपर्याप्ति नामकर्मना उदय वडे काययोगे मनोयोग्य वर्गणा (पुद्गल समूह ) ग्रहण करीने चिन्तवनव्यापारमा जोडायेल मनो योग बडे मनपणे ( चितवन व्यापारना साधन पणे) परिणमावी, अवलंबीने विसर्जन करे ते (अथवा अपेक्षाए तेनी पर्याप्तिनो) पुद्गल समूह ' द्रव्यमन कहे गय, अने ए बन्ने प्रकारना द्रव्यमन रूप पुद्गलपरमाणुना आलंबन वडे ( सहाय वडे) जीवनो जे चितवन व्यापार ते 'भावमन कहेवाय. ए हेतुथी ? मणपजत्तिनामकम्मोदयतो जोगे मगोदव्धे घेतुं मणतेण परिणामिया दवा दवमणो भन्नइ इति लोकप्रकाशे नंद्यध्ययनचूर्णि पाठ.)तथा श्री तत्त्वार्थसूत्रमा मनःपर्याप्तिरूप करण पुद्गलो के जेने सर्वात्मप्रदेशवर्ती कमां छे ते पण अपेक्षाए द्रव्यमन कही शकाय, कारणके अयोगीने जे द्रव्यमन का छे ते मनोवगणारूप नहिं पण मनःपर्याप्तिरूप संभवे छे. (दिगंबरो द्रव्य मनने अष्टदलपद्माकार हृदयस्थाने रहेलं माने छे परन्तु एक देश भागमा रहेला मनःकरणथी उपयोग प्रवृत्ति न संभवे, कारणके उपयोग प्रवृत्ति तो सर्व आत्मप्रदेशवर्ती होय छे माटे मनने ह. दयस्थमात्र गणवु युक्त न गणाय तेम ज सुखदुःखादिना अनुभवरूप मानसज्ञान सर्वात्मप्रदेशे संभवे छे. वळी सर्व बाह्य-अभ्यन्तर शरीरव्यापी त्वगिन्द्रियथी सर्व प्रदेशे स्पर्शज्ञान थाय छे ते पण मनना सर्वात्मप्रदेशव्याप्तत्व विना होइ शके नही. माटे सनने नैयायिकादिनी माफक अणु मानQ के नियतदेशस्थ मानवं ते केवळ अनुचित छे. ) अहिं मननुं विसर्जन मनोयोगवडे गणाय छे. २ मणदव्यालंवणो जीवस्स मणवावारो भावमणो भन्नइ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (७४) ॥ श्रीनवतत्वविस्तरार्थः ॥ द्रव्यमन विना भावमन न होय पण भावमन विना द्रव्यमन भवस्थ सर्वज्ञने होय छे, ए मननो जे व्यापार ते मनोबल कहेवाय. अथवा जीवने प्राप्त थयेली जे मनोविज्ञान शक्ति ते मनोबल प्राण कहेवाय. ॥ सातमो वचनबल प्राण. ॥ 66 भाषापर्याप्ति नामकर्मना उदयथी भाषा योग्य पुद्गलवर्गणा काययोगे ग्रहण करीने भाषापणे परिणमाबी अवलंबी ने 'वचन योग वडे विसर्जन करवानी जे शक्ति ते वचनबल कहेवाय. अथवा संक्षेपमा “ जोवने वचनोच्चार करवानी जे शक्ति ते वचनबल प्राण कहेवाय. ए भाषा जीवभाषा कहेवाय. अने अजीव पदार्थमाथी उठतो अवाज ते अजीवभाषा कहेंवाय, ए बन्ने भाषा पुल परमाणुनोज समूह छे, छतां नैयायिक विगेरे जे आकाशनो गुण माने छे ते अयुक्त छे, कारणके भाषा वायु वडे वहन कराती ( खेंचाती ) होवाथी, धूमनी माफक संहरण कराती होवाथी, पाणीनी माफक द्वारनी तरफ अनुसरण करती होवाथी, वायुनी माफक गुफा विगेरेमां अफलाती होवाथी क्रियावाळी छे, अने विचित्र क्रियाओ पुद्गल विना होइ शके नहि, माटे 'रूपीछे. अने अरूपि तथा ( तत्रैव). तत्त्वार्थ अने नन्दोटीका विगेरेमां द्रव्यमन विना पण विकलेन्द्रियो तथा एकन्द्रियोंने सूक्ष्म भावमनोलब्धि मानी छे. क्वचित् सूक्ष्म द्रव्य मनोलब्धि पण विकलेन्द्रियोने मानवामां आवी छे. १ गिन्हइ य काइएणं, निसरइ तह वाइएण जोगेण. इतिवचनात्. २ शब्द फोनोग्राफमां ग्रहण थतो होवाथी अने वायु. जे तरफ विशेष होय ते तरफ वधु संभळातो होवाथी, अने भित्यादिवडे उपघात पामवाथी शब्द पुनलरूप छे. कारण के ग्रहण धनुं, वायुथी खेचा, अने प्रतिघात थवो ते पुद्गलोनोज धर्म छे. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवतत्त्वे वचनबळमाणवर्णनम् ॥ (७५) अक्रिय छे, माटे बन्ने भाषामो रूपी एवा पुद्गलनोज विकार छे, पण आकाशनो गुण नथी. पुनः जीवभाषानी उत्पत्ति औदारिक वैक्रिय अने आहारक ए त्रण भव प्रत्ययिक देही होय छे, अने ए देहमांथी जीवप्रयत्न वडे प्रगट थयेली भाषा जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग सुधी, अने वधुमां वधु केवलि समुद्घातनी पेठे प्रथम समये 'दंड' द्वितीय समये कपाट' तृतीय समये मंथान' अने चतुर्थ समये 'अंतर पूर्ति' थवाथी 'सुप्रतिष्ठ आकार सरखा चौदराज लोकमां व्याप्त थाय छे, जेथी जीवभाषानी आकृति सुप्रतिष्ठक सरखी गणाय छे. पुनः जीव भाषापुद्गलोने प्रथम समये ग्रहण करे छे, अने बीजे समये वचनरूपे परिणमावी विसर्जन करे छे, ए हेतुथी भाषानी, स्थिति एक समय मात्रनी छे, अने चालु प्रवाहरूपे तो उत्कृष्टथी अन्तर्मुहर्त सुधीनी छे. पुनः जीव जे दिशा सन्मुख मुख करीने 'उभी होय ते दिशामा रहेल बीजो जीव ते मूळ तथा वासित थयेली भाषा सांभळे छे, अने शेष दिशामा रहेलो जीव ते मूळ भाषा वडे वासित थएली भाषा ( मूळ भाषाना संसर्गथी भाषा रूप थयेल बीजां पुद्गलो) सांभळी शके छे, ए मूळ भाषानी लंबा १ उधावाळेला शरावला ( कोडीआ ) उपर मूकेला शराव संपुट वडे जे आकार थाय ते सुप्रतिष्ठाकार २ श्री. प्रज्ञापनामां भाषापदनी मलयगिरिवृत्तिमा केटलाएक आचार्योना मन्तव्यने उद्देशीने का छे क " बीजा आचार्यों आ प्रमाणे कहे छे के प्रथम भाषा परिणामनी अपेक्षाए एक समय स्थिति वाळां पण भाषा पुद्गलो कह्यां छे, पुद्गल नो परिणाम वि. चित्र छे तेथी एकज प्रयत्न वडे ग्रहण करायला अने मूकायेलां ते पुद्गलोमांनां केटलांएक एक समय भाषापणे रहे छे, के. टलांएक बे समय सुधी यावत् केटलांएक असंख्य समय सुघी पण ( भाषापणे रहे छे-इति शेषः ) ” इति अर्थतः Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) ॥ श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः॥ इ. वधुमां वधु वकता उभो होय त्यांथी लोकना अन्त सुधी छे, अने प्होळाइ वक्ताना मुख जेली लगभग चार आत्मांगुल प्रमाण अने जाडाइ वक्तार्नु मुख बोलती वखते जेट प्होछं थाय तेटली जाणवी. इत्यादि जीवभाषा विशेष स्वरुप विशेषावश्यक विगेरे ग्रन्थोमां प्रगट छे. पुनः अजीवभाषाना तत वितत विगेरे भेदो छे जे आगळ पुद्गल परिणामना स्वरूपमां कहेवाशे. आठमो कायबल प्राण.॥ काय एटले शरीरनो जे व्यापार अथवा शक्ति ते जीवोने कायबल प्राण कहेवायछे, त्यां शरीर औदारिक-वैक्रिय-आहारक-तै जस-अने कार्मण ए प्रमाणे पांच प्रकारनां छे तेनो संक्षिप्त अर्थ आ प्रमाणे-- .. रस-रुधिर-मांस-मेद-मिजा-हाड-अने वीर्य ए सात धातुओनुं बनेलं जे शरीर ते औदारिक शरीर, अथवा औदारिक वर्गणारूप पुद्गलनुं बनेलं जे शरीर ते औदारिकशरीर, अथवा तीर्थकर गणधर चक्रवर्ती वासुदेव विगेरे उदारगुणवाळा महात्माओने पण जे शरीर होयछे ते औदारिकशरीर कहेवाय. १ ॥ विविधप्रकारनी क्रिया करवानी शक्तिवालं जे शरीर ते वैक्रियशरीर, कारणके ए शरीरवाळो जीव खेचर (गगन मार्गे चालनार) थाय, अने भूचर ( जमीनपर चालनार मनुष्यादि रूपे ) थाय, एक थाय अने अनेक पण थाय, मोटो थाय अने नानो पण थाय, हलको थाय अने भारी पण थाय, दृश्य थाय अने अदृश्य पण थाय, एप्रमाणे विविध प्रकारनी क्रियाओ करी शके छे माटे वैक्रिय शरीर कहेवाय, अथवा वैक्रिय नामनी पुद्गलवर्गणानुं बनेल शरीर ते वैक्रिय शरीर कहेवाय. २॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवतत्वे कायवळ प्राणवर्णनम. ( ७७) तथाविध लब्धिवाळा चौदपूर्वघर मुनिराज श्रीजिनेश्वरनी ऋद्धि देवाने माटे, अथवा सूक्ष्म अर्थनो संदेह दूर करवाने माटे एक हस्वप्रमाण ( आहारक पुगलवर्गणानुं ) ननुं शरीर बनावी विचर - ता तीर्थंकर भगवान पासे मोकले ते आहारक शरीर कहेबाय. ३ ॥ खाघेला आहारने पाचन करवानी शक्तिवाळु अने तेजोलेश्या तथा शीतलेश्याना कारणरूप जे शरीर ते तेजस शरीर कहेवाय. आशरीरना प्रभावे देहमां उष्णता रहे छे. ४ ॥ . मतिज्ञानावरणादि १५८ कर्मप्रकृतिना पिंड रूप जे शरीर ते कार्मणशरीर कहेवाय. पुनः आ शरीर पोताने अने शेष चार शरीरने पण उत्पन्न करवामां भवान्तर जवामां अने प्रथम समये आहारपुद्गलो ग्रहण करवामां कारणरूप छे. ५ ॥ " ॥ पांच शरीरमां कारणभेद. ॥ औदारिक शरीर बादर ( स्थूल ) पुद्गलनुं बनेलुं छे. वैक्रियशरीर तेथी सूक्ष्म पुद्गलनुं बनेलं छे, आहारक शरीर तेथी पण सूक्ष्म पुद्गलनुं बोलुं छे, तेथी तैजस सूक्ष्मपुद्गलनं, अने तेथी पण कार्मणशरीर अति सूक्ष्मपुद्गलनुं बनेलुं छे. ॥ ॥ पांच शरीरमां प्रदेशसंख्या. ॥ औदा शरीर अतिअल्प परमाणुओतुं बोलुं छे, वैक्रियश रीर तेथी असंख्यगुण परमाणुओनुं, आहारकशरीर तेथी असंख्यगुण परमाणुओनुं, तैजस शरीर तेथी अनंतगुण परमाणुओनुं, अने कार्मण शरीर तेथी पण अनंतगुण परमाणुओनुं बनेलुं छे. ॥ पांच शरीरना स्वामी. ॥ औदा० शरीर सर्वतिर्यंच अने सर्वमनुष्यने होय, वै० शरीर Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) ॥श्रीनक्तत्वविस्तरार्थः।' सवैदेव सर्वनारक 3 लब्धिर्वत गर्भज मनुष्य अने गर्भजतियच तथा केटलाएक बादरपर्याप्त वायुकाय जीवीने होय, आहा० शरीर आही लब्धिवाला चौदपूर्वधर मुनिराज होय, अने तैजसकामणशरीर सर्वजीवने सदाकाळ होय.॥ ॥ एक जीवने समकाळे केटलां शरीर ? ॥ एकभवमांथी बीजाभवमां वक्रगतिए जता जीवने समकाळे तैजस अने कार्मण.ए बेज शरीर होय. पुनः ते जीव उत्पत्ति स्थाने उत्पन्न थइ. शरीरपर्याप्ति पूर्ण थयाबाद औदारिक अथवा वैक्रियदेह युक्त-थवाथी औदारि०--तैज०--काम--अथवा वै० तै० का० एत्रण शरीरवाळो थाय. तदनंतर सर्वपर्याप्तिए पर्याप्त थयाबाद जो लब्धिवाळो होय अने लब्धि फोरवे तोग० मनुष्यने अने गर्भज तिर्यचने समकाळे औदारि० चैक्रि-तेज०-अने का ए।चार शरीर होय. अथवा आहारक लब्धि फोरववाना काळमां चौदपूर्वधर मुनिमहाराजने औदा--आहार०--तैज०--अने का० ए चार शरीर समकाळे होय, परन्तु आहारक अने वैक्रिय ए वे शरीर साथे नहि होवाथी पांच शरीर एक जीवने समकाळे कदी पण न होय. तेमज तै० अने का० ए बे शरीर अभव्यजीवने प्रवाहथी अनादि अनंत अने भव्य जीवनें अनादि सान्त संबंधवाळां होवाथी एक जीवने एक शरीर पण कदी होय 'नहिं. १ श्री तत्वार्थभाष्यमां अन्य आचार्योना अभिप्रायथी तैजस शरीर तैजसलब्धियंतने होय एम गणीने स्वभते ५ विकल्प अने मतान्तरे ७ विकल्प कह्या छे ते आ प्रमाणे-तै०का १,तै०. कामो०२, ते०का वै०३,तैका०औवै०४,०का औ०आ०५(ए स्वम. ते).-का० १,का औ० २,का वै०३,का आश्वै० ४,काऔ आहा०५, का०तै० औ० वै० ६,का० तै० औ० ७, (ए ७ विकल्प मतान्तरे.) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवतत्त्वे कायवळपाणवर्णनम् ॥ (७९) ॥ पांच शरीरनुं व्याप्ति क्षेत्र ( गति क्षेत्र.)॥ औदा० शरीरनी तिर्यगगति १३मा रुचक द्वीपमा रहेला रु. षक पर्वतसुधी छे, ऊर्ध्वगति मेरुना शिखर ( पांडुकवन ) सुधी, अने 'अधोगति कंडक योजन सुधी. (अधोगतिनो विषय शास्त्रमा मालूम पडतो नथी). वैक्रिय शरीरनी तिर्यग्गति असंख्य द्वीप समुद्र सुधी अने ऊर्ध्व तथा अधोगति दरेक जातना स्वामिओगी भिन्न होवाथी कहेवी अशक्य छे, ते शास्त्रान्तरथी जाणवी, तथा आहारक शरीरनी तिर्यग्गति (तीच्छी गति ) महाविदेह सुधी ( लगभग ५० हजार योजन अधिक ) छे; अने ऊर्ध्व अधोगति संभवे नहिं. तथा तैजस कार्मण देहनी गति केवलिसमुद्घात तथा मरणसमुद्घात वडे करीने सर्व दिशाओमां लोकान्त सुधी छे. अहिं शरीरनी गति एटले ते शरीरवाला जीवनी गति जाणवी. ॥ पांच शरीरनो उपयोग. ॥ धर्म-अधर्म--सुख-दुःख- केवलज्ञान-अने मोक्ष उपार्जन करवामां औदा. शरीर उपयोगी छे. विविध प्रकारनां रूप बनाववामां वैक्रिय शरीर उपयोगी छे, जिनेश्वरनी ऋद्धि देखवामां अने मूक्ष्मार्थनो संदेह दूर करवामां आहा० शरीर उपयोगीछे, शत्रुने शाप आपवा अने प्रसादपात्र जीव उपर उपकार-अनुग्रह करवा माटे तेजोलेश्या अने शीतलेश्या मूकवामां तथा आहारवें पाचन करवामां तैनस शरीर उपयोगी छे, अने एक भवथी बीजा भवमा जवामां १ चेडा महाराजने नागकुमार निकायनी दक्षिण श्रेणिना अधिपति धरणेन्द्र स्वभवनमा ला गया हता. २ अधोलोकमां विचरता तीर्थकरो पासे जाय तो त्यां सुधी पण संभवी शके. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (60) श्री नवतत्व विस्तरार्थः प्रथम समये आहार ग्रहण करवामां तथा केवलिसमुद्घातमां त्रीजे चोथे पांच समये आत्मप्रदेशनो विकास संकोच करवामां कार्मण शरीर 'उपयोगी छे ( कारणके का० शरीर जीवने परभवमां लड़ जायं छे. ) ॥ पांच शरीरोनी उंचाई. ॥ औदा० शरीरमी उंचाई कंक अधिक १००० योजनप्रमाण ( प्रत्येक वनस्पतिना शरीरनी अपेare ) छे. वैक्रियशरीरनी उचाइ चार अंगुल अधिक एक लाखयोजनप्रमाण ( गर्भज मनुष्य कृत बै० शरीरापेक्षाए ) छे. आहारकनी उंचाई १ हाथप्रमाण, अने तैजसकार्मणनी उंचाइ १४ रांज प्रमाण. || पांच शरीरनो जघन्य अने उत्कृष्ट काळ. ॥ : औदा० शरीरनो ज० काळ अन्तर्मुहूर्त्त अने उत्कृष्ट काळ युगलिकनी अपेक्षाए ३ पल्योपम प्रमाण छे, लब्धिप्रत्ययिक उत्तर वैक्रियशरीरनो काळ जय० अन्तर्मुहूर्त्त (बा० प० वायु आदिकना उत्तरवै०नी अपेक्षाए ) अने उत्कृष्ट ४ मुहूर्त ( तिर्य० मनु० नाउत्त२० वै०नी अपेक्षाए ), तथा भवत्ययिक उत्तरबै० देहनो ज०काळ ( नारककृतोत्तरवै०नी अपेक्षाए ) अन्तर्मु० अने उत्कृष्ट ( देवकृत उत्तरवै०नी अपेक्षाए ) पंदर दिवस छे, भवप्रत्ययिक मूळबै० शरीरनो जय० काळ १०००० वर्ष अने उत्कृष्ट काळ ३३ १ कार्मण शरीर वडे सुख दुःख भोगवाय नहि, कर्म बंधाय नहि, कर्म भोगवाय नहि, कर्म निर्जरे नहि, अने तैजसादि चारे शरीर वडे सुख दुःख भोगवाय छे, कर्म निर्जरें छे (-इतिश्री तत्वार्थभाष्यम ), एमां मूळ कारण रूपे तो कार्मण शरीर छे, परन्तु सुख दुःख भोगववा विगेरेमां कारण साधन रूपे कार्मण शरीर नहिं एम जाणं. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवत्वे काय लप्राणवर्णनम् ॥ ( ८१ ) सागरोपम छे, तथा आहारकनो ज० अने उत्कृ० काळ पण अन्तर्मुहूर्त्तज छे, अने जस काणिनो जय० वा उत्कृष्टकाळ भव्यने अनादिसान्त, अभव्य अनादिअनत छे. ॥ पांच शरीरनी प्रत्येकनी समकाळे संख्या ॥ " औदा शरीर एकीखते जघ० थी अने उत्कृष्टथी पण असंख्यज होय, वैक्रियशरीर पण जघ० थी उ० थी एककाळे असंख्य होय, आहारकशरीर एककाळे जघ० थी एक वे अने उत्कृष्टथी ९००० होय, अने ते० का०शरीर सर्वदा अनंतज होय छे. || पांच शरीरनो विरहकाळ. ॥ एक जीव आश्रय औदा० शरीरनो जघ० विरह (अभाव काळ) १ समय (वक्रगतिए परभव जत) होय, अने उ० विरहकाळ अन्तमुहूतीधिक ३३ सागर प्रमाण (कोइक चारित्री भवप्रान्ते वै० शरीर करी अन्तर्मु० जीवने अनुत्तरदेव थाय ते अपेक्षाए ) होय. - वैक्रिय शरीरनुं जघ० अन्तर अन्तर्मु० अने उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिमां भमतां (स्पतिनी कार्यस्थिति तुल्य ) आवलिकाना असंख्यातमा भाग जेला पुलपरावर्त्त प्रमाण छे. आहारकनुं ज० अन्तर अन्तर्मु० अने अन्तर अर्धलपरावर्त्त प्रमाण पुनः चरित्र विरहकाळ एटलो होवाथी के अने तै० का० शरीरने अन्तर नथी. अनेक जीवोनी अपेक्षाये चार शरीरनो विरहकाल न होय, अने आहारक शरीरनो जघन्य १ समय उत्कृष्ट छ मास अने जीवसमास मते वर्षपृथकत्व विरहकाल होय छे. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) ॥श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ ॥कया जीवने केटलां शरीर?॥ एकेन्द्रियमां बा० ५० वायुकाय सिवाय सर्व जीवने औदा० तै० अने का० ए ३ शरीर, अने बा० पर्या० वायुने पज ३ अथवा वै० सहित ४ शरीर पण होय. विकलेन्द्रियने सम्मू० तियेच पंचेन्द्रियने अने सम्मू० मनुष्यने औदा०-३०-ने कार्मण ए ३ शरीर होय, देवीने अने नारकने वै०-३०-- ने का० ए ३ शरीर होय, अने गर्भजतियेचपंचेन्द्रियने औदा०-३०-- अने का० ए ३ शरीर तथा लब्धिवाळा ग० ति. पंचेन्ने पूर्वोक्त ३ अने वै० सहित ४ शरीर पण होय, अने गर्भज मनुष्यने औ० त० का० ए ३, अथवा वैक्रिय लब्धिवंतने औ० वै० ते० का० ए चार, आहारकलब्धिवाळाने औ० आ० ते० का० ए चार, अने बेउ लब्धिवाळा मनुष्यने औ०-वै०--आहा०-तै० अने कार्मण ५ शरीर पण ( ३-४-५ शरीर) होय. ए पांच शरीरद्वारा जीवनो जे व्यापार ते 'कायबल प्राण' कहेवाय. उपर लखेलां ११ द्वारोनुं संक्षिप्त वर्णन आगळ आलेखेला पांचशरीरना यंत्रथी जाणवू. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवतत्त्वे कायबलप्राणवर्णनम् ॥ (८३) ॥ पाच शरीरमां कारणकृतविशेषादि ११ द्वारयन्त्रकम् ॥ (३ द्वारो). शरीरना कारणकृत विशेष | प्रदेश संख्या० नाम. (पुद्गल परिणाम) १ (एक स्कंधमा) २ स्वामि०३ र | अभव्यथी अनंतऔदा० स्थूल पुद्गलोथी । | सर्वतिर्यच अने बनेलं. गुण, सिद्धथी अनंतमे भागे.. सर्व मनुष्य. वैक्रिय. सर्व देव, सर्व औदान्थी सूक्ष्म | औल्थी असंख्य- [नारक, केटलाएक बा० पर्या० वायु, पुद्गलोवडे बनेलं. गुण. vatan नर. वैन्थी सू०पुट्ठलो ___ वडे बनेलं. काइक.पूवल वंत. तेजस. आहाथी सू०पु- ! आहाथी अनंत- द्गलोवडे बनेटु. । गुण. सर्व संसारी जीवो. कार्मण तेज थी सू० पुद्ग- तैल्थी अनंतगुण. लोवडे बनेलं. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ द्वारो.) (८४) गति विषय. ४ प्रयोजन. ५ अवगाहना. ६ . केटला आकाशप्रदेशमां. ७ an ऊध्व--पंडुकवन सुधी. धर्माधर्मोत्पत्ति मोक्ष- साधिक तिर्यक्-१३मा रुचकद्वीपमारुचका प्राप्ति इत्यादि.. | १००० योजन. पर्वत सुधी. आहाथी संख्यातगुण प्रदेशोमां. असंख्यद्वीप समुद्र. एकानेकत्वादि नभोग- साधिक त्यादि संघसहाय्यादि. १००००० योजन. औदान्थी संख्यगुण प्रदेशोमां. श्रीनवतत्त्व विस्तरार्थः महाविदेह सुधी. माशयछेद जिनेन्द्र ऋद्धिदर्शन इत्यादि. हाथ. असंख्य आकाशप्रदेशमां. - लोकना एक छेडाथी बीजा छेडा सुधी (परभवमां जता.) | वैल्थी असंख्यगुण आश्राप-वरदान-भोजननी संपूर्ण लोकाकाश. | पचाव इत्यादि. काशप्रदेशोमां. - अन्यभवमां गति. ० तुल्य. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ द्वारो.) स्थिति. ८ . अल्पबहत्व अन्तर ( अनेक | उ० अन्तर (एक (देह संख्या). ९ | जीव आश्रयि). १० जीवाश्रयि) १२ जघ०-अन्तर्मुहूर्त. उत्कृष्ट-३ पल्योपम.. वैल्थी असंख्यगुण. अन्तर न होय.. अन्तर्मु०अधिक ३३ सागर. जघ०-१०००० वर्ष । उ०-३३ सागर जघ०-अन्तर्मु० असंख्यः A अन्तर न होय. उत्तरवैक्रिय आवलिकाना असं| ख्यातमा भाग जेटलां पुद्गलपरावर्त. उ०-०॥ मास ॥जीवतत्वे कायबलमाणवर्णनम्. जघ०-अन्तर्मु० उ०-अन्तर्मु० ९००० (कदाचित् ) जघ०-१ समय. उ०-६ मास. ०॥ पुद्गलपरावर्त. भव्यने-अनादिसान्त. अभव्यने-अनादि अनन्त. अनंत. अन्तर न होय. । अन्तर नथी. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) ॥ श्रीनवतत्वविस्तरार्थः ॥ ॥ नमो आनप्राण ( श्वासोच्छवास ) प्राण ॥ उच्छवासनामकर्म अने उच्छवासपर्याप्ति वडे श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलवर्गणा ग्रहण करीने श्वासोच्छवास पणे परिणमावी अवलंबीने विसर्जे ते श्वासोच्छवास प्राण कहेवाय. जीवने श्वासोच्छवास नामकर्मवडे श्वासोच्छवास लब्धि प्राप्त थाय छे, जेथी तद्योग्य पुद्गलो ने श्वासोच्छवास पणे परिणमावी शके छे, अने श्वासोच्छवासपर्या प्तिवडे ते पुद्गलोने श्वासोच्छवासपणे परिणमाववा विगेरे क्रिया करवाने शक्तिवाळो थाय छे, ए प्रमाणे श्वासोच्छवासलब्धि श्वासोच्छवासनामकवडे, अने ते संबंधि व्यापार श्वासोच्छवास पर्याप्तिवडे साध्य छे, कारगके उच्छवासलब्धि होते छते पण ते लब्धिने व्यापृत करवाने जीव पर्याप्तिवडेज समर्थ थाय छे, जेम बाण फेंकवानी शक्ति होते छते पण धनुष्य ग्रहणादि व्यापार विना सुभट ते शक्तिने सफल करी शकतो नथी तेम पर्याप्ति विना जीव उच्छवास लेवा मुकवा रूप शक्तिने सफळ करी शकतो नथी, ए प्रमाणे श्वासोच्छवास लेवा मूकवामां बनेनु प्रयोजनछे. गाथामां '"आणपाण' शब्द अभ्यंतर श्वासोच्छवास अने बाहय श्वासोच्छवास एबन्ने अर्थवालो छ, अर्थात् जे एकेन्द्रियादिजीवो नासिकाद्वारविना श्वासोच्छवास ले छे ते 'अभ्यन्तर छ; अने त्रीन्द्रियादिप्राणिओ नासिकाद्वारा पण श्वासोच्छवास ले छे ते बाहय १ श्री प्रज्ञापना सूत्रमा “आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा" ए पाठनोश्री मलयगिरिजी महाराजे आणमंति एटले उससंति अने पाणमंति एटले नीससंति अर्थात् आण एटले ऊच्छ्वासं अने पाण एटले निःश्वास अर्थ करेल छे, अने ए. ज टीकाकार महाराजे बीजा आचार्यानो करेलो अर्थ आगळनी स्फुटनोट प्रमाणे करलो छे. १-२ श्री प्रज्ञापना सूत्रमा उच्छवासपदमा कयुं छे के "अप Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवतत्त्वे उच्छवासायुःमाणवर्णनम् ॥ (८७) श्वासोच्छवास गणाय छे, आ श्वासोच्छवास पण पुद्गलनोज विकार छे; श्वासोच्छवासनां पुद्गलो सूक्ष्म होदाथी इन्द्रियग्राहय नथी. मुखी जीवोने श्वासोच्छवास लेवा मूकवानो व्यापार बहु अल्प होय छे, अने दुःखी जीवने श्वासोच्छवास व्यापार अधिक होय छे, जेथी देवताओ वधुमां वधु १६॥ मासने अन्तरे श्वासोच्छवास लेवा मूकवानी क्रिया करे छे, अने अति दुःखी एवा नारक जीवो प्रति समय श्वासोच्छवास क्रिया करे छे. शेष जीवो अनियमित अन्तरे श्वासोच्छवास क्रिया करे छे. पुनःश्वासोच्छवास- ग्रहण काययोगवडे अने विसर्जन पण काययोगवडे थाय छे, परन्तु मन ओ वचननी पेठे काययोगे ग्रहण अने मन वचनयोगे विसर्जन थाय छे तेम नश्री. 'जेथी श्वासोच्छ्वास योग' एवो व्यपदेश. थतो नथी (जेनु विस्तृत कारण श्रीविशेषावश्यकमां छे.). " ॥ दशमों आयुष्य प्राण. ॥ __ जेना वडे जीव ते भवनी अंदर अमुक काळमुधी टकी शके छ ते आयुष्य कहेवाय, अथवा जेना वडे जीव परभवमा अवश्य जाय छे ते आयुष्य कहेवाय, अथवा विवक्षित भवमा जेटला काळमुधी जीव रहे तेटलो काळ आयुष्य कहेवाय.एआयुष्य पण पुद्गलनो समुदाय छे के जे पुद्गल समूहनी सहायवडे जीव जीवे छे. ए आयुष्य द्रव्यायुष्य अने कालआयुष्य एम २ प्रकार छे. ॥ द्रव्यायुष्य अने कालआयुष्य. ॥ आयुष्यकर्मनां जे पुद्गलो ते द्रव्यायुष्य, जेम तेल विना दीपक रे आचक्षते आनन्ति प्राणन्ति इत्यनेनान्तःस्फुरन्ती उच्छवास निःश्वासक्रिया परिग्रह्यते, उच्छवसन्ति निःश्वसन्ति इत्यनेन तु बाह्या." Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) आश्रीनस्तस्वविस्तरार्थः॥ बळी शकलो नथी तेम आयुष्यनां पुद्गलविना जीव जीवी शकतो मबी, र हेतुथी आयुष्य अवश्य पौगालिक ज छे. .. आयुष्य कर्मनां पुद्गलोनी सहायवडे जीव जे अमुक काळसुधी जीवी शके छे ते जीवनकाळj नाम 'कालआयुष्य' कहेवाय. आगळ कहैवाशे ते रीते द्रव्यआयुष्य पंपूर्ण थयाविना जीव कदि पण मरण पामती नथी ( एमां कोइ जातनो अपवाद छ ज नहिं ), अने काळआयुष्य तो जो अपवर्तनीय होयतो (काळआयुष्य ) पूण कर्याविना मरणपामे अने अनपवर्तनीय होयतो संपूर्ण करीने पण मरण पामे. ते अपवर्तनीय विगेरे भेद नीचे प्रमाणे छे. ॥अपवर्तनीय अने अनपवत्तनीय आयुष्य ॥ '(तथा सोपक्रमी अने निरुपक्रमी.) जीवे आयुष्यनी स्थिति पूर्वभवमां एवी शिथिल ( नरम) बांधी होय के जेथी शस्त्रादिकना आघात वगेरेथी ते बांधेली स्थिति ( काळआयुष्य ) पूर्ण कर्याविना ( अधूरे आयुष्ये ) मरणपामे, ते शिथिल आयुष्यनुं नाम अपवर्तनीय आयुष्य कहेवाय. जीवे पूर्वभवमा आयुष्यनी स्थिति एवी तीव्र (घन ) वांधी होय के जेथी शस्त्रादिकना आघात लाग्या छतां पण ते बांधेली आयुष्य स्थिति ( काळआयुष्य ) पूर्ण करीने ज मरणपामे, अर्थात् ते शस्त्रादिकना आघातथी पण अपूर्ण आयुष्ये मरण न पामेते अनपवर्तनीय आयुष्य कहेवाय. १ प्रशापनाजीमा एनुं नाम स्थितिआयुष्य पण कहेल छे. पुनः ते स्थाने बे भेद करतां पण वधु ( ७ लमभग ) भेद पाडेला छे. परन्तु अत्रे विशेष उपयोगी बे भेद ज अंगीकार कर्या छे, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवत आयुष्यप्राणवर्णनम्, (८९) प प्रमाणे अपवर्तनीय अने अनपवर्त्तनीय भेद काळआयुष्यनाज है, परन्तु द्रव्यआयुष्य ( आयुष्य पुद्गलो ) अपवर्तनीय अनपवर्त्तनीय नथी. कारण आयुष्यनां जेटली पुद्गलो ( आयुष्यनाजेटला परमाणु ) जीवे ग्रहण करेला छे ते सर्व ( परमाणुओ ) क्षय थयाबाद जीव मरण पामी शके, परन्तु आयुष्यनो एक पण परमाणु जीवने क्षय करवो बाकी रह्यो होय भने जीव मरण पाएँ एम कदी पण बनी शकेज नहिं, अने काळआयुष्यमां तो सेंकडो वर्षांनी स्थिति उपार्जन करी होय छतां अन्तर्मुहूर्तमां पण मरण पामी जाय एम बनी शकेले. ए हेतुथी द्रव्यआयुष्य संपूर्णथये अने काळआयुष्य अपूर्ण रहो छते पण जीवनुं मरण भइ शकेले. शंका - आयुष्य ए पुल के अने स्थिति ते पण आयुष्यनां पुद्गलनीज छे, तो सर्व पुद्गलमो क्षय थाय अने सर्व स्थितिनो क्षय नथाय ते कंम बनी शके ? उत्तर - हे जिज्ञासु! ए शंका सत्य के, परन्तु जेम कोढीआमां पूरेल तेल दौपकनी मोटी ज्योति करवाथी शीघ्र बळी जायचे त्यारे सर्व तेलनो क्षय थतां पण "आ दीपक अल्पकाळ बळयो" अथवा " दीपक अल्पकाळni बुझाइ गयो” एवो व्यपदेश थाय छे, तेम आयुष्यनां सर्वपुद्गल क्षय थया छतां पण आयुष्यनो काळ अपूर्ण रहे - वाथी वास्तविक रीते ते अपूर्ण काळे मरण पाम्यो एवो व्यपदेश थाय छे, कारण जीवनुं जीववुं आयुष्य पुगलोना आलंबनथीज छे. तथा १०० हाथनी लांबी करेली दोरीने एक छेडेथी सळगावी होयतो ते घणे काळे बळी रहे, परन्तु ते दोरीनुं गुंछळु ( गुंडाळु ) करवामां आवेतो शीघ्र बळी जाय छे, तेम आयुष्यना पुलो प्रथम समये चीजे समये चीजे समये जे रौते क्षय पामतां जाय छे तेज अनुक्रमे जो आयु पुद्गलोनो क्षय चालु रहे तो १० वर्षे सर्व Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (९०) ॥ श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ पुद्गलोनो क्षय थाय, परन्तु तेवी रीत अल्पकाळ चालु रथा बाद ते रीति पुनः पलटाइने प्रतिसमय प्रथम करतां वधु ने वधु पुद्गलोनो क्षय थवा मांडे तो अन्तर्मुहर्तमां पण तेज पुद्गलोनो सर्व क्षय थइजाय, जेथी १०० वर्ष संपूर्ण न थया छतां पण (१.०० वर्षे पूर्ण थनार ) सर्व पुद्गलनो क्षय थइ गयो. तथा १ मण पाणीनी भरेली अपक्व ( भट्ठीमां बराबर नहिं पाकेली ) माटीनी गोळी थोडीवार सुधी तो बिंदु बिंदु जेटली टपके, परन्तु थोडीवार पछी ते गोकीमां फाट पडबाथी तेमां भरेलु ? मण पाणी घणा प्रमाणमां जवा मांडे जेथी अल्पकाळमांज सर्व जळनो क्षय थाय तेम अपक्व ( शिथिल ) आयुष्य माटे पण जाणवू. इत्यादि अनेक दृष्टांतो स्वबुद्धिए विचारवां. ॥ सोपक्रमी अने निरुपक्रमी आयुष्य.॥ शस्त्रादि बाह्य निमित्तथी जे आयुष्यनो क्षय थाय ते "सोपक्रम आयुष्य' कहेवाय. अहिं उपक्रमनो अर्थ "बाह्य निमित्त" छे. अथवा आयुष्यना अन्तसमये जेने बाह्य निमित्त विद्यमान होय तेवू आयुष्य पण सोपक्रम आयुष्य कहेवाय.-तथा बाह्य निमित्तवि...१ आ अर्थ अपवर्तनीय आयुष्यवाळा जीवने माटे छे. . २ आ अर्थ अनपवर्तनीय आयुष्यवाळा जीवना संबंधमां छे. कारणके ए जीवना आयुष्यना अन्त समये उपक्रम विद्यमान होय छे परन्तु ते उपक्रम आयुष्यनो क्षय करवामां हेतुभूत नथी कारणके अनपवर्तनीय आयुष्य उपक्रमवडे क्षय न थाय इति तत्त्वार्थवृत्यभिप्रायः. पुनः घणा ग्रंथकार अने सिद्धान्तकर्ता महात्माओ तो सोपक्रम अने निरुपक्रम ए वे भेदमात्रथी ज आयुष्यनुं वर्णन करे छे. परन्तु अपवर्तनीय अने अनपवर्तनीय भेदनी मुख्यता जणावता नथी. परन्तु श्रीतत्त्वार्थवृत्तिमा अभिप्राये बन्ने भेदोनो परस्पर संबंध राखवाथी वधु स्पष्ट बोध थइ शके छे. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवतस्त्वे आयुष्यप्राणवर्णनम्, ॥ ( ११ ) -नाज जे आयुष्यनो क्षय थाय ते 'निरुपक्रम आयुष्य' कहेवाय छे, प्रथम कहेल अनपवर्त्तनीय आयुष्य सोपक्रम अने निरुपक्रम एम बने प्रकारनुं होयछे, अने अपवर्त्तनीय आयुष्य तो सोपक्रमीज छे, जेना भेदनी स्थापना नीचे प्रमाणे छे. - आयुष्य. अपवत्तनीय. सोपक्रम. अनपवर्त्तनीय. 1 सोपक्रम. निरूपक्रम. अर्थात् अनपवर्त्तनीय आयुष्यना क्षय समये शस्त्रादि बाह्य निमित्तनो संबंध होय अथवा न पण होय, अने अपवर्त्तनीय आयुष्यनो क्षय तो बाह्य निमित्त विना होइ शकेज नहि. ए प्रमाणे पूर्ण आयुष्ये मरण पामनारा जे जीवने आयुष्यना अन्त वखते शघातादिनिमित्तनो ( आयुष्यना अन्त समये ) संबंध होय ते जीवनुं आयुष्य सोपक्रम अनपवर्त्तनीय कहेवाय. अने जे जीवने संपूर्ण आयुष्यना अन्त समये शस्त्रघातादिनो संबंध न होय ते जीव आ निरुपक्रम अनपवर्त्तनीय कहेवाय. अने अपूर्ण आयुष्ये मरण पामनारा सर्वे जीवोतुं आयुष्य तो सोपक्रम अपवर्त्तनीय ज कहेवाय, ॥ आयुष्यनां ७ उपक्रम. ॥ १ - राग - स्नेह - अने भय ए ३ थी जे मरण थाय ते अध्यवसाय. उपक्रम कहेवाय, अहिं एक पाणी पानारी स्त्री अति रूपवन्त युचक (पुरुष) ने देखी मोहित थतां ते युवक न्यारे चाल्यो गयो त्यारे तेना रागथी रीरीने मरणपामी हती ए 'रागनिमित्त' कहे Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) ॥श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ वाय. कामनी अन्त्य (१०मी.) दशा एज छे. तथा कोइक स्त्रीए पोताना परदेश गएला पतिनुं मरण पतिना मित्रोए मश्करीमा कहेलुं सांभळी पोते तुर्त मरणपामी, अने ते स्त्री- मरण तेना पतिए सांभळवाथी ते पण मरण पाम्यो, ए 'स्नेहनिमित्त' कहेवाय. तथा कृष्णवासुदेवना पुत्र गजसुकुमाले दीक्षा लीधी त्यारे तेना संसरा सोमिल ब्राह्मणे पोतानी पुत्री रखडती थइ एम जाणी गजमुकुमालना मस्तक उपर अंगारा भरी प्राण लीधो, अने ज्यारे नगरमां प्रवेश करतां सामे कृष्णवासुदेवने आवता देख्या त्यारे भयथी त्यांज मरण पाम्यो ए 'भयथी मरण' कहेवाय. ए प्रमाणे अध्यवसाय मरण ३ प्रकारे थाय छे, २-लाकडी-चाबक-कोरडा-शस्त्रादिथी जे मरण थाय तेनिमित्त उपक्रम. ३-घणो आहार करवाथी ( अथवा बिलकुल आहार नहिं करखाथी) मरण थाय ते आहार उपक्रम. ४-अति पीडा-वेदना थवाथी मरण थाय ते वेदना उपक्रम. ५-कूवामां के जळमां पडतां अथवा पर्वतादि उपरथी पडतां जे मरण थाय ते पराघात उपक्रम. ६-वीच्छु-सर्प वगेरे झेरी जानवर करडवाथी मरण थाय ते स्पर्श उपक्रम कहेवाय. ७-घणा ' श्वासोच्छवास लेवाथी अथवा श्वासोच्छ्वास बि १ केटलाएक माने छे के" आयुष्यनो आधार श्वासोच्छ्वास उपर छे, एटले अमुक जीवनुं आटला श्वासोच्छ्वासनुं आयुष्य होय, अने ते जोब तेटला श्वासोच्छ्वास पूर्ण करे तोज मरंण पामे, ए कारणथी मरण वखते जीवने श्वासोच्छ्वास बाकी रह्या होय छे तो जलदीथी श्वास चलावी सर्व श्वासोच्छ्वास पूरा करी मरण पामे छे” परन्तु ए वात असंभवित लागे छे. कारणके Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवतत्त्वे आयुष्यप्राणवर्णनम् ॥ (९३) लकुल बंध करवाथी मरण थाय ते आनप्राण उपक्रम, ए ७ प्रकारनां उपक्रम लागवाथी आयुष्यपुद्गलो प्रतिसमय वधुने वधु प्रमाणमां क्षय थवाथी जीव अकाळे मरणपामे छ, उपक्रम लाग्या पहेलां भवोत्पत्तिना प्रथम समये विशेष बीजे समये हीन त्रीजे समये हीनतर एप्रमाणे प्रतिसमय हीन हीनतर आयुष्यपु लोनो क्षय चालु रहे छे, तेमां आ सातमांनु कोइ उपक्रम अल्पांशे लागे तो ते वखते हीन हीनतरनो अनुक्रम तुटीने विशेष विशेषतर नो अनुक्रम ( ते उपक्रमनी असर ज्यांसुधी रहे त्यांमधी) केटलीक वखते थइ जाय, अने ज्यारे प्रवल उपक्रम लागे त्यारे तो विशेष विशेषतर अथवा असंख्यगुण असंख्यगुणना अनुक्रमे सर्व पुद्गलो अन्तर्मुहूर्त्तमा ज क्षय पामो जाय छे. आ क्रम गुणणि जेवो समजवो. जीव पूर्वभवमांथी आटला श्वासोच्छवास पूर्ण करवा एवी संख्यानो निर्णय करी लावतो नथी, परन्तु आयुष्यनां पुद्गलो पूर्ण करवानो सो निर्णयज करी लाये छे. माटे ए प्रमाणे श्वासोच्छवास अने आयुष्यने कोइपण जातनो संबंध नथी. परन्तु एटलोज संबंध छे के ज्यां सुधी जीवे त्यां सुधी श्वासोच्छवास लेवा मृ. कवानो व्यापार करे, पण अमुक जीवने अमुक भवमां आटला श्वासोच्छवास लेवा ज जोइए एवो नियम नहि. पुनः जाणी जोइने अथवा तो दुःखथी के परिश्रमथी जो घणा श्वासोच्छवास चाले तो आयुष्यपुद्गलो घणा प्रमाणमां खपी जवाथी (अ. पवर्तनीय आयुष्यवाळा जीवनुं ) आयुष्य अल्प थाय. कारणके कर्मप्रकृति विगेरे ग्रथोमा अति दुःखोने श्वासोच्छवास घणा होय अने अति दुःखीने आयुष्कर्मनी निर्जरा पण वणी होय एवा संवंधने लइने पूर्वोक्त प्रसिद्धी थट्ट होय तो बनवा योग्य छे. पण वस्तु स्वरूप तेम जणातुं नथी. वळो लब्धिअपर्याप्ता जीवोना आयुष्यनो उच्छ्वास व्यापार सिवाय ज क्षय थतो होवाथी आयुष्यनी साथे उच्छ्वास व्यापारनी व्याप्ति नथी, मात्र उच्छ्वास व्यापार आयुष्यनी उदीरणामां हेतु संभवे छे. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) ॥श्रीनवतत्वविस्तरार्थः ॥ .. शंका-जेम आयुष्य घटवाना उपाय छे, तेम आयुष्य वधवाना उपाय छे के नहि. . उत्तर-हे जिज्ञासु! आयुष्य वधवानो उपाय छ ज नहिं. महासमर्थ इन्द्रो बने तीर्थकर पण एक समयमात्र आयुष्य वधारवाने समर्थ नथी. कारण के आयुष्य निर्माण पूभिवमां यतुं होवाथी त्यां आयुष्यबंध वखते जे स्थिति बंधाइ ते स्थितिज अहिं भोगववानी होय छे तो पूर्वभवमां बांधला आयुष्यनी स्थिति आ भवमा केम वधारी ' शकाय? अथवा पूर्वोक्त ७ उपक्रमोमांधी कोइपण एकादि उपक्रमथी १०० वर्षनुं आयुष्य घटी १ वर्ष मात्र जीवी शके तेम होय तेवा प्रसंगमां ते जीव उपक्रमथी बची जवाना उपायोथी ५० वर्ष जीवे तो ए अपेक्षाए ते जीवे पोतान. आयुष्य औषधादिकथी वधार्यु एम व्यवहारथी कही शकाय परन्तु वास्तविक रीते तो . वधार्यु नज कहेवायः शंका--अपवर्तनीय अने अनपवर्तनीय एम तरतमताये आयुष्य बंधावामां हेतु शो ? उत्तर--आयुष्यबंध वखते आयुष्यबंध योग्य अध्यवसाय जो तीव्र होय छे तो आयुष्यनां ग्रहण करेलां पुद्गलो आत्माना अमुक अमुक विभागमा घणां एकत्र (पिंडित ) थइ जवाथी ते आयुः पुद्गल पिंड अभेद्य थाय छे, अने मंदपरिणामे ग्रहण करेल १ आयुप्यनी उद्वर्तना ( स्थिति-रसनी वृद्धि ) कर्मप्रकृ. तिमां कही छे, परन्तु ते पण ( “आबंधा उव्वट्टई" ए वचनथी) बंधकाळ सुधी ज उद्वर्तना होय, अने बंधकाळ पूर्ण थया बाद? समयमात्र पण वधी शके नहि. __२ ए भावार्थ तत्वार्थवृत्तिमां कह्यो छे ते आ' प्रमाणेअथवैकनाडिकापरिगृहीतमायुः संहतिमत्त्वात् संहतपुरुषराशि Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवतत्वे आयुष्यप्राणवर्णनमः ॥ ( ९५ ) आयुःपुद्गलो सर्व आत्मप्रदेशे विरल विरल पणे ( छूटां छूटां ) व चाइ जाय, जेथी उपक्रमने साध्य थइ शके छे. पुनः उपक्रमवडे आयुअपवर्त्ततो [ डुंकुं करतो करतो ] यावत् अंतर्मुहूर्त्त सुधी अपवले (अर्थात् अन्तर्मुहूर्त्त जेटलुं करी नाखे छे), त्यारबाद तथाविध अध्य. सायना अभावे अन्तर्मुहूतथी न्यून करी शके नहि. ॥ कया जीवने कयुं आयुष्य होय ? || सर्वदेव -- सर्वनारक-- सर्व 'युगलिकति यच--अने युगलिकमदभेद्यं वा एकनाडिकाविवरप्रक्षिप्तबीजनिष्पादितसस्य संहति विवराद्वहिः पतितबीजप्रसूतं हि सस्यमसंहतत्वात् प्रविरलतायां सत्यां सर्वस्यैव गवादेर्गम्यं, एवं किलायमात्मायुर्वनन्ननेकात्मलब्धिपरिणामस्वाभाव्याच्छरीरवाप्यपि सन्नाडिका मार्गपरिणामो भवति ततस्तामवस्थामासाद्य यानायुष्कपुद्गलान् नाति ते नाडिकाप्रविष्टत्वात् संहतिमध्ये सत्यभेद्या विषशस्वाग्न्यादीनाम् इति " अर्थः अथवा एक नाडिकावडे ग्रहण करेलं आयुष्य पिंडीभूत होवाथी घणा एकठा थयेला पुरुषोना राशिवत् अभेद्य अथवा (खेडुत जे त्रिफणीमांथी खेतरमां धान्य वावे छे ते त्रिफणीनी ) एक नाडिका (नळी ) ना छीद्रमार्गे नाखेल बीजवडे उत्पन्न थयेला धान्य समूहनी माफक आयुष्य अभेद्य ( अनपवर्त्तनीय) होय छे, अने नळीना छिद्रथी बहार पडेला बीजथी उत्पन्न थयेल धान्य या घास अपिंडित होवाथी छूटुं छूटुं उंग्ये छते सर्व धान्य ढोर वगेरे उखेडी खाड़ शके छे, ए प्रमाणे निश्चय आयुष्य बांधतो आ आत्मा अनेक आत्मलब्धि परिणामना स्वभावथी सर्व शरीरमां व्याप्त छे तो पण नाडिकामार्गपरिणाम वाळो ( अमुक विभागमां विशेष पुद्गल ग्रहण करनारो ) होय छे, तेथी ते ( नाडिकामार्गपरिणामरूप ) अवस्था पामीने जे आयुष्यपुद्गलो बांधे छे ते नाडिकामां प्रवेश थयेलां होवाथी पिंडीभूत थये छते विष शस्त्र अनि विगेरेथी अभेद्य होय छे. १ श्री सूयगडांगजीमां अने कर्मप्रकृतिमां युगलिकनुं पण ३ पल्योपम आयुष्य अपवर्त्ताइने अन्तर्मुहूर्त्त जेटलुं थाय एम कले. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) ॥ श्रीनवतस्वस्तिरार्थः ।। नुष्य निरुपक्रम अनपवर्तनीय आयुष्यवाला 2-घरमशरीरी (तअब मोक्षगामी )-तीर्थकर-गणधर--चक्रवर्ति-वासुदेष- बळदेवसोपक्रम अने निरुपक्रम अनपवर्तनीय आयुष्यवाला छे, शेष सर्व जीवो त्रणे प्रकारना (सोप० अप०१ सोप० अनप०२ अने निरुप० अनप० ३) आयुष्यवाला छे. .' ॥ कया जीवो क्यारे आयुष्य बांधे ? ॥ भारक-देव--अने 'असंख्य वर्षायुवाला युगलिकतिर्यचभने युग०मनुष्यो ६ मास आयु षाकी होते परभवनुं आयुष्य बांधे छे, अने निरुप. आयुष्यवाळा पृथ्वी-अप-तेजस-वायु-वनस्पति-बीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-अनें निरुपक्रमायुष्यवाळा पंचेन्द्रियजीवो आयुष्यनो श्रीजो भाग बाकी रहये बांधे अने सोपक्रमो आयुष्यवाला सर्वजीवो बीजो नवमो के २७मोमाग बाकी रहये (अ. नियमितपणे ) बांधे. घणा ग्रंथोमां तो एथी पण आगळ ८१मो२४३मो इत्यादि भाग शेष रहये यावत् अन्त्य अन्तर्मुः शेष रहये पण परभवायु बांधे एम कयुं छे.. ए प्रमाणे जीवोना आयुष्य प्राणनुं किंचित् स्वरूप का ते साथे जीवोना १० (दशे) प्राणनुं स्वरूप कहेवायु. ए १० प्राणो जीवोना द्रव्यपाण कहेवाय छे, अने "नाणंच दसणं चेव" गाथामां कहेला ६ लक्षणो ते जीवना भावप्राण कहेवाय छे. द्रव्यत्राण संसारी मीवने ज होय छे, अने भावप्राण तो संसारी अने सिद्धने पण होय छे. जीवितनां बाह्यचिन्हो ते द्रव्यप्राण अने अंतरंग लक्षणो १ ज्यां आयुष्यना संबंधमां असंख्य वर्ष आवे त्यां असंख्यनी गणत्री चोराशीलाख पूर्वनी उपरनी संख्याथी गणवी. एम काललोकप्रकाशमां कडं छे. २ अनपवर्तनीय इत्यर्थः Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥जीवतत्त्वे पाणवर्णननिःस्यन्दः ॥ (९७) - ते भावप्राण कहेवाय. हवे ए ६ भावमाण तो सर्व जीवने सरखाज होय छे. परन्तु प्रस्तुत प्रकरणना १० द्रव्यमाण (बाह्यप्राण ) सवं जीवोने एकसरखा नहिं होवाथी कया जीवने केटला प्राण होय ते कहेवाय छे. .. ॥ कयाजीवने केटला प्राण होय? ॥ एनो उत्तर गाश द्वाराज दर्शाव्योछे के सर्व एकेन्द्रिप जीवोने स्पर्शेन्द्रिय-काय बल -आयुष्य ने श्वासोच्छ्वास ए ? प्राण होय छे. द्वीन्द्रिय जोधोने पूर्वो चार अने एक रसनेन्द्रिय अने वचनबल अधिक होवाथी ६ ाण होय छे त्रीन्द्रियने घाणेन्द्रिय अधिक होवाथी ७ माण, चतुरिन्द्रियने चक्षुरिन्द्रिय अधिक होवाथी ८ पाण, असंज्ञिपंचेन्द्रियने श्रोत्रन्द्रिय अधिक होवाथी ९ माण, अने संक्षिपंचेन्द्रियने मनवल अधिक होवाथी १० प्राण छे. ॥श्रीनवतत्त्वप्रकरणे प्रथमजीवतत्त्व विस्तरार्थः समाप्तः ॥ १ अहिं एकेन्द्रिय अने द्वीन्द्रिय जीवोने जोके नासिका नथी तोपण सर्वांगे श्वासोच्छ्वास लइ शके छे. पुनः द्वीन्द्रिय तो मुखथी पण श्वासोच्छ्वास लइ शके. तथा एकेन्द्रियो शरीर पर्याप्ति थया बाद औदारिक शरीरवडे ज आहारग्रहणादि क्रिया करता होवाथी कायबल प्राण पण तेओने युक्त ज छे. पुनः 'जीवविचारावरिमां' ने 'द्रव्यलोकप्रकाशमां' संमूर्छिम मनुष्यने सात आठ अने 'वृहत्संग्रहणिवृत्ति' तथा 'प्राचीनबालांवबोधमां' नव प्राण कया छे, तेनो हेतु मालुम पडतो नथी, कारणके संमू० मनुष्य अवश्य अपर्याप्ता ज मरण पामे छे. तेन ‘पन्नवा' 'जीवाभिगम' विगेरेमा कर्जा छे माटे नव प्राणो मानतां तेओने पर्याता मानवा जोइये. वझी अपर्याप्त जीवो मात्र त्रण पर्याप्ति ज पूर्ण करे छे. तो तेओने श्वासोच्छवास, भाषा, अने मन ए, त्रण प्राण होइ शकता नथी. जेथी संमू० मनुष्यने ७ ज प्राण Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) ॥ श्रीनवतत्वविस्तरार्थः ॥ ॥ जीवतत्त्व परिशिष्ट. ॥ - ॥ संसारी जीवना (जुदी जुदी अपेक्षाए ) भेद.॥ १ प्रकारना-चैतन्य लक्षण (उपयोग)वडे. ... २ प्रकारना-त्रस, स्थावर. वा व्यवहार, अव्यवहार. ३ प्रकारना-स्त्री, पुरुष, नपुंसकवेदी वा भव्य, अभन्य, जातिभव्य. ४ प्रकारना-देव, मनुष्य, तिर्यंच, नारक. वा ३ वेद, ४ अवेद. ५ प्रकारना--एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय. ६ प्रकारना-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, जसकाय. ७ प्रकारना-सूक्ष्मएके०, बाद एके०, द्वी०, त्री०, चतु०, असं ज्ञिपंचे०, संजिपंचे०. वा ६ लेश्य, १ अस्लेश्य. ८ प्रकारना--? पर्याप्त सूक्ष्मएकेन्द्रिय, ५ द्वीन्द्रिय, २ पर्याप्त सूक्ष्मएकेन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, ३ अपर्याप्त बादरएकेन्द्रिय, ७ चतुरिन्द्रिय, ४ पर्याप्त बादरएकेन्द्रिय, , ८ पंचेन्द्रिय. ९ प्रकारना-2 अंडज, २ रसज, ३ जरायुज, ४ स्वेदज, ५ सं मूर्छज, ६ पोतज, ७ उद्भदज, ८ औपपातिक (ए आठ प्रस अने), ९ स्थावर. अथवा ५ स्थावर, ३ विकले०, अने ? पंचेन्द्रिय. संभवे छे. छतां 'श्री द्रव्यलोकप्रकाश' विगेरेमा उच्छवास सहित आठ तथा 'वृहत्संग्रहणिवृत्ति' विगेरेमां वचनवल सहित नव प्राण कथा तेनो निर्णय श्रीबहुश्रुतगम्य जाणबो. अहिं अपर्याप्तजीवोने यथायोग्य श्वासोच्छ्वास,भाषा, अने मन सिवायना प्राण गणवा. उपर कह्या प्रमाणे ए स्ययोग्य द्रव्यप्राणोनो जे वियोग ते जीवनुं 'मरण' कहेयाय छे. कारणके जीव ज्यारे ए द्रव्यप्राण छोडी परभवमांजाय त्यारे ( जोवत्वपणे जीव जीवे ठे छतां ) मरण पाम्यो एम कहेवाय छे. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥जीवतवपरिशिष्टम् ॥ (९९) - १० प्रकारना-५ स्थावर ३ विकले०,१ सं०पंचे०, १ असं०पंचे०. ११ प्रकारना--५ स्थावर, ३ विकले, : पंचे० (वेद मेदे). १२ प्रकार ना--६ अ षटकाय ६ पर्याप्तषटकाय. १३ प्रकारना -30 पर्याशापर्याप्तपांचस्थावर, ३ पंचे० (वेद मेदे). १४ प्रकारना--ग्रन्थमां बतावेला, अथवा १४ गुणस्थानमेदे. १५ प्रकारना-९ पंचेन्द्रिय (वेद भेदे ३ तिर्यंच, ३ मनुष्य, २ दे व (नपुं०विना), (१ नारक नपुं० ), २ बादर एके० (पर्या सापर्याप्त मेदे ), १ सूक्ष्मएके०, ३ विकलेन्द्रियो. १६ प्रकारना-२ एके० (पर्या० अपर्या०), ६ विकले० (पर्या० अपर्या०), २५० ति० (पर्या० अपर्या० ), ६ देव, मनुष्य, नारक (पर्या० अपर्याप्त ). १७ प्रकारना--५ स्थावर,३ विकले०, ९ पंचेन्द्रिय (१५ भेदोक्त). १८ प्रकारना-पूर्वोक्त ९भेदना पर्याप्तापर्याप्त मेदे. १९ प्रकारना--१० सू० ए० १, बा० ए०२, विकले० ३, (ए ५ पर्या० अप० ), ९ पंचेन्द्रिय. २० प्रकारना--पूर्वोक्त १० भेदोने पर्याप्तापर्याप्त मेदे गुणवायी. २१ प्रकारना--२० स्थावर ( पृथ्व्यादि पांचने सूक्ष्म-बादर तथा पर्याप्तापर्याप्त भेदे गुणवाथी.), १ स. २२ प्रकारना--पूर्वोक्त ११ भेदोन पर्याप्तापर्याप्त मेदे गुणवाथी. ३२ प्रकारना--२२ एकेन्द्रिय (पांचसोर ठभेदमां कहेवाशे ते), ६ विकलेन्द्रि, ४ पंचेन्द्रिय (सज्ञिप अ०, असंज्ञिप० अ०). ११६ प्रकारना- नारक, १० भवनपति. ८ व्यंतर, ५ ज्योवि पी, १२ कल्प, ९ अवेयक, ५ अनुत्तर, १ मनुष्य, १ तियेच, ए ५८ ने पर्याप्त अपर्याप्त भेदे गुणवाथी ११६ भेद थायछे. ५६३ प्रकारना-(नीचे कया प्रमाणे) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) ॥ श्रीनवतत्वविस्तरार्थः॥ ५८४ प्रकारना-पूर्वोक्त ३२ भेदमांथी संझिना २ भेद बाद करीबा कीना ३० भेद पूर्वोक्त ११६ मां मैळवतां १४६ थाय, ते पुनः भव्य, अभव्य, दुर्भव्य, अने आसन्नभव्य ए ४ मेदे गुणतां १४६+४-५८४ भेद थाय छे. (भा सर्व प्रकारो 'जीवाभिगम,' ' संबोधप्रकरण' 'लोकप्रकाश' विगेरेमां बतावेला छे.) ॥ ५६३ जीवभेद.॥ २२ एकेन्द्रिय-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, अने साधारणवनपति ए पांचे सूक्ष्म अने चादर मळी १० थाय, तेमां (पादर) प्रत्येकवनस्पति उमेरतां ११ थाय, ते पर्याप्ता अने अपर्याप्ता एम.बे भेदे गुणतां एकेन्द्रियना सर्व भेद २२ थाय. ६ विकलेन्द्रिय-दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, अने चतुरिन्द्रिय, ए अण ने अपर्याप्त अने पर्याप्त भेदे गुणतां विकलेन्द्रियना ६ मेद थाय. - १४ नारक-सातेपृथ्वीना नारकने अपर्याप्त अने पर्याप्त मेदे गुणतां नारकना १४ मेद थाय. ___ २० तिर्यचपंचेन्द्रिय-जळचर, स्थळचर, खेचर, उरःपरिसर्प अने भुजपरिसर्प ए पांचे संमूर्छिम तथा गर्भज गणतां १० भेद पाय, अने ते दशने अपर्याप्त-पर्याप्त भेदे गुणतां २० भेद होय. - ३०३ मनुष्य-१५ 'कर्मभूमि, ३० अकर्मभूमि, अने ५६ १ पांच भरत, पांच औरवत, पांच महाविदेह ( १ जंबूद्वीपना भ० अ० म, २ धातकीखंडना भ० अ० म०, २ पुष्कर्धना भ० ० महाविदेह ). २ ५ उत्तरकुरु, ५ देवकुरु, ५ हिमवंत, ५ हिरण्यवंत, ५ हरिवर्ष, ५ रम्यक, ( उपर कहेला पांच भरत प्रमाणे ). ३ जंबूद्वीपना हिमवंत अने शिखरी पर्वतनी पूर्व पश्चिममां चार चार दाढाओ मळी आठ-दाढाओ पैकी एकेको दाढा उपर सात, सात. सर्व मळी ५६ अंत:पो जाणवा. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ जीवतश्वपरिशिष्टम् || ( १०१ ) अन्तईप ए १०१ क्षेत्रवर्ती संमूच्छिम मनुष्यो अपर्याप्तज होय, अने गर्भज मनुष्यो अपर्याप्त अने पर्याप्त पण होय, माटे १०१ संमूछिम मनुष्य, तथा २०२ गर्भज मनुष्य मळी ३०३ मनुष्य भेदथायडे, १९८ देव - १० भुवनपति, १५ परमाधामी, ८ व्यन्तर, ८ बाणव्यन्तर, १० तिर्यग्जृंभक, ५ चरण्योतिषी, ५ स्थिरज्योतिषी, ३ किल्बिषिक, १२ सौधर्मादि बार कल्प, ९ लोकान्तिक, ९ ग्रैवेयक, अने ५ अनुत्तर, ए९९ अपर्याप्त, अने ९९ पर्याप्त देव मळी देवना सर्वभेद १९८ . ( ए रीते २२ ए०), ६ वि०, १४ ना०, २० पं०ति०, ३०३ म०, १९८ देवना भेदो मळी जीवना सर्वभेद ५६३ बाय के. ॥ १४ जीवभेदना स्थानो. ॥ (१) सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रियोनुं स्थान - संपूर्ण लोकाकाश. (२) सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रियोनुं स्थान- " (३) बादर अपर्याप्त एकेनुं स्थान -- लोकमो असंख्यातमो भाग. (४) बादर पर्याप्त एके०नुं स्थान- 99 १ पृथ्वीतुं स्थान - ७ नरक, १ सिद्धशिला, पाताळकळशाओनी ठीकरीओ, भवनपतिनां भवनो, नरकावासा ( नीभित्तिओ अने भूमितळ ), विमानो, पर्वतो, भूमिकूट, जगपतीओ, वेदिकाओ, विजयादिद्वारो, अने ८ - णराजी, द्वीपो, समुद्रो विगेरेमां. • २ जळनुं स्थान - घनोदधिओ, समुद्रो, पाताळकळशाओनाउदरभाग, भवनोनी 'अने विमानोनी वावडीओ, द्रहो, अने नदी, सरोवर, कुवा विगेरे जळाशयोमां. ३ अग्निनुं स्थान -- मानुषोत्तर पर्वत सुधीना अढी द्वीपरूप मनुष्यक्षेत्रमां (तेमां पण युगलक्षेत्रोमा नहिं ). Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) ॥ श्रीनवतस्वविस्तरार्थः ॥ ४ वायुनुं स्थान- पनत अने तनवातनां वलयो, पाता ळकळशना उदरभाग, भवनो विमानो, निष्कुटो, इत्यादि सर्वलोकमां ज्या ज्या पोलाणभाग होय त्यां सर्वत्र. • ५ वनस्पतिर्नु स्थान-तिगलोकमां, भवनोना अने विमा नोना वन-बगीचाओ, विगेरे स्थळोमां. (५ थी १०) ६ विकलेन्द्रियोनुं स्थान--लोकनो असंख्यातमोभा ग. कारण के उर्वलोकमां मेरूपर्वतना शिखर सुधी, अधोलोकमां अधोग्राम सुधी, अने तिर्यग्लोकमां सर्वत्र जलाशय स्थाने अने स्थळमां पण उत्पन्न थाय के. (११-१२) असंज्ञिपंचेन्द्रियस्थान-लोकनो असंख्यातमो भाग. असंधितिर्यंच--वियगलोकमां सर्वत्र, ऊर्ध्वलोकमां मेरुना शि खर सुधी, अने अधोलोकमां अप्रोग्राम सुधी. असंज्ञिमनुष्य-अढीद्वीप रूप मनुष्य क्षेत्रमा ज्या ज्यां मनु ष्यनी वसति होय त्यां. १३-१४ संज्ञिपंवेन्द्रियस्थान-लोकनो असंख्यातमो भाग. देव--रत्नप्रभा पृथ्वीमां, ज्योतिष्नां विमानोमां, अने सौ _ धर्मादि विमानमां, तेमज क्वचित् तिर्यगलोकमां पण. नारक-सात पृथ्वीओमां. तिर्यच-असंज्ञि तिर्यंचव. मनुष्य--मनुष्य क्षेत्रमां. आ जीवतत्त्व उपर ज्ञान, दर्शन, संज्ञा, लेश्या, गुणस्थानक, दृष्टि, योग, उपयोग विगेरे अनेक विचारो छ जे अन्य ग्रन्योमां बतावेला के. ॥ इति जीवतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वभेदवर्णनमः॥ (१०३) ॥ अथ अजीवतत्त्वम्.॥ अवतरण--पूर्व ७ गाथा सुधीमां जीवनुं स्वरूप दर्चावीने इथे 'यथोद्देशं निर्देशः' 'ए न्यायथी क्र. आवेला बीजा अजीवतत्वस्वरूप कहेतां प्रथम आ गाथामां अजीवना १४ भेद दावे के. ॥ मूळ गाथा ८ मी.॥ धम्माऽधम्माऽ गासा, तियतियभेया तहेव अधा य॥ खंधा देस पएसा, परमाणु अजीव चउदसहा ॥८॥ - ॥ संस्कृतानुवादः ॥ धर्माऽधर्माऽऽकाशा-स्त्रिकत्रिकभेदास्तथैवाडा च ॥ स्कंधा देशाः प्रदेशाः, परमाणयोइंजीवश्चतुर्दशधा ॥८॥ ॥ शब्दार्थः ॥ धम्म-धर्मास्तिकाय. खंधा-स्कंध (आखोभाग.) अधम्म-अधर्मास्तिकाय. देस-देश ( न्यूनभाग.) आगास-आकाशास्तिकाय. पएसा-प्रदेश (स्कंधसंबर तियतिय--त्रणत्रण. . निर्विभाज्य भाग). मेया-मेदवाळा. परमाणु--छटो अणु. तहेव-तेमज. अजीव-अजीव द्रव्य (तच). अबा-काळ. 'चउदसहा--चौदप्रकारे. गाथार्थः-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अने आकाशास्ति-... काय, (ए त्रण ) त्रण त्रण भेदवाळा छे, तेमज काळ, क्या (पुद्ग Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) || श्रीवत्वविस्तरार्थः ॥ लास्तिकायना ) स्कंध -- देश-- प्रदेश - अने परमाणु, ए सर्व मळी अजीवद्रव्य ( अजीवतत्व) १४ प्रकारे छे. विस्तरार्थः -- ए मा ( जीवनुं स्वरूप ) जीवतस्त्र कहीने वे अजीव देवाना प्रारंभमां प्रथम अजीवतश्वना १४ भेद दशवे छे ते आ प्रमाणे. ( अजीवतश्व जीवनुं साहाय्यक द्रव्य छे.) ·१ धर्मास्तिकाय (स्कंध ). ८ आकाशोस्तिकाय देश. ९ आकाशास्तिकाय प्रदेश. २ धर्मास्तिकाय देश. ३ धर्मास्तिकाय प्रदेश. ४ अधर्मास्तिकाय (स्कंध). १० काळ. ११. पुद्गलस्कंध. ५ अधर्मास्तिकाय देश. ६ अधर्मास्तिकाय प्रदेश, ७ आकाशास्तिकाय (स्कंघ ). १४ पुंद्रळ परमाणु. ए १४ भेदनु स्वरूप दर्शावतां प्रथम धर्मास्तिकायादि ५ अजीव पदार्थ अने स्कंधादिनो अर्थ कहेवाय छे. ॥ धर्मास्तिकाय ॥ जीव अने पुगलने गति करवामां सहाय करनार जे द्रव्य ( पदार्थ) ते 'धर्मास्तिकाय' कहेवाय. अहिं 'धर्म' एटले गतिसाहाय्यक गुण, 'अस्ति' एटले प्रदेशना, 'काय'- समूह, ते धर्मास्तिकाय. · १२ पुद्गल देश. १३ पुद्गल प्रदेश. आ जगतमां मूळ द्रव्य (पदार्थ) ६ छे. तेमां एक स्थानथी बीजे स्थाने जइ शके व गतिक्रियावाळां जीव अने पुद्गल ए बेद्रव्य छे, तेमां जीव पोताना स्वभावे अने पुद्गलना 'आलंबनथी अने १ आ भवमां भवधार जीव औदारिकादि देहना आलंबनथी अने परभवमां जतां कार्मणदेहनी प्रेरणाथी जीवनी गतिक्रिया प्रवर्त्ते छे, कारण के जीवने भवान्तरमां लइ जनार- कार्मण शरीरज होय छे मारे. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतस्त्वे धर्मास्तिकायवर्णनम् ॥ (१०५) कर्मनी प्रेरणाथी जेम गति करी शके छे, तेम पुगलो पण पोताना स्वभावथी तथा जीवनी प्रेरणाथी पण ' गति करी शके छे, ए प्रमाणे ते बन्ने द्रव्यो गति क्रिया ( कार्यमा ) परस्पर संबंध वाला तथा संबंध विनाना पण छे जो के जीव- पुद्गलोनी गति क्रिया ( कार्य ) उपर बताव्या प्रमाणे प्रवर्ते छे, तोपण ते क्रियामां अवश्य अन्यद्रव्यनी अपेक्षा छे, पक्षिने ऊडवामां वायु, मत्स्यने चालवini जल, चक्षुने बाह्य वस्तु देखवामां सूर्यादिप्रकाश विगेरे जेम उपकारी छे, तेम जीव - पुद्गलनी गतिमां धर्मास्तिकाय उपकारी द्रव्य छे. कारण असाधारण गुणवाळो पदार्थ होय तेज बस्तुतः उपकारी कहवाय, माटे जो के लाकडी विगेरे बाह्यपुद्गलो अथवा जीव प्रयोग गतिकियामां कारण के तोपण ते लाकडीमां अने जीवप्रयोगमां गतिसाहाय्यकनामनो असाधारण गुण नथीं कारण ते बीजी- क्रिया ( कार्यों ) मां पण उपकारी थाय छे. अने धर्मास्तिकायां ते गति साहाय्यकत्व गुण असाधारण छे माटे ते उपकारी छे, वायुथी पक्षि उडी शके छे, मत्स्य जल होय तोज चाली शके छे, अने सूर्यनो प्रकाश होय तोज चक्षु वस्तुने देखी शके ते धर्मास्तिकाय द्रव्य होय तोज जीव पुद्गलनी गतिक्रि या यह शके अन्यथा नहि ! ए धर्मास्तिकाय द्रव्यना निर्विभाज्य विभागो ( प्रदेशो) असंख्य छे ने ते दरेक प्रदेश परस्पर स्पर्श संथ साथे साथे जोडाइने रह्या छे जेथी ए पदार्थ १४ राज जेटलो जग्या रोकीने रह्यो छे, अने तेथी सुप्रतिष्ठक आकारे रहे १ श्री प्रज्ञापुनाजी " विगेरेसां पुद्गलना दशविध परि गामांमां गति परिणाम बताव्यो छे तेमज : श्री भगवतीजी " मां पण परमाणु उत्कृष्टगतिए एक समये उर्ध्वलोकान्तथी अधोलोकान्त (२४राज क्षेत्र ) सुधी गति करी शके छे. तेम वर्णव्युं छे. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) ॥श्री नवतत्व विस्तरार्थः॥ ल छे. अने ए पदार्थ जगतमा एकज के. वळी भाषा-उच्छ्वास मन-वगेरे पुद्गलनु ग्रहण धर्मा० विना गतिना अभावे न थइ शके, माटे जीवनी गतिक्रियामां अने 'भाषा-उच्छवास-मन-काय योग इत्यादि चळ क्रियाओमा सर्वत्र धर्मास्तिकाय उपकारी छे.॥१॥ ॥अधाऽस्तिकाय ॥ जीव-पुद्गलने स्थिर थवामां जे सहाय करनार द्रव्य ते " अ. धर्माऽस्तिकाय " कहेवाय. अहिं गतिसाहाय्यकगुणथी विपरीत ने स्थिरसाहाय्यक गुण ते " अधर्म," तेनो अस्तिकाय एटले प्रदेशसमूह ते अधर्माऽस्तिकाय. जेम गतक्रिया करता जीवपुगलने उपकारी द्रव्य धर्यास्तिकाय कहेवाय छे. तेम गतिक्रियाथी स्थिर धवा माटे उपकारी द्रव्यने"भार्मास्तिकाय" कहेवामां आवे छे. वटेमाणु (मुसाफर ) ने जेम छायास्थल मत्स्यने जेम द्वीप (बेट) अने उडता पक्षीने स्थिर थवामां जेम भूमि अथवा वृक्ष अथवा गिरिनुं शिखर उपकारी छे, तेम गति करता जीवपुद्गलने स्थिर थ. वा माटे अधर्मास्तिकाय द्रव्य उपकारी छे. जो अधर्मास्तिकाय द्र. व्य न होय तो जोवपुद्गलनी गति ज चालु रहे पण स्थिरता न थाय. पुनः बेसवामां-उभारहेवामां-आलंबनमा(कोइवस्तुने घरीराखवामां)भने चित्तनी स्थिरतादि स्थिरकार्योंमां भा अधर्माकारणरूपछे. शंका-धर्माऽस्तिकायादि ४ द्रव्य पण स्थिर के नो नेओने उपकारी अधर्माप्तिकाय के के नहि ? अने जो ते द्रव्योने स्थिर रहेवामां पण अधर्मा० उपकारी होय तो मात्र जीवपुदलने ज.3. १ जीवानामेव चेष्टामु, गमनागमनादिषु । भाषामनावचः काय-योगादिष्येति हेतुताम ॥१॥[इति द्रव्यलोक द्वितीयसर्ग: ) २.अयं निषदनस्थान-शयनालंदनादिषु । प्रयाति हेतुतां चित्तस्थैर्यादिस्थिरतासु च॥!" (इति द्रव्यलोके द्वितीयमर्गः) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्वेऽधर्माकाशास्तिकायवर्णनम् ॥ (१०७) पकारी के एम केम कहेवाय ? उत्तर--धर्माऽस्तिकायादि द्रव्यो अनादि स्वभावेज स्थिर छे, कारणके ते द्रव्योमा कोइपण काळे गतिक्रिया संभवतीज नथी तो पछी तेओने गतिक्रियाथी निवृत्त थवारूप स्थिरता पण कयांथी होय ? के जेथी अधर्मास्तिकाय तेओने उपकार करे ? अर्थात् जेओ स्वभावेज स्थिर छे तेओने स्थिरतामां अन्यद्रव्यनी जरुर नथी, परन्तु जेओने गतिक्रियाथी निवर्तीने स्थिर थq छ तेओनेज अन्य साहाय्यक द्रव्यनी अपेक्षा रहे छे. माटे गति परिणामी जीवपुद्गल ए बे द्रव्यनेज स्थिर थवामां अधर्मा० उपकारी छे. ए द्रव्यना पण धर्माऽस्तिकायना जेटला ( सरखी संख्याए ) असंख्य देशो तथा ( प्रदेशो) छे, अने ते धर्मास्तिकायवत चौदराज जेटला क्षेत्रमा सुप्रतिष्ठाकारे अथवा वैशाखसंस्थाने अवगाही रह्यो छे. .ए धर्मा० अने अधर्मा० बे द्रव्यो जेटला क्षेत्रमा ( आकाशमां ) रह्यां के तेटलाज क्षेत्र नाम लोक एवी संज्ञा छे. जेथी ए वे द्रव्यो लोक प्रमाण अवगाहवाळां कहेवाय छे. वळी ए बन्ने द्रव्यो दधमां माकग्नी पेठे परस्पर प्रवेश करीने रहेलां छे. ॥२॥ ॥ आकाशाऽस्तिकाय ॥ धर्मास्तिकायादि द्रव्योने रहेवाने अवकाश ( जग्या) आपनार जे द्रव्य ते आकाशाऽस्तिकाय. आ द्रव्यमां सर्व द्रव्यो व्याप्त थइने जग्या लइने रह्यां छे, जो आ द्रव्य न होय तो धर्मा० आदि द्रव्यो कयां रहे ? माटे मई द्रव्योने अवकाश आपनार आ द्रव्य छ. वळी आ द्रव्यना प्रदेशो अनन्त छे अने ते साथै साथे जोडाइने अनंत जोजन जेटला अपार क्षेत्रमा रह्या छे. वळी आकाशद्रव्य लोकाकाश अलंकाकाश एम के प्रकार छे, त्यां जेटला आकाशमां Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१०८) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ।। धर्मा० अने अधर्मा० रहेल छे तेटला आकाश- नाम लोकाकाश, अने ते शिवायर्नु सर्व अलोकाकाश छे, लोकाका० असंख्य योजन जेटलो सुप्रतिष्ठआकारे छे, अने अलोकाकाश 'पोला गोळा स. रखो छे, वळी पूर्व पश्चिमादि दिशाओ पण आकाश द्रव्यना विभाग रूप ज छे परन्तु नैयायिकादिनी माफक नवीन कल्पित दिशाद्रव्यनथी आकाश विभागथीज "देशिक परत्वापरत्व" व्यवहार थइ शके छे. कारणके गोस्तनाकार आठ रुचक प्रदेशथी विजय दरवाजा तरफ (ज्यां भरत क्षेत्रनो सूर्य उगे छे ते तरफ) बे बे प्रदेशे वधती पूर्व दिशानीकळी छे, एरीते शेष दिशाओ पण वे बे प्रदेशो वधती निकळेली छे. अने विदिशा एकेकपदेशनी पंक्ति रूप(घुटेलामोतीना एकावली हार सरखी ) नीकळी छे. अने अर्ध्व तथा अधोदिशा चार चार प्रदेशनी निकली छे. ए दिशाओनी मर्यादा करनार आ. ठरुचक प्रदेश ( रुचक नामवाला आठ आकाश प्रदेश ) जंबुद्वीपना मेरूपर्वतनी तलहटीए मेरूना अंदरना मध्य मागमां छ. ने त्यांथी दिशा विदिशाओ निकळी छे. वळी ऊर्चलोक विगेरे लोकाकाशना अनेक विभागो छ. लोकाकाश १४ राज लोक प्रमाणे छे. ॥३॥ काळ.॥ द्रव्यना वर्ननादि पर्याय ते नैश्चयिक काळ, अने ज्योतिषच. जना भ्रमणधी उत्पन्नथतो जे समय-आलि--मुहर्तादि ने व्यवहारकाळ ( १३मी गाथामां कह्यो छे.) काळ वे प्रकारे . वाम्नविकरीते तो काळ ए परमाणुओना पिंडरूप पदार्थ नथी, परन्तु सर्व द्रव्योमा वर्तनादि पर्याय साधारण रीने होवाथी उपचारे ते वर्तनादिपर्यायमा उपकारी होवाथी कालने द्रव्य तरीके १ कारण के लोकाकाश जेटलो आकाश अलोकन ग. गाय माटे लोकाकाश जेटलं अंदरना भागमा पोलाण कहेवाय. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे कालस्वरूपविषेचनम्, ॥ (१०९ गणेल छे. ए संबंधी सिध्धांत अने ग्रन्थोमा घणी चर्चा छे न्हव ते काळ द्रव्यमा प्रथम नैवयिककालनु स्वरूप दर्शाववा माटे तेना(का. ळना) कार्यरूप वर्तनादि पर्यायर्नु किंचित् स्वरूप कडेवाय छे. ॥'नैश्चयिक काळनुं स्वरूप ॥ ? वर्तनापर्याय-सादि सान्तादि भेद वडे (सादि सान्त-सादिअनन्त--अनादि सान्त--अने अनादि अनन्त ए ) चार प्रकार स्थितिमांथी कोइपण स्थितिर्मा कोइपण प्रकारे वर्तवं ते 'वर्तना.'ए वर्त्तना प्रतिसमय बदलाया करे छे. परन्तु कोइपण प्रकारनी विवक्षित एक वर्तना बे समयसुधी टकती नथी, ए हेतुथी ए वर्तनाने पर्याय (परावृत्ति ) कहेवामां आवे छे. "द्रव्याणां सादिसान्तादिभेदैः स्थित्यां चतुर्भिदि ॥ यत्केनचित् प्रकारेण, वर्तनं वर्तना हि सा ॥ १ ॥” इति काललोकप्रकाशवचनात् २ परिणाम पर्याय-प्रयोग अने विश्रसादिथी उत्पन्न ययेली नवापणा अने जुनापणानी जे परिणति ते परिणाम, अर्थात् प्रयनधी, स्वभावथी, अथवा उभयथी ( ए बन्नेथी ) द्रव्योमा जे नवापणुं अने जीर्णता--जूनापणुं उत्पन्न थाय छे ते परिणमनने परिणाम कहेवामां आवे है, ने ए द्रव्योमा जनापणुं मटीने नवापj, र आ नैश्चयिककाळ द्रव्योनी वर्तनादि पर्यायरूप हो. वाथी जीवद्रव्यनी वर्तनादिपर्यायोरूप काळ जीव, अने अजीबद्रव्यांनी वर्तनादिपर्यायोरूप काळ अजीव गणाय छे. ए रीते काळद्रव्य जीवाजीवछे, तोपण जीषद्रव्य करतां अजीवद्रव्य अनंत गुण होवाथी बहुलतानी अपेक्षाए काळने सामान्यतः अजीव गणेल ई. ( इति लोकप्रकाशे भगवत्यर्थः ) पुनः आ नेधयिककाल लोकालोकव्याप्त छ. अने आगळ १३मी गाथामां कहेवाती व्यावहारिक काल २॥ द्वीप मात्रमांज छे, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः॥ अने नवापणुं मटीने जूनापणुं थवारूप परावृत्ति ते पर्याय' कहेवाय. कारणके कोइपण द्रव्य सदाकाल जून के नवु रहेतुं नथी. अहिं नवुएटले मेलविनानु चोख्खं एवो अर्थ नहिं, पण नवं एटले अभिनव ( नवा ) पर्यायोनी उत्पतिवाळ एवो अर्थ करवो. काललोकमां का छे के "द्रव्याणां या परिणतिः, प्रयोगवित्रसादिजा । नवत्व. जीर्णताया च, परिणामः स कीर्तितः॥१॥इति, अथवा परिणाम एटले द्रव्यनो अथवा द्रव्यना गुणनो जे स्वभाव ते परिणाम, कथु छे के"धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां स्वभावः स्वतत्वं परिणामः" इति तत्वार्थभाष्यवचनात, ते परिणाम सादिपरिणाम अने अनादि परिणाम एम बे प्रकारे छे, त्यां धर्मा० अधर्मा आआकाशा० अने जीव ए चार अरूपी पदार्थ अनादि परिणाम वाळा छ, अर्थात् ए. द्रव्योना गतिसाहाय्यकत्वादि स्वभाव अनादि अनन्त काळ परिगतिवाला छे, अने पुद्गल द्रव्य सादि परिणामी छे, कारणके पुद्गलनो स्पशपरिणाम--रसपरिणाम वगेरे सर्व परावृत्ति धर्मवाला छे. अहीं अपवाद ए छे के सर्व जीवमा जो के जीवत्वादि अनादि परिणामी छे. परन्तु योग अने उपयोग ए बे ( परावृत्ति धर्मवाला होवाथी) आदि परिणामि छे. इति तत्वार्थभाष्यानुसारेण ३ क्रियापर्याय-द्रव्योनी भूतकाळमां थयेली, भविष्यकाळमा थवानी अने वर्तमान काळमां थती जे चेष्टा ते क्रियापर्याय. ए अर्थ श्री काल लोकप्रकाशनो छे, अने तत्वार्थ भाष्यमां तो "क्रिया गतिः । सा त्रिविधा । प्रयोगगतिवित्र सागतिमिश्रिमति." क्रिया एटले गति ते त्रण प्रकारे छे, प्रयोगगति (परना प्रयत्नथी उत्पन्न थयेली गति ). विश्रसागति (.स्वभाव उत्पन्न थपेलो गति .)--अने मिश्रगति ( उभयथी उत्पन्न थएली गति ) एवो अर्थ छे, त्यां गनि एटले द्रव्योनुं स्वस्वप्रवृत्तिमां गमन ए अर्थ लेवाथी प्रथमना Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे कालस्वरूपविवेचनम् ॥ (१११) अर्थ साथे अविरोधि रहे. ४-५ परात्वाऽपरत्त्व पर्याय-जेना आश्रयथी द्रव्यमा पूर्वभावित्व अने पश्चाद्भावीनो व्यपदेश थाय ते परापरत्व पर्याय ३ प्रकारनी छ. ते आ प्रमाणे-धर्म अथवा ज्ञान “पर" ( श्रेष्ठ ) छे, ने अधर्म नथा अज्ञान "अपर"(हीन) छे ए व्यपदेश प्रशंसाकृत परापरत्व कहेवाय, १ तथा एकज दिशामां एकी वखते रहेल बे पदार्थमां जे पदार्थ दूर होय ते पर अने नजीक होय ते अपर, एवो जे व्यपदेश तेक्षेत्रकृत पराऽपरत्व कहेवाय.२तथा १६ वर्षनी स्थितिवाळा द्रव्यथी १००वर्षनी स्थितिवाळु द्रव्य पर(उत्कृष्ट), अने १००वर्षनी अपेक्षाए १६ वर्षनी स्थितिवाळु द्रव्य अपर, (जघन्य),एवो जे व्यपदेश, ते का. लकृत परापरत्व कहेवाय ३(अहिं बे पर्यायनो संबंध एकत्र कहेल छे.) प. प्रमाणे वर्तनादि ५ पर्यायो ते काळनोज उपकार छे. "वर्तना प. रिणामः क्रिया परत्वाऽपरत्वे च कालस्य'(इति तत्त्वा० अ०५ सू०). परन्तु परत्वापरत्वमा प्रशंसाकृत अने क्षेत्रकृत एबे भेद काळ द्रव्यना उपकारथी नथी, एम जाणवू "नदेवं प्रशंसाक्षेत्रकृते परत्वाऽपरत्वे वर्जयित्वा वर्तनादीनि कालकृतानि कालस्योपकार"[इतितत्वा०भा०]. __अथवा वर्तमान एक समय ते (ऋजुमूत्रनयनी अपेक्षाए) नैश्वयिक काळ कहेवाय, कारणके वर्तमान समय विद्यमान छे, अने भूतकाळ व्यतीत थाल होवाथी, भविष्य काळ आवेलो नहिं होवाथी बन्ने अविद्यमान है. माटे जे विद्यमान वर्तमान काळ ते नैश्रयिक काळ एम पण कही शकाय. काल लोकप्रकाशमां कह्यु छे के “वर्तमानः पुनर्वर्न-मानैकसमयात्मकः । असौ नैश्चयिकः सर्वोs. (यन्यस्त व्यावहारिकः ।।१॥" ए प्रमाणे निश्चयकाळनु स्वरूप कयु, व्यावहारिक कालन म्वरूप चाल प्रकरणनी १३ मी गाथानां विवेचनमां कहवाशे. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) ॥.श्री नवतत्वविस्तरार्थः॥ - ॥ व्यवहारिक काळy स्वरूप. ॥ • आगल "समयावलि मुहुत्ता" ए गाथामां कहेवाशे ॥३४॥ .. ॥स्कंध, ॥ . कोइपण पदार्थनो आखो भाग के जे अनेक अणु 'मलीने थयो होय ते ते पदार्थनो स्कंध कहेवाय. जेम अखंडमोती, अखंड मोदक, अखंड पत्थर ए सर्वतुं अखंड पणु स्कंध कहेवाय. तेम चौदराज प्रमाण बज्राकार धर्मास्तिकाय ते धर्मास्तिकाय स्कंध, ए प्रमाणे चौदराज प्रमाण बज्राकार अधर्मा० ते अधर्मा० स्कंध, अनंत योजन प्रमाण आकाश नो गोलो ते आकाशा० स्कंध, ( लघुमां लघु अंगुलना असंख्योतमा भाग जेवडो अने वधुमां वधु १४ राज प्रमाण मोटो असंख्य प्रदेशात्मक एक जीव ते जीवस्कंध,(अजीवना प्रकरणमां जीवस्कंधनु प्रयोजन नथी तो पण प्रसंगतः जीबद्रव्यमां पण स्कंधत्वप्राप्ति दर्शाववाने अहिं कहेल छे.)एक आकाश प्रदेश बे आकाश प्रदेश त्रण आकाश प्रदेश, यावत् असंख्य आकाश प्रदेश ( १४. राज प्रमाण ) जेवडा द्विप्रदेशी बे परमाणुनो बनेलो, त्रिप्रदेशी, चतुः प्रदेशी यावत् अनंत प्रदेशी पुट्ठल विभागो पुद्गल स्कंध कहेवाय. १ जो " आखो भाग " ते स्कंध एम कहेवामां अवे तो परमाणुने पण स्कंध कहेवा पडे ते अनिष्ट छ माटे " अनेक अणुमलीने '' एम का छे. २ स्कन्दन्ते-शुष्यन्ति पुद्गल विचट ने न. धीयन्ते-पृष्यन्ति च पुद्गलचटनेने ति स्कन्धाः ' आ व्युत्पत्तिथी पुद्गलनु भरा अने विखरावं जे मां थाय ते स्कन्ध कहे वाय छे. माटेज प्राचीन महापुरुषोये धर्मास्तिकायादि शाश्वत द्रव्योमा सकन्ध व्यवहार मान्यो नथी. केटाक माने हे ते अपेक्षाये व्याख्यान. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्रं स्कन्धस्वरूप विवेचनम्, ॥ ( ११३ ) पुनः जे पुलनो प्रथम आखो भाग कल्पेलो होय तेमांथी कं इक विभाग छतां पण ते विभागने जो स्कंध तरीके गणवों होय तो गणी शकाय. जेम आखं वृक्ष ए रकंब छे, परन्तु तेमां मूपत्र या थंड रत्यादि अवयवोने दरेकने स्कंध तरीके गणना होयतो गणी शकाय पुनः थंड स्वयमांथी कापीने एक स्तंभ बनाव्यो होय तो ते स्तंभ पण स्कंध कही शकाय, अथवा पर्वतमाथी तूट पडेली मोठी शिला कंप करवाय पुनः ते शिलामां तूटो पडेला पथर पण स्कंध कही शकाय, ए प्रमाणे द्रव्यम अमुक कल्पेला स्कंधमां छूटा पडेला या संबंध करी रहेला द्विप्रदेश सुधीना विभागने पण स्कंध कही शकाय, कारणके पुलद्रव्यम कंप अने देशनो व्यपदेश परस्पर अपेक्षा वाळो होवाथी अनियमित है. संबद्ध होय त्यां सुधी कल्पित अमुक भागने देश मानको एज उचित है. ॥. देश. ॥ art अपेक्षाए ( तेज स्कंधमांनो जे न्यून विभाग ते देश कहवाय. देश--खंड - विभाग इत्यादि देशना एकार्थदर्शक शब्दो छे. जेम आखा मोतीमांगी कोइ विभाग तुटी गयो होय तो ते मोती प्रथमना आखा मोतीनी अपेक्षाए मोतीनो देश, भाग काढी लीघो होय तो बाकी रहेलो मोदक प्रथमना आखा मोदकनी अपेक्षाए देश (भाग) कहेवाय, अथवा जुटेलो पत्थर ते प्रथमना अखंड पत्थरनी अपेक्षाए देश विभाग कहेवाय. ए प्रमाणे जे त्रुटवाथी बनेलो देश ते saras देश कहेवाय अने स्कंधमाथी कोडपण बिभाग खंडित थयाविना ते स्कंधमा पोणो भाग अर्धी भाग इत्यादि. कल्पना करी तो तेat स्कंध प्रतिवद्ध कल्पित विभाग तेने Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः॥ 'प्रतिबद्ध देश कहेवामां आवे छे. आ देश विभागनो व्यपदेश ए. क प्रदेशन्यून अनंत प्रदेशथी मांडीने यावत् द्विप्रदेशी विभाग मुधी थई शके, २ अने ते व्यपदंश अनंत प्रदेशात्मक संपूर्ण स्कंधथी मांडीने यावत् त्रिप्रदेशी स्कंध सुधीना सर्व स्कंधोमां थइ शके, परन्तुं द्विपदेशी स्कंधमां देश विभाग होइ शके नहिं, कारण ए स्कधनो विभाग करवां जतां वन्ने विभागो छटा थायतो बे परमाणु कहेवाय अने संलग्न होय तो द्रिप्रदेशी स्कंध अथवा बे प्रदेशो कहे वाय, पण देशविभाग कोइ रीते न कहेवाय. धर्मादि द्रव्योमा देश विभाग रूप भेद आ प्रमाणे छे. . श्री नवतत्त्वभाष्यमा ३१मी.गाथानी वृत्तीमां का छ. के "वळी देश एटले मविभाग भाग ते तेनोज पटले धर्मास्तिकायनी विवक्षावडे एटले बक्तानी इच्छावटे अर्धादि एटले अ. धं त्रिभाग अने चतुर्भाग इत्यादि थाय छे ” छ द्रव्योना जुदा जुदा देश विभाग गणवामां उपयोगी होवाथी अप्रतिबद्ध देश अने प्रतिबद्ध देश ए बे भेद ग्रंथ लेखकना अभिप्रायथी थयेला छे, कारण के धर्मास्तिकायादि अखंड द्रव्योमां खंडरूप देश विभागने प्रतिबद्ध देश तरीके, खंडित थता पुद्गलद्रव्यमां थता विभागीने अप्रतिबद्ध देश तरीके जणाक्वानी जरुर छे. पुनः पुद्गलद्रव्योमा बन्ने प्रकारनां देश पण होय छे, २ जेम एक प्रदेशन्यून धर्मा० थी मांडीने द्विप्रदेशावगाही धर्मा० विभाग सुधीना सर्व विभागो धर्मा० देश तरीके गणाय. जेम १० प्रदेशीस्कंधमां नवप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, सतप्र. देशी षट्प्रदेशी, पंचप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, अने द्विप्र. देशी ए ८ देश विभाग कहेवाय तथा १० प्रदेशविभाग, अने १ स्कंध कहेवाय. ३ एक प्रदेशन्यूनरूप धर्मा० विभाग संपूर्ण धर्मा० . नी अपेक्षाए देश छे. अने त्रिप्रदेशी पुद्गल स्कंधमां द्विप्रदे Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वेदेशप्रदेशवर्णनम् ॥ (११५.), धर्मास्तिकाय जो के अखंड द्रव्य छे, एनो विभाग जुदो पड़ी शकतो नथो तो पण संपूर्ण धर्मास्ति नी अपेक्षाए एक प्रदेश न्यूनधर्मा०, द्विपदेशन्यून धर्मा० यावत् द्विपदेशीधर्मा० सुधीना असंख्य विभागो कल्पी शकाय छे, ए हेतुथी प्रतिबद्ध देशनी अपेक्षाए धमास्तिकाय ' देश कही शकाय छे. ए प्रमाणे अधर्मा० देश-आ. काशा० देश.--अने ( आ अजीव प्रकरणमा अनुपयोगी छे तो पण ) जोव देश पण धर्मा० देशवत् जाणवा. तथा अनादि अनंत पुद्गल स्कंधो [ मेरु -शाश्वतमंदिर--शाश्वत प्रतिमा वगेरे ] पण प्रतिबद्धदेश वाळा छे, अने शेष अशाश्वत ( क्षणभंगुरबिनाशी) पुद्गलस्कंधो प्रतिबद्धदेश तथा अप्रतिबद्धदेश बाळा जाणवा. कारणके विभाग धर्मयुक्त पुद्गल स्कंधमाथी पण ज्यां सुधी विभाग जुदो नथी थयो ते दरम्यानमां पण धर्मास्ति० देशवत् देश पणानी कल्पना थइ शके छे. वास्तविकदेश व्यपदेश स्कंधमा बुद्धिथी कल्पि त विभागने मानवो तेज उचित छे. .प्रदेश, स्कंधमा लागेलो जे परमाणु ते प्रदेश कहेवाय. प्र० उत्कृष्ट देश--विभाग ते प्रदेश. अर्थात् अति उत्कृष्ट विभाग ते प्रदेश, कारणके प्रदेशथी परमन्यून विभाग कोइ पण नथी. छेल्लामा छेल्लो विभाग तेज प्रदेश छे. पुनः प्रदेश करतां नानो विभाग आ जगतमा कोइ नथी. ए हेतुथी अतिनानामां नाना विभाग ते प्रदेश कहेवाय, के जे विभाग एक परमाणु मात्र कदनोज छे. त्यां धर्मा जेम आकाश द्रव्य अखंड होते पण घटाकाश पटा. काश इत्यादि खंड आकाशनो व्यपदेश थाय छे, तेम अत्र प. ण धर्मास्तिकाय अखंड द्रव्यनो घटधर्मास्तिकाय व्यपदेश थ. र शके ने ते घटधर्मास्तिकाय सं धर्मास्ति नो देश कहेवाय, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) ॥ श्री नवतस्वविस्तरार्थः ॥ स्तिकायना असंख्य अणुओ पिंडित थइने स्कंधरूपे अनादिकाळथी. परिणमेला होवाथी धर्मा०ना सर्व अणुओ ( प्रत्येक अणु ) धर्मा० नो प्रदेश कहेवाय छे. ए प्रमाणे अधर्मा० प्रदेश, 'आकाशा प्रदेश अने जोवप्रदेश पण कहेवाय के. तथा विदेशी स्कंधथो अनंत 'प्रदेशी पुल रोमां लागेला सर्व अणु (परमाणु) पुद्गल प्रदेश कहेवाय छे. ॥ परमाणु ॥ स्कंधने नहिं वळगेको एवो जे छटो अणु ते परमाणु कहेवाय. ''परम' उत्कृष्ट, 'अणु' - अणु ते परमाणु त्यां धर्मास्तिकायना सर्व अ ga riani वळला होवाथी धर्मास्तिकायनो परमाणु नथी, अने तेबीज रीते अथर्मा वगेरे ३ द्रव्यना ( अधर्मा० - आकाशअने जीव द्रव्यना) अणुओ पण अनादि अनन्त काळ सुधी स्कंधमां वळला होवाथी ए ३ द्रव्यना परमाणु नथी. अने पुद्गल द्रव्य तो वास्तविक रीते परमाणु छे. अने स्कंन, देश, अने प्रदेश ए तो पुद्गल परमाणुना विकाररूप छे, कारणके ६ द्रव्यमां जीव अने पु द्रव्य विभावस्वभावी छे, त्यां जीवना देवत्व नरत्वादि अने पुलना स्वादि विभावस्वभाव है, माटे तची तो परमाणु एज पुल छे, अने स्कंधादि तो उपचारथी ( व्यवहारथी ) पुनलव्यपदेशवाळा छे. प्रश्नः - ६ द्रव्यमां धर्मास्तिकायादि द्रव्यना स्कंध देश अने देश गया अने काळद्रव्यना कंवादिनी गणत्री केम न करी ? १. पर्मा० अधम अने एक जीवना प्रदेश सरखी संख्याए असंख्यात ले. माटे प्रत्येकना असंख्य असंख्य प्रदेश जाणवा अने आकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी होवाथी आकाशना प्रदेश अनंन जाएगा. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ॥ अजीवतत्त्वे परमाणुस्वरूपविवेचनम् ॥ (११७) उत्तर-प्रथम कही गया मुजब काळ ए प्रदेश समुदायात्मक द्रव्य नथी पण पांच द्रव्योनी वर्तनादि पर्यायरूप गुणने उपचारथी काळद्रव्य गानेल छे तो पछी अणुरहित काळना किंधादि केम होइ शके, अने कामना प्रदेशो ( अणुओ) नहिं होवाधीज गाथामां पण काळ एकज द्रव्य भेदरूपे गणेल छे. अने शास्त्रकारी काळने अस्तिकाय-प्रदेशनो समूह नहि होवाथी कालाऽस्तिकाय कहेता नथी पण मात्र " काल ' ए शब्दथीज ओळखे छे. __शंका-प्रदेश अने परमाणुमां तफावत शुं ? 'उत्तर-प्रदेश अने परमाणुमा तफावत मात्र एटलोज छे के स्कंधने वळगेलो होय तो प्रदेश, अने स्कंधथी छूटो अणु होय तो परमाणु कहेवाय. . शंका-प्रदेश मोटो के परमाणु मोटो ? उत्तर-प्रदेश अने परमाणु बे सरखा कदनाज छे. किंचित् मात्र पण नाना मोटा नथी, तोपण स्कंध प्रतिवद्ध होवाथी प्रदेश अने छूटापणाने लइने परमाणु एवो व्यपदेश अवस्था भेदने अंगे छे. जेम कोइक कन्या पियरमां होयतो दीकरी अने तेज कन्या सासरे जायतो बहु बहेबाय छतां ते कायरामा कोइ जातनो तपा: वत मनातो नथी तेम छूटो अणु ते परमाणु अने स्कंध प्रतिबद्ध अ णु ते प्रदेश कहेवाय पण कद अथवा आकारमां कंइ तफावत पंडे नहिं. . . ए परमाणु अने प्रदेश बन्ने पुद्गल द्रव्यना निर्विभाज्य भाग छे, एटले ए परमाणु अथवा प्रदेशनावे विभाग न कापी शकाय, का. रण के पुद्गल द्रव्यनो अन्त्य विभाग तेज परमाणु के, बजोए परमाणु अति तीक्ष्ण शस्त्रथी छेदाय नहि, अग्निमांबळे नहि. पवनथी उडे नहि, जळथी भीजाय नहि, एवो अति मूक्ष्म छे, पुनः ए परमाणुनी गति (बच्चे पहाड पर्वनथी पश) कोइपी रोकाय नहिं एवो 'अप्रतिहत Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः॥ छ, अने एक आकाश प्रदेशमा अवगाही ( समाइ ) रहे छे. एवा दस बार पंदर पचीस सो हजार लाख के अवज सूक्ष्म परमाणुओं भेगा मळे तो पण दृष्टिगोचर थाय नहिं, एथी पण वधु संख्यात के असंख्यात--अनन्त परमाणुओ भेगां मळतां पण दृष्टिगोचर थाय नहिं परन्तु ज्यारे अमुक प्रमाणमां घणा अनंत बादर परिणामी परमाणु भेगा मळे तोज दृष्टिगोचर थइ शके एवा अतिसूक्ष्म परमाणु होय छे. जाळीआना तेजमां उडता रजकणमां, अने एक वालाग्रमां पण अनंत परमाणुओ रहेला छे. इत्यादि परमाणुन विस्तृत स्वरूप ग्रन्थान्तरथी जाणवा योग्य छे. १ पर्वत-जळ-अग्नि इत्यादिवडे परमाणु अप्रतिघाती छे परन्तु ३ प्रकारे प्रतिघाती पण छे. त्यां विमात्रस्निग्धरुक्षत्वबडे परमाणुनो अन्य परमाणु साथे संबंध थवाथी बन्धनपरिणामप्रतिघाती, अलोकमां धर्मास्तिकाय नहिं होवाना कारणे लोकान्तथी आगळ धर्मास्तिकायनो. उपकार परमाणु उपर नहिं होवाथी परमाणु लोकने अन्ते जइ हणाय छे-अथडाय छे तेथी उपकाराभावप्रतिघाती, अने वेगथी ( विस्रसा परिणामे ) गति करता परमाणुने वेगवाळी गति. वडे सामो आवतो बीजी प. रमाणु अटकावे छे, ए हेतुथी परमाणु वेगप्रतिघाती छे. (ए. ३ प्रकारनो प्रतिघात तत्त्वार्थना ५ मा अध्यायना २६ मा सू. वनी वृत्तिमां कंह्यो छे. ) माटे एकज परमाणुमा प्रतिघातित्व, अने अप्रतिघातित्व बन्ने वर्ते छे तो पण स्थूळ नयथी परमाणु अप्रतिघाती कहेवाय. जेम शब्दादि पुद्गलो सामान्यपणे अप्रतिघाती होते छते वायु इत्यादिवडे प्रतिघात प्रत्यक्ष उपलब्ध थाय छे. तेम अपतिमाती एग्माणमा ए ३ कारे पनि पात संभवे रे. पुतः ने द्रयो अप्रतिघाती कद्यां ते ते एका न्ते अप्रतिघातीज एम नहिं परन्तु अमुक अमुक अपेक्षाए ते. ओमां प्रतिघात पण संभवे. * बादर परिणामी स्कंधोज घणा अनंतप्रमाणमां एकटा Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || अजीव कन्यादिसंवेधवर्णनम् || ॥ कया द्रव्या स्कंधादि भेद केलां ? | ( ११९ ) धर्मास्ति० (स्कंध ) - एक छे. धर्मास्ति० देश -- असंख्य छे. ( दरेक विभाग एकेक प्रदेश न्यून कल्पवाथी वे न्यून स्वप्रदेश संख्या प्रमाण. ) धर्मास्ति० प्रदेश - असंख्य छे, ने धर्मा० देशनी संख्याथी वे अधिक अधर्मास्ति (स्कंध ) - एक छे. अधर्मास्ति० देश- असंख्य छे. (२ न्यून स्वप्रदेश संख्या प्रमाण. ) अधर्मास्ति० प्रदेश - असंख्य है, ने अवर्मा० देशनी संख्याथी अधिक छे. आकाशास्ति० (स्कंध ) - एक है. आकाशास्ति० देश- अनंत ले. (२ न्यून स्वप्रदेश संख्या प्रमाण . ) आकाशास्ति० प्रदेश - अनंत है, ने आकाशा० देशनी संख्याथी वे अधिक है. जीवास्तिकाय ( स्कंध ) - अनंत छे ( जीव द्रव्य अनंत होवाथी. ) जीवास्तिकाय देश - एक जीवना देश ( बे न्यून स्वप्रदेश संख्या प्रमाण ) असंख्य, अने सर्व जीवना देश थाय तो दृष्टिगोचर थाय, अने सुक्ष्मपरिणामी स्कंधो तो गमे तेटली उत्कृष्ट संख्याए एकठा थाय अने चौदराजलोक जेवडुं कद थाय. तोपण दृष्टिगोचर न थाय. माटे परमाणुओं परमाणु अवस्थामां तो न सूक्ष्मपरिणामी के न बादर परिणामी छे, पण ज्यारे स्कंधरूपे परिणमे छे त्यारेज पूर्वोक्त बे रोते परिणमे छे, एम जाणवुं. १ धर्मा०दिष्टमां स्कन्ध व्यपदेशकल्पितले. वास्तविक नही. २ जेम पूर्वे १० प्रदेशी स्कंधना ८ देश विभाग या प्रमाणे Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः॥ मलीने अनंत छे. जीवास्तिकाय प्रदेश-एक जीवना असंख्य छ ( धर्मा० या अध. मा० प्रदेश संख्या जेटला.) सर्व जीवना प्रदेश मेळवतां अनंत छे. पुद्गल स्कंध-अनंत छे. पुद्गल देश-एक स्कंधमां एकथी मांडीने अनंत, ( जेमके त्रिप्रदेशी स्कंधमां ? देश होइ शके, चतुःप्रदेशी स्कंधमा २ देश होइ शके यावत् अनंत प्रदेशी स्कंधमां २ न्यून प्र. देश संख्या प्रमाण अनंत देश होइ शके ), ए प्रमाणे (प्रत्येक स्कंधमां गणतां ) सर्व स्कंधोना मळीने पण अनंत देश छे. . पुद्गल प्रदेश--अनंत छे. पुद्गल परमाणु-अनंत छे. काळ-( स्कंध--देशादि नथी पण ) समय अनंत छ. ए प्रमाणे संक्षेपथी अजीवना १४ भेदन स्वरूप कडं. अवतरण---पूर्व गाथामां अजीवना १४ भेद कहीने हवे आ गाथामां कया द्रव्य अजीव छ ? अने कया द्रव्यनो शुं स्वभाव छे ? ते दर्शावे छे. ॥ मूळ गाथा ९ मी. ॥ धम्माऽधम्मा पुग्गल, नह कालो पंच हुंति अज्जीवा । चलणसहावो धम्मो, थिरसंठाणो अहम्मो य ॥ ९॥ . ॥ संस्कृतानुवादः ॥ धर्माऽधौं पुद्गलानभः कालः पंच भवंत्यजीवाः । चलनस्वभावो धर्मः, स्थिरमंस्थानोऽधर्म ॥९॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे धर्मास्तिकायादिपञ्चपदार्थवर्णनम् ॥ (१२१) . ॥शब्दार्थः॥ धम्म-धर्माऽस्तिकाय. चलणसहावो-चालवामां सहाय अधम्मा-अधर्माऽस्तिकाय. आपवामां स्वभाववाळो. पुग्गल-पुद्गलास्तिकाय. धम्मो-धर्माऽस्तिकाय. नह-आकाशास्तिकाय. थिर-स्थिर रहेवामां (सहायआकालो-काळ. पवाना-इतिअध्याहार.) पंच-पांच (ए पांच ) संठाणो-स्वभाववाळो. हुँति-छे, अहम्मो-अधर्मास्तिकाय. अज्जीवा-अजीव. . । य-अने. गाथार्थ-धर्माऽस्तिकाय, अधर्माऽस्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अने काळ ए पांच ( पदार्थ) अजीव छे. त्यां जीव' अने पुद्गलने चालवामां सहाय आपवाना स्वभाववालो ध स्तिकाय छे, अने स्थिर रहेवामां सहाय आपवाना स्वभाववाळो अधर्माऽस्तिकाय छे. - विस्तरार्थ:-जीव अने पुद्गलने गति करवामां, सहाय करनार अथवा अपेक्षा कारणरूप जे द्रव्य ते धर्मास्तिकाय. जीव अने पुद्गलने स्थिर थवामां अपेक्षा कारणरूप ( अथवा सहाय करनार ) जे द्रव्य ते अधर्माऽस्तिकाय. शंकाजीव अने पुद्गलमां गतिक्रिया करवानी अने स्थिर थवानी शक्ति शुं नथी के जेथी धर्माऽस्तिकाय अने अधर्मा० द्रव्यथीज गतिक्रिया करी शके अने स्थिर थइ शके ? १ आगळ १० मी गाथाना बीजा चरणमां कहेल “ पुग्गलजोवाण” ए पाठनी अनुवृत्ति अहिं आवे छे. जेथी आ गाथामां नहिं कह्या छतां पण " जीव अने पुद्गलने " ए अर्थ करवो जोडए. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः॥ उत्तर--हे जिज्ञासु ! धर्माऽस्तिकाय द्रव्य जीव अने पुद्गलने पाछळथी धक्को दइने अथवा आगळ्यी खेचीने गतिक्रिया करावतुं नथी पण जीव अने पुद्गल पोतेज गतिक्रिया करवा समर्थ छे, छतां पक्षीने उडवामां जेम वायु, मत्स्यने तरवामां जेम जळ, अने चक्षुने देखवामां जे सूर्यादिनो प्रकाश अपेक्षा कारणरूप छे. तेम धर्मास्ति० पण जीव-पगलनी गतिमां अपेक्षा कारणरूप छे. कारण ४ प्रकारनां छे, उपादान कारण-अपेक्षाकारण-निमित्तकारण अने- असाधारण कारण. तेमां घट बनाववामां कुंभार कर्ता छे त्यां मृत्तिका (माटी) ए घट रचनामां उपादान कारण, दंड चक्रादि निमित्त कारण.चक्र भ्रमण(चाकडानु भमp.)असाधारणकारण, अने आकाशादि जेम अपेक्षा कारण छे; तेम जीवपुद्गल ने गतिक्रिया करवामां अने स्थिर थवामां अनुक्रमे धर्मा० अने अधर्मा० द्रव्य अपेक्षा का. रणरूप छे.बीजु अधिक विवेचन पूर्व गाथामां दर्शाव्यु छे. तथा पूरण ( पूरावु-मळवू ) अने गलन (गळवू-झरवु-विखर-छूटा पडवू) धर्मयुक्त जे पदार्थ ते पुद्गल द्रव्य कहेवाय. अहि परमाणु एज पुद्गल द्रव्य छे. ए परमाणुनो स्कंधरूपे मलवा योग्य, अने स्कंधथी विखरवा-छूटा पडवारूप धर्म होवाथी परमाणु ते पुद्गल कहेवाय छे. दरेक परमाणु मलबा अने विखरवाना धर्मवाळो छ, परमाणुओ ज्यारे परस्पर मळे छे त्यारे स्कंध बने छे, अने छूटा पडे छे त्यारे पुनः परमाणुज रहे छे. ए प्रमाणे परमाणुओ वारंवार द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, यावत् अनंत प्रदेशी स्कंधरूपे परिणमे छे ( मके छे ), अने ते स्कंधोथी छूटा पण पडे छे, त्यां कोइ पण एक परमाणु जघन्यथी १ समय अने उत्कृष्टथी असंख्य समय सुधी परमाणुरूपे छूटो रहे छे, तदनंतर अवश्य स्कंधपणे परिणमे छे. ए परमाणुनो जघन्य उत्कृष्ट काळ कह्यो. पुनः ए परमाणु ज्यारे स्वरमां Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतचे धर्मास्तिकायादिपञ्चपदार्थवर्णनम् ॥ (१२३) लागे छे त्यारे " प्रदेश" एवी संज्ञाथी ओळखाय छे. पुनः परमाणुओथो बनेला स्कंध-देश-अने प्रदेशरूप विकारो पण पुद्गलज कहेवाय छे. पुद्गलमा १० प्रकारना परिणाम (धर्म) रह्या छे ते 'सइंधयार उज्जो' गाथानां विवेचनमां कहेवाशे. धर्माऽस्तिकायादि ४ द्रव्योने अवकाश (जग्या ) आपनार जे पदार्थ ते आकाशाऽस्तिकाय, अहिं काळ प्रथम कह्या मुजब औपचारिक द्रव्य होवाथी, अने आकाश स्वयं बीजाने अवकाश आपनार होवाथी आकाशद्रव्य शेष ४ द्रव्योनेन अवकाश आपवामां उपकारी छे बीजु अधिक वर्णन पूर्व गाथाना विवेचनमां दर्शाव्यु छे. पांचे द्रव्योनुं जे वर्तनादि लक्षण ते (नैश्चयिक ) काळ जेनुं स्वरूप पूर्व गाथाना अने १३मी गाथाना विवेचनमां दर्शाव्युं छे. अने व्यवहारकाळनुं स्वरूप समयावलिमुहुत्ता'ए गाथामां दर्शावाशे. ए पूर्वोक्त धर्मा०-अधर्मा०-पुद्गल--आकाशा०--अने काळ ए पांच द्रव्य अजीव छे. हवे ए पांचे अजीव द्रव्यनां लक्षण ग्रंथकार गाथाद्वारा दर्शावे छे के 'चलणसहावो' चलन स्वभाव युक्त एटले चालताने सहाय करवाना स्वभावयुक्त 'धम्मो'-धर्माऽस्तिकाय छे, अने 'थिरसंठाणो'--स्थिर संस्थानवाळो अर्थात् स्थिर रहेनारने सहाय आपवाना संस्थान स्वभाववाळो अहम्मो'-अधर्माऽस्तिकाय छे. अवतरण---पूर्व गाथामां धर्मास्ति० अने अधर्मा०नो स्वभाव कहीने हवे आ गाथामां आकाशास्तिकायनो स्वभाव अने पुद्गळ्ना चार प्रकार कहे छे. ॥ मूळ गाथा.१० मी. ॥ अवगाहो आगासं, पुग्गलजोवाण पुग्गला चउहा । खंधा देसपएसा, परमाणू चेव नायव्वा ॥ १० ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) ॥ श्री नवतचविस्तरार्थः ।। - .. ॥ संस्कृतानुवादः ॥ अवकाश आकाशं, पुद्गलजीवानां पुद्गलाश्चतुर्धा । स्कंधा देशप्रदेशाः, परमाणवश्चैव ज्ञातव्याः॥१०॥ ५ ॥ शब्दार्थः ॥ अवगाहो अवकाश (जन्या) खंधा-स्कन्ध (आखो भाग.) • अवकाश आपवाना स्व. देस-देश ( न्यूनविभाग.) ___भाववालो. ... परसा-प्रदेश ( स्कंधप्रतिबद्ध आगासं-आकाशास्तिकाय.. . अणु.) पुग्गल-पुद्गलोने (अने) . परमाणु-मूक्ष्म अणु ( स्कंधथी जीवाणं-जीवोने. . . छटो अणु) पुग्गला-पुद्गलो. चेव--निश्चय. चउहा- चार प्रकारना. नायवा-जाणवा. . गाथार्थः-पुद्गल अने जीवोने ( अध्याहारथी धर्मा अंधर्मा० कायने पण । अवकाश ( जग्या ) आपवाना स्वभाववाको आकाशास्तिकाय छ पुद्गलो चार प्रकारना छे, ते चार प्रकार निश्चयथी स्कंध-देश--प्रदेश--अने परमाणु जाणवा. १ आ गाथामां कहेल पुग्गलजीवाण ए. पाठनी अनुवृत्ति पूर्व गाथामां गयेली होवाथी त्यां कहेल धर्मा० अने अधर्मा ने आश्रयी 'पुग्गलजीवाण' ( एटले पुल अने जीव ) प. अर्थ घटी शके छे. परन्तु आकाशना मंबंधमां तो धर्मास्तिकायादि चारे द्रव्यरूप अथ लेवो योग्य छे.. ___ शंका--जो एम होयतो गाथामां 'पुग्गलजीवाण' मात्रज पाठ केम कधी? . उत्तर-धर्मा० अधर्मा० अने आकाश गवणं द्रव्यना स्वभावनु समानाधिकरण ( अणंना स्वभावनी ग्राहकता ) जीय अने पुद्गलमांज छे, मार्ट वणे द्रव्यना समानाधिकरणनी अपे आए गाथामा पुरटल जीवाण ॥ पाट पग योग्यजन्हे. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्व पुद्गलद्रव्यविवचनम् ॥ (१२५) विस्तरार्थ:-पुद्गलने अने जीवोने तथा अध्याहारथी धर्मा० अधर्मा ने अवकाश (जग्या) आपवानो स्वभाव आकाश द्रव्यनो छ. ए आकाशद्रव्यना अभाव धर्मास्तिकायादिनु अवस्थान अशक्य छे. इत्यादि विशेष वर्णन गतगाथाना विवेचनमां आवी गयु छे. तथा पुद्गलद्रव्यना स्कंध-देश-प्रदेश-अने परमाणु ए चार भेद के. जे प्रथम विस्तरार्थमां कहेवाइ गया छे, अने शेष धर्मास्तिकायादिना त्रण प्रण भेद तथा काळनो एक भेद गाथाद्वारा कहेलो छ, जेथी सर्व मली अजीवना १४ भेद संपूर्ण थया. __शंका-कया द्रव्यनो कयो स्वभाव ? ते कहेवाने प्रारंभ करतां त्रण व्यना स्वभाव कह्या अने अत्रे पुद्गल द्रव्यनो स्वभाव कहेवानो प्रसंग के छतां पुद्गलना भेद केम कह्या? उत्तर-पुद्गलनो स्वभाव स इंधयारउज्जोए गाथामां आगळज कहेवानो छ, अने ते शब्दादि पुद्गलस्वभावो स्कंध रूप छ अने पुद्गलतो वास्तविकरीते परमाणु रूप छे, तेथी परमाणुरूप पुद्गलना स्कंधरूप शब्दादि स्वभाव केम होइ शके ? ए शंकानो अवकाश टालयाने अर्थे आ गाथामां पुद्गलना चार भेद कहेवावडे कंध देश प्रदेश अने परमाणु ए चारे पुद्गल प्रकारज छ एम जणाव्यु. ने योग्य है. ए पुद्गल द्रव्य मात्र लोकाकाशमांज सर्वत्र रहेल छे, पुनः पु. द्गलना स्कंधो दिप्रदेशीथी मांडीने अनंतप्रदेशी सुधीना स्कंधों १४ राजलोकमां सवत्र छे. त्या पुद्गलनो जघन्य स्कंध बे परमा नो मलीन बने छे. स्कंध बनवानुं मुख्य कारण परमाणुमा रहेलो स्निग्धता अने रक्षता छे, (स्निग्धरुक्षत्वाद्वन्धः' इति तत्वा० वचनात ). ते स्निग्धता अने रुक्षता पण परस्पर वे विगैरे अंश जेटली अधिक होय ताज में परमाणुनो परस्पर संबन्ध शाय छे. जेमक Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६) ॥ श्री नवतच्चविस्तरार्थः ॥ ५ अंश स्निग्ध परमाणु साथे ७ अंश स्निग्ध अथवा रुक्ष परमाणुनो संबन्ध थाय, (द्वयधिकादिगुणानां तु' इति तत्वा० वचनात् ). ए प्रमाणे शेष सर्वपुग़लस्कंधोनी उत्पत्ति जाणवी, अने स्कंधनो उ. त्पत्ति थतां तेना देशादि ( देश-अने प्रदेश ) नी उत्पत्ति तो सापेक्ष होवाथी सहज छे, पुनः ए संबन्धी केटलुक विवेचन अजीवना १४ भेदवाळी धम्माऽधम्माऽऽगासाए गाथाना विस्तरार्थमां कहेवाइ गयुं छे ने वधु जिज्ञासुए ग्रन्थान्तरथी जाणवं. अवतरण--पूर्वगाथामां पुद्गलना ४ प्रकार कहीने हवे आ गाथामां पुद्गलनां लक्षण (स्वभाव-धर्म-गुण)कया कया? ते दर्शावे छे ॥ मूळ गाथा ११ मी ॥ सबंधयारउज्जोअ, पभाछायातवेहि आ। वण्ण गंध रसा फासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥११॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ शब्दान्धकारावुद्योतः, प्रभाछायातपैश्च । वर्णों गंधो रसः स्पर्शः, पुद्गलानां तु लक्षणं ।। ११ ।। ॥ शब्दार्थः ॥ सद्द-शब्द वण्ण--वर्ण (रंग) अंधयार-अंधकार उज्जोध-उद्योत रसा-रस पभा-प्रभा फासा-स्पर्श छाया-छाया पुग्गलाणं-पुद्गलोनां आतवेहि-आतप ( तडका )वडे तु-वळी आ-अने | लक्खणं-लक्षण(स्वभाव) धर्म-गुण गथार्थः-शब्द, अन्धकार, चंद्रादिकनो ठंडो प्रकाश, प्रभा गंध-गंध Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे शब्दादिस्वरूपवर्णनम् ॥ (१२७ ) छाया ( प्रतिबिंध )-आतप ( गरम प्रकाश ) तडको आ वस्तुओए करीने पुद्गलो ओळखाय छे. अने वर्ण गंध, रस अने स्पर्श ए पुद्गलोनां लक्षण (-धर्म-गुण ) छे. विस्तरार्थः-गाथामां कहेला शब्दादि ए पुद्गलना परिणामो छ, कारणके. पुद्गलमाथी उत्पन्न थाय छ, अने शब्दादि जाते पण पुद्गल छे, जेमके शब्द ए पोते पुद्गलात्मक छे. हवे ते शब्दादिकनुं किंचित् स्वरूप आ प्रमाणे छे. ॥ शब्दभेदो.॥ शब्द एटले अवाज, वनि, नाद इत्यादि. शब्द सचित्त अचित्त अने मिश्र एम ३ प्रकारनो छे. त्यां जीवनो मुखद्वारा उचारातो जे शब्द ते सचित्तशब्द, बे पत्थर अफलावाथी उत्पन्न थयेलो ते अचित्त शब्द अने जीव प्रयत्नवडे वागता मृदंगादिकनो मिश्रा शब्द. अहिं मिश्र भेद व्यवहारमाथी छे, कारणके वास्तविकरीते तो मृदंगादिनो अचित्त शब्दज गणाय अथवा जीव प्रयत्नवडे वागती सर गाइ-भुङ्गल वगेरेनो मिश्रशब्द गणाय, अथवा शब्द शुभ अने अशुभ एम बे प्रकारे छे, त्यां कर्णने आनंदकारी शुभ शब्द,अने कर्णकटु अशुभशब्द कहेवाय;अथवा शब्द व्यक्त अने अव्यक्त एम २ प्रकारनो छे त्यां द्वीन्द्रियादिकनो अने पशु इत्यादिकनो शब्द स्पष्टअक्षरात्मक नहिं होवाथी अव्यक्तशब्द अने पोपट-मनुप्यादिकनो स्पष्ट अक्षरात्मक होवाथी व्यक्तशब्द कहेवाय. इत्यादि अनेक भेद स्वबुहिए यथार्थ विचारवा. ॥ शब्दनी उत्पत्ति.॥ शब्दनी उत्पत्ति अष्टस्पर्शी ( बादर परिणामी) पुद्गलस्कंधोथी छे. अने शब्द पोते चतुःस्पर्शी पुद्गलस्कंध छे अर्थात् अष्टस्पर्शी Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) ॥नवतत्त्व विस्तरार्थः॥ बादर परिणामी पुद्गलस्कंधमांथी नथापकारना जीव प्रयत्नवडे अथवा स्वभावतः ( ते अष्टस्पर्शी 'स्कंधमां कोइ विकार थवाथी) तदन्तर्वर्ती ( ते स्कंधावगाही ) भाषावर्गणायोग्य पुद्गलो शब्दपणे परिणमीने उछले छे, अने ते भाषावर्गणा चतुःस्पर्शी छे. पुनः ए शब्दनी उत्पत्ति जीव औदा०-वैक्रिय-ने आहा. ए. : त्रणदे. हद्वारा करे छे, परन्तु तैजस अने कार्मणादि कोइपण स्कंधमांथी शब्दोत्पत्ति थती नथी, पुनः जे पत्थरादि अजीव पदार्थमांथी शब्दोत्पत्ति थाय छे ते पण निर्जीव औदारिक देहथीज जाणवी ____ अहिं नैयायिको शब्दनी उत्पत्ति आकाशद्रव्यथी माने छे ते युक्तिपूर्वक नथी, कारणके अरूपी आकाशमांथी ' रूपी शब्दनी उत्पत्तिनो असंभव छे. माटे शब्द ए आकाशनो गुण नहिं पण पुद्गलनो परिणाम छे. पुनः शब्द जो पुद्गल पदार्थ न होय तो मूळ शब्द कूवामां भोयरामां के गुफा वगेरेमां अथडाइने तेनो प्रतिशभ-पडयो केम वागे ? माटे शब्दनो पडयो पडवाथी पण शब्द पु. द्गल परमाणुनो समुदाय छे, एम अनुमान थाय छे. ॥ अंधकार. ॥ - अंधकार ए पण पुद्गलनो विकार छ, अर्थात पुद्गलरूप छे. अन्यदर्शन [नैयायिकादि] अंधकारने पदार्थ रूप मानता नथी, पण "तेजनो अभाव ते अंधकार" एम माने छे. परन्तु जे चक्षुदृश्य कृष्णवर्णरूप जे अंधकार ते पुद्गलज. ॥ उद्योत.॥ . श्री विशेषावश्यकादिकमां त्रण देहथी भाषानी उत्प. त्ति प्रगट रीते कही छे, २ ७ मी गाथामां वचन प्राणना वर्णन .प्रसंगे शब्दन रूपी पणु स्फुटनोटमां दर्शावेलं छे. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे पुद्गलस्वरूपवर्णनम् ॥ (१२९) चंद्र-ग्रह-नक्षत्र-तारा-रत्न-आगीआ इत्यादिपदार्थोना तथा जीवोना शीतप्रकाश ते सर्व उद्योत कहेवाय छे, अने अनीनो उष्ण प्रकाश छे. तेथी “उद्योतमां" न गणी शकाय. ए उद्योत प्रकाश चंद्रादिकना विमानमांथी विमाननो प्रतिसमय निकलतो पुद्गलप्रवाह छे, जेम वर्तमानसमयमा ग्यासलाइट अने विजळी वगेरेना तेजनो परमाणुप्रवाह प्रत्यक्ष देखाय छे, तेम चंद्रादिकनो प्रकाशरूप परमाणुप्रवाह पण कंडक अव्यक्त छेतोपण किरणरूपे प्रत्यक्ष देखाय छे, अने प्रत्यक्ष देखातो होवाथी ते प्रकाश पुद्गलरूपज छे, अहिं सूर्यनोप्रकाश उद्योतना अर्थमां लीधो नथीं तेनुं कारणके ते आगळ " आतप" शब्दथी कहेवाशे. ॥प्रभा.॥ चंद्रादिकना अने सूर्यना प्रकाश किरणोमांथी निकलतोजे बीजो उपप्रकाश ते प्रभा कहेवाय, के जेनाथी अप्रकाशितस्थानमा रहेल घटादिपदार्थों पण देखी शकाय छे, अने ए प्रभा ते पण प्रकाश पुद्गलोमांथी विरल विरलपणे ( आछो-आछो ) वहेतो प्रकाश प्रबाह छे, परन्तु साक्षात् प्रकाशरूप नहिं होवाथी ए अव्यक्त प्रकाशने प्रभा शब्दथी ओळखी शकाय छे, प्रकाशमांथी विरल विरल पणे जो प्रभारूप पुद्गल प्रवाह न वहेतो होय तो प्रकाश पासे रहेला घटादिपदार्थों पण न देखी शकाय, जेथी सूर्यादिकनो किरणप्रकाअ ज्यां नथी पडतो तेवा घर विगेरे स्थानोमां रात्रिज होय, माटे प्रकाशमांथी पण बीजो उपप्रकाश वहे छे के जेथी घरमांपण अजवार्छ । पडे छे. ने उपप्रकाशन नाम प्रभा छे, पुनः अग्निना मूळ तेजने ५ण उपलक्षणथी प्रभामां अन्तर्गत गणवू एम संभवे छे. ॥छाया. ॥ प्रकाशमां, दर्पणमां, जळ वगेरे निर्मळ चीजोमां पडतुं पदार्थ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) ॥ नवतत्व विस्तरार्थः ॥ नु प्रतिबिंब ते छाया कहेवाय छे, सूर्यमांथी जेम किरणरूपे पुद्गलप्रवाह वहे छे, तेम दरेक बादरपरिणामो पुद्गलस्कंधमांथी पण प्रतिसमय तदाकार सूक्ष्मस्कंध समुदाय (जलना फुवारानी माफक) वह्या करे छे, ते प्रतिसमय बहेतो सूक्ष्मस्कंध समुदाय सूर्यादिनो प्र. काशरूप निमित्त पामीने कृष्णवर्णे एकत्र पिडित थाय छे. जेने लो. कमां "छाया पडी अथवा शीळ पडयु " कहे छे. अने ते वहतो मूक्ष्मस्कंधसमुदाय दर्पण, जलविगेरेमां निर्मलतार्नु निमित्त पामी साक्षात् तदाकाररूपे पिंडित थइ जाय छे, के जेने प्रतिबिंब कहेवामां आवे छे, माटे ए छायारूप प्रतिबिंव बादर परिणामी पुद्गलद्रव्यमांथी व्हेतो सूक्ष्मपुद्गलस्कंध समुदाय होवाथी पुद्गलरूप छे, अथवा प्रतिबिंवरूप थqए पुद्गलनो धर्म-गुण छे आ संवन्धि विशेषजाणवाना जिज्ञासुओए ' द्रव्यलोकप्रकाश' वगेरे ग्रंथो जोवा. ॥ आतप.॥ मूर्यना विमानमांथी आवतो जे उष्णप्रकाश ते आतप कहेवाय छ. सूर्य,विमान स्वतः शीत ले नोपण आगळ कहेवाता आतपनामकर्मना उदयवडे विमानमा रहेला पृथ्वीकाय जीवोनो प्रकाश उष्ण आवे छे, जेने " तडको?" अथवा " तावडो" कहेवामां आवे. ए तडको मूर्यनामे इन्द्रदेवनो नथी पण आतपनामकर्मोदयी चादर पृथ्वोकायना.पिंडरूप ( सूर्यना ) विमाननो छ. ए उष्णपकाश ने पृथ्वीकायिकजीवोना औदारिक शरीरमांथी पुद्गलना प्रवाहरूपे निकळतो होवाथी प्रकाश जेमांथी नीकळे छे ते पण पुद्गल, अने प्रकाश पोते पण पुद्गलज छे. प्रथम कही गथैल उद्योतनी प. डनि पण ए प्रमाणेज विचारवी. ॥वर्ण. ॥ वर्ण पटले रंग ते कृष्ण-काळो, नील-लीलो, रक्त-रातो, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे पुद्गललक्षणस्वरूपवर्णनम् ॥ (१३१) पीत-पीलो, अने श्वत-धोळो एम पांच प्रकारे छ. बीजा वादळीउदो-गुलाबी-इत्यादि रंग ए पांच मूळ रंगमांथी अमुक अमुक रंगना मीश्रणथी उत्पन्न थाय छे. माटे ए पांच सिवायना बीजा वण सर्व सान्निपातिक वर्ण जाणवा. वर्तमान विज्ञानीओ लाल-पीलो-अने वादळी ए त्रण प्रकारना मूळ वर्ण, अने बीना बधा मिश्रवण छे एम कहे छे, परन्तु सर्वज्ञोक्त मूळ वर्ण पांच छे, ए कृष्णादिवणे प्रत्येक एक गुण कृष्ण ( एक अंश काळो), द्विगुण कृष्ण (बे अंशकालो ), संख्यगुण कृष्ण असंख्यगुणकृष्ण अने अनन्त गुणकृष्ण इत्यादि तारतम्यभेदे अनन्त प्रकारना छे. तथा ए कृष्णा दिवर्ण परमाणु पुद्गलमां होय छे, त्यां एक परमाणुमां प्रगटपणे ए. कजवर्ण होय, अने सत्तापणे पांचवर्ण होय. पुनः जे परमाणु कृष्णवर्ण छे परमाणुनो कृष्णवर्ण पलटाइने रक्तादि कोइपग वर्ण (जघन्यथी १ समयमां अने उत्कृष्टथी असंख्य समयमां ) उत्पन्न थाय, ए प्रमाणे एक परमाणुमां पांचवर्ण अनुक्रमे पलटाइ पलटाइने आविर्भाव तिरोभावने ( प्रगटता अने प्रच्छन्नता) पामे छ. पुनः र कृष्णादि कोइएण वर्ण धर्मास्तिकायादि कोइपण द्रव्यमा होतो नथी परन्तु मात्र पुद्गलद्रव्यमांज होय छै माटे (चक्षुइन्द्रियना वि.. स्वाभाविक परमाणुओ प्रत्येकवर्णवाला छे अने ते प. रमाणुओ अतिशयज्ञानिओये दरेकमां भिन्न काले तथा अनेक मां समकाले पांचवर्णो देख्या छे. अने तेनाथी बनेला स्कन्धो जो एकेक वर्णनी प्रधानता होयतो व्यवहारे कृष्णादि एक व. र्णवाला अने अनेक वर्णोनी प्रधानता होयतो व्यवहारे चित्रादिवर्णवाला देखाय छे, पण निश्चयदृष्टिये अनन्तप्रदेशी स्कन्धो पांचे वर्णवाला होय छे. तेमज स्वभाविकपुद्गलोमां पांचन वर्ण छ बाकी कृत्रिम बनता वर्णाना अनेक भांगाओ पडे छे. नेया. यिक-वैशेषिक-बौद्ध समाम दर्शनकारो कृष्ण-शुक्ल-नील वर्णों ने निर्विवादपणे स्वीकारेछे वादळी ए कोइ भिन्नवर्ण नथी कृष्णनीज अमुक गुण तरतमताए वादळीपणे प्रतीति थाय छे लालपोळाना संयोगथी थता वर्णो मूलवर्ण जेवा कदापि बनी शकेज नहो एसर्व विचारथी वर्ण पांचज छे ते सिद्ध छे. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२) । श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः । षयरूप) ए कृष्णादि वर्ण परमाणु पुद्गलनो गुण छे, परन्तु कृष्णादि वणं पोते पुद्गल नथी, माटे वर्ण ए बुद्गलनुं गुणरूप लक्षण छे, ॥ गंध.॥ घाणेन्द्रियनो ( नाकनो ) जे विषय ते गंध सुगंध अने दुर्गधना भेदथी बे प्रकारे छे, ए सुगंध अथवा दुर्गंध धर्मास्तिकायादि कोइपण द्रव्यमां नहि परन्तु मात्र पुद्गलद्रव्यमांज होय छे, माटे गंध ए पुद्गलनु लक्षण अथवा पुद्गलनो गुण छ, पुनः एक परमाणुमां प्रगटपणे एकज गन्ध होय इत्यादि वर्णन वर्णना वर्णनने अनुसारे जाणव ॥रस.॥ जिव्हेन्द्रियनो-रसनेन्द्रियनो जे विषय ते रस ते तिक्त-'तीखो, कटु-कडवो, आम्ल-खाटो, कषाय-तूरो, अने मधुर-मिष्ट ए प्रमाणे ५ प्रकारनो छे. ए रस धर्मास्तिकायादि कोइपण द्रव्यमां नहिं परन्तु मात्र पुद्गलद्रव्यमांज होय छे माटे रस ए पुद्गलनु लक्षण छे. अने एक परमाणुमा प्रगट पणे एक रम होय इत्यादि वर्णन वर्णना वर्णनने अनुसारे जाणवं. ॥स्पश.॥ स्पर्शेन्द्रियनो जे विषय ते स्पर्श कहेवाय अने ते शीत-ठंडो, उष्ण-गरम, स्निग्ध-चिकणो, रुक्ष-लुखो, गुरु-मारी, लघु-हलको, मृदु-कोमळ, अने कर्कश-खडबचडो ए प्रमाणे आठ प्रकारनो छे. ए शीतादिस्पर्श धर्मास्तिकायादि कोइपण द्रव्यमां नहिं परन्तु मात्र पुद्गलद्रव्यमांज होवाथी स्पर्श ए पुद्गलनु लक्षण-गुण कहे १-२ केटलाएक, ग्रंथोमा तिक्त पटले कडवो अने के टु एटले तीखो एवी पण अथ आव छ, परन्तु विशेष वपगता अर्थ तिक्त तीखो इत्यादि ठीक छ पुनः मारवाडमां घणे ठेकाणे कडवा पदार्थ ने तीखा अने तीखा पदार्थ ने कडवोज कहे छ. ३ खारी रम मधुरमा अन्तर्गत थाय छे, अथवा पांच रममाथी मिश्रभावनो खारा रस . ( लवणी मधुरान्तर्गत इ. त्या. मर्गन इव्यपरे इति तत्वाः वृत्ति Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। अजोवनव धर्मास्तिकायादिपञ्चपदार्थवर्णनम् ॥ (१३३ ) वाय. . एक परमाणुमां जुदा जुदा समयने आश्रयी शीन-उष्ण-स्निग्ध-अने रुक्ष ए चार स्पर्श होय, अने एक परमाणुमां एक ममये तो शीत अने स्निग्ध, अथवा शीत अने रुक्ष, अथवा उष्ण अने स्निग्ध अथवा उष्ण अने रुक्ष ए चार प्रकारमाथी कोइपण प्रकारे वे ' स्पर्श होइ शके, अने आठ स्पर्शनो मात्र बादर परि. णामी स्कंधपांज होय. इत्यादि पुद्गलानां लक्षणोनुं किचित् स्वरूप कयु अवतरण-पूर्वगाथामां पुद्गलोनां धर्म कहेवाथी धर्मा०अधर्मा०-आकाशा-अने पुद्गल ए चार अजीवद्रव्यनां लक्षण कडेवाइ गया. अने हवे पांचमा(अजीवद्रव्य)काळना लक्षण कहेवाय छे. ॥ मूळगाथा १२ मी. ॥ १ ( अत्र च स्निग्धरुक्षशीतोष्णाश्चत्वार एवाणुषु मंभवन्ति, स्कंधेष्वष्टावपि यथासंभवमभिधानीयाः इति तत्वा० .. मा अध्यायना २३ मा सूत्रनी वृत्ति पुनः ५ मा अध्यायना २८ मा मत्रनी वृचिमां अष्टविधः स्पों भगवद्भिरुक्तः स्कन्धेषु यथामंभवं. परमाणुषु पुनश्चतुर्विधः स्पशी नान्यः स च शीतोष्णस्निग्धरूक्षाख्यः, तत्राप्येकपरमाणो परम्पराविरोधिद्वयं समस्ति इति.)पुनः बृहत् शतकमां तो लघु अने मृदु स्पर्श परमाणुमां अवस्थित(परावृत्ति पाम्या वीना रहेनारा)मान्या छे.जेथी एक परमाणुमां एक ममयेज चारम्पर्श व्यक्तभावे होय अने ६ म्पश योग्यता भावे होय एम मानी शकाय छ परन्तु बहुमते प. रमाणुमा ४ स्पर्श गणाय छे. तथा द्वयणुकादि स्कंधोमां (औदारिकम्कंधादर्वाग ) शीतादि ४ स्पर्श एकममये अथवा जुदे जूदे ममय होड शके. त्यांथी आगळनी औदारिक वै०-अने आहाः वर्गगा अष्टम्पर्श होय द्र, ने त्यांथी आगळनी तेजमादि वर्गणाओ मर्व शीतादि चतःम्पशी अने सक्ष्म परिणा. मी गगाय 2, ए हेतृथी भाषा-तंजम मन अनं कार्मण चत :म्पशी कंधी 5. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) ॥श्री नवतत्वविस्तरार्थः ।। एगाकोडि सतसहि, लक्खा सत्तहुत्तरी सहस्सा य । दोय सया सोलहिया, आवलिया इग मुहुत्तम्मि ॥१२॥ । संस्कृतानुवादः ॥ एका कोटिः सप्तषष्टिलेक्षाः सप्तसप्ततिः सहस्राश्च । द्वे च शते षोडशाधिके, आलिका एकस्मिन्मुहूत॥ १२॥ ।। शब्दार्थ:-॥ एगा-एक दोय सया-बसें कोडि-क्रोड सोल-सोल सतसाठ-सडसठ अहिया-अधिक लक्खा-लाख सत्तहुत्तरी-सित्योतेर आवलिया-आपलिका सहस्सा-हजार . इग-एक य-वळी । मुहत्तम्मि-मुहूर्तमां गाथार्थ:-एक मुहूर्तमा एक क्रोड सडसठलाख सित्योतर हजार बसें ने सोल अधिक(१६७७७२१६)एटली आवलिका थाय छे विस्तरार्थः-आ गाथामां विशेष वक्तव्य नथी, पुनः १६७७७२१६ आवलीओनं १ मुहूत्त केवीरीते थाय ते आगळनी 'समयालिमुहूत्ता ए गाथामांज दर्शावाशे. अवतरण-पूर्वगाथामां एकमुहत्तमा व्यतीत थती आवलिकाओनी संख्या कहीने हवे आ गाथामां अनुक्रमे वृद्धि पामता कालनां जुदां जुदा नाम दर्शावे छे. ॥ मूळगाथा १३ मी. || समयाऽवली मुहुत्ता, दोहा पक्खाय मास वरिसाय। भणिओपलिया सागर, उस्तप्पिणि सप्पिणी कालो॥१३॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ समय आवलिका मुहूर्ताः, दिवसाः पक्षाश्च मासा वर्षाणि च भणितः पल्याः सागराः, उत्सापिण्यवसापिणी कालः ॥१३॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ॥ अजीवतत्त्वे कालद्रव्यविवेचनम् ॥ (१३५) ॥ शब्दार्थः॥ समय-समय भणिओ-कहेलो छ आवलि-आवलिका पलिया-पल्योपम मुहूत्ता-मुहूर्त सागर-सागरोपम दीहा-दिवस उस्सप्पिणी-उत्सप्पिणी पक्खा-पक्ष-पखवाडी मास-मास-महिनो | सप्पिणी-अबसप्पिणी वरिसा-वर्ष | कालो-काळ अथवा काळचक्र गाथार्थः-समय-आवली-मुहूर्त-दिवस-पखवाडी-मास-वर्ष--पल्योपम-सागरोपम-उत्सप्पिणी-अवसप्पिणी--अने काळचक्र ए सर्वने काळ कहेलो छे. ___विस्तरार्थः-आ गाथा व्यावहारिककाळना लक्षणवाळी होवाथी ते व्यवहारिककाळना स्वरूपपूर्वक समयादिभेदनुं किंचित् स्वरूप कहेवाय छ, . .. ॥ व्यावहारिक काळy स्वरूप.॥ १ समय-आवलि-मुहूर्त इत्यादि अनेक भेदवाळो व्यवहारिककाळ मूर्य चंद्रनी गति उपरथीज गणाय छे. कारणके दिवस अने तिथि तथा मासवर्षादिकनी उत्पत्ति सर्व मूर्य चंद्रगी गतिना आधा.रे छे, त्यां अति निकृष्ट- अल्प काळ के जे निमेषमात्र काळनो पण असंख्यातमो भाग छे ते समय कहेवाय छे. कोइक तरुण अने समर्थ पुरुष भालानी नोत्र अणीथी पोताना संपूर्ण बळवडे कमळनां १०० पत्रने भेदे त्यां एक पत्र भेदतां पण असंख्य समयो व्यतीत थाय. अने एक पत्रथी बीजे पत्रे भालो पहोंचे तेटलामां पण असंख्य समय थाय. छतां ए मूक्ष्मता स्थूलदृष्टिवाळाने मालूम नहि पडवाथी एकी वरवते १०० पत्र भेद्यानु अभिमान थाय छ, पुनः Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) ॥ श्री नवतचविस्तरार्थः॥ . एक जीर्ण वस्त्रने शीघ्र फाडतां छतां पण एकेक तंतुने तुटतां असंख्य असंख्य समय वीतीजाय छे. पुनः आंखनो एक पलकारो थाय तेटलामां पण असंख्य समय वीतिजाय छे. एवो आ परम सूक्ष्म समय छे.. २ कहेला स्वरूपवाळा जघन्ययुक्त असंख्य समयो मलीने जे काळ विभाग थाय ते एक आवलिका कहेवाय छे. मू० निगोदादि जीवोर्नु जघन्य (टुंकामा टुंकु ) आयुष्य एवी २५६ आवलियो जेटलं होय छे. तेथी २५६ आवलियोनो ? क्षुल्लक भव कहेवाय. ४४४६ २४५८ आवलिका जेटलो काळ प्राण अथवा श्वासो ३७७३ च्छवास कहेवाय. अहिं नीरोगी अने युवान सुखी पुरुषको 'वामोच्छ्वास गणवो, परन्तु रोगी अने दुःखीनो श्वासोच्छवाम अ. नियमित काळ प्रमाणवाळो होवाथी न गणाय, का छे के " हट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिस्स जंतुणो। एगे ऊसास नीसासे, एस पाणुत्ति बुच्चइ ॥ १॥" __अर्थ:-हृष्ट-विषादरहित, जरारहित, क्षुधादिवडे अकृष्ट-दुर्वछ नहिं थयेल एवा प्राणीनो जे एक उच्छवास अने एक निश्वास ते वे मलीने १ प्राण एम कहेवाय छे. एवा ७ प्राण जेटलो काळ १ स्तोक कहेवाय छे, एवा ७ स्तोक जेटलो काळ १ लव कहेवाय छ, एवा ७७ लव जेटलो काळ १ मुहर्त कहेवाय छे. मुहर्त एटले व ' घडी जेटलो संपूर्ण काळ जाणवो १ प्राणमा पूर्वोक्त क्षुल्लकभव १७॥ ( १७ १३९५ ) थाय, अने ? मुहूर्त्तमां ६५५३६ शुल्लकम. ३७७३ व थाय छे. तथा १ मुहर्तमांपण ३७७३ थाय छे. पुनः मुहर्तमां १ १ वर्तमान समयना कलाक अने मिनिटना हिसाब २४ मिनिटनी घडी, अने ४८ मिनिटनो एक मुहर्त गणाय. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे कालभेदस्वरूपवर्णनम ! (१३७) समय न्यूनकाळथी मांडीने यावत् ९ समय सुधीनो सर्वे काळ विभाग अन्तर्मुहूर्त कहेवाय छे, शास्त्रमा घणो व्यवहार अन्तर्मुहूर्त नी गणत्री पर आवे छे अने ए प्रमाणे अन्तर्मुहूर्त असंख्य प्रकारनां नानां मोटांगणी शकाय. पुनः मुहूर्त त्यां चंद्रमुहूर्त अने सूर्यमुह त ए 'वे प्रकारे छे. लोकमां तथा लोकोत्तरमा ( जैन दर्शनमां) ३० मुहर्तनो दिवस इत्यादि गणवामां चंद्रमुहूर्त्तनो व्यवहार चाले छ, १३.२ चंद्रमुहूत्तनुं १ मूर्यमुहूर्त थाय छे जेनो व्यवहार जगन प्रचलित नथी. एवा ३० मुहर्तनो १ दिवस थाय छे ते ३० मुहूर्तनां नाम आ प्रमाणे रुद्र-श्रेयस्-मित्र-वायु-सुपीत-अभिचंद्र-माहेन्द्र-बलवान पक्ष्म-बहुसत्यक-ऐशान-तस्थ-भावितात्मन्-वैश्रवणवारुण-आनंद-विजय-विश्वसेनक-प्राजापत्य-उपशम--गंधव-अग्निवैश्यक-शतषभ-आतपवान्-अमम-अरुणवान्-भौम-ऋषभ-मर्वार्थ-राक्षस.आ अनुक्रम सूर्योदयथी प्रारंभीने गणवो. __ ३० मुहर्तनो (चंद्रमुहर्तनो) ? दिवस थाय. ते दिवस मूयदिवस, अने चंद्रदिवस एम बे प्रकारे छे त्यां ३० मुहर्त प्रमाण (६० घडी जेटलो) अहोरात्र ते सूर्यदिवस, अने २९ ३२ मुहन प्रमाण चंद्रनी क्षयवृद्धिथी उत्पन्न थती जे तिथि ते चंद्रदिवस गणाय. लोकमां सूर्यदिवसर्नु नाम अहोरात्र, अने चंद्रदिवसना नामे निधि कहेवानो व्यवहार चाले छे. एक पखवाडीयामां १५ दिवम अने १५ रात्रि आवे छे ते दिवस रात्रीनां नाम आ प्रमाणे . अत्रं अनुपयोगी होवाथी ए. संबंधि अधिक अर्थादि वर्णन करेलं नथी जीज्ञासुए काललोकाकाशादि ग्रंथोथी जाणवु. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१३८) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ पूर्वांग-सिद्धमनोरम--मनोहर-यशोभद्र-यशोधरसर्वकामसमृडक-इन्द्रमूर्धाभिषिक्त-सौमनस-धनंजय-अ. थेसिड-अभिजात-अत्यशन-शतंजय-अग्निवेश्मन-अने-उ • पशम. ए प्रमाणे चतुष्पहरात्मक दिवसनां(अहोरात्रिना)नाम कह्यां ___ तथा उत्तमा-सुनक्षत्रा-एलापत्या-यशोधरा-सौमनसाश्रीसंभूता-विजया-वैजयंती-जयंती-अपराजिता-इच्छा-स. माहारा-तेजा--अतितेजा-देवानंदा ए रात्रिना नाम कह्यां १५ मी देवानंदा रात्रिनुं बीजं नाम निरति पण छे. ए प्रमाणे सूर्यदिवस संबंधि दिवस रात्रीनां नाम कहीने हवे चंद्रदिवससंबंधि (तिथिसंवन्धि ) दिवस अने रात्रिनां नाम कहेवाय छे. दिनतिथिनां नाम-नंदा-भद्रा-जया-तुच्छा(लोके रिक्ता)पूर्णा रात्रितिथिनां नाम-उग्रवतो-भोगवती-यशोमती-सर्वसिद्धा. अने शुभनामा. एपांचे पखवाडीयामांत्रण वणवार आववाथी१५ तिथियो थाय. त्यां एकम--छठ--ने अगियारसने दिवसे दिनतिथि नंदा अने रात्रितिथी उग्रवती ए प्रमाणे पांच पांच तिथोने अंतरे गणत्री करवी. पूर्वोक्त १५ सूर्यदिवसर्नु ? सूर्यपक्ष, अने १५ तिथीयोनुं १ चंद्रपक्ष थाय. पण लोकव्यवहार चंद्रपक्षने परववाडी गणे छे, __ पूर्वोक्त २ पक्षनो १ मास--महिनो थाय ते पांच प्रकारनो छे. ३० अहोरात्रिनो १ ऋतुमास २७ २१ अहोरात्रिनो नक्षत्रमास ( अथवा बीजुनाम कर्ममास ) | ६७ ३०॥ अहोरात्रिनो १ सूर्यमास ३१ १२१ अहोरात्रिनो १ अ. २९. अहोरात्रिनो१चंद्रमास १२४ भिवदितमास अहिं लोकव्यवहारमा २० ३२. अहोरात्रिनो एटले संपूर्ण३० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे कालभेदस्वरूपवर्णनम् ॥ (१३९) तिथिनी १ चंद्रमास चाले छे. तथा ६ मासवें १ सूर्यायन थाय छे. ते पण १८३अहोरात्रि प्रमाण?दक्षिणायन अने उत्तरायण एम बे प्रकारचें छे, पुनः चंद्रायन १३ ४४४ अहोरात्रिनु थाय छे, परन्तु विशेष लोकव्यवहा रमां सूर्यायन गणाय छे. तथा १२ मासर्नु ? वर्ष गणाय. ते पण मासना भेदवडे पांचरकारनुं छे, त्यां दरेक मासना दिवसने १२ वडे गुणतां ३६० अहोरात्रिन १ ऋतुवर्ष ( वा कर्मवर्ष) ३६६ अहोरात्रिन १ सौरवर्ष ( सूर्यसंबन्धि वर्ष) ३५४ १२ अहोरात्रिनुं १ चान्द्रवर्ष ३२७ ५.१ अहोरात्रिनुं १ नक्षत्रवर्ष ३८३ ४४ अहोरात्रिनुं १ अभिवड़ितमास तथा : मूर्यसंवत्सरनुं ( ५ सूर्यवर्षतुं ) १ युग थाय. ८४ लाख सूर्यवर्षे १ पूर्वीग थाय. ८४ लाख पूर्वोगे (७०५६०००००००००० सूर्यवर्षे ) १ पूर्व थाय ८४ लाख पूर्व १ त्रुटितांग थाय, एटलं आयुष्य श्री ऋषभदेवप्रभुन हतुं. पुनः ८४ लाख त्रुटितांगे ? त्रुटित थाप, ए प्रमाणे आगल अडडांग-अडड-अवबांगअवव-हुहुकांग-हुहुक उत्पलांग उत्पल पद्मांग-पद्म-नलिनाग-नलिन अर्थनिपुरांग-अर्थनिपुर-अयुतांग अयुत-नयुतांगनयुत-प्रयुतांग-प्रयुत-चूलिकांग-चूलिका-शीर्षप्रहेलिकांग अने ' शोहलिका ए सर्व ८१ लाख गुणा अनुक्रमे जा. ५ मतांतरे ८४ लाख पर्व १ लतांग, ८४ लाख लतांगे १ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ वा. काळ संख्यानी मर्यादा शास्त्रकारे अहिं सुधीज ( ' शीर्षप्रहेलिका सुधीज ) दर्शावी छे, एथी आंगलनी घणी मोटी संख्या प्यालानी उपमाए दर्शावी हे जे सर्व शास्त्रान्तरथी जाणवा योग्य छे. पूर्वे कलां असंख्यातवर्ष प्रमाण १ पल्योपन थाय. पल्योपमनां असंख्यवर्षोनी गणत्री स्थूलबुद्धिजीवथी न थइ शके माटे तेनी गणत्री शास्त्रकारे प्यालानी उपमाथी संक्षेपमां आ प्रमाणे दर्शावी छे - १ योजन लांबो - १ योजन व्होको -अने १ योजन उंडो एवा कूवानी अंदर उत्तरकुरुक्षेत्रना मनुष्योनुं मस्तक मुंडा एक सात दिवस सुधीमां उगेला केशनां असंख्यभाग करी ( ते कूवो ) भरीये ने सो सो वर्षे एकेक खंड काढतां जेटली वर्ष थाय तेलां वर्ष प्रमाण १ पल्योपम कहेवाय (पल्योपमना ६ भेद वगेरे अधिकवर्णन शास्त्रान्तरथी जाणवुं . ) ३ पूर्व कहेला १० कोटा कोडी (१०००००००००००००० लता तदन्तर आगल महालतांग, महालता, नलिनांग, नलिन, महान लिनांग, महानलिन, पद्मांग, पद्म, महापद्मांग, महापद्म, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल. कुमुदांग, कुमुद, म हाकुमुदांग, महाकुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, महात्रुटितांग, महात्रुटित, अडडांग, अडड, महाअडडांग, महाअडड, ऊहांग, ऊह, म हाऊहांग, महाऊह, शीर्षप्रहेलिकांग, असे शीर्षप्रहेलिका, १ १८७९५५१७९५५०११२५९८४१९००९६९९८१३४३०७७०७ ९७४६५४९४२६१९७७७४७६५,७२५७३४५,७९८६८१६ ए सित्तेर - कडा उपर १८० बिंदु-- शून्य मूकवाथी २५० अंक प्रमाण म तान्तरे शीर्षपहेलिकानी संख्या थाय छे। अने उपर दर्शाव्या मुजब गणतां १९४ आंकडानी संख्या थाय २ बादर उद्वार - सूक्ष्म उद्धार-वादर अद्धा सूक्ष्म अद्धा- बादर क्षेत्र सूक्ष्मक्षेत्र ए रीते पल्योपनना ६ प्रकार अत्रे उपयोगी नहि होवाथी अहिं मात्र लू० अद्धा पल्योपमनुं प्रमाण कह्युं छे. ३ कोडने कोडथी गुणतां कोडाकोडी थाय.. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे कालभेदस्वरूपविवेचनम् ॥ (१४१) ००) पल्योपमे १ ' सागरोपम थाय. १० कोडाकोडी सागरोपमे १ उत्सर्पिणी अने १० कोडाकोडी सागरोपमनी १ अवसर्पिणीकाळ थाय छे. पुनः एकेकना ६-६ आरा ( विभाग ) छे तेनां नाम-सुषम सुषम नामे पहेलो आरो ४ को को० सागरोपमनो, सुषम नामे बीजो आरो ३ को० को साग० नो, सुषम दुषम नामे त्रीजो आरोरको० को० साग० नो, दुषम सुषम नामे४थो आरो ४२००० वर्षन्यून १ को० को साग० नो, दुषम नामे पांचमां आरो २१००० वर्षनो, अने दुषम दुषम नामे ६ हो आरो २१०००वर्षनो छे, ए प्रमाणे सर्व आराना १० को० को० सागरोपम संपूर्ण थाय छे. ए ६ आरा उत्सप्पिणी काळमां चढता, अने अवसप्पिणी काळमां उतरता आवे छे माटे उत्सप्पिणी-चढतोकाळ, अने अवसप्पिणीपडतो काळ कहेवाय छे. अर्थात् उत्सपिणीमा प्रथम दुषम दुषम बीजो दुपम इत्यादि रीते, अने अवसर्पिणीमां हेलो सुषम सुषम, बीजो सुपम इत्यादि अनुक्रमे होय छे. उत्सर्पिणीमा ३ सुख विगरे अनुक्रमे अधिक अधिक, अने अवसप्पिणीमां मुख वगेरे अनुक्रमे हीन हीनतर थ] जाय छे. २० को० को० सागरोपम प्रमाण ( अवस० उत्स० मली ) १ काळचक्र थाय छे. गाथामां कहेल कालो-काळ शब्दनो सा. मान्य रीते समयावलि इत्यादि काळ अथवा २० को० को मा० प्रमाण काळचक्र एम बन्ने अर्थ थइ शके छे. १ पल्यापम वा सागोपमना पण ६ प्रकार जाणवा, २. काळरू पी चक्रना आरा समान होवाथी. ३ मुख --संघयण---आयुष्य-उंचाइ-वर्ण गन्ध रस स्प-- सद्गुण जमीनना मकस इत्यादि. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) || नवतश्व विस्तरार्थः ॥ " अथवा भूतकाळ, वर्तमानकाळ, अने भविष्यकाळ ए रीते ३ प्रकारनो काळ छे. त्यां भूतकाळ अने भविष्यकाळ अनंत समयात्मक, अने वर्त्तमानकाळ एक समयात्मक छे. भूतकाळ करतां भविष्यकाळ अनंत गुण छे अथवा जेटलो भूतकाळ व्यतीत थयो तेलो भविष्यकाळ छे एम वन्ने मान्यता भिन्न भिन्न महर्षिओनी छे. ने ते सापेक्षिक होवाथी अविरोधी छे. पुनः आ व्यावहारिक काळ पण अरूपी अने अढीद्वीपवर्ती छे, कारण के अढीद्वीप बाहेर सूर्य चंद्रनी गवि नथी माटे त्यां दिवस वर्ष मास इत्यादि व्यवहार नथी, ज्यां दिवस त्यां दिवसज छे, अने ज्यां रात्रि त्यां सदाकाळ रात्रिज छे, माटे अढी द्वीप बहार सर्व द्वीप समुद्रोमां, देवलोकमां, अने साते नरक पृथ्वीओमां जे १०००० वर्षनुं आयुष्य इत्यादि स र्व व्यवहार चाले छे ते अहीद्वीपमां चालता सूर्य चंद्रनो गतिने अनुसारे जाणवो. कां छे के - 29 "लोगाणुभागजणिअं, जोइसचक्कं भणंति अरिहंता । सव्वे कालविसेसा, जस्स गइविसेसनिफन्ना ॥ १ ॥ ( अर्थ - जेनी गति विशेषवडे सर्व काळभेदो उत्पन्न थयेला छेवा ज्योतिकने अरिहंत भगवंत लोकस्वभाव जनित ( लोकस्वभावे उत्पन्न थयेल गतिवाळु कहे छे. ) ॥ काळ द्रव्य संबन्धि संक्षिप्त कोष्टक || निर्विभाज्यकाळ प्रमाण समयनुं जब युक्त असंख्य समयनी २५६ आवलीनो १ समय १ जव० अन्तर्मुहूर्त १ आवली १ क्षुल्लकभव Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजीवतत्त्वे कालद्रव्यकोष्टकवर्णनम् ॥ (१४३) २२२३ १२२९ आवलिनो १ उच्छवास वा निश्वास. .३७७३ ४४४६ २४५८ आवलिनो वा ३७७३ । १ प्राण ( श्वासोच्छवास) साधिक २७ क्षुल्लकवनो ) ७ प्राणनो १ स्तोक ७ स्तोकनो ३८॥ लवनी १ घडी २ घडी वा ७७ लव अथवा ६५५- १ मुहर्च . ३६ क्षुल्लक भवनो अथवा बे घडीनो । समयोन २ घडीनो . उत्क० अन्तर्मुहूर्त ३० मुहर्तनो १ दिवस १५ दिवसनो १ पक्ष (पखवाडी) २ पक्षनो-(३० दिवसनो) १ मास ६ मासद् ( १८३ दिवसk) . १ अयन १२ मासनु (२ अयनk) १ वर्ष ५ वर्षनु ८४ लाख वर्षनु १ पूर्वांग. ७० क्रोड ५६ लाख क्रोड । १ पूर्व (७०५६००००००००००)वर्षनु असंख्यवर्षनो. .१ पल्योपम १० कोडाकोडि पल्योपमनो १ सागरोपम १ उत्सपिणी अथवा १० को० को सागरोपमनी १ अवसर्पिणी १ उत्स० अवस० नु (२० को० को० सागरोपमनु) १ काळचक्र अनन्तकालचक्रतुं १ पुद्गल परावर्च. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) || श्री नवतवविस्तरार्थः ॥ अवतरण - प्रथमनी १३ गाथा सुधीमां १ जीव द्रव्य अने ५ अजीव द्रव्यनु जूर्दु जूनुं स्वरूप कहीने हवे सामान्यतः छ ए द्रव्य अमुक अमुक द्वार ( परस्पर तफावत वाळी बाबत) जाणवा योग्य छे ते द्वारनi ( बावतीनां ) नाम कहे छे. || मूळ गाथा १४ || परिणामि जीव मुत्तं, सपएसा एगखित्त किरिया य । निश्चं कारण कत्ता, सवगय इयर अप्पवेसे ॥ १४ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ परिणामी जीवो मूर्त्तः सप्रदेशः एकः क्षेत्रं क्रिया च । नित्यः कारणं कर्त्ता सर्व्वगतमितर प्रवेशः ॥ १४ ॥ 9 ॥ शब्दार्थः ॥ परिणामि परिवर्तन पामनार वा लोह अने अग्निवत् परस्पर मळी (जनार) जीव-जीव मुत्तं - मूर्तिमंत रूपी सपएसा - सप्रदेशी एग - एक वित्त क्षेत्र किरिया - क्रियावाळां सक्रिय निचं नित्य- शाश्वत कारण- कारण कत्ता कर्त्ता कत्ता--कर्त्ता सवय - सर्वगत सर्वव्यापी इयर - इतर ( उलट ) अप्पवेसे - अप्रवेशी (तद्रपनहि थनार. ) गाथार्थ:- ६ द्रव्यमां परिणामि जीव-रूपी समदेशी एक क्षेत्र-सक्रिय-नित्य-कारण- कर्त्ता सर्वव्यापी इतरा प्रवेश द्रव्यो नयां क्यों के. विस्तरार्थः एद्रव्योमां परस्पर विशेषता भने अविशेपता जाणवामा प्रकरणकर्त्ताए परिणामी इत्यादि सप्रतिपक्ष १२ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ षइद्रव्येषु परिणाम्यादिद्वारवर्णनम् ॥ (१४५) द्वार सूचना रूपे मात्र कयां छे त १२. द्वार कहेवार्नु तात्पर्य एके के-पूर्वोक्त छ द्रव्यमां परिणामी अने अपरिणामी द्रव्य कयां? पूर्वोक्त छ द्रव्यमा सजीव अने निर्जीव द्रव्य कयां ? इत्यादि वि. चार, ते आ पमाणे ॥६ द्रव्यमां 'परिणामी अने अपरिणामि ॥ परिणाम एटले एक अवस्था छोडीने बीजी अवस्थामा ज. धुं ते, श्री प्रज्ञापनाना परिणाम पदमा का छे के"परिणामो ह्यर्थान्तर-गमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः॥१॥" अर्थ:--परिणाम एटले. अर्थान्तर-धर्मान्तरनी प्राप्ति, परन्तु सर्वथा ( एकान्ते ) एकज धर्ममा अवस्थान अथवा ते धर्मनी सर्वथा विनाश नहिं तेज बुद्धिमतोए परिणाम कहेलो के. जैम जीवनो परिणाम देव मटीने मनुष्य थयु, अने अजीवनो परिणाम स्थिरत्वादिधर्ममांथी गत्यादि धमां जवु ते. त्यां परिणाम सापान्यतः जीवपरिणाम अने अजीवपरिणाम एम बे प्रकारे है, तेमां पण जीवपरिणाम १० प्रकारनो छे. ते नीचे मुजब१ गतिपरिणाम--देवत्वादि चार गति ते. २ इन्द्रियपरिणाम--स्पर्शादि ५ इन्द्रियो ते. ३ कषायपरिणाम--क्रोधादि ४ कषाय, अथवा अनंतानुवं ___ध्यादि ४ कषाय के ४ लेश्यापरिणाम--कृष्ण लेश्यादि ६ लेश्याओ ५ योगपरिणाम--मनयोग-वचनयोग अने काययोग. १ परिणाम एटले स्वस्वभावमा परिणमवं ए अर्थथी तो छ ए द्रव्यं परिणामी कहेवाय, परन्तु अहिं आगळ कडेवाती गत्यादि परिणाम ग्रहण करवानो छे. . . . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः॥ ६. उपयोगपरिणाम--मनिज्ञानादि १२ उपयोग. ७ ज्ञानपरिणाम--मत्यादि ५ ज्ञान ने ३ अज्ञान. ८ दर्शनपरिणाम-मिथ्यात्व, क्षयोप० सम्यक्त्व.अने मिश्रसम्यत्त्व ९. चारित्रपरिणाम-सामायिकचारित्रादि ५ प्रकारनां चारित्र. १० वेदपरिणाम--स्त्रीवेद-पुवेद-नपुंसकवेद.. . ... जीव ए १० प्रकारना परिणामने (धर्मने ) पामतो होवाथी जीवद्रव्य परिणामी गणाय छे. पूर्वोक्त गत्यादि जीवपरिणाम प्रायोगिक ( कर्मोपाधिजन्य ) छे, परन्तु जीवना स्वाभाविक नथी. तथा अजीवपरिणाम १० प्रकारे छे.. अने ते अजीव परिणाम पुद्गल द्रव्यनेज होय छे माटे पु. गलद्रव्य पण परिणामी छे ते पुद्गलना १० प्रकारना परिणा मनीचे मुजब. - पुद्गलोना १० ' प्रकारना परिणाम ( धर्म ) १ पुद्गलोर्नु परस्पर जे मळबु (जोडावू ) ते बंधनपरिणाम २ पुद्गलोमां गतिक्रिया उपजवी ते गतिपरिणाम. ३ पुद्गलोर्नु आकृतिपणे गोठवावं ते संस्थानपरिणाम, ४ पुद्गलोर्नु छूटा पडवु ( विखरवु ते भेदपरिणाम५ पुद्गलोमा ५ प्रकारना वर्ण उपजवा ते वर्णपरिणाम. ६ पुद्गलोमां २ प्रकारना गंध उपजवा ते गंधपरिणाम. ७ पुद्गलोमां ५ प्रकारना रस उपजवा ते रसपरिणाम. ८ पुद्गलोमा ८ प्रकारना स्पर्श उपजवा ते स्पर्शपरिणाम १ ए सिवाय बीजा प्रकाशपणुं-अंधकारपणुं-प्रतिषिप. गु विगेरे अनेक परिणाम यथायोग्य बन्धनादि परिणामान्तर्ग: तपणे ग्रहण करवा. पुनः अहिं पुगल शब्दथी स्कंधादि मारे भेर यथासंभव प्रहण करा. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पद्रव्येषु परिणाम्यादिद्वारवर्णनम्. ॥ (१४७) ९ पुद्गलोमां ' गुरुत्व, लघुत्व, गुरुलघुत्व, अने ' अगुरुल. घुत्व, उपजq ते " अगुरुलघुपरिणाम. १० पुद्गलोमां ध्वनि-अवाज उपजवो ते शब्दपरिणाम. . पुद्गलद्रव्य ए १ प्रकारना परिणाम ( धर्म ) वाळ होवाथी. पुद्गलद्रव्य परिणामी छे. धर्मास्तिकायादि द्रव्यमां पूर्वोक्त गत्यादि कोइपण परिणाम(धर्म) नहिं होवाथी धर्मास्तिकायादि ४ द्रव्य अपरिणामी अने जीव तथा पुद्गल परिणामी छे. (आ परिणामर्नु स्वरूप श्री प्रज्ञापनामुत्रना परिणाम पदमांथी संक्षेपे उद्धरेल छे.) ॥ ६ द्रव्यमां जीव कोण अने अजीव कोण ? छ द्रव्यमां जीवत्व स्वभाववाल एक जीव द्रव्य जीव छे, अ. ने शेष पांच द्रव्य अजीव छे. ॥ ६ द्रव्यमां रूपी कोण अने अरूपी कोण? ॥. ___ वर्ण-गंध-रस-स्पर्श ए रूप कहेवाय, अने ए वर्णादि रूप जेने होय ते रूपी कहेवाय. त्यां वर्णादि पुद्गलद्रव्यनेज होय छे माटे पुद्गलद्रव्य रूपी, अने शेष ५ द्रव्य अरूपी छे. १ पत्थर विगेरेमा जैम भारीपणुं, (अधोगतिना कारणरूप) २ वराळ अने धूम विगेरेमां जेम हलवापणुं ( उर्ध्व ग. तिना ( कारणरूप) ३ वायु विगेरेमांजेम गुरु हलवाप[(तिच्छीगतिना कारणरूप) ४ परमाणु विगेरेमा जेम न लघुपणुं न गुरुपणुं (प्रा. यः स्थिरताना कारण रूप ). ५ ए अगुरुलघुपरिणाम पुद्धल सिवाय धर्मास्तिकायादि अरूपि द्रव्योभां पण छे. औदा-आहा०-वै० ने तैजस ए चार गुरुलघु छे, तथा कार्मण-मन-उच्छवास अने भाषा अगुरुलघु द्रव्य छ, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 (१४८) ॥ नवतत्वविस्तरार्थः ॥ ॥ ६ द्रव्यमां सप्रदेशी कोण अने अप्रदेशी कोण? ॥ ६ द्रव्यमां धर्मास्तिकायादि ४ द्रव्यना स्कंध देश अने प्रदेश "धम्माऽधम्माऽऽगासा" ए गाथामां कहेल छे, अने जीव पण असंख्य प्रदेशनो पिंड कह्यो छ माटे ए ५ द्रव्य सप्रदेशी-प्रदेश युक्त, अने काळ अप्रदेशी छे, ॥६ द्रव्यमां एक कोण अने अनेक कोण ? ॥ सर्व जगतमा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अने आकाश पत्रण ढव्य एकेक छे, अने ' जीव अने 'पुद्गल अनंत होवाथी तथा काळ (समय) पण अनंत होवाथी जीव अने काळ अनेक छे. ॥६ द्रव्यमां क्षेत्र कोण अने क्षेत्री कोण? ॥ जेमां पदार्थ रहे ते क्षेत्र (-आधारभूत ते क्षेत्र ) कहवाय, अ. ने तेमा रहला पदार्थों क्षेत्री कहेवाय. आकाशमां सर्व पदार्थ (द्रम्य) रहेलां छे. माटे आकाश द्रव्य क्षेत्र अने शेष ५ द्रव्य क्षेत्री छे. ॥ ६ द्रव्यमा सक्रिय अने अक्रिय कोण ? ॥ - गति वगेरे क्रिया करनार जे द्रव्य ते सक्रिय (-क्रिया सहित ) अने गत्यादि क्रिया रहित ते अक्रिय कहेवाय. त्यां जीर अने पुद्गल बे द्रव्य गति वगेरे क्रियावाळां होवाथी सक्रिय. अने शेष चार द्रव्य अक्रिय छे, ॥६ द्रव्यमा नित्य अने अनित्य कोण ? ॥ सदाकाळ एकज अवस्थामा रहेनार जे शाश्वत पदार्थ ते नि १ सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय जीवो अने सिद्ध अ. मंत होषाथी. . २ परमाणु अनंत छ, द्विप्रदेशी स्कंधो अनंत छे यावत् अनंत प्रदेशी स्कंधो सुधीना सर्व स्कंधो अनंत अनंत छे माटे ३ निश्चयनये ६ ए द्रव्य नित्य छे. अने अनित्य पण न्छे Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ षद्रव्येषु परिणाम्यादिद्वारवर्णनम् ॥ ( १४९ ) स्य अने विनाशी पदार्थ अनित्य कहेवाय. त्यां जीव देवत्वादि कोइपण एक अवस्थाएं काम नहिं रहेतां देव मटीने मनुष्य थाय, मनुष्य मटीने तिर्येच थाय. तिर्येच मटीने पुनः नारक थाय इत्यादि अनेक कारणे ' जीवद्रव्य अनित्य छे, तथा पुद्गलद्रव्य पण परमाणु मटीने स्कंध थाय, काळो मटीने पीळो थाय इत्यादि ते आ प्रमाणे- धर्मास्तिकाय अरूपी - अचेतन-अक्रिय -अने गति सहायक ए चार गुण तथा स्कंध पर्याय ए पांचवडे नित्य छे तथा देश - प्रदेश - अने अगुरुलघु ए ऋण पर्याय वडे अनित्य छे. - तथा अधर्मास्तिकाय अरूपी - अचेतन-अक्रिय - अने स्थिति सहायक ए चार गुण तथा स्कंध पर्यावडे नित्यछे. अने देश-प्रदेश - तथा अगुरुलघु ए त्रण पर्याय वडे अनित्य छे. -- तथा आकाशास्तिकाय अरूपी - अचेतन-अक्रिय अने अवकाशदान ए चार गुण तथा स्कंध पर्याय ए पांच वडे नित्य, अने देश -- प्रदेश -- तथा अगुरुलघु पर्यायवडे अनित्य छे- तथा काळ अरूपी - अचेतन... अक्रिय -अने वर्त्तनादि लक्षण प चार गुणवडे नित्य छे, अने अतीत अनागत वर्त्तमान तथा अगुरुलघु ए चार पर्यायवढे अनित्य छे. - तथा जीवास्तिकाय ज्ञान - दर्शन - चारित्र अने वीर्य ए ए चार गुण तथा अरूपी अनवगाह - अने अव्याबाध ए त्रण पर्याय मी ७ वढे नित्य छे, अने एक अगुरुलघु पर्याय बडे अनित्य छे. ( इति अध्यात्मसार प्रश्नोत्तर. ) १ शंका - सिद्धना जीवां नित्य के अनित्य ? उत्तर - जे पदार्थ नित्य होय से अनादि अनंत भागे होय. अ ने सिद्धपणुं सादि अनन्त भागे होवाथी अनित्य छे. arrus feari नाहि काळ नथी, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) ॥श्री नवतचविस्तरार्थः ॥ अनेक परावृत्तधर्मोना कारणे' पुद्गलद्रव्य पण अनित्य छे. अने धर्माऽस्तिकायादि ४ द्रव्यनो तेवो विनश्वर स्वभाव नहिं होवाथी धर्मास्तिकायादि ४ २ द्रव्यो नित्य छे. . · ॥६ द्रव्यमां कारण अने अकारण कोण ? ॥। जे द्रव्य ( कोइना ) उपयोगमा ( कार्यमां) आवे ते द्रव्य कारण, अने जेना उपयोगमां आवे ते अकारण, धर्माऽस्तिकायादि पांचे द्रव्यो जीवना उपयोगमां आवे छे, माटे धर्मास्तिक वगेरे ५ द्रव्यो कारण, अने जीवद्रव्य अकारण छे. शंका-५ द्रव्यो जीवने शुं उपयोगमां आवे छ ? उत्तर-हे जिज्ञासु ! पांचे द्रव्यो जीवने उपकार करनारां छे पण जीवद्रव्य कोइ द्रव्यने उपकार करतुं नथी ते आ प्रमाणेजीवने (अने पुद्गलने पण) गतिक्रियामां उपकारी धर्मास्तिक छे. जीवने (अने पुद्गलने पण) स्थितिक्रियामां उपकारी अधर्मा० छे. जीवने ( अने धर्मा० दिकने पण) अवकाश आपवामां उपकारी १ शाश्वत मंदिरो-शाश्वती प्रतिमाओ-अने शाश्वता मे. र वगेरे पदार्यो नित्य के अनित्य ? ए. शंकाना समाधानमां समजवान के ए पदार्थो स्कंधना देखावथी तो नित्य छ, परन्तु प स्कंध जे पुद्गलद्रव्यनो बनेलो छे ते पुद्रल द्रव्य नित्य नथी कारणके ए शाश्वत स्कंधोमांथी पण प्रतिसमय अनंत पु. दल परमाणुओ खरे छे, अने पुन: नवा आवी मले छ जेथी स्कं. ध वा आकार शाश्वत छे पण पुद्गलद्रव्य अशाश्वत छे. २ काळ द्रव्य प्रतिसमय बदलाय छे छतां नित्य कम ? ॥ शंकानुं ! समाधान जोके नैश्चयिककाल १ समय रूप होवाथी बदलाया करे छे तोपण अतीत. वर्तमान, अनागत. सर्वकालद्रव्य कोह काले विनाश पामतुं नहि होवाथी कालद्रव्य नित्य छे. ३-४ गतिस्थित्युपग्रहो धर्माऽधर्मयोरुपकारः (तत्वा० ५--१७) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ।। षड्द्रव्येषु परिणाम्यादिद्वारवर्णनम : (१५१) 'आकाश द्रव्य छे, जीवने शरीर-वचन-मन-* उच्छ्वास- सुख- दुःख-जीवित-अने 'मरणमा पुलद्रव्य उपकारी छे. जीवने वर्तनादि पर्यायमां'• काळद्रव्य उपकारी छे. __ अथवा बीजी रीते कारण अकारणपणानो विचार आप्रमाणेजीवनी गतिक्रियामां धर्मा० काय, स्थितिक्रियामां अधर्मास्तिकाय. अवगाह लेवामां आकाश, वर्तनादिमां काळ, अने शरीर रचनादिकमां पुद्गल कारणरूप छे, पण जीव ए पांच द्रव्यना कोइपण कार्यमां कारणरूप नथी माटे जीवद्रव्य अकारण, अने शेष ५ द्रव्य कारण छे. _शंका-धर्मास्तिकायादि द्रव्यनो उपकार जेम जीव प्रत्ये छे, तेम पुद्गल प्रत्ये पण छे तो पुद्गलद्रव्यने अकारण द्रव्य केम न कहेवाय ? उत्तर-अहिं कारण विगेरे जे द्वार विचारवानां छे ते एवी रीते के ते द्रव्यमां बीजु द्वार न ज घटलं जोइए मात्र एकज द्वारर्नु अधिकारीपणुं एक द्रव्यने होवु जोइए, ते प्रमाणे अहिं पुद्गलने १ आकाशस्यावगाह: ( तत्वा० ५-१८ ) २-३-४ शरीरवाइमनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् (तत्वा०५.१७) सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च (तत्या० ५-२०) औदारिकादि शरीर पुदलपरिणतिरूपे होवाथी जीवने शरीररूपे पुद्गलद्रव्य उपकारी छे, ५-६ भाषा-मन-उच्छवास ए सर्व रूपे पुद्गलो उपकार करे छ. ७-८ चंदनादि पुद्गलद्रव्यथी सुख अने कंटकादि अनिष्ट पुद्रलथी दुःख थाय छे. माटे. ९ आयुष्य पुदलना सद्भावे जीवित, अने अभावे मर. ण प्राप्त थाय छे माटे जीवन-मरणमां पुनलनोज उपकार छे. १. वर्तनापरिणाम: क्रिया परत्वाऽपरस्ये व कालस्य .. (तत्वा ---२२ ) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) || श्री नवतत्रविस्तरार्थः ॥ जो अकारण तरीके मानीभुं तो पुनः ते पुद्गल जीवने उपकारी होवाथी जीवना संबन्धमां कारण थाय छे ए प्रमाणे एक द्रव्यना संबन्धे अकारण अने वीजा द्रव्यना संबन्धे कारणपशुं मानतां व्यवस्था त्रुटी जती होवाथी एक द्रव्यमां एकज द्वार घटे तेवी रीते विचारg. माटे जीवद्रव्य कोइनुं उपकारी नथी अने जीवद्रव्यने बीजां द्रव्य उपकारी है ए हेतुथी जीवद्रव्य ज अकारण छे, ने शेष कारण छे. शंका-- जीवद्रव्य शुं कोड़ने पण उपकारी नथी ? उत्तर - जीवद्रव्य जीवद्रव्यने ' परस्पर उपकारी छे, परन्तु कारणादि द्वार पर द्रव्य प्रत्ययिक होवाथी स्वद्रव्य प्रत्यय २ ३ विरोधकारक नथी. ॥ ६ द्रव्यां कर्त्ता ने र्त्ता कोण? | जे द्रव्य अन्य द्रव्यनी क्रिया प्रत्ये अधिकारी होय ( स्वामी होय ) ते कर्त्ता, अने जे अन्य द्रव्यनी क्रिया प्रत्ये अधिकारी (स्वामी) न होय ते अकर्त्ता कहेवाय. अहिं " कर्त्ता एटले क्रियानो करनार " ए सामान्य अर्थने अनुसारे तो छ ए द्रव्य कर्त्ता हो शके, परन्तु कर्त्ता एटले सर्व द्रव्यनो अधिकारी (पोतेज उपभोग करनार होवाथी स्वामी ) " एवो अर्थ ग्रहण करवो योम्य छे. त्यां धर्मास्तिकायादि सर्व द्रव्योनी गतिसहायकादि क्रियाओनो उपभोग करवामां अधिकारी जीव द्रव्य छे माटे जीव द्रव्य कर्त्ता अने शेष ५ द्रव्य अकर्त्ता छे. अहिं पुद्गल धर्मा० दिaat क्रियानो उपभोगी छे तो पण पुनः पुद्गलनो उपभोगी १ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ( तत्वा०५-२१ ) २ कारणादि द्वार परद्वव्यनी अपेक्षाए वीचारवाना होवाथी ३ जो द्रव्य पोते पोतानु उपकारी होय तो तेवा पोता नुं उपकारादि निमित्त विरोध कारक नथी. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || सप्रवेश्यप्रवेशिवर्णनम् ॥ (१५३) जीवथी छे, माटे पुद्गलने कर्ता कहेवामां सांकर्य दोष आवतो होवाथी पुद्गल ६ द्रव्यना 'सामुदायिक संबन्धमां अकर्ता गणाय. ॥६ द्रव्यमा सर्वव्यापी अने देशव्यापी कोण ? ॥ जे द्रव्य सर्व जग्याए रहेलं होय ते सर्वगत अथवा सर्वव्यापी, अने जे द्रव्य अमुक ( थोडी) जग्यामां रहेलं होय ते असर्वगत अथवा देशव्यापी कहेवाय, त्यां आकाश द्रव्य अनंतानंत योजनप्रमाण लोकालोकव्याप्त होवाथी सर्वव्यापी, अने धर्मास्तिकायादि ४ द्रव्य लोकाफाश जेटली (१४ राजलोक प्रमाण-असंख्य योजन जेटली ) जग्यामां रहेल होवाथी, अने काळद्रव्य अढीद्वीप मात्र व्याप्न होवाथी देशव्यापी छे, ॥६ द्रव्यमां सप्रवेशीयने अप्रवेशी कोण? ॥ एक द्रव्य बोजा द्रव्यरूपे थइ जq ते प्रवेश कहेवाय, अने एवां बीजा द्रव्यरूपे थइ जनार जे द्रव्य ते सप्रवेशी कहेवाय, अने जे द्रव्य अन्यद्रव्य रूपे न थतां स्वरूपे ज कायम रहे ते अप्रवेशी कहेवाय. त्यां कोइपण द्रव्य बीजा द्रव्य रूपे थतुं नथी, जोसर्व द्रव्यो एकज जग्यामां परस्पर संक्रमीने रह्यां छे. पण धर्मास्तिकाय ते अधर्मास्तिकायादि थतुं नथी. जीवद्रव्य पुद्गल पणे परिणमतुं नथी ए प्रमाणे कोइ द्रव्य कोइ पण अन्य द्रव्यपणे परिणमतं नहिं होवाथी सर्वे द्रव्य अप्रवेशो छ पण सप्रवेशी कोइ - १ अहिं कारण अने कर्ता विगेरे केटलां द्वारो ६ द्रव्यना समुदाय संबंधथीज विचारेलां छे, अने जो प्रत्येक द्रव्यमां अ. लग अलग कारणादि द्रव्य विचारीए तो कोइ द्रव्यमां बन्ने द्वार लागु पडी जाय छे. जेम पुद्गल द्रव्य धर्मा० विगेरेनी अपे. क्षाए कर्ता, अने जीवनी अपेक्षाए अकर्ता. इत्यादि अव्यवस्था थती होवाथी समुदाय संबंध विचारवो योग्य छ, Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ नथी अहिं पुल द्रव्य स्वद्रव्यमां रहीने पररूप ( पृथ्वी जळ रूपे, जळ वराळ रूपे, अग्नि धूम रूपे. आहार माटी रूपे, इत्यादि रीते पररूपे ) थइ जाय छे. परन्तु पुद्गल फीटीने जीवादि द्रव्य बने नहिं माटे अप्रवेशी छे. इति गाथोक्त द्वाराणि विवृतानि ॥ ॥ अथ षट्सु द्रव्येषु परिणाम्यादिविभागयन्त्रकम्. ॥ ६. द्रव्यनामानि परिण० जीव. मूर्त. सप्रदे० एक. क्षत्र सक्रिय नित्य. धर्मास्तिकाय. अधर्मास्तिकाय. आकाशास्तिकाय ० जीवास्तिकाय. पुद्गलास्तिकाय १० १ १ ० ० ० ० ० Co ० ० • 2 2 - -- . O O ० ० O ० ० a. ० ० Q ० C कारण. कर्ता. सर्वग. - अप्र० v ? १ ० O ० o ० काल. ० ० ० हवे विशेषथी ६ द्रव्यमां द्रव्यादिद्वार कहेवाय छे. ॥ ६ द्रव्यमां द्रव्य - क्षेत्र-काळ-भाव-गुण-ने व्याकृति. ॥ धर्मास्तिकाय - द्रव्यथी ? - क्षेत्रथी लोकाकाश प्रमाण-काकथी अनादि अनंत भावथी वर्ण गंधादि रहित - गुणथी गतिसहायक, अने आकृतिथी वज्राकार छे. अधर्मास्तिकाय - गुणथी स्थिति सहायक शेष द्रव्यादि धर्मा वत् ) ० Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अनीवतत्त्ववर्णनमः ॥ आकाशाऽस्तिकाय-द्रव्यथी -क्षेत्रथी लोकालोकप्रमाण -काळ्थी अनादि अनन्त-भावथी वर्णादि रहित-गुणथी अवकाश दाता-अने आकृतिथी ' गोळा ममान जीवाऽस्तिकाय-द्रव्यथी अनन्त, क्षेत्रथी एक जीव आश्र. वि जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग, उत्कृष्टथी एक तथा अनेक जीव आश्रयि सर्व लोक प्रमाण-काळथी अनादि अनन्त-भावथी वर्णादि रहित-गुणथी ज्ञान दर्शनादि गुण युक्त-अने आकारथी देहाकार अथवा (समुद्घातापेक्षाए लोकाकार.) पुद्गलाऽस्तिकाय-द्रव्यथी अनन्त-क्षेत्रथी लोक प्रमाणकाळयी अनादि अनन्त-भावथी वर्ण-गंध-रस-स्पर्श युक्त-गुणथी पूरण गलन स्वभावो-आकृतिथी दीर्घ-चतुरस्र-त्रिकोणवर्तुल-परिमंडल. काळ-द्रव्यथी १-क्षेत्रथी २१. द्वीप प्रमाण-काळयी अनादि अनंत-भावधी वर्णादि रहित---गुणथी वर्तनादि लक्षण युक्त आकृतिथी अवक्तव्य इत्यादि ६ द्रव्य यत्किंचित् स्वरूप का. ॥ द्वितीयाजीवतत्त्वविस्तरार्थः समाप्तः॥ O MRAM १ एमां पण लोकाकाशनो आकार सुप्रतिष्ठ सरखो, अने अलोकाकाशनो आकार पीला गोळा सरखो छे. २ काळ वास्तविक रीते द्रव्य नहि होवाथी काळनो अमुक आकार छे. एम कहे, अशक्य छे. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) || श्री नवश्वविस्तरार्थः ॥ ॥ अजीवतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ ॥ अजीवना ५६० भेद. ॥ ० अरूपो अजीवना ३० भेद - १ धर्मास्तिकाय, २ धर्मा० देश, ३ धर्मा० प्रदेश, ४ अधर्मास्तिकाय ५ अधर्मा० देश, ६ अधर्मा प्रदेश ७ आकाशास्तिकाय, ८ आकाशा० देश, ९ आकाशा० प्रदेश, अने १० मो काळ. तथा धर्मा०, अधर्मा०, आकाशा०, अने काळ ए चारना प्रत्येकना द्रव्य-क्षेत्र - काळ - भावअने गुण ए पांच पांच भेद गणतां २० भेद थाय. ए प्रमाणे प्रथमना १० अने बीजीवारना २० मेद मळी अरूपी अजीवना ३० भेद थाय. ॥ रूपी अजीवना ५३० भेद. ॥ ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श, अने ५ संस्थान ए २५ गुणमां जे गुणना भेद गणवा होय ते गुण अने तेना विरोधी गुण गुण शिवायना शेष सर्व गुण भेद ते गुणमां प्राप्त थाय माटे पांच वर्णां कृष्णवर्णने अंगे गणीए तो २५ मांथी प्रथम कृष्णवर्ण अने त्यावाद कृष्णवर्णमां समकाळे नहि गणना योग्य शेष चार वर्ण पण वाद करत शेष २० गुणभेद १ कृष्णवर्णमां संभवे, ए प्रमाणे नीलवर्णम पण पांचे वर्णविना २० गुणभेद होय, तेथी दरेक वर्णमां २०-२० गणतां ५ वर्णना ५x२० = १०० वर्ण भेद थाय. ए रीते ५ रसमा दरेक रसने अंगे ( ५ रस शिवायना ) २०-२० भेद गणतां १०० रसभेद थाय. पुनः पांच संस्थानमां दरेक संस्थानने अंगे ( ५ संस्थान शिवायना ) वीस वीस भेद गणतां १०० संस्थानभेद पाय. पुनः २ गंधमां दरेक गंधने अंगे ( २ गंध सिनायना ) २३-२३ भेद गणतां २३x२=४६ गंव भेद थाय. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥ पुण्यतत्त्ववर्णनम् ॥ (१५७ ) - अने दरेक स्पर्शने अंगे (एक विवक्षित अने बीजो विरोधी एम २ स्पर्शविना शेष) २३-२३ भेद गणतां आठे स्पर्शना २३४८ =१८४ स्पर्शमेद थाय. जेथी सर्व मळी रूपी अजीवना ५३० भेद थाय. तेनु संक्षिस कोष्टक नीचे प्रमाणेधर्मा० स्कंध-देश-प्रदेश ३ वर्णना ५४२०=१०० रसना ५४२०=१०० अधर्मा० , , , ३ . सस्था० ५४२०=१०० गंधना २४२३:४६ आकाशा० , , , ३ स्पर्शना ८x२३=१८४ ५३० रूपी अजीव. १०-अरूपी अजीव. धर्मा० द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव-गुण ५ अधर्मा० , , , , , ५ आकाशा०,, , , , , ५ काळ , , , , , ५ . अरूपी अजीव-२० ॥कालविचार.॥ लोकरुढिये कालना कृत-त्रेता-द्वापर-कलियुग ए प्रमाणे भेदो कल्पेला छे तेमां कृतयुग १७२८००० सत्तर लाख अठ्ठावीश हजार वर्षनो, त्रेतायुग १२९६००० बार लाख छन्नु हजार वर्षनो, द्वापरयुग ८६४००० आठ लाख चोसठ हजार वर्षनो अने कलि. युग ४३२००० चार लाख बत्रीश हजार वर्षनो छे, सर्वना मळी Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८) ॥श्री नवतत्त्व विस्तरार्थः ।। ४३२०००० तेंतालीश लाख वीश हजार वर्ष थया, एक पूर्वमां एक क्रोड त्रेसठ लाख अने तेत्रीश हजार त्रणसें अने तेत्रीस वार चारे युगोनी परावृत्तिमो अने चारे युगना समहितकालनो एक तृतीयाश १/३ भाग व्यतीत थाय छे. दशवकालिक चूर्णिमां - पुद्गल अने नोपुद्गल ए प्रमाणे अ. जीव बे भेदे छे. पुद्गलना ६ भेद १ सूक्ष्म, २ सूक्ष्म सूक्ष्म, ३ सूक्ष्म बादर, ४ बादरसूक्ष्म, ५ बादर, ६ वादर बादर ए भेदोना अनुक्रमे १ परमाणु, २ सूक्ष्मपरिणत अनन्तप्रदेशीस्कन्ध, ३ गन्ध, ४ वायु, ५ जल, ६ पृथ्व्यादि. नो पुद्गलना--धर्मास्तिकायादिक ३ भेदो छ.. ॥ इत्यजीवतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पुण्यतत्ववर्णनम् ॥ (१६९) ॥ पुण्यतत्वम् ॥ अवतरण-नवतत्त्वमां जीव अने अजीव तत्व स्वरूप कहीने हवे त्रीजा पुण्यतत्व, स्वरूप कहे छे. त्यां आ गाथामा पुण्यना ४२ भेदमां प्रथम २७ भेद गणावे छे, ॥ मूळ गाथा १५ मी॥ सा उच्चगोअ मणुदुग, सुरदुग पश्चिंदिजाइ पणदेहा । आइतितणुणुवंगा, आइमसंघयण संठाणा ॥१५॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ सातोचैर्गोत्रमनुष्यदिक-सुरद्विकपंचेन्द्रियजातिपंचदेहाः । आदित्रितनूनामुपांगा-न्यादिमसंहननसंस्थानानि । १५॥ ॥शब्दार्थ ॥ सा-शातावेदनीय. | आइ-प्रथमनां उच्चगोअ-उच्चगोत्र ति-त्रण तणूण-शरीरनां मणुदुग-मनुष्यद्विक उवंगा-उपांग. मुरदुग-देवधिक आइम-प्रथमपंचिंदिजाइ-पंचेद्रियजाति संघयण-संघयण पणदेहा-पांच शरीर. । संठाण-संस्थान १ कर्म बेडीमां पराधीन पडे लो जीव चतुर्गति मंसारमा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) ॥नयतत्त्व विस्तरार्थः ॥ गाथार्थः-शातावेदनीय-उच्चगोत्र-मनुष्याद्विक ( मनुष्यगति अने मनुष्यानुपूर्वी)-देवद्विक ( देवगति-देवानुपूर्वी )-पंचेन्द्रियजाति, पांचे शरीर-प्रथम त्रण शरीरनां उपांग ( औदारिक उपांग-वैक्रिय उपांग-आहारक उपांग )-प्रथम संघयण (बज्रऋषभनाराच )-अने प्रथम संस्थान ( समचतुरस्र ) ए. सर्व (१७ वस्तु ) पुण्यना उदयथी मले. विस्तरार्थः-पुनाति एटले पवित्र करे ते पुन्य कहेवाय. अर्थात् जे कार्यों करवाथी अशुभ कर्मवडे मलिन थयेलो अत्मा धीरे धीरे पवित्र एटले शुभ कर्मवाळो थइ अनुक्रमे मोक्ष पहोंचे ते कार्य पुन्य कहेवाय छे, तथा ए पुन्यना कार्य करवाथी जे शुभ कभटके छे. ते कर्म घाति-अघाति भेदथी बे प्रकारे छ, घातिकमै ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीय, अन्तराय ए चारे प. ण आत्मगुणना घातक होवाथी पापतत्त्वमांज गणाय छे. अने अघातिकर्म-वेदनीय आयु नाम अने गोत्र ए चार शुभ अशुभ उभय स्वरूप छे, तेमां अशुभ प्रकृतिओ जे संक्लिष्ट अध्यव. साय वाळा जीवने बंधाय छे. ते पापमां गणी छे अने शुभप्रशस्त प्रकृतिओ जे विशुद्ध अध्यवसायवाला जीवो बांधे छे. वळी कर्मना बन्ध उदय उदीरणा अने सत्ता विगेरे अनेक अवस्थाओ छे के जेने आश्रयी भेदोमां अनेक विकल्पो पडे छ तेमां अहीं पुण्य-पापतत्त्वमा गणाती प्रकृतिओ बन्धावस्थानी लेवानी छे. ते बन्धमा ५ ज्ञानावरण. ९ दर्शनावरण २६ मो. हनीय. ५ अन्तराय, मळी ४५ घाति प्रकृतिओ पापतत्वमा ग. णवानी छे, १ आशा. वेदनीय. १ नीचैत्र १ नरकायु ए त्रण पण त्रण कर्मनी पापमां छे, शेष ए त्रणनी पांच तथा नाम कर्मनी ६७ प्रकृतिओमां वर्णचतुष्क प्रशस्ताप्रशस्त भेदे बे व. खत गणवान होवाथी ७१ पैकी ३४ अशुभ नाम प्रकृति पापमा छे अने बाकी रहेला ३७ प्रशस्त नाम प्रकृति पुण्यमों गणवी एटले १ वेदनीय, ३ आयुष्य, ३७ नाम प्रकृति, १ गोत्र मली १२ पुण्य प्रकृति जाणवी (सू- वि-उ-उ. ग. ) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ पुण्यतत्ववर्णनम् ॥ (१६१) में बंधाय ते शुभ कर्म पण पुण्य कहेवाय. ए प्रमाणे पुण्यनां पुण्यक्रिया अने पुण्यफल रूप बे अग छे. ने ते परस्पर कारण काय भावे छे. केमके पुण्यनी क्रियाथी पुण्य (शुभकर्म ) उपार्जन थाय छे ( बंधाय छे ) माटे पुश्यनी क्रिया ए कारण छे अने वंधायलं शुभकर्म ते कार्यरूप ले. हव जे क्रिया वडे पुण्य बंधाय छे. ते ९ क्रियाओ आ प्रमाणे छे (पुण्य बांधवाना कारण.) १ पात्रने अन्न देवाथी २ पात्रने पाणी देवाथी. ३ पात्रने स्थान आपवाथी ४ पात्रने शयन आपवाथी, ५ पात्रने वस्त्र आपवाथी ६ मनना शुभ संकल्पथी. ७ वचननां शुभ व्यापारथी ८ कायाना शुभ व्यापारथी ९ नमस्कारादिकथी . अहिं मोक्ष मार्गने अभिमुख थयेला मुनि सुपात्र, धर्मी गृहस्थ पात्र अने करुणा करवा योग्य अपंगादिक जीवो पात्र ए त्रणेने पात्र शब्दथी ओळखवा. अने शेष सर्व अपात्रमा गणाय. तेमां पण सुपात्रने ' मुख्यत्वे धर्मनी बुद्धिए अन्नादिक आपवाथी.अ. शुभकर्मनी महानिर्जरा पूर्वक महा पुण्य उपार्जन थाय. अने धर्मी गृहस्थने अन्नादिक आपवाथी मुनिनी अपेक्षाए अल्प पुण्य उपाजैन थाय, अपंगादिक दुःखी जीवोने अन्नादिकथी उद्धार करतां पुण्य उपार्जन थाय, ते शिवायनो गमे ते जीव घरने द्वारे आवी उभो रहे तेने निराश करी काढतां मारो धर्म निंदाशे माटे तेम नहिं थवा देवानी इच्छाए आपे तो पुण्य उपार्जन करे, अने लक्ष्मीना निर्मोहपणाथी लक्ष्मीनी अमारता दर्शाववाने माटे ( श्री र गोणपणे पौगलादिक सुखनी, अने देवादिक सद्गति मल वानी अभिलाषा धर्म राग होवाथी पुण्य बंधाय, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः॥ तीर्थकरादि दीक्षा लेनार जीवोनी पेठे) गमे ते जीवने दान आपे तो पण ' पुण्य बंधाय ए सर्व विगत पात्रत्वने अपेक्षीने कही शेष भेद सुगम छे. ____ हवे ते बंधायलु पुण्य कये कये प्रकारे उदय आवे छे-भोगवाय छे ? तेज ४२ प्रकारे पुण्य भोगववानो संबन्ध गाथामां कह्यो छे. ते आ प्रमाणे १ शातावेदनीय-जे कर्मना उदयथी सुखनो अनुभव थाय ते कर्म तथा ते सुखनो अनुभव बन्ने पुण्यमां कहेवाय. - उच्चगोत्र-जे कर्मना उदयथी उच्चकुळ-जाति-धन-ठकुराइ इत्यादि प्राप्त थाय ते कर्म तथा उच्चकुल वगेरे सर्व पुण्य कडेवाय. १ प्रसंगे ए पण ख्याल रहेवो जोइए के-- १ श्वान-कबूतर-वगेरे जीवोने अन्नादिक आपवाथी तथा जीवितदान आपवाथी पण पुण्य बन्धाय छे. कारणके तेमां करुणा भावथीज पुण्य बन्धाय छे २ घेर आवेला ब्राह्मण-बावा-जोगी-संन्यासी विगेरे के जेओ सत्यधर्मथी विमुख छे तेओने “आ पण धर्मी जीवो डे' अथवा " आपणे एमने आपीशुं तो धर्म थशे पुण्य थशे " ए. वी बुद्धिथी आप नहि. पण श्रावकनां अभंगहार होवाथी कोइपण बारणे आवेलो जीव सवथा निराश थइ पाछो न जाय अने जाय तो मारो धर्म जगतमा हलको गणाय, अथवा "मारो दाक्षिण्य गुण न गणाय" एम विचारीने अवश्य आपवं. जोइए कारणके एथी पोतानो दान गुण प्रगटे. धर्म मारो गणाय. अने अन्य जीवो पण धर्माभिमुखी थाय. ३ केटलाएक जीवो कृवा वाव- तलाव- खोदाववामां ने सदाव्रत बंधाववामां पुण्य माने छ कारणके घणा जीवी नं. थी पोत.ना आन्मानी शान्ति करे ले, तथा बनादिकमां दव मूकी ढोरने चरवाना क्षेत्र बनाववामां इत्यादि अनेक कार्यमां पुण्य माने छे, परन्तु ते अज्ञानता छे, एम स्पष्ट रीतं श्री यांगशास्त्रमा को छे, अने जो एबी रीते पुण्य बंधा होय तो Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पुण्यतत्त्वसप्तदशमेदवर्णनम्. ॥ (१६३) ३ मनुष्यगति-जे कर्मना उदयवडे मनुष्यपणु प्राप्त थाय ते कर्म तथा मनुष्यपणुं बन्ने पुन्य कहेवाय. ४ ' मनुष्यानुपूर्वी जे कर्मना उदयवडे वक्रगतिए जतो मनुष्यगति वाळो जीव पोताने ज्यां उत्पन्न थq होय त्यां ज जइ शके ते कर्म तथा ते कर्मनो उदय बन्ने पुन्य कहेवाय. ५ देवगति-जे कर्मना उदयथी देवपणु प्राप्त थाय ते. ६ देवानुपूर्वी जे कर्मना उदयथी देवपणामां ज्यां उत्पन्न थq होय तेज क्षेत्रमा जइ देवपणे उत्पन्न थाय ते.. ७ पंचेन्द्रियजाति-जे कर्मना उदयथी पंचेन्द्रियपणुं प्राप्त थाय ते कर्म तथा पंचेन्द्रियपणुं बन्ने पुन्य कहेवाय. ८' औदारिकशरीर-जे कर्मना उदयथी औदारिक शरीरनी प्राप्ति थाय ते कर्म तथा शरीर बन्ने पुन्य कहेवाय. वैक्रियशरीर-जे कर्मना उदयथी वैक्रिय शरीरनीमाप्ति थाय ते कर्म तथा शरीर वन्ने पुन्य कहेवाय. दरेक जीवोना सुखने माटे खेतरो खेडी धान्य उगाडी आप. वां, दरेकने माटे मकानो बांधी आपवां, दरेकने परणावी आ. पवां अने दरेक जीवो जेमां जेमां पोते सुख मानता होय तेवां तेवां साधन तेओने बनावी आपवां तो पछी पापनु कार्य ज क बाकी रह्यं ? माटे ए मान्यता अज्ञानसूचक छे, परन्तु तरस्यो जीव अथवा व्याकुळ थयेलो जीव आपणी पासे आग्यो होग तो आपणे करुणाभावथी तेने पाणी अने अन्न आपी शान्त करवो ए फरज छे. आ संबन्धमां घणो त. कवाद धर्ममार्गने बाध न पहोंचे तेम विचारवगे. १ ऋजुगतिण ( सीधी गतिए ) जता जीवने आनुपूर्वीनो उदय नथी पण वक्रगतिए जता जीवने जे ठेकाणेथी वळ. वार्नु आवे ते ठेकाणे जे कर्म जीवने बळदने नाथनी पेठे वाकी आपे ते वाळनार कर्मनुं नाम आनुपर्वी कहेवाय छे. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) ॥ नवतश्व विस्तरार्थः ॥ १० ३ आहारक — जे कर्मना उदयथी आहारकशरीरनी प्रा. प्ति थाय ते कर्म तथा शरीर बन्ने पुन्य कहेवाय. ४ ११ तेजस - जे कर्मना उदयथी तेजस शरीरनी प्राप्ति थायते कर्म तथा शरीर बन्ने पुन्य कहेवाय. १२ ५ कार्मण -- जे कर्मना उदयथी कार्मण शरीरनी प्राप्ति थाय ते कर्म तथा का० शरीर बन्ने पुन्य कहेवाय. $ १३ औदा० उपांग- जे कर्मना उदयथी औदा० शरीरने आंख - नाक-कान- इत्यादि अवयवो प्राप्त थाय छे ते. ( अहिं अवयव विनानुं पण औदा० शरीर एकेन्द्रिय जीवोने होय छे. माटे अवयवोनी प्राप्ति पुण्यरूपे जाणवी. ). १४ वैक्रियउपांग- जे कर्मना उदद्यथी बै० शरीरने अवयवो ( आंख - नाक-कान-आंगळीओ ) इत्यादि प्राप्त थाय ते. (अहिं वायुकायना बै० शरीर ने अवयवो होता नथी ने देवादिकने होय छे माटे पुण्यप्रकृतिरूप छे ). १५ आहारक उपांग- जे कर्मना उदयवडे आहा० शरीरने अवयवोनी प्राप्ति थाय ते ( अहिं कोईपण आहा०शरीर अब यत्र विनानुं यतुं नयी पण एकेन्द्रियने जेम अवयव' विनानुं औ१-२-३-४-५ ए पांचे शरीरनु विस्तृत वर्णन ७ मी गाथाना अर्थमां आवी गयुं छे माटे अहिं तो नाम मात्रज दशवेल छे. ६ कार्मण शरीर भवमा भ्रमण करावनार छे छतां पुन्य रूप केम गणाय ? ए संबन्धि समजवानुं एछे के - सर्व पौ द्रलिकसुखो अने दुःखो कार्मण शरीरना प्रभावथी छे, परन्तु पौगलिकसुखमां कार्म० शरीरनी मुख्यता गणीने पुन्यप्रकृति मां गणेल छे.. १ शंका वनस्पतिने शाखा प्रशाखा पुष्प - फळ इत्यादि अनेक अवयव छतां एकेन्द्रियनुं औदा०शरीर उपांगरहित केम काय ? Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पुण्यतस्वसप्तदशभेदवर्णनम् ॥ (१६५) दा०शरीर बूढुं थाय छे तेम आहा शरीर न थाय माटे आहा०उ. पांग कर्मनी आवश्यकता छे. जो ए कर्म न होयतो आहा०शरीर रुड मुंड आ त्रणे उपांगनी अंदर १ अंग २ उपांग ३ अंगोपांगए त्रणे पण समजवा. १ अंग- मुजा. बे उरु, पृष्ठ, मस्तक, उदर, छाती, ए आठ छे, २ उपोग-आंगळीओ विगेरे. ३अंगोपांग-रेखाओ विगेरे. जेवू अशोभनिक थाय माटे ए उपांगकर्म पुण्यरूप छे.) १६ वज्रऋषभनाराच संघयण-जे कर्मना उदयथी वज्रऋषभनाराच संघयण प्राप्त थाय ते. ( अहिं संघयण एटले हाडकांना सांधानुं बंधारण ते ६ प्रकारनुं छे तेमांनुं आ हेलुं संघयण छे. त्यां वज्र-खीली, ऋषभ-हाडनो पाटो, अने नाराच-वांदरीन बच्चु जेम माने हाथनी आंटी मारी मजबूत वळगी रहे छे तेम बे हाडकांना बे छेडा परस्पर एकबीजाने आंटी मारी मजबूत रीते वळगी रहे ते मर्कटबन्ध कहेवाय. तेमां हेला संघयण वाळा जीवनां हाडकांना ज्या सांधा होय ते सांधाने स्थाने आवेलां बे हाडकांना बे छेडा एकबीजाने मर्कटबन्ध माफक वळगी रहेला होय ने ते मर्कटबन्ध उपर हाडकानो मजबूत पाटो उपर नीचे वींटाइ रहेलो होय छे, अने एक हाडकानी खीली ते पाटाउपरथी टेट नीचे सुधी पाटो-अने बे हाडना छेडाने भेदीने उतरेली होय. जे जेथी ए सांघो एवो मजबूत थाय छे के मोटी शीला ओथी ६ माससुधी कचडता पण ते हाडकांना सांधा त्रुटता नथी पण मात्र पोडाज थाय हे, एवां संघयणनी प्राप्ति खरेखर पुन्यवि. ना न ज होयबीजां पांच संघयणन स्वरूप पापतत्वमा आवशे.) उत्तर- ते दरेक अवयवना अधिष्ठाता जीके जुदा जुदा रे पण ते अवयवी वस्तुताए कोइ पण एक वृक्षजीवना बनावेला नी. माटे एकेन्द्रियने उपांगनी उदय नधी. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( . १६६ ) || श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ १७ समचतुरस्र संस्थान - जे कर्मना उदयथी समचतुरस्र संस्थाननी प्राप्ति थाय ते. ( अहिं संस्थान एटले जीवना शरीर नो लक्षणयुक्त आकार ते ६ प्रकारनो छे तेमां आ प्रथम संस्थान छे. आ संस्थानवाळो जीव पर्यकासने बेठो होय ते वखते डावा पगना ढींचणथी जमणा खभा सुधीनी लंबाई, जमणा पगना ढींचणी डावा खभासुधीनी लंबाई, जमणा ढींचणथो डावा ढींचण सुधीनी लंबाई, पर्यकासनना मध्यभागवी ललाटोपरिभाग सुधीनी उंचाइ एम सर्व रीते मापतां लंबाइओ सरखे दापं आवी रहे ते समचतुरस्र संस्थान कहेवाय. तेमां सम एटले सरखा, चतुः एटले चार ने अस्र खूणा, अर्थात् जेना चारे खूणा सरखा मापना होय ते समचतुरस्र कहेत्राय अथवा जे मनुष्य पोताना अंगुल वडे १०८ अंगुलथी उंचो होय ते पण समचतुरस्र संस्थानी होय. सर्व तीर्थकरो अने सर्वे देवो समचतु० संस्थानीज होय ने शेष जीवो बन्ने प्रकारे होय. • शंका- मनुष्यने अपेक्षीने तो समचतु०नो ए अर्थ संभवे पण गर्भज तिर्यंचोनु समचतु० संस्थान होय छे तो ते केवीरी मापी शकाय ? उत्तर - समचतुरस्र शब्दनो व्युत्पत्तिनिमित्तनी अपेक्षाए उपर कह्यो ते अर्थ जाणवो पण प्रवृतिनिमित्तथी तो सामुद्रिकशास्त्रोक्तलक्षणयुक्त शरीराकृतिने समचतुरस्र वहीये. अने ते उत्त लक्षणयुक्त संस्थान तो गर्भजतिथैचोने पण संभवे, कारण के श्री सर्वज्ञोए हाथी-घोडा - बळ दगाय वगेरे जे जीवोना अवयवोनुं प्रमा शरीरना जेटलामे भागे जोइए ते तथा लक्षण विगेरे सर्व दर्शावेल छे ने ते प्रमाणे हवाथी समचतुरस्र संस्थानी कोवाय. वाकीना पांच संस्थानोनुं स्वरूप पापतत्वमां कहेबाशे. ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पुण्यतत्त्वपञ्चविंशतिभेदवर्णनम् ॥ . (१६७ ) अवतरण-पूर्व गाथामां पुण्यना १७ भेद गणावीने हवे श्रा गाथामा वाकी रहेला पुण्यना २५ भेद गणावे छे. . ॥ मूळ गाथा १६ मी.॥ बन्नचउक्काऽगुरुलहु-परघा उस्सास आयवुजोअं। सुभखगइ निमिण तसदस,सुरनरतिरिआउतित्थयरं॥१६॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ वर्णचतुष्काऽगुरुलघु-पराधातोच्छ्वासातपोद्योतं । शुभखगतिनिर्माणत्रसदशक-सुरनरतिर्यगायुस्तीर्थकरं॥१६॥ ॥शब्दार्थः ॥ वनचउक्क--(शुभ)वर्ण--गंध--रस सुभखगइ-शुभविहायोगतिनामकर्म ने स्पर्श ए चार. निमिण--निर्माणनामकर्म. अगुरुलहु--अगुरुलघुनामकर्म. तसदस--वस वगेरे १० नामकर्म परघा--पराघातनामकर्म सुर--देवनु आयुष्य. उस्सास--श्वासोच्छ्वासनामकर्म नर--मनुष्यनु आयुष्य. आयव--आतपनामकर्म. तिरिआउ--तिर्यचनु आयुष्य. उज्जोध--उद्योतनाम कर्म. तित्थयरं--तीर्थकरनामकर्म. गाथार्थ:-शुभवर्ण-शुभगंध-शुभरस-शुभस्पर्श-अगुरुलघुनामकर्म-पराघातनामकर्म-श्वासोच्छवासनामकर्म-आतपनामकर्मउद्योतनामकर्म-शुभविहायोगतिनामकर्म-निर्माणनामकर्म-सनामकर्म-बादरनाम०-पर्याप्तनाम० प्रत्येकनाम०--स्थिरन.म०-शुभनाम० -सौभाग्यनाम०-सुस्वरनाम०--आदेयनाम० --यशनाम०-देवायुष्य-- मनुष्यायुष्य--तिबंचायुष्य--अने तीर्थकरनाम० ए सर्व (२५) पुगयना उदयथी प्राप्त थाय छे. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८ ) ॥श्री नवतत्व विस्तरार्थः ॥ विस्तरार्थः-वर्णचतुष्कमां वर्ण एटले रंग-गंध एटले गंधरस एटले स्वाद-अने स्पर्श एटले स्पर्श ते अहिं शुभ ग्रहण करवाना होवाथी ते शुभवर्णादिकनां नाम आप्रमाणे १८ शुभवर्ण-जे कर्मना उदयथी जीवन शरीर श्वेत (धो. का )-रक्त ( लाल )-अने पीत (पीळा ) वर्णनु थाय ते कर्म . अने प्राप्त थयेलो शुभवर्ण बन्ने पुन्य गणाय. १९ शुभगंध-जे कर्मना उदयथी जीवनु शरीर सुरभि गंधवाळु थाय ते, जेम मोगरो-गुलाब-केवडो इत्यादिक जीवोनु० ...२० शुभरस-जे कर्मना उदयथी जीवनु शरीर आम्ल ( खाटुं)-मधुर' ( मिष्ट )-अने कपायली (तूरुं) होय ते जेम अनुक्रमे आमली-शेलडी-अने हरडे वगेरे जीवोन. २१ शुभस्पर्श-जे कर्मना उदयथी जीवनुं शरीर उष्णमृदु (कोमळ)-स्निग्ध (चिकणु)-अने लघु (हलकुं) होय ते जेमके अनुक्रमे अग्नि-कमळ-गुंदां-अने आकडानु तूर इत्यादि जीवोनु. २२ अगुरुलघु-जे कर्मना उदयथी जीवनु शरीर पोताने निर्वहन न थइ शके ए अति भारी अने हवामां उडी जाय ते अति हलकुं पण न.थाय परन्तु मध्यमसर थाय ते. ( दरेक जीव मात्रनु शरीर अगुरुलघुज होय छे. ) २३ पराघात-जे कर्मना उदयथी जीवनी एवी प्रभा पडे के बीजो सामो जीव गमे तेवो वळवान होय छतां पण तेने देखतां न लाचार बनी जाय ते... २४ उच्छवास-जे कर्मना उदयथी जीव सुखपूर्वक श्वासोछच्चास लइ मूकी शके तेवी लब्धिवालो थाय ते. (ए कर्मनी उदय सर्व पर्याप्त जीवोने ज होय छे.) . १ लवणनो.जे खारो रस ते पण बीजा पदार्थाने मधुर रसवाळा बनावनार होवाथी मिष्ट-मधुररममां गणाय डे. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ पुण्यतत्त्वभेदवर्णनम् ॥ (१६९) २५ आतप-जे कर्मना उदयथी जीवन शरीर शीत छतां उष्णप्रकाशयुक्त होय ते, जेमके सूर्यना विमानगत पृथ्वीजीवो त. था मूर्यकांत मणीना जीवोने. ए कर्म खर बादरपृथ्वीकाय पर्याम जीवोनेज होय परन्तु अग्निने पण नहिं. २६ उद्योत-जे कर्मना उदयथी जीवन शरीर शीतप्रकाश युक्त थाय ते. जेमके सूर्य शिवाय चार ज्योतिषी विमानना पृथ्वीकाय-आगीआ-वगैरेने ( उत्तरबै० शरीरने पण. ) __२७ 'शुभविहायोगति-जे कर्मना उदयथी जीवनी गति ( चाल ) हंस अने बळदना सरखी मलपती होय ते. जेमके हंसहाथी-बळद-वगेरे जीवोने. ( अहिं शुभ-सारी विहायस्-आकाशमां-खुल्ली जगामां गति--गमन करवु-चालवू ए व्युत्पत्यर्थ छे.) __२८ निर्माण-जे कर्मना उदयथी जीवनुं शरीर ज्यां जेई जोइए त्यां तेज बने ते. ए कर्म सुतार. सरखं छे २१ थी--३८ (सादि १० प्रकृति आगळनी गा. थामां कहेवाशे.) ३९ देवायुष्य--जे कर्मना उदयथी देवभवमा रहेवाना कारण रूप देव संबन्धि आयुष्यनी प्राप्ति थाय ते ( जेम देवोने ) ४० मनुष्यायुष्य-पूर्ववत् ४१. तिथंचायुष्य-पूर्ववत् । आकाश शिवाय कोइनी पण गति थती नथी छतां . गतिनाम कर्म जुटुं होवाथी आकाश वाचक विहायस विशेष. . ा आप पडे ठे. २ तिर्यंच जीवी पोताना जीवतरने सारं समजी मरवाने इच्छता नथी माटे तिर्यचनुं आयुष्य पुण्यरूप छे, अने ना. गक जीवो पोताना जीवतरमांथी छटवानेज इच्छरे छे माटे नारक जीवनं आयुष्य पापमा गणारा. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७०) ॥श्री नवतत्त्व विस्तरार्थः॥ ४२ तीर्थंकर-जे कर्मना उदयथी त्रणे भुवनमा पूज्य पणुं प्राप्त थाय, चतुर्विध संघ स्थपाय, अने सर्व जीवोनो उद्धार थाय छे. (जेम ऋषभदेवादिकने ) ___ अवतरण-पुण्यतत्वना ४२ भेदमां जे. त्रसवें दशक कयु ते त्रस वगेरे १० प्रकृतियो ( भेद ) कइ कइ ? ते आ गाथामां गणावे छे. ॥ मूळ गाथा १७ मी. ॥ तस बायर पजत्तं, पत्तेय थिरं सुभं च सुभगं च । सुस्सर आइज्जजसं, तसाइदसगं इमं होइ ॥ १७ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः॥ बसवादपर्यासं, प्रत्येकं स्थिरं शुभं च सुभगं च । सुस्वरादेययशस्त्रसादिशकमिदं भवति ॥ १७ ॥ ॥शब्दार्थः ॥ नस-सनामकर्म पत्तेय-प्रत्येक नामकर्म बायर-बादरनामकर्म थिरं-स्थिर नामकर्म पजत-पर्याप्तनामकर्म -शुभ नामकर्म प्रश्न-जेम देवायु-नरायु नी साथे तेनीगति-आनुपर्वीओ पुण्यप्रकृतिगणी छे तेम तिर्यंचायुनी सार्थ तेनी मति-आनपर्वी केम गणतरीमां लीधी नथी ? उत्तर-जे विशुद्ध अध्यवसाये बंधाय अ. शुभ रस पणे भोगवाय तेज पुण्य प्रकृति गणाय छे अने संक्लिष्ट नध्यवसाये बंधाय ते पाप प्रकृति गणाय छे जे माटे शतकादि प्रकरणोमां को छे के-बायालंपि पसन्था, विसोहिगुणमुक्कडस्स जीवस्स बासीइमप्पसत्था इत्थुकडसकिलिस्म ॥ १ ॥ " वलीआयुष्यकर्म भिन्न छ अने नामकर्मना उत्तर भेदरूप गति आनु पर्वीको भिन्न हे माटे तेना बन्धकारणो पण भिन्न भिन्न छे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पुण्यतत्त्वभेदवर्णनम् ॥ (१७१) च-नली जसं-यश नामकर्म सुभगं-सौभाग्य नामकर्म | तसाइ-त्रस विगेरे मुस्सर-सुस्वर नामकर्म । दसगं-१० भेद आइज-आदेय नामकर्म इम-ए प्रमाणे होइ-2. गाथार्थः-त्रसनाम-बादरनाम०-पर्याप्तनाम०-प्रत्येकनाम-स्थिरनाम०-शुभनाम०-सौभाग्यनाम०-मुस्वरनामकर्म-आदेयनाम अने यशनाम-ए प्रमाणे त्रस वगेरे १० प्रकृतियो-भेद छ. विस्तरार्थ:-सदशक एटले त्रस नाम कर्म विगेरे १० प्रकृति ते त्रसदशक कहवाय. ते आ प्रमाणे १ स-जे कर्मना उदयथी जीवने सपणुं ( त्रास पामी एक स्थानथी बीजे स्थाने जवानी शक्ति ) प्राप्त थाय ते अहिं वायु अने अग्नि एबे स्थावर छतां पण गतिक्रियावाला छे परन्तु तेओनी गतिक्रिया त्रास-भय अने अनिष्टपणाना कारणथी नथी माटे वास्तविकरीते गतित्रस कहेवाग पण लब्धि (-नामकर्मना उदयथी ) त्रस नहिं . बादर-जे कर्मना उदयथी जीवने स्थूल शरीर (इन्द्रियगोपर यह शके तेवु शरीर ) प्राप्त थाय ते. अहिं एक पृथ्विकायादि जीवन शरीर इन्द्रियगोचर यतुं नथी तो पण अनेक पृथ्विकायजीवोना शरीर एकठां थये दृष्टिगोचर थाय ले माटे एक पृथ्विका याटिकनुं शरीर पण बादर कहेवाय. पर्याप्त-जे कर्मना उदयथी जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों संपूर्ण करीने मरण पाम ने. ४ प्रत्येक-जे कर्मना उदयथी एकन जीव एक शरीरको पालिक होय ते (अथवा एक शरीर एकज जीवने प्राप्त थाय ते) '५ स्थिर-जे कर्मना उदयथी जीवने शरीरना दांत-हाडका वगैरे अवयवोने थिग्नानी प्राग्नि थाय ने-~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) || श्री नवतश्वविस्तरार्थः ॥ ६ शुभ - जे कर्मना उदयथी जीवना शरीरनो नाभि उपरनो भाग परने स्पर्श थतां प्रीति उपजावनार थाय ते. ७ सौभाग्य - जे कर्मना उदयथी कंइ पण उपकार कर्या विना पण जीव लोकने प्रीति उपजावनार होय ते. ८ सुस्वर - जे कर्मना उदयथी जीवनो कंठ भवाज मधुर होय ते. ९ आदेय - जे कर्मना उदयथी जीवनुं वचन अयुक्त अने गांड घे होय तो पण लोक तेना पर बहु आदर भाव राखे अने इश्वरना वचन सरखुं माने ते. १० यश - जे कर्मना उदयथी अवळां काम करे तो पण लोमां तेनी कीर्त्तिज गवाय ते. १ ए प्रमाणे ४२ प्रकारे पुण्य उदयमां आवे छे, माटे पुण्यवना उदयने आश्रयी ४२ भेद गण्या छे. ॥ इति तृतीय पुण्यतत्त्ववस्तरार्थः समाप्तः ॥ || पुण्यत्तत्त्वपरिशिष्टम् ॥ (0) आ पुण्यता ४२ भेदमांथी नरकादि चार गतिमां कया का भेद होते बाय -- २ १ नरकगतिमां - शातावेदनीय पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियनामकर्म, तैजसनामकर्म, कार्मणनामकर्म, वैक्रिय उपांगनामकर्म, वर्णादि४ १ तत्वार्थकारने मते सम्यकत्वमोहनीय १ हास्य २ रति ३ पुरुषवेद ४ ए चार मोहनीयकर्मनी प्रकृतिओ पण पुण्यमांज ग्रहण करो छे. २ जिनेश्वरोना जन्मकल्याणकादि प्रसंगे होय, ३ जो के नारक जीवोनां शरीर स्थूलद्रष्टि कृष्णवर्णादि अशुभ वर्णचतुष्क वाळां छे तोषण सूक्ष्मद्रष्टि ए शरीरो. मां अल्पांशे शुभ वर्णचतुष्क पण छे. ) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पापतत्वद्व्यशीतिभेदवर्णनम् ॥ (१७३) अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, निर्माण, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अने शुभनामकर्म, ए २० पुण्यभेद नारक जीवोमां होय छे. २ तिर्यंचगतिमां-मनुष्यत्रिक, देवत्रिक, अने' आहारकद्विक, अने जिननाम ए ९ विना शेष ३३ पुण्यभेद तिर्यचने होय. ३ मनुष्यगतिमां-देवत्रिक, तिर्यंचनुं आयुष्य अने आतप विना शेष ३७ पुण्यभेद मनुष्यने होय.. ४ देवगतिमां-मनुष्यत्रिक, तिर्यगायु, औदारिकद्विक, आतप आहारकठिक अने जिननाम ए १० विना शेष ३२ पुण्यभेद देवगतिमा होय. . __ ५ एकेन्द्रियने-शातावेदनीय, औदारिकअंग, तैजस, का. मण, वैक्रियअंग, वर्णादि ४, अगुरुलघु, पराघात, उच्छवास, * आतप, उद्योत, निर्माण, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, यश, अने तिर्यगायु ए.२२ पुण्यभेद एकेन्द्रिय जीवोने होय. ६ वीन्द्रियने-शातावेदनीय, औदारिकद्विक, तैजस, कार्मण, वर्णादि ४, अगुरुलघु, पराघात, उच्छवास, उद्योत, निर्माण, तिर्यगायु, त्रस. बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, यश, ९२२ पुण्यभेद. ७ त्रीन्द्रियने-द्वीन्द्रियवत् २२२ ८ चतुरन्द्रियने९ पंचेन्द्रियने-आतपविना ४१ पुण्यभेद होय. ॥ इति पुण्यतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ १ १४ पूर्वधर लब्धिवंत साधुनेज होय ? २ भादर पर्याप्तपृथ्वीकायने ज होय. ३ बादरपर्याप्तलब्धिवाळा वायुकायनी अपेक्षाये, ४ बादरपर्याप्त केटलाक पृथ्वीकायनी अपेक्षाये. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पापतत्त्वम् ॥ अवतरण-हवे पापतत्त्वना ८२ भेद गणावतां प्रथम आ गा. थामा पापतत्वना ६२ भेद कहे छे. ॥ मूळ गाथा १८ मी. ॥ नाणंतरायदसगं, नव बीए नी असाय मिच्छत्तं । थावरदस निरयतिगं कसायपणवीत तिरियदुर्ग १०) ॥ संस्कृतानुवादः ॥ ज्ञानान्तरायदशकं, नव हितीये नीचरसातमिथ्यात्वम् । स्थावरदशकनिरयत्रिक, कषायपंचविंशतिः तिर्यगतिक॥१८॥ ॥ शब्दार्थः ।। नाण-ज्ञानावरण पांच .. मिच्छत्त-मिथ्यात्व अंतराय-अन्तराय पांच थावरदस-स्थावर वगैरे दशभेद दसंग-ए बे मलीने दश निरयतिग-नरकत्रिक ( नरक नव-नव (भेद ) संबन्धि ३ प्रकृति ) बीए-बीजा दर्शनावरणना कसाय-कषाय नीअ-नीचगोत्र पणवीस-पच्चीश असाय-आशातावेदनीय तिरियदर्ग-निर्यचनी चे प्रकृति गाथार्थः-५ ज्ञानावरण अने ५ अन्तराय ए बे मलीने १० भेद तथा बीजा दर्शनावरणीय कर्मना ९ भेद-नथा नीचगोत्रअशानावेदनीय-मिथ्यान्वमोहनीय-स्थावर वगेरै १० मंद-नरक Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पापतश्वद्व्यशीतिभेदवर्णनम् ॥ ( १७५) नुं त्रिक ( नरकनी गति - आनुपूर्वी - ने आयुष्य ) - २५ कषा-ने तिचनुं द्विक [ तिर्यचनी गति ने आनुपूर्वी ) ए सर्व ८२ पापना उदयथी प्राप्त थाय छे. विस्तरार्थः हवे पापतमां पाप एटले अशुभ कर्म अने ते अशुभ कर्मना उदयथी मळेलं फळ ए बन्ने पाप कहेवाय ले. आ जीवनो एवो एक पण समय खाली नथी जतो के जे समये पुण्य अथवा पाप कंड पण न बांधे, कारण के प्रतिसमये जीव शुभ एटले मोक्षमार्गांभिमुखी काषायिक अध्यवसायवडे ( परिणामवडे पुन्य बांधे अने अशुभ काषायिक अध्यवसायवडे पाप बांधे. ते | पुन्य पाप बांधवाना अनेक प्रकार छे तो पण सामान्यतः पुन्य बांधवाना ९ प्रकार पूर्व दर्शाव्या अने पाप बांधवाना १८ प्रकार लेने आ प्रमाणे nok १ जीवहिंसा करवाथी २ असत्य बोलवाथी ३ चोरी करवाथी ४ विषय सेवाथी ५ परिग्रह राखवाथी ६ read ara sarथी ७ अम० मान करवाथी ८ अप० माया प्रपंच करवाथी ९ अमर लोभ करवाधी १०. अप्र० राग राखवाथी ११ अप्र० द्वेष करवाथी १२ अम० क्लेश करवाथी १३ कलंक देवाथी १४ चाडी करवाथी १५ हर्ष शोक करवाथी १६ निंदा करवाथी १७ कपट राखी जट बोलवाथी १८ मिथ्यात्वनां आचरणथी ए १८ पापस्थान कहवास ते अप्रशस्तभावे सेववाथी पाप वैधाय छे. ( अने कंइकमा प्रशस्तभावे पुन्य बंधाय है. ) अने सfथा त्याग करवाrt कर्मनी निर्जरा यह मोक्ष मले छे. त्यां प्रशस्वभाव पटले श्री सर्वज्ञनी आज्ञा प्रमाणे देव गुरु धर्म उपर रागरा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) || श्री नवश्वविस्तरार्थः ॥ खवो ते प्रशस्त राग पुन्यबंधनुं कारण, अने स्त्री धन कुटुंब इत्यादि संसारपर रागभाव राखतो ते अप्रशस्त राग पापबंधनु कारण. अने धीरे धीरे राग दशाने। त्याग करवो ते मोक्षनु कारण छे.. परन्तु प्रथम प्रशस्तरागधी अप्रशस्तरागनो नाश करवो अने त्यारवाद प्रशस्त राग धीरे धीरे स्वाभाविक रीतेज ओछो थवा मांडशे. ए अनुक्रम छे. तेवीज रीते प्रशस्तक्रोध एटले धर्म अने धर्मनां कारणोनो विध्वंस करनार उपर जे क्रोबादि थाय ते प्रशस्त क्रोध. अने पोतानुं अनिष्ट करनार उपर क्रोध द्वेष धाय ते अप्र क्रोधादि इत्यादि रीते सूक्ष्म बुद्धिए विचारतां जे जे ' मोक्षाभिमुखी कारणो होय तेज विचारी पुण्य पापनो बन्ध विचारवो. ए संबन्धि अधिक वर्णन जाणवं होय तो श्री अर्थदीपिका ग्रंथथी जाणवुं हवे पूर्वोक्त १८ प्रकारे चंधायलं पाप जीवोने ८२ प्रकारे उदय आवे छे. ते आ प्रमाणे १ मतिज्ञानावरण - मन अने इन्द्रियोथी थतुं जे अक्षरोप लब्धिरूप ज्ञान ते मतिज्ञान, अने ते ज्ञाननुं आच्छादन करनार जे कर्म ते मतिज्ञानावरण. - २ श्रुतज्ञानावरण --- मन अने इन्द्रियोथी थतं जे अर्थोप लब्धिरूप ज्ञान ते श्रुतज्ञान, अथवा द्वादशांगीरूप जे शास्त्रज्ञान ते श्रुतज्ञान, अने तेने आवरनार जे कर्म ते श्रुतज्ञानावरण. १ ए हेतुवीज प्रभुती ऋषपूजा प्रभुपर रागभाववाळी होवाथी पुण्यतुं कारण छे, पण जलादिक जीवोने हणवाना कारणथी नथी के जेथी प्रभुपूजामां पापबंध होय. ए प्रमाणे सर्वधमन्नितिना मार्गो सेवतां देखीति हिंसा अवश्य थाय छ तां पण हिंसा करवाना परिणामनी अभाव होवाथी पाप नहि बांधतां धर्माध्यवसाये पुण्यज बंधाय Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नवतत्व विस्तरार्थः॥ (१७७) ३ अवधिज्ञानावरण-मन अने इन्द्रियोनी सहाय विना साक्षात् रूपीपदार्थनु जे ज्ञान ते अवधिज्ञान तेनुं आवरण. ४ मनःपर्यायज्ञानावरण-मन अने इन्द्रियोनी सहायविना मनपणे परिणमेला पुद्गलोतुं (अथवा संज्ञीपंचेन्द्रियना मनोभा. व जे ज्ञान ते मनःपर्याय अथवा मनः पर्यवज्ञान तेनु आवरण. __५ केवलज्ञानावरग-मन अने इन्द्रियोनी सहायविना सर्वपदार्थनु साक्षात ज्ञान ते केवलज्ञान तेनु आवरण. ६ दानान्तरायः-जे कर्मना उदयथी भाव अने सामग्री छ. तां पण दान न दइ शकाय ते. ७ लाभान्तराय-जे कर्मना उदयथी वस्तुनो लाभ न मळे ते. ८ भोगान्तराय-जे कर्मना उदयथी भोग्य एटले एकवार भोगववा योग्य वस्तु ( आहारादि ) न भोगवी शकाय ते. ९ उपभोगान्तराय-जे कर्मना उदयथी उपभोग एटले वारंवार भोगववायोग्य बस्तु (स्त्री-आभूषण वगेरे ) न भोगवी शकाय ते. १० वीर्यान्तराय-जे कर्मना उदयथो बल हीण थवाय ते. ए प्रमाणे ५ ज्ञानावरण अने पांच अन्तराय मळी १० भेद कह्या. पुनः आठ कर्मना अनुक्रममां हेलुं ज्ञाना० कर्म बाद बीजु जे दर्शना० कर्म तेना ९ भेद पण पापना उदय रूप ते आ प्रमाणे ११ चक्षुर्दर्शनाo-जे कर्मना उदयथी चक्षुवडे देखी शकाय नहि ते. - १२ अचक्षुदर्शना-जे कर्मना उदयथी चक्षु सिवायनी बीजी इन्द्रियोवदे पदार्थनु सामान्य ज्ञान न थइ शके ते. १३ अवधिदर्शना०-जे कर्मना उदयथी रूपी पदार्थनो साक्षात् सामान्य बोध न थाय ते. १४ केवलदर्शना०-जे कर्मना उदयथी साक्षात्पणे सर्व Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८). ॥ पुण्यतत्त्वभेदवर्णनम् ॥ पदार्थनो बोध न थइ शके ते. ( अहिं सर्वत्र ज्ञान एटले विशेष उपयोग, अने दर्शन एटले सामान्य उपयोग एवो अर्थ जाणवो.) . १५ निद्रा-जे कर्मना उदयथी सुखे ( एक शब्दमात्रथी) . जागी शकाय तेवी अल्प पण निद्रा आवे ते. ( पाप रूप ज छे) १६ निद्रानिद्रा-जे कर्मना उदयथी घणीवार बोलावे त्यारे जागे तेवी गाढनिद्रा आवे ते. १७ प्रचला-जे कर्मना उदयथी बेठां बेठां अथवा उभा उभा उंघ आवे ते. १८ प्रचलाप्रचला-जे कर्मना उदयथी चालतां चालना . घ आवे ते (जेमके घोडा वगेरेने ). १९ थीणडी-जे कर्मना उदयधी दिवसनु चिंतवेलु कार्य रात्रे उंघमां ज करे ते. (आ निद्रा वालो जीव उंघमांने उंघमां जागता माणसनी पेठे घरमां फरे-हरे बजारमा जइ वस्तुओन तोल वगेरे करे-वनमा जइ वनपशुओथी युध्ध पण करे-हाथीना दंतूशळ पण काढी लावे, इत्यादि सर्व कार्य जागतानी पेठेन करे, वळी ए. निद्रावाळो जो प्रथमसंघयणी होय तो उंघमां चक्रवत्तिथी चोथाभागजेटलं बळ होय, अने शेष जीवोने जागृत अवस्थाना वळथी वधुमां वधु सात आठगणुं बळ होय). ए पांचे निद्रा आत्मानी दर्शनलब्धिने सर्वथा आवरे छे माटे पापरूप गणाय छे नहिंतर आत्माने तो सुखरूपे ज अनुभवाय छे. ए९ भेद दर्शनावरणना कया. __ २० नीचगोत्र-जे कर्मना उदयथी हीन कुळ-जाति-ठकुराइ-इत्यादि प्राप्त थाय ते. २१ अशातावेदनीय--जे कर्म ना उदयथी जीवने दुःखना अनुभव प्राप्त थाय ते २२ मिथ्यात्व--जे कर्मना उदयथी जीव सत्यमार्गने अस Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री नवतश्वविस्तरार्थः ॥ ( १७९ ) त्यरूप जाणे अने असत्य ने सत्यरूप जाणे तेवी विपरीत श्रद्धा ते२३ थी ३२ -- ( आगळनी थावरसुहुमअपज्जं गाथामां स्थावरदशको अर्थ कहेवाशे ते जाणवो ) ३३ नरकगति -- जे कर्मना उदयथी नारकीपणु प्राप्त थाय ते ३४ नरकानुपूर्वी --- जे कर्मना उदयथी वक्रगतिए नरके जता जीवने उत्पत्तिक्षेत्र तरफ वळवुं थाय ते. ३५ नरकायुष्य --- जे कर्मना उदयथी नरकनुं आयुष्य प्राप्तथाय ते. ३६ थी ३९ अनंतानुबंधि क्रोध-मान- माया - लोभ - जे क्रोधादिना उदयथी अनन्त संसार वंधाय सम्यक्त्व रोकाय, अने नरकगति प्राप्त थाय अने आखी जींदगी सुधी टंके, तथा भवांतरमी पण साधे आवे एवो होय ते. · ४० थी ४३ अप्रत्याख्यानी क्रोध - मान-माया-लोभ - जे क्रोधादिकवडे म्हेज पण प्रत्याख्यान ( त्याग वृत्ति ) नथइशके, देश विरतिचा० रोकाय, अने तिर्यचगति प्राप्त थाय अने १ वर्ष सुधी रहेनारो होय ते, · ४४ थी ४७ प्रत्याख्यानी क्रो०- मा० - मा० - लो० - जे क्रोधादिवडे सर्व सावयव्यापारनो त्याग न थइ शके ( पण लेश त्याग वृत्ति होय ), सर्वविरतिचारित्रने रोके, अने मनुष्यगति प्राप्त थाय अने ४ मास रहेनार होय ते, ४८ थी ५१ संज्वलन क्रो०- मा० - मा० - लो० -- जे क्रोवादिवडे महात्यागी वैरागी महात्माओ पण शब्दादि इष्ट अनिष्ट विषय पामीने कंक रूचि अरुचिभाव धारण करनारा थाय ते. आ कषाय चारित्रमां अतिचार-दूषण लगाडे माटे संपूर्ण शुद्ध यथाख्यात चारित्र ने रोकनार, अने देवगति आपनार के Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८०) श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः॥ अने १५ दिवस सुधी रहेनार होय छे, ए कषायोनो व्युत्पत्त्यर्थ आ प्रमाणे-अनंत-अनंत संसारने अनुबंधी-बांधवा ( उपार्जन करवा) वाळो ते अनंतानुबंधि. तथा अ एटले नथी प्रत्याख्यान-पच्चख्खाण (त्यागवृत्ति) नो लेश जेमां ते अप्रत्याख्यानी. तथा प्रत्याख्यान एटले सर्वविरति पञ्चख्खाणने आवरण रोकनार ते प्रत्याख्यानावरण कहेवाय तथा सं-सम्यक् प्रकारे ( अति अल्प) जलन-जाज्वल्यमान थनारोते संज्वलन. तथा क्रोध-खेद, इर्ष्या-गुस्सो. मान-अभिमान. माया-छळ-प्रपंच-कपट. लोभ-तृष्णा, अधिकनी इच्छा. पुनः ए कषायोनी जे जावजीव-एकवर्ष इत्यादि स्थिति कही ते व्यवहारथी स्थूलदृष्टिए जाणवी, अन्यथा अनन्तानुबंध्यादि हीनाधिक स्थितिवाळा (अन्तर्मुः प्रमाण पण ) होय. . ए १६ कषाय कहेवाय अने कषायनी साथेन रहेनारा अथवा कषायने उत्पन्न करवामां कारणरूप होवाथी वीजा ९ नोकषाय ( नो-देशथी अथवा कारणरूप जे कषाय ते नोकषाय ) छे. तेनां नाम तथा अर्थ आ प्रमाणे ५२ हास्य-जे कर्मना उदयथी जीवने हर्ष उपजे अथवा हास्य आवे ते. ५३ रति-जे कर्मना उदयथी जीव इष्टविषयमां सुख माने ते. ५४ शोक-जे कर्मना उदयथी जीवने दीलगीरी उपजे ते. ५५ अरति--जे कर्मना उदयथी जीव अनिष्ट विषयमां दुःख माने ते. ५६ भय--जे कर्मना उदयथी जीव भय पामे-बीकण थाय ते. ५७ दुगंछा-जे कर्मना उदयथी जीवने बीभत्स वस्तुओ उपर तिरस्कारभाव उपजे ते. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पापतत्त्वद्व्यशीतिभेदवर्णनम् ॥ (१८१ ) ५८ पुरुषवेद-जे कर्मना उदयथी जीवने स्त्रीसंगमनो अभिलाष उपजे ते. ५९ स्त्रीवेद-जे कर्मना उदयथी पुरुषसंगमनो अभिलाष थाय ते. ६० नपुंसकवेद-जे कर्मना उदयथी स्त्री अने पुरुष बन्नेना संगमनो अभिलाष थाय ते. ए ९ नोकषाय कह्या. ६१ तिथंचगति-जे कर्मना उदयथी तिर्यचपणु प्राप्त थाय ते. ६२ तिथंचानुपूर्वी जे कर्मना उदयथी वक्रगतिए तियंचमां जता जीवने उत्पत्तिक्षेत्र तरफ वळवू थाय ते. अहि तिर्यंचजीवने तिर्यंचपणु इष्ट नथी माटे तिर्यचनी गति अने आनुपूर्वी पापरूप गणाय, अने तियेचपणुं प्राप्त थया बाद तिर्यंचजीवो आयुष्य दीर्घ-लांबु होय तो इष्ट माने , माटे तिर्य चनुं आयुष्य पुन्यरूप छे. अवतरण-पूर्वगाथामां पापतचना ( ८२ मांथी) ६२ भेद गणाव्या अने हवे आ गाथामां बाकी रहेला २० भेद गणावे छे. ॥ मूळ गाथा १९ मी. ॥ इगबितिचउ जाईयो, कुखगइ उवघाय हुंति पावस्स। अपसत्थं वन्नचउ, अपढमसंघयणसंठाणा ॥१९॥ ॥ संस्कृतानुवादः॥ एकद्वित्रिचतुर्जातयः, कुखगतिरुपघातो भवन्ति पापस्य । अप्रशस्तं वर्णचतुष्क-मप्रथमसंहननसंस्थानानि ॥१९॥ ___ शब्दार्थः इग-एकेन्द्रिय | ति-त्रीन्द्रिय वि-दीन्द्रिय | चउ-चतुरिन्द्रिय Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) ॥ पुण्यतत्वभेदवर्णनम् ।। जाइओ-ए चार जातिओ रस-ने स्पर्श) कुखगइ-अशुभविहायोगति अपढम-हेला सिवायनां पांच उवधाय-उपघात नामकर्म | संघयण-संघयण (हाडना सांहुति-छे धान बंधारण.) पावस्स-पापतत्त्वना ( भेद) | संठाणा-संस्थान (लक्षणवालो अपसत्थं-अशुभ आकार) वन्नचउ-वर्णचतुष्क (वर्ण-गंध- | . गाथार्थ:-एकेन्द्रियजाति-द्वीन्द्रियजाति-त्रीन्द्रियजाति-अने चतुरिन्द्रियजाति ए चार जाति-अशुभविहायोगति--उपघातनामकर्म-अशुभवर्णादि चार-अने हेला सिवायनां पांच संघयण अने पांच संस्थान ए सर्व (पूर्वोक्त सहित ८२) भेद. पापतत्वना छे. विस्तरार्थः-पापतत्वना ८२ भेदमांथी ६२ भेद कहेवाया अने २० भेद वाकी रह्या छे ते आ प्रमाणे-- ६३ एकेन्द्रिय जाति--जे कर्मना उदयथी जीवने एकेन्द्रियपणुं प्राप्त थाय ते (अहिं एकेन्द्रियने मात्र स्पर्शेन्द्रियज प्राप्त थाय) ६४ द्वीन्द्रियजाति-जे कर्मना उदयथी जीवने बे इन्द्रियपणुं ( स्पर्श-ने रसना ) प्राप्त थाय ते. ६५ त्रीन्द्रियजाति-जे कर्मना उदयथी जीवने त्रीन्द्रिय पणुं ( स्पर्शन-रसनाने घ्राण ) प्राप्त थाय ते. ६६ चतुरिन्द्रिय जाति-जे कर्मना उदयथी जीवने चतुरिन्द्रिय पणु ( स्पर्शन-रसना-घ्राण-ने चक्षु ) प्राप्त थाय ते. ६७ अशुभविहायोगति-जे कर्मना उदयथी उंट अने गदभ सरखी अशुभ चाल प्राप्त थाय ते. ६८ उपघात-जे कर्मना उदयथी जीव पोताना रसोळी प Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पापतत्वयशीतिभेदवर्णनम् ॥ (१८३) डजीभी-चोरदांत वगेरे अवयवोथी पोतेज पीडा पामे ते.' ६९ अशुभवर्ण-जे कर्मना उदयशी जीवना शरीरनो लीलो अने काळो वर्ग होय ते (जेम मयूर-पोपट अने कागने ) ___७० अशुभगंध-जे कर्मना उदयथी जीवन शरीर दुर्गंधवा: लं होय ते जेम के लसण डुंगळी विगेरे. ___७१ अशुभरस-जे कर्मना उदयथी जीवन शरीर तीखा अने कडवा रसवाल होय ते ( जेमके मरचा कारेलांने.) ७२ अशुभस्पर्श-जे कर्मना उदयथी जीवन शरीर शीत -कर्कश-रुक्ष-अने गुरुस्पर्शवाल होय [ जेमके जळ-सागनां पान -रेती अने पारो वगेरे जीवने..) ७३ ऋषभनाराचसंघयण-जे कर्मना उदयथी जीवने ऋषभनाराच संघयण प्राप्त थाय ते ( आ संघयण पूर्वे कह्या प्रमाणे वज्रऋ० ना० सरखं होय पण मात्र खीली न होय. पुनः केटलाएक आचार्य अहिं वज्रनाराचसंघयण कहे छे के जे पाटा रहित पण खीली अने .मर्कटबंध सहित होय छे एम श्री 'द्रव्यलोकप्रकाशमा' का छे. ७४ नाराच संघयण-जे कर्मना उदयथी हाडकांना सांधा मात्र मर्कटबंधवाळा होय ते. ७५. अर्धनाराचसंघयण-जे कर्मना उदयथी हाडकांना सांधा एक वाजु मर्कटबंध अने बीजी बाजु खीलीवाला होय ते. - ७६ कीलिकासंघयण-जे कर्मना उदयथी हाडकांना सांधा फक्त वीलीथीन दृढ थ्येला होय ते. ७७ सेवात्त (छेदस्पृष्ट ) संघयण-जे कर्मना उदयथी हाहकांना बे हेडा उखलमा रहेला मुशलनी पेठे स्पर्शसंबन्धवाळा . होय ते. अहिं एक हाडकानो छेडो खोभणवालो ( उखलवत् रहे Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) || श्री नवश्वविस्तरार्थः ॥ ज डंडों) होय छे. तेमां बीजो छेडो मुशलनी पेठे बैठेलो होय छे.) ए पांचे संघयण अशुभ पाप रूप छे. ७८ न्यग्रोध संस्थान - जे कर्मना उदयधी जीवना शरीरनो नाभिथी उपलो भाग लक्षणयुक्त होय अने नाभियी नीनेनो भाग लक्षण रहित होय ते. ( न्यग्रोध एटले वड सरखं आ संस्थान के,) ७९ सादि - जे कर्मना उदयथी जीवनुं शरीर नाभिथी नीचेना भागमा शुभ लक्षणवाळु होय अने नाभिथी उपरनुं अपलक्षणवाळु होय ते. ( आ संस्थानने केटलाक आचार्य साची- शाल्मली वृक्ष सरखं पण कहे छे. ) ८० वामन - जे कर्मना उदद्यथी जीवनां मस्तक- डोक - हाथ अने पग ए चार अंग सुलक्षण युक्त होय अने शेष सर्व अवयव अपलक्षणवाळां होय ते. --- ८१ कुब्ज — जे कर्मना उदयथी शरीरना मस्तक- डोक - हाथ - अने पग ए चार अवयव अपलक्षण वाळा होय अने शेष अवयव सुलक्षण होय ते. ए पांच अशुभ संस्थान का. ए प्रमाणे पुन्यवनी ४२ प्रकृति अने पाप कर्मनी ८२ प्र कृतिमां ५ ज्ञानाव० नी -१ दर्शना० नीचे वेदनीयनी - २ गोत्रनी -४ आयुष्यनी - मिथ्यात्व अने २५ कपाय ए २६ मोहनीयनी - ५ अन्तरायनी - अने शेष वर्णचतुष्क वे वार छे तेने एकवार गणतां ६७ प्रकृति नामकर्मनी जाणवी. -आ पाप तत्त्वमां जे स्थावरदशक कां ते स्थान अवतरण र वगेरे १० भेद कया कया ते गणावे छे || मूळ गाथा २० मी. ॥ थावर सुहुम अपज्जे, साहारण मथिरमसुभदुभगाणि । दुस्सरणाइज्ज जसं, थावरदसगं विवज्जथं ॥ २० ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्रीनवतश्व विस्तरार्थः ॥ ( १८५ क. ) | स्थावरदशको अर्थः ॥ १ स्थावर - जे कर्मना उदयथी जीवने स्थावरपणुं प्राप्त थाया को इत्यादि सुखदुःख हिताहितनुं गमेतेवुं कारण पडे छते पण जे एकथी बीजे स्थानके जइ शके नही तेवा पृथ्वी आदि पां च सूक्ष्म बादर एकेन्द्रियोने होय. ते काय अने वायुकाय स्वभावे गतिस्वभाववाला होवाथी गति करे छे. पण ते संज्ञा पूर्वक नहि. २ सूक्ष्म - जे कर्मना उदयथी जीवने सूक्ष्मपणुं प्राप्त थाय असंख्य वा अनन्त जीवो मल्या छतां पण जे चर्मचक्षुगोचर थाय नही असंख्य जीवोना असंख्य शरीरो या अनन्त जीवोना असंख्य शरीरो एकठा थया छतां पण देखाय नही कारण चउदराज लोकमां स नाडीनी अंदर अथवा बहार एवो एक पण आairप्रदेश नथी के ज्यां ते सूक्ष्म जीवो न होय सूक्ष्म कर्मना उदयाला पृथ्व्यादि पांच छे. तेमां वनस्पति ते सूक्ष्म निगोद रूप जाणवी बादर पृथ्व्यादि पण एक वें यावत् असंख्य सूक्ष्मदृष्टि गोचरथता नथी छतां पण तेने सूक्ष्मनाम कर्मोदय नथी. ३ अपर्याप्त जे कर्मना उदयथी जीव स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या विनाज मरण पामे जोके आहार शरीर इन्द्रिय ए ऋण पर्याप्तओ तो तमाम जीवों पूर्ण करेछे छतां पण अपर्याप्ता जीवो (एकेन्द्रिय४द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय असंज्ञि पंचेन्द्रिय५ अने संज्ञिपंचेन्द्रिय६) पोतपोतानी पर्याप्तिने पूरी करी शक्ता नथी अपaftaar for करण भेदो छे. जेनो विचार पूर्वे जीवतश्वमां पर्याप्तिविचार करेल छे. परन्तु अही लब्धि अपर्याप्त लेवा. ४ साधारण - जे कर्मना उदयथी एक शरीरमां अनन्त जीवो रहे छे. अने तेओनी उच्छवास निःश्वास आहार-वेदना बि Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ख० ) || श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ गेरे क्रिया समानरोते थाय ले ते कर्मनो उदय प्रत्येक वनस्पति वर्जिने साधारण वनस्पतिजीवोने होय ते साधारण सूक्ष्म १ बादर २९ मधे भेद छे. साधारण - निगोद - अनन्तकाय - ए सर्व एकार्थक छे. साधारण ( निगोद ) एटले अनन्तजीवोनं एक शरीर-तेवी असंख्य निगोदो एक गोळामां होय. अने तेवा असंख्य गोळाओ चौदराज लोकमां छे देखाती कन्द जाति विगेरे बादर निगोदो ( अनन्तकायो ) छे. ५ अस्थिर - जे कर्मना उदपथी जीवोना शरीरना जीभचामडी विगेरे अवयवोमां अस्थिर पणुं प्राप्त थाय ६ अशुभ - जे कर्मना उदयंथी नाभिनी निचेनो शरीरना भाग अशुभ कहेवाय छे के पग विगेरे बोजाने अडवाथी अभीति थाय छे, गुरु आदिना चरण या चरणनी रज जे भक्त जीवो प्रेमथी स्पर्शे छे ते गुरु आदि प्रत्येना बहुमान विगेरेथी के. ७ दुर्भग- जे कर्मना उदयथी माणस वीजाने बहालो लागे नहि तीर्थकर भगवान् जे भारेकमजीकोने प्रिय लागता नथी तेमां ते जीवोना पापकर्मनो उदय जाणवो, ८ दु:स्वर - जे कर्मना उदयथी जीवनो स्वर अप्रिय कर्णकटु लागे खर उष्ट्रादिजेवोकठोर होय. ९ अनादेय - जे कर्मना उदयथी जीवहितकारी बोलतांछतां पण कोने ग्राह्य थाय नहि तीर्थकर प्रभुनौवाणी आदेयनामवाली छतां अभव्य पाखंडी जीवोने ते भो भारी पापकर्मना उदयथी वहाली लागे नहि. १० अयश-जे कर्मना उदयथी सारं कार्य करतां छतां पण जस-कीर्ति मळे नही. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - · || पापतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ (१८५ ॥ संस्कृतानुवादः स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तं साधारणमस्थिरमशुभदुर्भाग्ये । दुःस्वरानादेयायशः, स्थावरदशकं विपर्ययार्थम् ॥ २० ॥ ॥ शब्दाथः ॥ थावर-स्थावर नामकर्म. दुस्सर-दुःस्वर नारकर्ममुहुम-सूक्ष्म नामकर्म अणाइज्ज-अनादेय नामकर्म अपज्ज-अपर्याप्त नामकर्म. अजसं-अपयश नामकर्म. साहारणं-साधारण नामकर्म | थावरदसग-ए स्थावर विगेरे अधिरं-अस्थिर नामकर्म १० कर्म. अशुभ-अशुभ नामकर्म. . विवज्जथ्थ-विपरीत अर्थवालंछे दुभगाणि-दुर्भाग्य नामकर्म. गाथार्थ:-स्थावर नाम०, मूक्ष्मनाम०, अपर्याप्तनाम०, साधारणनाम०. अस्थिरनाम०, अशुभनाम०, दुर्भाग्यनाम०, दुःस्वरनाम०, अनादेयनाम०, अने अपयशनाम०, ए स्थावरदशक कहेवाय अने ते ( त्रसदशकथी) विपरीत अर्थवाळुछे, विस्तरार्थः-ए स्थावर विगैरे १० कर्मना समुदायने स्थावरदशक कहेवामां आवे छे, स्थावरपंचक स्थावरछक्क इत्यादि गण, होय तो स्थावर विगेरे (प्रथमथी ) पांच अने ६ विगेरे गणाय छे, प्रकृतिओ टुंकी रीते गणवा माटे ए दशक इत्यादि संज्ञाओ छे, तेथी अनुक्रमे तेटलीज संख्यावाळी प्रकृतिओ ग्रहण कराय छे, ए १० कर्मना अर्थ पूर्व गाथामां कहेवायो छे, ॥पापतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ चार गति अने पांच इन्द्रियवाळा जीवोमां कया जीवने केटली पाप प्रकृतिओ (नो उदय ) होय ते कडेवाय छे. देवगतिमा ५५-५२, स्थावर-सूत्र-आपति-साधारण Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) श्री नवतचविस्तरार्थः ॥ नरकत्रिक-नपुंसकवेद-तिर्यंचगति-तिर्यंचानुपूर्वी-एकेन्द्रियादि ४ जाति-५ संघयण अशुभ, ५ अशुभ संस्थान, अशुभविहायोगति दुःस्वर अने नीचगोत्र ए२७पाप प्रकृति विना शेष५५प्रकृति होय, अने जो स्त्यानपित्रिक वर्जे तो ५२ पाप प्रकृतिओ होय. नरकगतिमा ५८-स्थावर-सूक्ष्म-अपर्याप्त-साधारण-५ अशुभसंघयण-४ अशुभसंस्थान-एकेन्द्रियादि ४ जाति--पुरुषवेद-- स्त्रीवेद-तिर्यंचगति-अने तिर्यंचानुपूर्वी ए २१ विना शेष ६१ पाप प्रकृतिओनो उदय होय अथवा स्त्यानर्धित्रिकनो उदय न गणीए तो ५८नो उदय होय, मनुष्यगतिमा ७०--स्थावर-सूक्ष्म-साधारण-एकेन्द्रियादि ४ जाति-तिर्यंचगति-तिर्यंचानुपूर्वी-अने नरकत्रिक ए १२ सिवाय शेष ७० पाप प्रकृतिओ उदयमां होय. तियेचगतिमां ७९-नरकत्रिक विना शेष ७९ पाप प्रकृतिओ होय. एकेन्द्रियमा ६३-दुःस्वर-नरकत्रिक-पुरुषवेद-स्त्रीवेद-दीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-अशुभविहायोगति-५ अशुभसंघयण-४ हुँडफविनानां अशुभसंस्थान ए १९ विना शेष ६३ पाप प्रकृतिओ होय. द्वीन्द्रियमा ६३–एकेन्द्रियवत्. परन्तु द्वीन्द्रियने स्थाने " एकेन्द्रिय विना" एम कहे. त्रीन्द्रियमा ६३-एकेन्द्रियवत, परन्तु त्रीन्द्रियने स्थाने " एकेन्द्रिय विना" कहेवू. चतुरिन्द्रियमा ६३-एकेन्द्रियवत्. परन्तु चतुरिन्द्रियने स्थाने " एकेन्द्रिय विना" कहे. पंचेन्द्रियमा ७५-एकेन्द्रियादि ४ अशुभजाति, सूक्ष्म, साधारण-अने स्थावर ए ७ पापप्रकृतिओ विना शेष ७५ पापप्रकृ. तिओ उदयमां होय. ॥इति पापतत्वपरिशिष्टम् ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पापतवपरिशिष्टम् ॥ (१८७) ॥ आश्रवतत्त्वम् ॥ - rec+ अवतरण- आ गाथामां सामान्यथी आश्रववत्वना ४२ मे द गणावे छे. ॥ मूळगाथा २१ मी. ॥ इन्दियकसायअव्वय-जोगा पंच चउ पंच तिन्नि कमा किरिया पणवीसं-इमा उ ता अणुक्कमसा ॥२१॥ ॥ संस्कृतानुवादः॥ इन्द्रियकषायावतयोगाः पञ्च चत्वारि पञ्च त्रीणि क्रमात् । क्रियाः पंचविंशतिः, इमास्तु ता अनुक्रमशः ॥ २१ ॥ ॥ शब्दार्थः॥ इंदिअ--इन्द्रियो. कमा--अनुक्रमे कसाय--कषाय. किरियाओ-क्रियाओ अव्वय--अव्रत पणवीस-पच्चीश जोगा-योग इमा--आ (आगळ कहेवाती) पंच-पांच उ--वळी (अथवा पादपूयेथे) चउ.-चार . ताओ-ते क्रियाओ तिनि-त्रण. अणुक्कमसो--अनुक्रमे गाथार्थ:-अनुक्रमे ५ इन्द्रिय-४ कषाय-५अव्रत ३ योग-अने २५ क्रिया ते क्रियाओ अनुक्रमे आ प्रमाणे 2. ( ए रीते ४२ भेद आश्रवतत्वना सामान्यथी कह्या.) विस्तरार्थ:--पूर्वे कहेला पुन्य-शुभकर्म तथा पाप-अशुभ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) ॥श्री नवतस्सविस्तरार्थः । कर्मनुं जेनावडे आवq थाय ते आश्व कहेवाय. हवे ते शुभाशुभ कर्मठे आगमन शाथो थाय छे, तें दर्शावाय छे. इन्द्रिय वर्णन प्राणसंबंधिगाथाना विवेचनमां करेलं छे, अने अहिं तो ते इन्द्रियोथी कर्मर्नु आगमन केवी रीते थाय ते कहेवाय छे. शीत-उष्ण-स्निग्ध-रुक्ष-मृदु-कर्कश-लघु अने गुरु ए आठ स्पर्श स्पशेन्द्रियनो विषय छे. तेमां जे जे स्पर्श पोताने अनुकूळ होय ते ते स्पशवाळा पदार्थोनी प्राप्तिथी राजी ( रागी) थाय. अने प्रतिकूळ स्पशेवाळा पदार्थोनी प्राप्तिथी नाराज (द्वेषवाळो) थाय ए प्रमाणे ज्यारे स्पर्शेन्द्रियना विषयोमा राग द्वेषपणे आत्मा वर्ततो होय त्यारे कर्मनुं जे आवई थाय ते स्पर्शीन्द्रय संबंधि आश्रव गणाय आम्ल (खाटो) मधुर-कषायेल (तूरो)-तिक्त एटले (तीखो) -अने कटु (कडबा] ए पांच रस रसनेन्द्रियनो विषय छे. त्यां अनुकूळ रसवाळा पदार्थापर रागवाळा अने प्रतिकूळ रसवाळा पदार्थों पर द्वेषवाळा थवाथी कर्मनुं जे आवई थाय ते रसनेन्द्रियाश्रव गणाय, ___ सुगंध अने दुर्गध एघ्राणेन्द्रियनो विषय छे, त्यां सुगंधी पदार्थों तेल फुलेल अत्तर वगेरे पामीने रागवाळो अने विष्ठादि दुर्गधवाळा पदार्थ पामाने आत्मा द्वेषवाळो थवाथी कमर्नु जे आवq थाय ते घ्राणेन्द्रियाव गणाय ___रक्त ( लाल-पीत (पीळो)-श्वत ( धोळो)-लीलो अने काळो ए पांच वर्ण ( रूप तथा आकार) ए चक्षु इन्द्रियनो विषय छे, त्यां मनोहर रंग रूप ने आकारवाळा पदार्थों पर रागभाव अने अमनाहर रंग रूप ने आकार वाळा पदार्थोपर टेप भाव थवाथी जे कर्मनु आववु थाय ते चक्षुरिन्द्रियाश्रव गंणाय, माटे ज नाटक Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आश्रवस्वनम् ॥ ॥ (१८९) खेल-तमासा जोवाथी कर्मबंध थाय छे. सचित्त शब्द- अचित्त शब्द - अने मिश्र शब्द ए ऋण प्रकारनो शब्द श्रोत्रेन्द्रियनो विषय छे त्यां जीवनुं गान तान वगेरे सचित्त शब्द फोनोग्राफ वगेरेना अवाज अचित्त शब्द अने मृदंगा दिकना शब्द ते जीवप्रयत्नमिश्रित होवाथी मिश्रशब्द कहेवाय, ए त्रणे मकारना मनोहर शब्दो उपर राग अने अमनोहर शब्दो उपर द्वेषभाव थवाथी कर्मनुं जे आगमन थाय ते श्रोत्रेन्द्रियाश्रव गणाय ए प्रमाणे ५ इन्द्रियोना २३ विषयो प्रशस्तभावे सेवाता होय तो पुण्य (शुभाश्रव) अने अप्रशस्तभावे सेवाता होय तो पाप (अशुभाश्रव) होय छे, जेम के देवगुरुने स्पर्श करी राजी थतां देवगुरुना चरणामृत पान करतां, भगवाननु रूप- प्रतिमा - आंगी वगेरे जोड़ने राजी थतां अने भगवानना गुणग्राम-स्तवन स्वाध्यायादि सांभळी राजी तां अनुक्रमे पांचे इन्द्रियोद्वारा शुभाश्रव थाय ते प्रशस्त भावे कवाय, अने स्त्री पुत्रादिकने प्रेमथी स्पर्श करतां देहपुष्टिने माटे मनोहर रसवती ( भोजन ) जमतां इत्यादि रीते अप्रशस्त भावे पांच इन्द्रियोना विषय सेवनथी अनुक्रमे पांचे इन्द्रियोद्वारा पाप - अशुभाश्रव थाय. ए पांच इन्द्रियना अनुकूळ अने प्रतिकूळ विषयो प्राप्त थतां विचार करे के हे आत्मा ! आ सर्व पुद्गलनो स्वभाव छे तो त्हारे मां राजी थवाथी अथवा नाराज थवाथी शुं लाभ छे! इत्यादि भावनापूर्वक जो राजी पण न थाय अने नाराज पण न थाय तो ते जीवने पांच इन्द्रियो संबंधि कर्मनु आवकुं थाय नहि पण कर्मनु रोकाणज थाय. < ॥ ४ कषाय ॥ क्रोध - मान-माया ने लोभ ए चार कषाय के, त्यां क्रोध एटले Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) ॥ श्री नवतत्ववितराय ।। गुस्सो-खेद-अने इर्षा, मान एटले मद् अथवा अहंकार अथवा अ. भिमान, माया एटले कपट, अने लोभ एटले तृष्णा अथवा अधिकनी इच्छा. ए चार कषायमां-क्रोध अने मान द्वेष कहेवाय छे, अने माया तथा लोभ रागमां गणाय छे, पुनः केटलाक आचार्य फक्त क्रोधनेज द्वेषमां गणी शेषत्रणने रागमां गणे छे,अहिं चार कषाय ग्रहण कर्या छे, तो पण अनंतानुबंधि-अप्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी अने संज्वलन एनाज दरेकना भेद होवाथी १६कषाय गणवा तथा एक अनंतानुबंधी वगेरे भेद पण स्वजातीय४-४-भेदवाळा होवाथी ६४ कषाय पण गणाय ए प्रमाणे १६ प्रकारनो क्रोध-१६ प्रकारमान-१६ प्रकारनी माया-अने १६ प्रकारनो लोभ थाय छे, तेमां १६ प्रकारनो क्रोध नीचे प्रमाणे गणवो, ९ अनं ० प्रत्या . क्रोध २ अप्र . अनं ० क्रोध १० अप • प्रत्या . क्रोध ३ प्रत्या • अनं० क्रोध ११ प्रत्या० प्रत्या० क्रोध ४ सं० अनं ० क्रोध १२ संज्व ० प्रत्या ० क्रोध ५ अनं ० अप ० क्रोध १३ अनं ० संज्व ० क्रोध ६ अप्र ० अप्र . क्रोध १४ अप्र ० संज्व ० क्रोध ७ प्रत्या ० अप्र क्रोध १५ प्रत्या ० संज्व ० क्रोध ८ संज्व ० अप्र ० क्रोध १६ संज्व ० संज्व ० क्रोध जे अनंतानुवंधि क्रोध पोताना स्वरूपवाळो ( उग्र ) होय ते अनं० अनं० क्रोध कहेवाय. जे अनंतानु० क्रोध अप्रत्या० सरखो (कंइक मंद) होय ते अप० अनं० क्रोध कहेवाय, जे अनं० क्रोध प्रत्या० सरखो ( वधारे मंद ) होय ते प्रत्या० अनं० क्रोध अने जे अनंतानुबंधी क्रोध संज्वलन सरखो ( अत्यंत मंद होयते संज्व. अनं० क्रोध कहेवाय. इत्यादि शेष भेदनो अर्थ स्वबुद्धिए Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आश्रवतत्त्वे कषायवर्णनम् ॥ (१९१) विधारवो. ए प्रमाणे जेम क्रोध १६ प्रकारनो कह्यो तेम मान माया अने लोभना १६-१६ प्रकार पण जाणी लेवा. ए सर्व ६४ भेद ते ४ कषायमां अंतर्गत ग्रहण करवा. ए चारे कषाय प्रशस्त भावे वर्तता होयतो शुभा श्रव, अप्रशस्तभावे वर्तता होय तो अशुभाश्रव. अने न वर्तता होय तो संवर याय छे. जेमके देव-गुरु-चतुर्विध संघ-अने शासननो विध्वंसकरनारपर जे क्रोध थाय अथवा उन्मार्गे चालता शिष्यने सन्मार्गे चलाववा माटे क्रोध करवो पडे ते प्रशस्तक्रोध अने पोताना कुटुंब वगेरेने अने संसारवर्धक साधनोने विध्वंस करनार पर जे क्रोध थाय ते अप्रशस्त १ अहिं पोताना पुत्रादिकने भविष्यमां सारो ससार निभावनार थाय एबी इच्छाए शिक्षण आपवामां अशुभाश्रव जाणवो, अने कंइक बोध थायतो आ संसारजाळथी छूटे एवा लक्षबिंदुथी जे धर्ममार्गनुं शिक्षण आपवामाटे ताडना तर्जनादिमां क्रोध करवो पडे ते शुभाश्रव जाणवी. तेमज संसारत्यागी गुरुम हो. राज पण जो पोतानी चाकरी कराववाना हेतुथी शिष्य ने. संसारमाथी खटपट करी काढे तो पोताने माटे अशुभाश्रव छे,अने प्रपंच करी निकळनार आत्मार्थी भद्रक शिष्यने शुभा. श्रव छे. माटे कोइपण कषाय जो स्वार्थबुद्धिए थाय तो ते अप्रशस्तकषाय गणाय अने आत्मधर्मनी उन्नतिमाटे अथवा शासननी उन्नति माटे थाय तो प्रशस्तकषाय गणाय, पण जो संसार उन्नतिनुं लक्ष्यबिंदु होय अथवा स्वार्थपरायणता होयतो अशुभाश्रव ज जाणवी, पुनः आ चालु प्रकरणमां वस्तुस्थिति दर्शावी छे. माटे कोइ ए एम न जाणवू के प्रशस्त कषायनो प्रयत्न करवो. कारणके मोक्षमार्ग तो प्रशस्त वा अप्रशस्त कषाय टाळवाथी ज छे, परन्तु संसारमा जीवोने जे अप्र. कषाय वर्ती रह्यो छे, तेमांथी दूर थवा माटे तथा अमुक गुणस्थाननी हदे न पहेांच्या होय त्यांसुधी प्रशस्तनी जरूर छे, अने त्यारबाद ते पण टाळवार्नु दक्ष्यबिंदु राखवानुं होय . Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) ॥ नवतत्त्वविस्तरार्थः ।। क्रोध कहेवाय. हुं अथवा मारु कुटुंब श्रेष्ट छे इत्यादि विचार अप्र० मान अने पोताना देव गुरु धर्मनी श्रेष्ठतान जे मान आवे ते प्रशस्त मान. संसारनी वृद्धिमाटे (द्रव्य-कुटुंबादिकनी वृद्धिमाटे) जे प्रपंच रचवा ते अप्र० माया अने अनेक उपाय करवा छतां कुटुंब संसारमा रोकी राखे तो तेमांथी छूटी संसार त्याग करवामाटे जे प्रपंच रचवा पडे ते इत्यादि मोक्षाभिमुखीपणे जे प्रपंच रचाय ते प्रशस्तमाया, तथा धन कुटुंब वगेरे अधिक अधिक मेळववानी इच्छा ते अप्रलोभ अने ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि धर्ममाटे जे अधिक अधिक लोभ ते प्रश० लोभ ए प्रमाणे प्रशस्त अथवा अप्रशस्त भाव मोक्ष मार्ग तरफ दृष्टि राखी विचारवा, नहिंतर आ विचारमां शीघ्र संसारवृद्धिनो प्रसंग आवशे । ॥५अव्रत ॥ प्रमादना योगथी जीवोना द्रव्य प्राणनो जे विनाश करवो अर्थात् जीवहिंसा करवी ते 'प्राणानिपात नामनु प्हेलं अव्रत छ, जोके हालतां चालतां उठतां बेसतां इत्यादि दरेक क्रिया करतांबादर जीवोनी [ मूक्ष्मनी हिंसा थती नथी] हिंसा थाय छे, परन्तु ते जीवोने प्रमादथी एटले पोतानी स्वार्थवृत्ति माटे मारवानी बुद्धि पूर्वक हणवामां आव्या होय तो जरुर जीवहिंसा करी कहेवाय परन्तु आत्मामां दयापरिणाम वर्ततो होय अनें ते दयापरिणामथी जयणादिक अनेक उपाये जीवहिंसा टाळवानो उद्यम थतो होय तेम छतां पण मोक्षाभिमुखी क्रियाओमां जे प्रासंगिक जीवहिंसा थाय छे तेनु हिंसारूप फळ नहि होवाथी ते हिंसा पण अहिंसा ज जाणवी, १ प्राण-द्रव्यप्राणना अतिपात, श्री तत्वार्थसूत्रमा " प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा " .एम कहेलं छे. अने मोक्षाभिमुखो क्रिया प्रमतयोग नथी माटे ते क्रियाओमां थती प्रासंगिकस्सिा संसारवृद्धिमा हेनुरूप नथी. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ॥ आश्रयतत्त्वे अवतवर्णनम् ॥ (१९३) स्वार्थने अंगे अथवा परना अहित माटे जे सत्य अथवा असत्य बोल ते बन्ने मृषायाद नामे बीजं अव्रत छे, (अहिं अप्रिय अने अहित वचन बन्ने मृषावाद छे. माटे चोरने चोर कहेवो तथा शिकारीए पूछतां देखेलां मृगादिकतुं कहे ते पण मृषावाद ज छे) फारणके स्वार्थने अंगे संसारमा सत्य बोलतां पण अशुभाश्रय छे, अदत्त-कोइए नहिं आपेली चीजर्नु आदान-ग्रहण करते अदत्तादान कहेवाय एमां ते वस्तुना मालिके नहिं अपिली वस्तु स्वामिअदत्त गणाय जीये राजी खुशीथी नहिं आपेली वस्तु जीबअदत्त. गुरुए आज्ञा नहिं आपेली वस्तु गुरुदत्त अने तीर्थकरे निषे. धकरेली वस्तु तीर्थकर अदत्त गणाय एमांनी कंइपण वस्तुनु ग्रहण करवू ने अदत्तादान गणाय निषेध करेल वस्तुने अंगीकार करवी विना पूछये लेवु, राज्य वगेरेना कायदाथी विरुद्ध वर्तन.करवू इत्यादिसर्व अदत्तादान गणाय , अब्रह्म-एटले अनाचारनु चर्म-सेवन करवू ते अब्रह्मचर्य नामे चोथु अव्रत छे, ते १८ प्रकारनुं छे, वैक्रिय (देवी) अने औदारिक ( मानुषी-अने तिचो ) ए बे प्रकारनी स्त्री साथे मन वचन अने कायावडे अब्रह्म करवू-कराव_-अने अनुमोदq ए त्रण जोग अने करणपूर्वक २४३४३१४८ भेद थाय _तथा धन धान्य सोनुं रुपुं क्षेत्र वस्तु वालण द्विपद ( दास दा. सी ] अने चतुष्पद ( गाय भैस बन्द हाथी वगेरे ) ए ९ प्र. कारनी वस्तुओनो जे संग्रह ते ९ प्रकारनो परिग्रह कहेवाय ते परिग्रह उपर जे ममत्वभाव ते परिग्रह नामे पांचमु अत्रत कहेवाय ए पांचे प्रकारनां.अवनयी शुभाशुभ कर्मर्नु आवयु थाय छे, एमां पण प्र. शस्ताप्रशस्तभावे शुभाशुभ कर्मनो आश्रय स्वबुद्धिए विचारवो, जेम के धन धान्यादि संसारवधक वस्तुओ पर ममत्व भावथी अशुभाश्रय Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४) ॥ नवतस्वविस्तरार्थः ॥ अने पाटी-पुस्तक-बगेरे ज्ञानदर्शन चारित्रनां उपकरणो उपर धर्मबुद्धी. एज ममत्वभाव ते शुभाश्रव अने, अममत्वभावे संवर इत्यादि शेष अर्थदीपिकामांथी जाणवो. वळी हिंसानी बावतमां पण शासनद्रोही-संघ धर्म वगेरेने उपद्रव करनारनो निरुपाये ( विष्णुकमारे नमुचीनो नाश कर्यों तेम) विनाश करवो पडे तो शुभाश्रव अने पोताने नडतर करनार वगेरेनो स्वार्थवुद्धिए विनाश करवो पडेते अशुभा अब गणाय इत्यादि मूक्ष्मबुद्धिए विचार. ॥३ योग ॥ मनः पर्याप्ति नामकर्मना उदयथी काययोगवडे मनोयोग्य व. गणा लइ मनपणे 'परिणमावी अवलंबीने विसर्जन करवानो जे व्या पार ते मनोयोग, तेना सत्य-असत्य-मिश्र-अने व्यवहार ए प्रमाणे चार प्रकार छे. त्यां सत्ने सत्रूपे अने असत्ने असरूपे चिंतवतुं ते सत्यमनोयोग सत्ने असत् अने असत्ने सत् चिंतवतुं ते असत्यमनोयोग तथा मिश्रपणे चिंतवq ते मिश्रमनोयोग अने मां सत्य पण नहिं अने असत्यपण नहिं एवं चिंतववु ते जेमके हे देव. दत्त ! घट लाव, तुं जा, इत्यादि आज्ञावाचक-प्रश्नवाचक संकेतबाचक वगेरे भावोनू चितवq ते व्यवहारमनोयोग १२ प्रकारनो ग्रन्थान्तरथी जाणवो (अहिं सत् ने सतरूपे एटले जे पदार्थ जेवारूपे छे, तेने तेवा रूपे चिंतववो एम जाणवू ). ए सर्व प्रकारनो मनोयोग जो प्रशस्तभावे सरागपणे वर्ततो होयतो शुभाश्रव, अने अप्रशस्त भावे वर्ततो होयतो शुभाश्रव गणाय, १ अहिं मनोवर्गणा ग्रहण करवाने समये काययोग अने शेषपरिणमाववा अने अवलंबवाना वखन पुरतो मनोयोगर्छ, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || आश्रवस्त्रे योगवर्णनम् ॥ (१९५) भाषापर्याप्तिनामकर्मना उदयथी काययोगवडे भाषायोग्य वर्गणा ग्रहण करी भाषापणे परिणमावी अवलंबीने विसर्जन करवानो जे व्यापार ते वचनयोग पण उपर मुजब चार प्रकारनो छे, परन्तु " चिन्तaj " ए शब्दने बदले "बोल" अथवा "कहेतुं" एटलो तफावत जाणवो. ए चारे प्रकारना प्रशस्तवचनयोगथी शुभाश्रव अने अप्रश० वचनयोगे अशुभाश्रव थाय, "" औदारिकादि काययोग ७ प्रकारे छे. ते आ प्रमाणे- औदा० श. रीद्वारा जीवोनो जे व्यापार ते औदारिक काय योग शरीरपर्याप्ति समाप्त थया बाद संपूर्ण भवसुधी चालु रहे छे, पण ते संबंधि आव वारंवार अन्तर्मु० सुधीज होय छे, कारणके त्रण योगमां थी कोइपण एक योग अन्तर्मु थी वधु वखत टकी शके नहिं पण परावृत्ति थया करे ते आगळ कहेवाशे तथा तैजसकार्मण श Refer औदा० शरीरनो जे व्यापार ते औदारिकमिश्र का ययोग भवान्तरे उत्पन्न थया बाद बीजा समयथी शरीरपर्याप्तो थाय त्यां सुधी होय. अने सर्वज्ञने समुद्घात वखते बीजे छठे अने सातमे समये होय. त्यां सर्वज्ञना औदा० मिश्रयोग वखते शुभाश्रव ज होय. शेष जीवोना औदा० मिश्रयोगमां शुभ अने अशुभ आश्रव होय. तथा वै० शरीरद्वारा जे आत्मानो व्यापार ते वैकाय पण वै० शरीरपर्याप्त थया बाद संपूर्ण भव सुधी होय अने उत्तरवै मां ते देह टके त्यां सुधी होय, तथा मूलबैक्रियनी अपेक्षाए तैजसकारण सहित वै० शरीरनो जे व्यापार अने उत्तर वैक्रियनी अपेक्षाए औदा० शरीर सहित वै० शरीरनो व्यापार ते वैक्रियमिश्र काययोग तथा आहारक शरीरनो व्यापार ते आहारककाययोग अने औदा० शरीर सहित आहा० शरीरनो जे व्यापार ते आहा० मिश्रकाययोग कहेवाय. ए बन्ने मिश्रयोग उत्तर शरीरनो प्रारंभ करती बखते अने संहार करती वखते Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६) श्री नवतस्वविस्तरार्थः ॥ अन्तर्मु० सुधी होय. तेमन आहा० योग पण आहा. शरीरपयाँप्ति पूर्ण थया बाद अन्तर्मु० सुधीज होय. तथा जीवने परभवमां वक्रगतिए जतां १-२-३ समय मुधी अने श्री सर्वज्ञने समुद्घात वखते त्रीजे-चोथे-ने ५ मे समये तैनसकार्मण काययोग होय, ए सिवायना बीजा वखतमा सर्वथा न होय तेम नहिं पण गौणभावे होवाथी एनी मुख्यता न गणाय. ए साते काययोगथी जीव शुभाशुभ आश्रव प्राप्त करे छे. एमांनो कोइपण योग जघन्यथी १ समय रह्या बाद बीजे समये बीजो योग प्रवर्ते छे जेमके मनोयोग बदलाइने वचनयोग प्रवते छे. अने वधुमां वधु अन्तमु० सुधी १ योग रही शके छ माटे एक योग संबन्धि आश्रव पण जघन्यथी १ समय अने उत्कृष्टथी अन्तमु सुधी होय, ए प्रमाणे इन्द्रियादि १७ भेदे असंयम पण गणाय छे, इवे शेष २५ क्रियाओनां नाम आगळनी गाथाओमां दर्शावाय छे. अवतरण-पूर्व गाथामा जे २५ क्रियाओ आश्रवतत्वमां गणावी ते क्रिया कइ कइ ? ते गणावे छे, ॥ मूळगाथा २२ मी. ॥ काइअ अहिगरणिया, पाउसिया परितावणी किरिया पाणाइवायारभिय, परिग्गहिया मायवत्तीया ॥२२॥ । संस्कृतानुवादः ॥ कायिक्यधिकरणिकी, प्रादेषिकी पारितापनिकी क्रिया । माणातिपातिक्यारंभिकी, पारिग्रहिकी मायाप्रत्ययिकी ॥२२ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आश्रवतवे क्रियावर्णनम् ॥ (१९७ ) ॥ शब्दार्थः ॥ काईअ-कायिकी क्रिया. । किरिया-क्रिया. अहिगरणीया-अधिकरणिकी पाणाइवाय-प्राणातिपातिकी क्रिया. क्रिया पासिया-प्रादेषिकी क्रिया. आरंभिय--आरंभिकी क्रिया. पारितावणी-पारितापनिकी परिग्गहिया-पारिग्रहिकी क्रिया. क्रिया | मायवत्तीय-माया प्रत्ययिकी क्रिय गाथार्थः-कायिकी, अधिकरणिकी, प्रादेषिकी, पारितापनिकी प्राणातिपातिकी, आरंभिकी, पारिग्रहिकी, अने मायापत्ययिकी क्रिया ( ए ८ क्रिया आ गाथामां कही छे.) विस्तरार्थ:-जे व्यापारवडे आत्मा शुभाशुभकर्म प्राप्त करे ते व्यापार नामर्नु क्रिया कहेवाय तेमां आत्मानो व्यापार कपाय रहित पणे होय तो असांपरायिकी क्रिया, अने सकषाय पणे होय तो (संपराय एटले कषाय ए अर्थथी ) सांपरायिकी क्रिया कहेवाय. त्यां असांपरां० क्रिया एक ई-पथिकी नामे छे. अने सपिरा० क्रिया २४ प्रकारनी छे. ए प्रमाणे सर्वमली २५ क्रियाओनु स्वरूप कहेवाय छे. - १ 'कायिकी क्रिया-कायाना व्यापारथी उत्पन्न ययेली ते कायिकी क्रिया के प्रकारनी छे, त्यां मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दष्टि अविरतिवन्तजीवनी उठवू-बेसवु-मूक-उपाडवु-चालवु सूवु इत्यादिक फर्मवन्धना कारणवाळी जे सावधक्रिया ते अनुपरत कायिकी क्रिया कहेवाय. ( अहिं अनुपरत-अविरतिवन्त ). अने अशुभ १ अहिंथी सर्व क्रियाओनुं स्वरूप पग्नवणाजी-ठाणांगजी--अने विचारसार-तथा नवतत्व भाष्यमगंथी तारवणी क. रीने संक्षेपथी लखेलं छे, माटे विस्तरार्थीए पन्नवणाजीथी तेनुं स्वरूप जाणवु, पुन. पन्नवगाजीमा १० क्रियाओ प्रथमनीज . वर्णवेली छे. अने नवतत्वभाध्यमां सर्व वर्णवेली छे, Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८ ) ॥ श्री नवतत्वविस्तरार्थ ॥ योगवाळा जीवोने इन्द्रियना इष्ट विषयो प्राप्त थये रति अने अ. निष्ट विषयोनी प्राप्तिथी अरवि पामवा रूप इन्द्रिय संबन्धि क्रिया, तथा अनिन्द्रिय संबन्धी ते अशुभमनना संकल्पद्वारा पोक्ष मार्ग तरफ दुर्व्यवस्थित एवा प्रमत्तमुनिनी कायक्रिया ए बन्ने दुष्प्रयुक्त कायक्रिया कहेवाय. आ कायिकी क्रिया कषायोदयवाळा सर्व काययोगी जीवोने होय, एमां हेली कायक्रिया अविरत सुधीना जीवोने अने बीनी अनुपयोगी 'मुनिने पण होय. २ अधिकरणिकी क्रिया-जेना वडे आत्मा नरकादिगतिनो अधिकारी थाय ते अधिक क्रिया वे प्रकारनी छे, त्यां प्रथम बनावी राखेला खड्गादिकनां अंगने परम्पर जोडी तैयार करते संयोजनाधिक०, अने शस्थी नवांज खड्ग वगेरे अधिकरण के जेना वडे जीवनो घात थाय तेवां बनाववां ते निवतनाधिक क्रिया कहेवाय. अहिं अधिकरण एटले जीवघात था. य तेवु आचरग अथवा खड्गादि शस्त्र जाणवां. आ क्रिया बादरकषायोदयी जीवने होय ( माटे १ मा गु० सुधी).अहिं पोतानो देह पण अधिकरण छे.. ३ प्रादेषिकी क्रिया---उत्कृष्ट क्रोधादि द्वेष करवाथी उ. त्पन्न थयेली ते प्रा० क्रिया के प्रकारनी छे. त्यां जीव उपर द्वे १ विचारसार ग्रंथमा १० मा गुण) सुधी ए क्रिया गणी छे, परन्तु ठोणांगजी तथा पन्नवणाजीमां ६ठा गुण म्थान सुधी कहेली छे माटे ए अनुसारे लखी छे. २ औदा. वगेरे पांचे शरीरने मूळथी बनाववां ते अथ. वा खड्गादि शमोने मूळथी नवां बनाववां ते मूलगुणनिवर्तन क्रिया, हाथपग वगेरे अवयवो रचवा अथवा ते खडगादि शस्रोने पाणी पावु उज्वल करवु धार काढवी, अने तेनां अंग बनाववां ते उत्तरगुणनिवर्तन क्रिया एम पन्न० तथा नव 10 भार मां का छे, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || आश्रवतश्वे क्रियावर्णनम् ॥ ( १९९ ) प - मत्सर राखवांथी जीवप्रद्वेषिकी अने पोताने पीडा करता एवा कांटा - पत्थर वगेरे अजीव पदार्थ उपर द्वेष थाय ते अजीवप्राद्वे० क्रिया कहेवाय. आ क्रिया 'क्रोध कषायोदयी जीवने होय. ( माटे ९ मा गु० सुधी. ) ४ पारितापनिकी क्रिया - परिताप एटले ताडना तर्जनादिकथी संताप उपजाववो ते पारिता० क्रिया वे प्रकारनी छे. त्यां स्त्री पुत्रादिकना वियोगे पोताने हाथे पोतानी देहने मायुं फोsaifi करीने अथवा बीजानी देहने परिताप - संताप उपजावतां स्वहस्त पारिता, अने तेवी रीते बीजाने हाथे करावतां प रहस्तपारिता०, क्रिया कहेवाय आ क्रिया बादर कषायोदबी जीवने होय माटे नवमा गुण० सुधी होय. २५ प्राणातिपातिकी क्रिया - अपवर्तनीय आयुष्यवाळा जीवना प्राणनो अतिपात - विनाश करवाथी उत्पन्न थयेली ते प्रा १ पन्नवणाजीमां चारे कषाय रागद्वेषरूपे गणेला छे ते अपेक्षाए चारे कषायोदयी जोवने पण ए क्रिया गणी शकाय. ( इति विचारसार: ) * नवतत्वभाध्यमां आ प्रमाणे छे के-त्री पुत्रादिकना वियोगथी पीडा पामेलो जीव पोताने हाथे अथवा परने हाथे पोतानी छाती कूटे माथु कूटे तो स्वपारितापनिकी अने पुत्रशि. प्यादिकने ताडना तर्जना करे ते परपरितापनिकी क्रिया कहेवाय २ नवतत्त्वभाध्यमां आ प्रमाणे छे के - पर्वतना शिखरपरथी पड, पाणी अथवा अग्निमां झपापात करवो अथवा शस्त्र मारवादिकवडे पोताने हाथे अथवा परने हाथे पोताना प्राण गुमाववा ते स्वप्राणातिपातिकी अने मोह लोभ के कोधना आवेशवाळाए पोताने हाथे अथवा परने हाथे बीजाना जानलेवा ते परप्राणातिपातिकी, तथा पन्नवणाजीमां आ क्रिया अपवर्त्तनीय आयुष्यवाळा जीवपर लागु पडे. एम का छे, केमके अनपवत्र्तनीय आयुव्यवाळाना प्राण आपणाथी गुमादाय नहि, Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) || श्री नवतस्त्रविस्तरार्थः ॥ नाति० क्रिया पण पूर्वोक्त प्रकारे स्वहस्तिकी अने परहस्ति की एम वे प्रकारे छे. आ प्राणाति० क्रिया असंयत ( अविरत ) जीवोने होय छे माटे ५ मा गुण सुधी छे. आ क्रिया हणेलो जीव मरण पामे तो ज लागे अन्यथा नहि. . ६ आरंभिक -- आरंभ ( कोइक कार्य करवानी प्रवृत्ति ) थी उत्पन्न थयेली ते आरंभिक क्रिया वे प्रकारनी छे त्यां जीवन घात करवरूप कार्य प्रवृत्तिवाळी जे क्रिया ते जीव आरंभि की, अने चित्र अथवा कोरणी वगेरेथी बनावेला जीवांने घात करवारूपः प्रवृत्ति ते अजीव आरंभिकी. आ क्रिया सर्व प्रमादयोगी जीवोने होय छे माटे ६ ठा गुण० सुधी छे. ७ पारिग्रहिकी क्रिया - परिग्रह ( धनधान्यादिकनो संग्रह वा ममत्वभाव ) थी उत्पन्न थयेली ते पारिग्र० क्रिया वे प्रकारनी छे. त्यां धान्य- ढोर - दास-दासी वगेरे जीवना संग्रहथी जीव पारिग्र०, अने आभूषण वस्त्र इत्यादि अजीवना संग्रहथी अजीवपारिग्र० कहेवाय, आ क्रिया परिग्रहना अत्यागी जीवोने होय छे, माटे ५ मा गुण० सुधी छे, ८ मायाप्रत्ययिकी क्रिया - माया एटले छळ प्रपचथी उत्पन्न थयेली ते माया प्र० क्रिया वे प्रकारनी छे, त्यां अंतरंगमां दुष्ट भाव होय छतां बहारथी शुद्धभाव दर्शाववो. ए प्रमाणे पोतानो भाव विपरीतपणे देखाडवो ते आत्मभाववचनमाया प्र०, अने बीजानी जूठी साक्षी पूरवी, खोटो लेख लखी आपको इत्यादि परभाववंचन मायाप्र क्रिया कहेवाय श्री पन्नवणा د जीमां पण आ क्रियाने मात्र ७ मा गुण सुधीज कही छे, い १ माया मोहनीयना उदयनी अपेक्षाए तो ए ९ मा गुण सुधी संभवे, परन्तु अहिं माया प्रपंचनो प्रवृत्ति रूप क्रिया ग गेली छे माटे. तेवी, प्रवृत्ति तो ७मा गुण सुधीज पन्नवणाजी मां संघादिकना कारणथी कहेली छे अने ८-९ मे गुणस्थाने माया उदयरूपे होय पण प्रवृत्ति रूप न होय Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवतत्त्वे क्रियावर्णनम् ॥ (२०१) ___ अवतरण- आ गाथामां मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी वगेरे ८ क्रियाओ कहेवाय छे. ॥ मूळगाथा २३ मी ॥ मिच्छादसणवत्ती, अपञ्चक्खाणी य दिठि पुहिय। पाडुच्चिय सामंतो-वणीय नेसत्थि साहत्थी ।। २३॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ मिथ्यादर्शनपत्ययिकी अपत्याख्यानिकी च दृष्टिकीस्पृष्टिकी च पातित्यकी सामंतोपनिपातिकी नैशस्त्रिकी स्वास्तिकी २३ ॥ शब्दार्थः ॥ मिच्छादसणवत्ती-मिथ्यादर्शन | पाडुचिय-मातित्यकी क्रिया प्रत्ययिकी क्रिया | सामंतोवणीअ-सामंतोपनिपाअपञ्चक्रवाणी अप्रत्याख्यानि तिकी क्रिया की क्रिया | नेसत्थि नैशस्त्रिकी (अथवाय-अने __नैसृष्टिकी) दिट्ठी-दृष्टिकी क्रिया साहत्थी-स्वाहस्तिकी क्रिया पुट्ठी-स्पृष्टिकी क्रिया (वा पृष्टिकी) गाथार्थ:- मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानिकी, दृष्टिको, स्पृष्टिकी, प्रातित्यकी, सामंतोपनिपातिकी, नैशस्रिकी ( अथवा नैसृष्टिकी) अने स्वाहस्तिकी क्रिया. विस्तरार्थ : ९ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया-जगतमा जे पदार्थों जे रूपे विद्यमान छे ते पदार्थोंने तेवरूपे न मानतां विपरीत रूपे माने ते मिथ्याद० प्र० क्रिया बे प्रकारनी छे, त्यां सत् पदार्थोंने सत् माने पण ते सत् पदार्थना केटलाएक गुणपर्यायने विपरीतपणे माने. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) ॥ नवतचविस्तरार्थः ।। जेपफे केटलाएक दर्शनाला आत्मा देहव्यापी छे तोपण एम माने छ के भात्मा आठानी पर्वरेवाप्रमाग व्याप्त छ, अथवा एक तन्दुल मात्र जेटलो छे ए प्रमाणे न्यूनपणे माने छे, अने केटलाएक दर्शनवाळा आत्मा सर्वव्यापी छे, ५०० धनुष्य जेटलो छे इत्यादि अ. विकरणे माने ते ऊनातिरिक्त मिथ्याद०म० क्रिया. अने जेओ आत्मा छ ज नहिं इत्यादि मूळथी विच्छेद माने ते तद्व्यतिरिक्त मिथ्या द०प्र० क्रिया कहेवाय. आ क्रिया सम्य० मोह सिवाय दर्शन छ कना उदयपी होय माटे त्रीजा गुणस्थान सुधी छे. १० अप्रत्याख्यानिकी क्रिया- जे पदार्थना उपयोगना ज्यां धी त्याग नधी कर्यो त्यां सुधी जे अत्यागवृत्ति संबंधि कर्म प्राप्त थाय छे ते अप्रत्या० क्रिया वे प्रकारनी छे. त्यां सजीववस्त ओनो त्याग न करे ते जीवअप्रत्या, अने अजीव वस्तुओनो त्याग न होयतो अजीव अप्रत्या० क्रिया कहेलाय. परभवमां जे जे कलेरो छोडयां छे अने जे जे शस्त्रादि जीवोपयातनां साधना नै पार कर्या छे ते ते कलेवरो अने शस्त्रादि निमित्तथो जे जे हिंसादि थाय छे ते ते सर्व कर्मनो आश्रय जीवने आ भवमां पण लागु पडे छे माटे धर्ममार्गना जाणनार जीवोए पूर्वभवोमां करेलां साधनो सबंधि आवता आश्रवनो त्याग करवो तेज श्रेय. स्कर छ, वळी जे जे चीजो आपणा उपभोगमां स्वप्ने पण आवती नथी तेवी तेवी अप्राप्य चीजोनो पण ज्यां सुधी त्याग नथी कर्यो त्यां सुधी तत्संबंधि कर्मबंध आत्माने निरन्तर वर्ती रहयो छे. माटे तेवी अप्राप्य चीजोनो पण त्याग करवो श्रेयस्कर छे. आ क्रिया अविरतिवंत जीवोनेज होवाथी चोथा गुण सुधी होय छे. ११ दृष्टिकी क्रिया- जीव अथवा अजीवने रागादिकथी देखतां जे क्रिया लागे ते अनुक्रमे जीवदृष्टिकी अने अजीव १० Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || आश्रवतत्त्वे अवतवर्णनम् ॥ (२०३) क्रिया एम बे प्रकारे जाणवी. आ क्रिया सकषायी चक्षुरिन्द्रियवाळा जीवोने होय छे माटे १० मा गुण० सुधी छे. १२ स्पृष्टिकी क्रिया-जीव अथवा अजीवने रागादिके स्पर्श करवो ते जीवस्पृष्ठिकी अने अजीवस्पृष्टिकी ए प्रमाणे बे पकारनी छे. स्त्री वगेरेने रागथी आलिंगन करतां आ वस्तु घणीज सुंबाळी छे आ वस्तु घणीज कोमळ छे ए प्रमाणे रागभावथी स्त्री अश्व तथा बीजी कोइ अजीववस्तुने पंपाळतां- हाथ फेरवतां ऐ क्रिया संबंधि आश्रव आवेछे. अहिं स्पृष्टिकीने बदले पृष्टिकी क्रिया पण जीव अजीवने (वा जीवअजीवसंबंधि) रागद्वेषथी पूछतां बे प्रकारनी गणेली छे. आ क्रिया सरागी जीवने होवाथी १०मा गुण० सुधी छे. १३ पातित्यकी क्रिया- अन्यने आश्रयि जे कर्मबंध अथवा रागद्वेष उत्पन्न थाय ते प्रातित्यकी क्रिया बे प्रकारनी छे. त्यां अन्यजीवना निमित्तथी आपणने रागद्वेष थाय तो जीवप्रातित्यकी अने (स्तंभादिकमां शीर्ष अफलाता) स्तंभादि अजीव पदार्थना निमित्ते जे रागद्वेष उपजे ते अजीवपातित्यकी क्रिया गणाय. १४ सामंतोपनिपातिकी क्रिया-समंतात्-चारे बाजुथी उपनिपात एटले लोकनु आवी वु थाय अर्थात जेनावडे सर्वबाजुथी लोक आवी भेगा थाय तेवी क्रिया ते सामंतोप०क्रिया बे प्रकारनी छे. त्यां कोइ सारो सांढ-आखलो-चा बळद वा हस्ति इत्यादिक लावेल होयतो तेने घणा लोको जोवा आवतां सारो होय ने प्रशंसा करे तो तेनो मालीक खुश थाय. अने कोइ १ नवतत्वभाष्यमां" पूर्वना पापमा उपादान कारण रूप अधिकरणने आश्रयि उत्पन्न थयेली क्रिया ते प्रातित्यकी." पम कहयुं छे. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४) ॥श्री नवतचरिस्तरार्थः। खोड खांपण काहे तो द्वेषवाको थाय इत्यादिक रीते जीव संबंधि लोकजु मलg थतां पोताने राप्रादेष थवाथी जीवसामंतोप०क्रि. याने तेवीज रीते अजीव पदार्थने जोवा मळेला लोकोथी रागद्वेष थतां अजीव सामंतोप० क्रिया लागे. नाटक उभा करनारखेल तमाशा बनावनार -कौतुक देखाडनार इत्यादिकने मुख्यत्वे आ क्रिया संबंधि आश्रव गणाय. आ क्रिया आरंभादिकला अत्यागी जीवोने होय छे माटे पांचमा गुणसुधी छे.. १५ नैसष्टिकी क्रिया- निसर्जन फर एटले काढवं अथाा फेंकवु अथवा त्याग करवू तेनाथी उत्पन्नथयेली क्रिया ते बे प्रकारनी छे. त्यां यन्त्रादिवडे कुत्रादिकमांथी पाणी काढी खाली करघु ने जीव नैष्टिकी. अने धनुष्यमांथी बाण जे फेंकवं ते इत्यादि अभी निस • क्रिया गणाय. अथवा गुरु वगैरने ए किग आ प्रमागे- शिष्य अथवा पुत्रने (सुपात्र होय छतां) काढी मूकनां जी स. अने एषणीय ( निष) भात पाणी नो स्याग करतां अमो० क्रिया जागो. आ क्रिया पण पूर्ववत् पाँचमा गुण० मुधी कही छे. १६- स्वास्तिकी क्रिया-पोताने हाथेज जीवनो घातादि करवो ते स्वाह० क्रिया के प्रकारे छे. त्यां पोताना हाथमा ग्रहण करेला जीव पदार्थवडे जीवने हणे ते अथवा पोताने हाथेन जीवने हणे ते एम बन्ने प्रकारे जीवस्वाहस्तिकी, अने पोताना हाथमां रहेला खड्गादि अजीव पदार्थवडे जीवने हणे ते अथवा पोताने हाथेज अजीवने हणे ते एम बन्ने प्रकारे अजीवस्वाह. क्रिया गणाय, आ क्रिया पण पूर्ववत् ' मा गुणसुधी छे. १ घणा काळथी प्रवतेला परोपदेशित पाप कार्यमां भावी जे अनुज्ञा( अनुमति) ते न० ( इति नवतत्वभाष्ये ; Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥ आश्रयतत्त्वे क्रियावर्णमम् ॥ (२०५) अवतरण- आ गाथामां बीजी आज्ञापनिकी वगेरे ९ कि. याओ कहेवाय छे. ॥ मूळगाथा २४ मी. ॥ आणवणि विआरणिया, अणभोगा अणवकंखपञ्चइया अन्नापओगसमुदा-ण पिज दोसेरियावहियो ॥२४॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ आज्ञापनिकी वैदारणिकी, अनाभोगिक्यनवकांक्षमत्ययिकी अन्य प्रायोगिकी सामुदायिकी प्रेमिकी द्वेषिकीर्यापथिकी। . शब्दार्थः आणवणि--आज्ञापनिकी क्रिया पओग-प्रायोगिकी क्रिया वियारणिया-वेदारणिकी क्रिया समुदाण-सामुदायिकी क्रिया अणभोगा-अनाभोगिकी क्रिया | पिज-प्रेमिकी क्रिया अणवकंखपच्चइया अनवकांक्षा-दोस द्वेषिकी क्रिया प्रत्ययिकी क्रिया इरियावहिया-इ-पथिकी क्रिया अन्ना-बीजी २१ मो ( वगेरे) गाथाथः- आज्ञापनिकी, वैदारणिकी, अनाभोगिकी, अनवकांक्षापत्ययिकी, वळी बीजी(२१ मी वगेरे)क्रिया सामुदायिकी, प्रेमिकी, उपिकी, अने ईर्यापथिकी क्रिया. (ए सर्वमली २५ क्रियाओथी कर्मनुं आगमन थाय छे. ) विस्तरार्थ:___ १७ आज्ञापनिकी क्रिया-जीवने आज्ञा-हुकम फरमावतां जीवआज्ञाप०, अने अजीवने आज्ञा फरमावतां.( जादुगरवगेरेने ) अजीव आज्ञाप० क्रिया गणाय. अहिं आज्ञा० ने बदले आनयनिकी क्रिया कहवाय छे ते पण जीव वा अजीव वस्तुने । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६) ॥ श्री नवतत्वविस्तरार्थ ।। अणावतां- मंगावतां जीवानयनिकी अने अजीवानयनिकी एम बेप्रकारनी छे. आ क्रिया पंचमा गुण० सुधी कारण छे.के आ क्रिया जिनाज्ञाना उल्लंघनपूर्वक पोतानी बुडिए जीवादिपदार्थोने मगाववाथी लागे एम नवतत्त्वभाष्यमां कयु छे, अने ते चारित्री जीवोने होतुं नथी माटे. १८ वैदारणिकी क्रिया- जीव अथवा अजीवने विदा स्वाथी-फोडवाथी-भिन्नकरवाथी उत्पन्न थयेली क्रिया ते जीव अने अजीव ना भेदथी बे प्रकारनी छे. अहिं वैदा० ने बदले वैतारगिकी क्रिया एटले वितारण-ठगवू तेनाथी उत्पन्न थयेली ते पण जीवाजीव भेदे बे प्रकारनी छे. जेपके जीव सद्गुणी होय तो पण ठगवानी बुद्धिए दुर्गुणी कहे, अथवा दुभाषीयो जैम एकनी कहेली वात वीजा अजाणने कंइक अबळी रीते समजावे इत्यादिक ते जीववैता०, अने अजीवपदार्थना पण अछता गुणदोष कहे ते अजीववैता०कहेवाय अहिं सामा जीवन हृदय भेदाय तेवां म्हेणां मारवां कलंक चढावq-खड्गथी बे.भाग करवा-परने फाळ पडे तेवी खोटी खबर आपवी इत्यादि कार्याथी आ क्रिया संबंधि आश्रव लागे. आ क्रिया बादर कपायोदय मुधी होवाथी ९ मा गुण सुधी छे. — १९ अनाभोगिकी क्रिया- अनाभोग एटले उपयोग रहितपणे जे लेवा-मूकवादिकनी क्रिया करवी ते बे प्रकारनी छे, त्यां उपयोगरहित-प्रमार्जनादि कर्या विना वस्त्र पात्रादि लेवा मुकवाथी अनायुक्तादान क्रिया. अने उपयोग रहित प्रमार्जनादि करी लेवा मूकवाथी अनायुक्तप्रमार्जना क्रिया गणाय आ क्रिया ज्ञा. नाव ना उदयथी सकपायी जीवने छे माटे १० मागुण सुधी होयछे . २० अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया- पोताना अथवा Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आश्रवतत्त्वे योगवर्णनम् ॥ (२०७) परना हितनी आकांक्षा-अपेक्षा रहित जे आलोक अने परलोक विरुद्ध एघु चोरी परस्त्रीगमनादि आचरण ते स्व अनवकांक्षा अने पर अनवकांक्षा एम बे प्रकारे छे, आ क्रिया वादरकषायोदयपत्ययिक होवाथी ९मा गुण० सुधी छे. २१ प्रायोगिकी क्रिया - मन वचन अने कायाना शुभा. शुभ व्यापाररूप जे क्रिया ते प्रायो० क्रिया. आ क्रिया शुभाशुभ सावद्य योगवाळाने होवाथी ५ मा गुण० सुधी छे. २२ समादान क्रिया--जेनाथी विषय समादीयते-ग्रहण कराय ते समादान एटले इन्द्रिय ते संबंधि देशघातक वा सर्वोपघानक जे व्यापार ते समादान क्रिया,अर्थात् जेनावडे आठे कम समुदाय पणे बंधाय तेवा प्रकारनो इन्द्रियनो व्यपारते समादानक्रिया अथवा सामुदायिकी क्रिया पण कहेवायछे आ क्रिया इन्द्रिय अप्रतवाला जीवोने होवाथी ५ गुण० सुधी होय छे. २३ प्रमिकी क्रिया-- बीजा उपर प्रेम करवाथी अथवा बीजाने प्रेम उपजे एवां वचनादिथी जे कसंबंध थाय ते प्रेमिकी क्रिया. आ क्रिया लोभना उदय रूप होवाथी १०मा गुण० सुधी छे. ___ २४ द्वेषिकी क्रिया-- बीना जीवने क्रोध अने मानरूप द्वेष उपजे तेवा आचरणथी उत्पन्न थयेली ते, आ क्रिया बादर कषायोदयचाळाने होवाथी ९ मा गुण० सुधी छे. २५ ईपिथिकी क्रिया--- इर्या एटले गमनागमनादि काययोग ( उपलक्षणथी वचन अने मनोयोग ) एज पथ- कर्म आववानो मार्ग तत्संबंधि जे क्रिया ते ईर्यापथिकी क्रिया. अर्थात मन वचन कायाना अकाषायिकयोयथी उत्पन्न थयेली क्रिया ते इर्याप० क्रिया आ क्रिया १९-१२-ने १३ मा गुण वाला अपायी जीवने योगमात्रथीज होय छे. आ योगमात्रथी बंधातुं सातावे० कर्म मनोहर वर्णगंधरसस्पर्शवाळ पण अतिरूक्ष हाय छे, जेथी प्रथम समये Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८) श्री नवतत्व विस्तरार्थः ॥ बंधाय अने बीजे ममये वेदाय छे अने निर्जरे छ जेथी आइर्याप० कभनी स्थिति मात्र बे समयनीज छे अने अपायी जीवने एक शातावेदनीयन बंधाय छे बीजु कोइ कर्म बंधाय नहिं आ क्रिया वध्यमान अने वेद्यमान ए बे भेदथी बे प्रकारनो छे. त्यां प्रथम समये वध्यमान अने वीजे समये घेद्यमान जाणवी.ए प्रमाणे आश्रव तत्वना कहेला भेद घणाखरा एवा पण छे के स्थूल दृष्टिए परस्पर एक सरखा जणाय छे जेपके इन्द्रिय आश्रवमां चक्षुइन्द्रिय दृष्टिकी क्रियामां अने स्पर्शनेन्द्रिय स्पृष्टिकी क्रियामा अन्तर्गत थाय छे. चारे कपाय प्रेम प्रत्ययिकद्वेषप्रत्ययिक-प्राद्वेषिकी मायाप्रत्ययिकमां यथा योग्य अन्तर्गत था. य छे, तथा पांचे अव्रत सामान्यतः अप्रत्याख्यानिकी क्रियामां अने विशेषतः प्हेलं अत्रत प्राणातिपा० क्रियामां तथा पांच अव्रत प. रिग्रहिक क्रियामां समाय छ, त्रणे योग प्रायोगिकी क्रियामां समाय छे, ए प्रमाणे इन्द्रियादि पिंडभेद साथे क्रियाओ ते पण परस्पर साखी जणाय छे जेमके प्रायोगिकी क्रियामां कायिकी समाय छे. प्रादेषिकी अने द्वषप्रत्ययिकी एक सरखी जेवी छे इत्यादि रीते आ. श्रवतत्वना ४२ भेद सर्वे परस्पर भिन्न पडता नथी एम स्थूल द्रष्टिए भासे छे नोपण सूक्ष्म द्रष्टिए विचारतां सर्व भेदमां फेरफार मालुम पडे छे जेमके चक्षुन्द्रियनो आश्रव इन्द्रिय निमित्तक छे अने द्रष्टिकी क्रियानो आश्रय ते क्रिया निमित्तक छे इत्यादि परस्पर भेद मूक्ष्म बुधिए विचारवा. (इति नत० भा० ) पुनः प्रज्ञापनामूत्रमा कायिकी थी अप्रत्या० क्रियासुधीनी १० क्रियाा ये विभागमां (५-५ वर्णवेली छे, अने ठाणांगजी मां बेबे क्रियाओ जुदी जुदी वर्णवी छे, पुनः ठाणांगनीमां ए सर्वे क्रि याओने कर्मपुद्गलग्रहणना कारणनी मुख्यताए अजीवक्रियाओ कही छे. अने विचारसारमा जीवनापरिणामना मुख्यताए जीवक्रि. याओ कही छे, अने जीवनी तत्वश्रद्धान मिथ्या स्वभाव-मिश्रभावसम्यक्त्वभावे परिणति ते जीवक्रिया गणी छे. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आश्रवपरिशिष्टम् ॥ (२०४-क.) आ प्रमाणे ठाणांगजी प्रज्ञापनाजी-नवतचभाष्य-विचारसारप्रकरण इत्यादि ग्रन्थोने आधारे क्रियाओगें वर्णन कर्यु. आ बेता. लोश आश्रवोनुं कर्मबन्धमां हेतुपणुं जाणी जेम बने तेम आश्रवस्थानोथी निवर्ती कर्मबन्धनथी अलग थq एज शास्त्रबोधनुं फल छे. ॥ आश्रवतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ नरकगतिमा ४१-एक ईपिथिकी क्रिया विना शेष आश्रवना ४१ भेद नरकगतिमां होय छे. ईर्यापथिकी क्रिया केवळ योगप्रत्ययिक छ; अने. ते योग कपायरहित ११ मा गुणस्थानथी यथाख्यात चारित्र सद्भावे होय छे, तेवू यथाख्यात चारित्र नारकने होय नहिं माटे इर्यापथिकी क्रिया संबंधि आश्रव पण न होय जेथी ५ इन्द्रि य-४ कषाय-५ अव्रत-३ योग अने २४ क्रिया ए ४१ .. आश्रवभेद होय. तिर्यंचगतिमा ४१--नरकगतिवत. देवगतिमा ४१-नरकगतिवत्.. मनुष्यगतिमां ४२-यथाख्यात चारित्र मनुष्यगतिमां होय छे. माटे ते चारित्रना कारणथी केवळ योगप्रत्ययिक ईर्यापथिकी क्रिया पण होय छे जेथी मनुष्यगतिमां आश्रवना सर्व भेद ४२ होय. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८ - ख.) || नवतश्व विस्तरार्थः ॥ एकेन्द्रियमां ३० - दृष्टिकी क्रिया चक्षुदर्शनवाळा जीवने होय, प्रातीत्यकी, सामंतोपनिप्रातिकी, आनयनिकी, अने आज्ञाप्रयोगिकी ए चार क्रिया दीर्घकालिकी संज्ञावाळा वचनयोगीने होय, अने एकेन्द्रिय जीवमां चक्षुदर्शन अने वचनयोगनो अभाव होवाथी ए पांच क्रिया अने छठ्ठी ईर्ष्यापथिकी क्रिया तो पूर्वोक्त कारणथी न होय माटे १९ क्रिया होय छे. इन्द्रिय आश्रवमां १ स्पर्शनेन्द्रिय संबंधि आश्रव छे, कषाय ४ छे, अने योगमां १ काययोगाश्रव छे, अव्रत ५ छे माटे सर्व मळी ३० आश्रवभेद होय छे. द्वीन्द्रियमां ३२ – एकेन्द्रियमां जे ३० आश्रवभेद का तेमां १ रसनेन्द्रिय अने १ वचनयोग ए वे अधिक होवाथी द्वीन्द्रि यमां ३२ आश्रव होय छे.. त्रीन्द्रियमां ३३ - द्वीन्द्रियना ३२ आश्रवमां १ घ्राणेन्द्रियाश्रव अधिक करतां त्रीन्द्रियम ३३ आश्रवभेद होय. चतुरिन्द्रियमां ३५ - त्रीन्द्रियना ३३ आश्रवमां १ चक्षुरिन्द्रियाश्रव, अने दृष्टिकी क्रिया अधिक करतां ३५ आश्रवभेद चतुरिन्द्रियमां होय. पंचेन्द्रियमां ४२ - पंचेन्द्रियमां गर्भजमनुष्यने सर्वे आश्रव भेद होय. पृथ्वीकायां ३० - - एकेन्द्रियवत्. अपूकायम ३० - - एकेन्द्रियवत्. ते कायम ३० - एकेन्द्रियवत्. वायुकायम ३० - एकेन्द्रियवत. वनस्पतिकायम ३० - - एकेन्द्रियवत्. असकायम ४२ – मनुष्यगतिवत्. ॥ इत्याश्रवतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरण - आ गाथामां संवरतच्वना ५७ भेद कहेवाय छे || मूळगाथा २५ मी 11 समिईगुत्तिपरिसह - जईधम्मो भावणा चरिताणि पणतिदुवी सदसवार पंचभेएहिं सगवन्ना ॥ २५ ॥ अथ संवरतव समिइ समिति गुति - गुप्ति परिसह - परिषह जहधम्मो यतिधर्म ॥ संस्कृतानुवादः ॥ समितिगुप्तिपरिषहयतिधर्माणि भावनाश्चारित्राणि पंचत्रिद्वाविंशतिदशद्वादशपञ्चभेदैः सप्तपञ्चाशत् ॥ २५ ॥ भावणा - भावना चरिताणि चारित्र पण - पांचभेट · शब्दार्थ ति-त्रणभेद दुवीस-बावीशभेद दस - दशभेद बार-बार भे पंच-पांच भेरfe - भेदवडे सगवन्ना - सत्तावनभेद गाथार्थ :- पांच समिति-त्रण गुप्ति-बावीश परिषह-१० यतिधर्म - १२ भावना ने पांच चारित्रनाभेदवडे संवरतस्वना ५० भेदले. विस्तरार्थः - - सम् - सम्यक उपयोगपूर्वक इति प्रवृत्ति ते समिति, तथा परि-समन्तात् सर्ववाजुथी अथवा सर्वप्रकारे Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) || श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ · सह-कष्ट सहनकर पण सदोष आचरण न करवूं ते परिषह. तथा यति- मोक्षमार्गमां जे यत्न- प्रयत्न करे तेवा मुनिओनो जे धर्मयतिधर्म तथा मोक्षमार्ग तरफ रुचि बधे तेवुं चिन्तवन ते भावना अने चय - आठे कर्मनो संचय समूह तेने जे रिक्त रिक्त करे- खाली करे ते चारित्र कहेवाय. ए सर्व नवां आवतां कर्मने रोकनार होवाथी संवररूप कहेवायचे. हवे आगळनी गाथाओ मां तेना उत्तरभेदोनं स्वरूप कहेवाय छे · अवतरण - पूर्व गाथामां पांचसमिति अने त्रणगुप्ति सामान्यथी कही तेनां नाम आ गाथामां कहे छे. मूळ गाथा २६ मी इरिया भासेसणादाणे, उच्चारे समिईसु अ मणगुत्ति वयगुत्ति, कायगुत्ति तहेव य || २६ || ॥ संस्कृतानुवादः ॥ ईर्ष्या भाषेषणादानान्युत्सर्गः समितिषु च मनोगुप्तिवं चोगुप्तिः काय गुप्तिस्तथैव च ॥ २६ ॥ शब्दार्थः ॥ इरिया - ईर्यासमिति भासा - भाषासमिति एसणा - एषणासमिति आदाण-आदानसमिति उच्चारे - उत्सर्गसमिति समिइ समिति (सम्यक प्रवृत्ति) 11 अ-वळी मणगुत्ति-मनोगुप्ति वयगुत्ति - वचनगुप्ति कायगुत्ति का यति - तहेब - तेमज य- वळी ❤ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतत्त्वे समितिवर्णनम् ॥ (२११) गाथार्थ:- ईर्यासमिति-भाषासमिति -एषणासमितिआदानभंडमत्तनिख्खेवणासमिति- अने उत्सर्गसमिति ( अथवा पारिष्ठापनिकासमिति ) ए पांचसमिति, तेमज वळी मनगुप्ति वचनगुप्ति अने कायगुप्ति ( ए आठ प्रवचनमाता) ते संघर तत्त्व छे ( अर्थात् ए ८थी कर्म रोकाय छे.) __ विस्तरार्थः- सम्यक उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति ते समिति,अने सावधयोगथी निर्वृत्ति ते गुप्ति, नवां आवतां कर्मोंने रोकवामां साधनभूत छे. तेना उत्तरभेदन स्वरूप कहेवाय छे. ५ समिति आगळ युगमात्र ( हाथ ) भूमिने दृष्टिथी जोता अने बीजलीलोतरी-पाणी-तथा सजीव वगेरेथी सजीवभूमिने वर्मता मार्गमां चालवू ते ईसामति जे वचन सत्य होय अने कहेवायोग्य होय वळी जे सत्य असत्यमिश्रित न होय, अने जे बुध्धिवडे विचारेलं होय, मधुर होय अल्प होय, कार्यप्रसंग वाळुज होय,गवरहित होय,टुंकारादितुच्छतारहित होय, म्वपरने हितकारी होय, मर्मवाळु न होय इत्यादि मोक्षमार्गने अनु. कूळ वचन बोलg ते भाषासामिति ____ सिद्धान्तमां कहेली विधि प्रमाणे ४२दुषणरहित आहारपाणी अंगीकार करवां ते एषणाममिति प्रथम भूमीने चक्षुबडे जोइ प्रमार्जिने वस्त्रपात्रादिकने पण जोइ प्र. मार्जीने भूमिपर मुकवा अने लेवां ते आदान समिति (आदा. नभंडमत्तनिवेवणासमिति) प्रथम भूमिने चक्षुवडे जोइ प्रमार्जीने(निर्जीव जग्यामां) वडीनीति ( झाडो ) लघुनीति ( पेशाब ) श्लेष्म-थुक इत्यादि देहनिर्गत शुचिपदार्थ तेमज कोइकवखते वधेलाआहारपाणी इत्यादि परठवे Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) || श्री नवतश्वविस्तरार्थः ॥ ( त्यागे - विसर्जे) ते उत्सर्गसमिति ( अथवा पारिष्ठापनिका समिति ) कहेवाय. ॥ ३ गुप्ति ॥ मनने सावध मार्गमांथी रोकी निरवय मार्गमा जोडनुं ते मनोगुप्ति ३ प्रकारनी है. त्यां आर्त्तध्यान अने रौद्रध्यान संबंधी मनोव्यापारनो स्याग करवो ते अकुशलनिर्वृत्ति रूप, धर्मध्यान अने शुक्लध्यानमा मनने प्रवतवितुं ते कुशलप्रवृत्तिरूप, अने मनोव्यापारनो सर्वथा ( केवलिपणामां योगनिरोध वखते ) त्याग करवो ते योगनिरोध रूप मनोगुप्ति कहेवाय. तथा वचननो सावध व्यापार रोकी निरवद्य वचन बोलवु ते वचनगुप्ति ने प्रकारनी है. त्यां भूसंज्ञा- शिरकंपन - हस्तचालन इत्यादि संज्ञाओनो त्याग करी मौनपणु अङ्गीकार करते मीनावलंबिनी अने वाचना - पृच्छना - परिवर्तनादि वखते मुहपत्ति राखीने बोलवु ते वानियमिनी, कहेवाय. शंका -- भाषासमिति अने वचनगुप्तिमांशु तफावत ? उत्तर - चनगुप्ति ते सर्वथा वचननिरोध करवारुप अने निरवद्यवचन बोलवारूप वे प्रकारनी है अने भाषासमिति तो निरवय वचन बोलवा रूप एक प्रकारनी है ए प्रमाणे तफावत छे. (इति aaaaaaa . ) कामवृत्तिने सावमार्गमांथी रोकी निरवद्यमार्गमां जोडवी ते काय गुप्ति वे प्रकारनी छे. त्यां उपसर्गादि होते छते पण कार्यो त्सर्गयी चलायमान न धनुं, अने केवलिने योगनिरोध वखते शरीरव्यापारनो सर्वथा त्याग थवो ते चेष्टानिर्वृत्ति रूप, अंने सिडाaari की विधि प्रमाणे कायानुं चलन - गमनागमनादि थाय ते यथासूत्रचेष्टा नियमिनी काय गुप्ति कहेवाय. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतच्ये परिषहवर्णनम् ॥ (२१३) अवतरण - २५ मी गाथामां परिषह सामान्यथी कला ते २२ परिषeri नाम कहेवाय के. तेमां पण आ गाथामां १४ परियह कहे ले 11 मूळ गाथा २७ मी. ॥ खुहा पिवाला सी उन्हें दंसा चेलारइत्थिओ | वरिया निसिहिया सिज्जा, अक्कोस वह जायण ॥२७॥ || संस्कृतानुवादः ॥ क्षुधा पिपासाशीतमुष्णं, देशोऽचेलकोऽरतिः स्त्रियः । चर्या नैषेधिक शय्या, आक्रोशो बधो याचना ॥ २७ ॥ | शब्दार्थः ॥ खुहा - धापरिषह पिवासा - पिपासा परिसह सी- शीत परिषह उन्हें उष्ण परिषद दंस- देश परिषह अचेल - अचेलक परिषह (नग्न परिषह ) अरइ अरति परिष 4-43 स्थिओ -- स्त्री परिषह रिया -- पर्या परिषह निसिहिया - नैषेधिकी परिषह सिज्जा - शय्या परिषह अकोस-आक्रोश परिषह हवध परिषह जायणा - याचना परिषह गाथार्थ:-- क्षुधापरि० - तृषापरि० - शीतपरि०- उष्णपरि० - दंशपरि० - अचलेकपरि० अतिपरि० स्त्रीपरि० - चर्यापरि० नैषेधिकपर० शय्यापरि० - आक्रोशपरि०-वधपरि०-याचनापरि० W विस्तरार्ध - पूर्व गाथामा ५ समिति अने ३ गुप्तिनुं स्वरूप ह्या बाद हवे आ गाथाथी २२ परिषहनुं स्वरूप कहेवाय छे. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (२१४) ॥श्री नवतच विस्तरार्थः ।। क्षुधाने सहन करवी पण सदोष आहार न ग्रहण करवो ते क्षुधा परिषह. :श्री उत्तराध्ययनजीमां का छे के-" शरीर क्षुधावडे व्याप्त थये छते तपस्वी अने पराक्रमी साधु फळादिक छेदे नहि, छेदावे नहि, रांधे नहि, अने रंधावे पण नहि. काकजं. घावनस्पति सरखां अतिकृश ( दुर्बल ) बाहु जंघादिक थये छते, अने शरीरमा एकली नसो देखातीहाय तेवू दुर्बळ शरीर थयेछते पण आहार पाणीनु परिमाण जाणनार मुनि मनने दिलगीर कर्या विना संयम मार्गमां विचरे" १ दृष्टान्त--उज्जयिनी नगरीमा हस्तिमित्र नामना श्रष्टिग पोतानी वीना मरणवियोगथी वैराग्य पामी पाताना पुत्र इ. स्तिभूतिसहित दीक्षा अंगीकारकरी, त्यारबाद भोजकट देश तरफ विहार करतां मार्गमां महा अरण्यनी अंदर हस्तिमित्र मुनिने पगमां एवो कांटो वाग्यो के एक पगलं पण आगळ चालवाने अशक्त थया. बीजा मुनिीए उपाडीने नगरमा पहीचाडवार्नु कह्या छतां पण हस्तिमित्रमुनिए कडं के मार्ग मरण नजोकमां आवेल होषाथी हवे हुँ कोइने श्रम आपवा इतरता नथी माटे आ भयंकर अरण्यमांथी तमो मर्व कुशलतापूर्वक नगरमां जाओ अने है तो अहिंज देहत्याग करीश. त्याग्वाद मुनिओ विहार करी गया, परंतु पुत्र मुनिने पिता प्रत्ये ना प्रम छोडी आगळ जवु अशक्य थड एडयु. जेथी पितामुनिए घण समजाव्या छतां पण पुत्रमुनि पितानो सेवामांज ग्या. त्यार बाद हस्तिमित्रमनि काळधर्म पान्या छतांपण पुत्रमनि माहथी जोवताज जाणे छे. हवे पितानुनि काळधर्म पामी देव थया त्यां अवधिज्ञानथी अरण्यमां पडेलु पोतानुं कलेवर अन पुत्र बन्नने देखी ते देवे कलेवरमा प्रवेश करी पत्रने गांचरी जवा माटे कहयु. पुढे कहथु के आ अरण्यमां गोचरी कोण आपे ? त्यारे पितादेवे कइयु के वृक्षोनी आगळ धर्मलाभ देवाथी वृक्षांनी अं. दर रहेला लोक गोचरी आपशे. ए प्रमाणे पितानु वचन अं. गीकार करी पुत्र वृक्षोनी आगळ धर्मलाभ कही उभी रहे . Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतचे परिषहवर्णनम् ॥ (२१५) - तृषाने सम्यक् प्रकारे सहन करवी पण सदोष पाणी न वापर, ते तृषापरिषह कहेवाय. श्री उत्तरा०मां का छे के “ एकाते मार्गमां जतो, तृषाथी व्याकुळ थयेलो, सुकाइ गयेला मुखवालो, पण मुनि (पाणी संबंधि शास्त्रोक्त ) मर्यादानुं उल्लंघन ने करे" त्यारे देवमायाथी वृक्षनी अंदरथी नीकळेलो मनष्यनो अलकृत हाथ गोचरी व्होरावे छे. आ प्रमाणे कंडक दिवस व्यतीत थया बाद पुनः तेज मुनिओ विहार करता आ अरण्यमां आव्या, अने आ सर्व बनाव देखी आश्चर्य पामी पुत्रने पिता मरण पाम्या छे, अने निरंतर सदोष एवा देवपिंडनो तू आहार करे छे ए प्रमाणे घणी शिखामण. आपवाथी ते पुत्रमुनि पण पुनः दोषनी आलोचना लइ मुनिओनी साथे रद्या. अहिं केटलाएक आचार्य फळादिक आहार होते छते पण गोचरीनी विधिथी आहार पाणी लीधां माटे पुत्रे क्षुधापरिषह जीत्यो एम कडे छे अने केटलाएक कहे छे के वृद्ध एवा पिता मुनिए अतिकष्ट छतां फलाहारादि नहिं करी मरणं अंगीकार कयु माटे पितामुनिए क्षुधापरिषह जीत्यो एम कहे छे. ( अपेक्षापूर्वक बन्ने घात सत्य छे. ) १ दृष्टान्त-उज्जयिनी नगरीमा धनमित्र नामना वणिके धनशर्मा पुत्र सहित दीक्षा लइ बीजा मुनिओ सहित एलगपुर तरफ विहार करतां मार्गमां मध्यान्हकाळे धनशर्मा बाळमुनि ग्रीष्मऋतुना सख्त तापथी अत्यंत तृषाकुल थया. जेथी चालवानी शक्ति ओछी थतां वारंवार पाछळ रही जाय छे. धनमित्र पिता पोताना पुत्रना प्रेमथी समुदायथी पाछळ रही पुत्र साथे चाले छे. त्यारबाद रस्तामां नदी आवतां पुत्रप्रेमथी कल्यु के हे वत्स हुँ जाणु छ के तने तृषा लागी छे छतां मा री पासे निदोष पाणी नहि होवाथी शु करे ? परन्तु आ नदी. नु पाणी पोतानोजीव बचाववाने माटे पी! कारण के अत्यन्त आपदामां बुद्धिमानो पण निषेध करेल कार्य बिन उपाये अंगीकार करे छे. नीतिशास्त्रमा कहूथु छ के जो श्रेष्ट क्रिया रक्षण कर Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) ॥ श्री नवतत्वविस्तरार्थः ।। वाने सर्वथा असमर्थ होय तो निषिद्धक्रिया पण आचरवी, जेम राजमार्ग घणा कादवथो खराब थयो होय तो पंडितो पण बीजा अवळा मार्गे थइने जाय छे." वळी आ नदीनं पाणी पीने पछीथी आलोचना लइ शुद्ध थजे. ए प्रमाणे पुत्रने उपदेश दी. धा छतां पण पुत्र पाणी पीतो नथी तेथी बाळमुनि मने देखशे त्यांसुधी लज्जाथी पाणी नहिं पीये एम विचारी पितामुनि न दी उतरीने शीघ्र पुत्र देखी न शके तेटले दूर चालीं गया. हवे अहिं आगळ चालवाने असमर्थ बाळमुनि नदीमा रह्या छता विचारवा लाग्या के आ वखते हु जळ पीने पश्चात् गुरु पासे प्रायश्चित लइश एम विचारीने पाणीनी अंजली भरी पीवामादे मुख आगळ आणे छे तेटलीवारमा अहो जनतत्वने जाणनार है अपवाद मार्गर्नु आलंबन लइ असंख्यजीवात्मक एक बिन्दुवाळा पाणीमा रहेला असंख्य जीवोने मारा एक जीव माटे केम ह'' इत्यादि भावना भावी अंजळीमां भरेलु जळ यतनापूर्वक नदी. मां मूकी दइ महाकष्टे नदी उतरी नदीना किनारापर पडया. अने धर्मनी दृढतापूर्वक तृषाना व्याकुळपणाथी उत्तम ममाधिप काळ करी ते बाळमुनि देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थया. त्यां अवधिज्ञानथी पोतानो पूर्वभव देखी अने आगळ जइ बाळमुनि नीराह जोता उभा रहेला पिताने देखवाथी तुतं पोत ना मृतक लेवरमा प्रवेश करी पितानी पासे जइ पहोच्यो. अने बन्ने मु. नि मार्गमा समुदाय भेगा थइ गया. हवे सर्व मनिओ तृषावटे व्याकुळ थयेला जोइ देवमुनिए रस्तामा गोकळ बनावी दहिं छाश व्होरावी तृषारहित कर्या. ए प्रमाणे माग मोटो होवाथी बच्चे वच्चे घणां गोकुळ बनावी मुनिओनी तृषा शान्त करी त्यारवाद, पोतानी मायाजाळ मुनिओने जणाववा माटे ते देवे आगळता मुनिओनुं छेल्ला गोकुळने स्थाने उपधिनु र्वीटण भुलावी दीधुं. ते मुनि दूर जइने पोतानी उपधि मभारी पाछा वळ्या त्यां उपधीनु वीटणु ती देख्यु पण गोकुळ न दख्यु. त्यांथी ते वींटणुं लइ समुदायमां आवी मल्या अने वींट' दख्यु पण गोकुळ नहोतु एम कहेवाथी सर्वेए अनुमान कयु के ए सर्व देवकृत होवु जोइए. तेट लामा ते देवे प्रगद थइ पिता सिवाय ना सर्व मुनिने नमस्कार को.. पितामुनिने नहिं नमवान Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संघरतवे परिषहवर्णनम् ॥ (२१७) मा शीत ( ठंडी ) ने सम्यक् प्रकारे सहन करवी पण अग्नि वगेरे सदोषाचरणथी निवारवी नहिं ते शीतपरिसह. का छे के " रुक्ष शरीरवाळा अने गामे गाम विहार करता मुनिने कोइ वखत अत्यन्त शीत लागे सोपण शीतना भयथी स्वाध्यायादि अवसरनुं उल्लंघन न करे, तथा मारे शीत निवारणकरवाने मकान विगेरे साधन नथी, कांबळ वस्त्र वगेरे नथी, हूं अग्निए तापू इत्यादि दीन चिं. तवन मुनि ने करे कारण पूछवाथी देवे पोतानों सर्व वृतांत जणाव्यो, के आ पितामुनिए मने लचित्त अळ पीवानी आज्ञा आपवाथी हुं . दना करती नथी. जो ए आशा प्रमाणे घयों होत तो दुर्गतिमां अनेक भव भ्रमण करत. पळी तेज पिता तेज गुरु अने तेज पूज्य कहेवाय के जे पोताना पुत्रादिने उन्मार्ग न प्रवावे, एप्रमाणे देवनी हकीकत सांभळी लर्व मुनिओ आश्चर्यसहित नगरमां पहोंच्या अने देव पण प्रोताने स्थाने गयो. १ दृष्टान्त-राजगृहीनगरीमा चार मित्रषणिकोए श्रीभद्र. धाहु स्वामी पासे दीक्षा ला उत्तम योग्यता प्राप्त करी पकाकी विहारप्रतिमा ( अभिग्रह ) अंगीकार करी. ए प्रतिमामां एवी अभिग्रह होय छे के विहार अथवा भोजन श्रीजे प्रहरेज थाय अने त्रीजो प्रहर पूर्ण था चोथा प्रहरमा प्रारंभमां जे ज्यां होय ते मुनिए त्यांज उभा रही बीजा ७ प्रहर सुधी प्रतिमाए ( काउस्सग्गादि ध्यान विशेषमां) रहे. ए प्रमाणे ते चारे मुनिओए एकाकि विहारकल्प अंगीकार करी . विहार करता त्यांज राजगृहनगरमां पधार्या. ए वखते भरशियाळामी हेमंत ऋतु चाले छे. अत्यंत शीत पडे छे. हवे ते चारे मुनिओ वैभारगिरिपर आव्या हता त्यांथी नगरमां श्रीजे प्रहरे गो. चरी करी पुनः वैभारगिरि तरफ जाय छे त्यां एक मुनिने वैभारगिरिनो गुफाने द्वारे आवतां, बीजा मुनिने नगरना उधा. नमा आवतां. त्रीजा मुनिने उद्याननी पासे, अने चोथा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (२१८) ॥श्री नवतत्वविस्तरार्थः ॥ गरमीने सम्यक् प्रकारे सहन करवी पण सदोष आचरणथी शीतलता न सेववी ते उष्णपरिषह कहेवाय. का छे के " गरम तपीगयेली पृथ्वी-रेती-अने शिलादिकथी. तृषावडे उत्पन्न थयेला दाहथी, अने सूर्यनां किरणोनी गरमीथी संताप पामेला मुनि चन्द्र-चन्दन-पवन इत्यादिथी मने शाता क्यारे थशे? एवी दीनसा न राखे. तथा उष्णताथी संताप पामेला मुनि स्नान न इच्छे, गा. त्र पर जळ छंटन न करे, अने कपडादिथी वायु पणन नाखे" मुनिने नगरना दरवाजा बहार आवतां त्रीजी प्रहर समाप्त थ. वाथी ते मुनि महात्माओ ते ते स्थानेज काउन्सग्गध्याने उभा रह्या. त्यां गुफाद्वारे रहेला मुनि पर्वतनी अत्यंत शीत लागधा थी समाधिपूर्वक पहेले प्रहरे काळधर्म पाम्या, बीजा मुनि पर्व. तनी नीचे ओछी ठंडी लागवाथी बीजे प्रहरे. त्रीजा मुनि श्रीजे प्रहरे, अने चोथा मुनि चोथे प्रहरे काळधर्म पाम्या. ए प्रमाण जेम ए चारे मुनि महात्माए शीतपरिषह महन को तेम अ. न्य मुनिए पण शीतपरिषह सहन करवी. तेमज श्रावके पण यथायोग्य शीतपरिषह सहन करवी. १ दृष्टान्त-तगरा नामनी नगगीमा दत्त नामें वणिक. अ. ने तेनी भद्रा नामे स्त्री छ. तेओने अति कोमळ अंगधाळी अने भद्रपरिणामी अरहनक नामे नानाबालक छे. अहं न्मित्राचार्य पासे धर्म सांभळी वैराग्य पामी ते बन्ना नाना बालक माहित दीक्षा अंगीकार करी. हवे दत्तमुनि पोते मारां मारां मिष्टान्न कहोरी लावी पोताना बाळमुनिने पोषे छे, पण ते अरहन्नकने कोद दिवस स्नेहथी गोचरीए जवा देता नथी. वीजा मुनिओ. ना मनमा सहज लागणी थाय पण पिता पुत्रने पोषे तेमां कोण कही शके ? अथवा कोण निषेध करी शके ! हवे ग्रीष्मऋतु. मां दत्तमुनि काळधर्म पाम्या अने अरहन्नकमुनि पिताविनाना 'थया त्यांचे प्रण दिवस सुधो तो पिताना पीडायला अरहन्नक मुनिने श्रीजा मुनोओए गोचरी लावी आपीने पछी का के हवे Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतत्वे समितिवर्णनम् ॥ (२१९) तो तमे पोतेज गोचरीए फरो, कारण के पितानी पेठे हरहमेश कोण गोचरी लावीने आपशे ? दाझ्या उपर डाम सरखां ए वचनो सांभळी अत्यंत दिलगीरीपूर्वक अरहन्नक मुनि बीजा मुनिओनी साथे भिक्षा लेवा माटे गया. कोइ पण घखते उपा. सराथी बहार नहिं निकळेला अरहन्नकमुनिने आ ग्रीष्मऋतुना तापमां घेर घेर फरी गोचरी लाववाना परिश्रमथो घणो खेद थयो. पग रेतीथी दाझे छे, मस्तक सूर्यथी तपी जाय छे, इ. त्यादि अनेक वेदनाथी व्याकुळ थइ गभराइ गयेला अरहन्नक मुनि बीजा मुनिओथी पाछळ रही कोइक शेठनी हवेली नीचे विसामो लेवा बेठा. ते घखते ते म्हेलनी स्वामिनी स्त्री के जेनो पति प्रथम मरण पाम्यो छे ते आ नवयुवाम अने कोमळ अंगघाळा रुपवान मुनिने जोइ कामातुर थइ दासी मोकलीने भिक्षाना मिषथी मुनिने म्हेल उपर पोतानी पासे बोलाव्या. अने अनेक प्रकारना उपायो करी मीठु मीठं बोली मुनीने पो. ताने आधीन कर्या. मुनि पण माधुपणाना कष्टथी कंटाळेला होवाथी आ स्त्री साथे गृहवास मांडी रह्या. हवे भिक्षाचर्याए निकळेला सर्व मुनिओए उपाश्रयमां आवी जए छे तो अरहन्नक मुनिने देख्या नही तेथी मुनिओए नगरमांसर्व ठेकाणे तपास करावतां पण अरहन्नकमुनिनो पत्तो लाग्यो नहिं, त्यारे अन्ते मुनिओए तेनी माता साध्वीने खबर मोकली के तमारो अरहन्नकमुनि क्यां छे ? ते मंबधि अमोए शोध करी छतां खबर मली नथो माटे तमो पण शोध कगवो. आ समाचार सांभळतामांज मा. ता माध्वी एकदम स्नेहना वशथी विलाप करती नगरमां हे अरहन्नक : हे अरहन्नक ! एम मो पाडती बजारे बजार गलीए गही अने घेरेघेर शोधवा निकळी, घणु फरी फरीने ज्यारे ते शेठाणीना म्हेल नीचे आवी त्यारे हे अरहन्नक ! हे अरहन्नक! पम वृमी पाडती साध्वीनो ने बीजा भेगा थयेला लोकोनो कोळाहळ गवाक्षमां बेठेला अरहन्नके नीचे देख्यो. अने मारी माता मारे माटे आवी दुर्दशामां आवी पडी छे एम चिंतवी पुनः वैगग्य उत्पन्न थयो, अने करेला अघोर कमनो अति प Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२०) ॥श्री नवतत्वविस्तरार्थः ॥ डांस-मच्छर-मगतरां वगेरे क्षुद्र जंतुओए उपजावेली पीडा सम्यक् प्रकारे सहन करवी पण ते जीवोनुं अशुभ न चिंतवq ते दंसपरिषह कहेवाय. का छे के-" मच्छरादि जन्तुओ शरीरनुं मांस-रुधिर खाता होय तोपण उद्धेग न करवो, तेओने उडाडवा नहिं, मनथी पण तेओना पर द्वेष न लाववो, अने तेओने न ह. णवा परन्तु ते तरफ बेदरकार रहेवु" . श्चाताप करघा लाग्यो, अने नीचे उतरी माताने पगे लाग्यो, माता पण अरहन्नकने देखी तुरत शुद्धिमां आधी अने अनेक प्रकारनी शीखामण आपी फरीथी चारित्र अंगिकार कराव्यु. अरहन्नक मुनिए पण पुनः चारित्र अंगीकार करी उत्कृष्ट वैरा. ग्यवडे गुरुनी आज्ञा मागी नगर बहार ग्रीष्मऋतुना सख्त ता. पथी तपेली धगधगती शिलापर चारे शरण लइ पादपोपगमन अनशन अंगीकार कयु. अने पंच परमेष्टिनु स्मरण करता अ. रहन्नकमुनिनु शरीर एक मुहूर्त्तमात्रमा माखणना पिंडनी पेठे गळीगयु. अने काळ करी देवलोके गया. ए प्रमाणे अन्यमुनिए पण उष्णपरिषह सहन करवो. ' १ दृष्टान्तः-चंपानगरीमा जितशत्रुराजाना पुत्र श्रमणभद्रे श्रीधर्मघोषसूरि पासे चारित्र अंगीकार करीने उत्कृष्ट योग्यता मेळवी गुरुनी आज्ञापूर्वक एकाकी विहारप्रतिमा अंगिकार करो. हवे श्रमणभद्रमुनि विहार करता शरदऋतुना वखतमां कोइक महा अटवीनी अंदर रात्रे प्रतिमाए ( काउ०ध्याने ) रह्या छे, ते वखते सोय सरखा तीक्ष्ण मुखवाळा हजारो डांस तेमनी कोमळ कायाने लागी रुधीर पीवा लाग्या, जेथी मुनीनी स्वर्ण सरखी कायापण लोखंड सरखी काळी पडी गइ. उत्कृष्ट वैराग्यभावनावडे ते डांसने उराडया नहि, अने चिंतववा ला. ग्या के नरकनी उग्र पोडा आगळ आ डांसनी पीडा कइ गणत्रीमा छे ? वळी जीव अने शरीर ए बे भिन्न छे तो पछी अस्थिर शरीरमां ममत्व भाव शाथी ? वळी जो आ अल्पका Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतत्त्वे परिषहवर्णनम् ॥ (२२१) वस्त्रमो सर्वथा अभाव होते अथवा तो जीर्णप्राय अने अल्प वस्त्र होते वस्त्र प्राप्तिनुं दीन चितवन न करवु ते अचेलक परिपह कहेवाय ( अहिं चेल एटले वस्त्र एवो अर्थ जाणवो, ) का छे के- “ अतिजीर्ण वस्त्र थयां छे ते फाटवाथी थोडा दिवसमां हुं वस्त्र विनानो थइश, अथवा मारा जीर्ण वस्त्र देखीने कोइ गृहस्थ नवां वस्त्र आपशे ए प्रमाणे दीन चितवन न करे पण आ जीर्ण वस्त्र जो फाटी जशे तो मने जिनकल्पी सरखु अचेलकपणुं प्राप्त थशे, अने जो नवां प्राप्त थशे तो स्थविरकल्पगत सचेलकपणुं प्राप्त थशे, बन्ने धर्मने हितकारी छे एम जाणी मुनि दीनता न करे. " . ळमां विनाशी शरीरवडे जो आ प्राणीओने तृप्ति थती होय तो एथी बीजु शु विशेष छे? ए प्रमाणे डांसनी अत्यंत पीडाने स. हन करता श्रमणभद्रमुनिए प्राणत्याग को. ए प्रमाणे अन्यमुनि तथा व्रतधारी श्रावकोए देशपरिषह सहन करवो. . १ दृष्टान्त:- दशपुरनगरमां सोमदेव नामनो ब्राह्मण अने रुद्रसोमा नामे तेनी स्त्री श्राविका छे, तेमने आयरक्षित अने फल्गरक्षित नामना बे पुत्र थया. त्यां आयरक्षित पितानी पासे विद्या भणी अधिक अभ्यास माटे पाटलीपत्र नगरे जइ वेदवेदांगादि चौद विद्याओ भणी दशपुरनगरे आव्यो ते वखते नगरना गजा अने नगरना लोकोए पण घणा आडंबरथी सा. मय करी नगरप्रवेश कराव्यो. पछी घेर ओवी पोतानी मा. ताने नमस्कार करवा गयो न्यारे माता अति उदासीन थइने बेठेत्री छे. पुत्र का हे मोता हु आटली विद्याओ भणी गजा वगेरेनु सन्मान मेळवी भेटणांनी अनर्गल लक्ष्मी प्राप्त करी हु तारी पासे नमस्कार करवा आव्यो छतां तु उदासी केम बनी गइ छ? माताए का हे पुत्र ! तु अनेक विद्याओ भण्यो पण ते मर्व ससारनी वृद्धि करनारी छे. अने तेथी तु परभवमां Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) ॥श्री नवतत्त्व विस्तरार्थः ॥ महाकष्ट पामीश, ए संबंधि विचार करधाथी मने अत्यंत उ दासिनता थइ छ माटे जो तु ऐक पण विद्या परभवना सुखनी अने मोक्ष प्राप्त करवानी विद्या भण्यो होत तो मने उदामीनता न होत. आर्थरक्षिते का हे माता ते का विद्या अने कोनी पामे मळे छे के जेथी मोक्षनो प्राति थाय. त्यारे माताप का के जो तारो मोरा वचनपर विश्वास होय अने तु भक्तिवाळी हो य तो स्वर्ग अने मोक्ष आपनार एघा दुष्टिवादनी अभ्याम शे. लडीनी वाडीमां पधारेला श्री तोस चीपत्राचार्य पासे कर. पुत्र विचायु के जे शास्त्रा भगवाथी माताने मन गीझd नथो तवां शास्त्रोवडे शु? एम विचारी तुर्त आज्ञा ल तामलीपुत्रावाय पासे चाल्यो, तेटलामा प्रभातकाळे प्रथम मलवाने उत्सुक गधा आयरक्षितना पितानी मित्र भेट तरीके ९ मांठा आग्वा अन एक सांठानो ककडो लइ आवी मामे मल्यो अने भेट करी, ते भेट स्वीकारी का के आ शेलड़ी तमो मारी माताने सोपजी अने हु कोइक कार्यार्थे बहार जाउं छ. ते पितामित्र ते शेलड़ी तेनी माताने सोंपी सर्व विगत कहेवाथी माताप विचाय के आ शेलडी शकुनमा मामी मली छे मादे मागे पुत्र जरूर ९॥ पूर्व जेटली विद्या भणशे. हवे आर्यरक्षित तोमलीपत्राचार्य पा जइ अभ्यास कराववानी विनंति करतां आचार्य का के जी दृष्टिवाद भणवू होय तो दीक्षा अंगीकार कर, त्यारे आयरक्षित कत्यु के आप मने दीक्षा आपो पण अहिं नगरना गजा--प्रजा सर्व मारी दीक्षा तोडावशे माटे अहिंथी त बीजे म्थाने चा. ल्याजवू ठीक छे. तोसलीपुत्राचार्य पण तुर्त तं आयरक्षितने साथे लइ अन्यत्र विहारकरी त्यां दीक्षा आपी. श्रीवीरना शा. सनमा ए प्रथम ज शिष्यदोरी थइ. त्यारवाद आयरक्षितने अगीयार अंग अने १२मुं दुटिवाद पाताना अभ्यास जंटलं मारी रीते भणाव्यु अने आगळ अभ्यास करवा माटे श्रीवनस्वामि पा. से मोकल्या त्यां जइ ९॥ पूर्व संपूर्ण अभ्यामकर्या आगट तंटली बुद्धिना अभावे कंटालो आववाथी अने पिताना उपगउपरी मंदेशा आववाथी अभ्याम न थयो. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || संवरतस्ये परिषवर्णनम् ॥ (२२३) हवे अहि आर्यरक्षितना पिताने सर्व समाचार मलत air संदेशा मोकल्या छतां पण पुत्र नहिं आववाथ फल्गुरfeat deer माटे मोकल्या. श्रीवज्रस्वामिप श्रुतोपयोग मूकी जाण्युके हवे आगल अभ्यास नहिं करी शके अने अहिं पुनः आवशे पण नहि जेथी मारी वधु विद्या मारी पासेज रही जशे. हवे आर्यरक्षितने प्रथम सूरिषद मल्युं छे. तेओ फल्गुनfastt area विहार करता पोताने नगरे आव्या त्यां आये. रक्षितना उपदेशाथी राजा अने नगरजनों पण अनन्य भक्तिवाला थया. माता रुद्रमीमा पण पुत्रआचार्यपासे घणा कुटुंब सहित दीक्षा लोधी, अने राजा सम्यक्त्ववत अङ्गीकार कयुं. पण पुत्री अने पुत्रवधू वगेरेनी आगल हुं नग्न सरखो / काछडो खोस्या बिना छूटे व ) केम उभो रहुं ? पवी लज्जाथी सोमदेवे दोक्षा लोधी नहि, पण निरन्तर उपासरेज रहे छे. आयरक्षिताचाये घणी उपदेश दीधो त्यारे सोमदेव पिताए कतु के जो जनोड-पगरखां-छत्री-पीतांबर - अने कमन्डल राखवानी आज्ञा आपोतो हुं दीक्षा लउ आचार्ये पण कोइरीते पिताने संसारथी तारवानी बुद्धि ते सर्व अनुज्ञा आपी दीक्षा अंगीकार करावी. अने त्यास्वाद केलांक बाळकोने युक्तिथी नमस्कार नहि करतां मरकरीओ करे अने उपदेश आपे तेवी युक्ति शीखवाडी धीरे धीरे सत्र चीजो छोडावी. आखरे पीतांबर रहा ते छोडावाने आचार्य युक्ति शोधे छे तेटलामां कोइक मुनि अणसण करी काळधर्म पास्या. ते वखते पितामुनिनु पीतांबर छोडावाने युक्ति रची क के आ मुनिने कांधे धरी लड़ जाय तो घणी निजंग थाय. ते लाभ लेवाने बीजा सर्व प्रथम शीखर्व गखेला मुनिओ अत्यन्त उत्सुकता धरी उठ्या. त्यारे सूरिए क क जो ए निज्जंगनो लाभ तम सर्व लइ जोओ तो अमारा पिता वगेरे बन्धुवर्ग शुं लाभ लइ शके ? एम कहेवाथी सोमदेवमुनिए पुत्रने पूछयं के, आ मुनिनी देह हुं जाते उपाडीश. त्यारे सूरिएक के, देहने उचकी लइ जतां भविष्यमां घणो वाळ उपसर्ग Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) || श्री नवतत्त्व विस्तरार्थः ॥ चारित्र मार्गमां विचरतां जे अरति - अधेर्य अथवा अरुची उपजे तेने निवाrat अर्थात् चारित्रमां धैर्य राखवं ते अरतिपरिषह कवाय. अरति उपज्या छतां पण चारित्र मार्गनो त्याग ने करो, थशे ते सहन करवानी जो शक्ति होय तो उपाडी त्यारे पितामुनीए उपसर्ग सहननुं पण कबूल करी मुनिनी देह उपाडी रस्ते चालेछे. बीजा पण अनेक कुटुम्बना मुनीओ अने माध्वीओ तथा श्रावक श्राविकादि चाले छे. तेटलामां प्रथमथी शीखश्रीराखेला बालको आवी प्रथम सोमदेवमुनिनो प्रथम काछडी काढी नाखी, पुनः आगल चालतो. पावली कादी नाखी अने आगल चोलतां आखु पीतांबर काढी लड़ तदन नग्न करी मू क्या के एकदम वीजा साधुओए प्रथमथी लावेलो चोलपट्ट प हेरावी दीघो. अने त्यारपछी ते चोलपट्ट हंमेश माटे कायम रह्यो अने तेथे सोमदेवमुनि अचेल परिषह महनकरत्रा लाग्या तम बीजा मुनिओए पण अचेल परिषह सहन करवो. ( आ दृष्टान्त अति संक्षेपमा उतार्य हे माटे विस्तरार्थी उत्तराध्ययनथी जाणं. ) १ दृष्टान्त - अचलपुर नगरमां जीतशत्रु राजाना युवराज पुत्रे श्री रथाचार्य पासे दीक्षा अंगीकार करी ते वखते उज्ज faatni आर्यराध नांमना आचार्य हता तेमना केटलाक शि यी तगरा नगरीमां अभ्यास करवा गया हता, हवे रथाचाः ये पण युवराज मुनि सहित तगरा नगरीए आव्या, त्यां तेओ आर्यराधाचार्यना शिष्यांने आर्यराधाचार्यना कुशल समाचार पूछतां तेओर कयु के उज्जयिनीमां सर्वरी कुशलता हे पण राजा अने पुरोहितना वे पुत्रो मुनिओने बहु कदर्थना क रे छे ते सांभळी युवराज मुनिए विचार्य के ते राजपुत्र मारी भत्रीजो थाय छे, ते साधुओने कदर्थना उपजाबी दुर्गतिमां न जाय तो ठीक एम विचारी गुरुनी आज्ञापूर्वक युवराज मुनि उज्जयिनिमां आवीने राजपुत्रने घेर गोचरी गया ते वखते ग Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥ संवरतस्वे परिषहवर्णनम् || (२२५) जपुत्र अने पुरोहितपुत्रे के हे साधु ! तुं नाटक करी जाणे छे के नहिं ? युबराज मुनिए कछु के हुं नाटक सारी रीते करुं छू पण तमो मृदंग ताल बजावो, ते सांभळी ते बन्ने मृ. दंगादि गाडा लाग्या, अने युवराज मुनि नृत्य करे छे तेटलामां नृत्यना ठेका साथे मृदंगादिनो ताल नहिं मलवाथी युवराजर्षिए क के - हे भीलडा सरखा ! मूर्खना शिरोमणि ! तमो नृत्य साथे वाजिंत्र बराबर केम बगाडता नथी ? ते सांभळीने कोधातुर थयेला बन्ने पुत्रो मुनिने मारवा आव्या, तेबाज मुनिष ते पुत्रोने कूटी कूटीने हाडकाना सांधा उतारी नाख्या जेथी बन्ने कुमारो अत्यन्त रडवा लाग्या अने मुनि तुरत बert frकळी पोताने स्थाने आव्या, आ वातनी राजाने खबर पडतां अनेक उपाये पण हाडसंधिओ ठेकाणे न आववाथी तेज मुनिनी पासे आधी करगरीने विनंति करतां मुनिए घ णो ठपको आपक के महा उद्धत ए कुमारो जो चारित्र अंगीकार करे तो बन्नेने साजा करूं अन्यथा नहिं. निरुपाये राजाए कबूल करवाथी मुनिए प्रथम लोच कर्या बाद हाडनी संधिओ ठेकाणे लावी साजा करी दीक्षा आपी, त्यां राजपुत्र . तो सारी रीते चारित्र पाळे छे। अने पुरोहित पुत्र तो आ मुनिए मने बळात्कारे दीक्षा आपी इत्यादि विचारथो अरति -- उद्वेगपूर्वक अनादर पणे चारित्र पाळे छे. तेथी राजपुत्र वमां केला देवादि उत्तम भव करी मोक्षे गयो अने पुरो-. fer पुत्र घणीवार दुर्गतिमां रखडी अर्हदत्तना भवमां राजपुत्रना जीवे बोध आपवाथी अरतिपरिषह सहन करी चारित्र पाळयुं जेवी मद्गति पायो, ए बन्नेना भवनो विस्तार उत्तराध्ययनथी जाणवा Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३) || श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ ate विषयेच्छा पूर्ण करवाने माटे करेला उपसर्ग ( - उपद्रव सम्यकप्रकारे सहन करवा पण लेशमात्र विकार थवा देवो नहि अने स्त्रीने आधीन यवु नहिं ते स्त्री परिषह कहेवाय. - ग्रामानुग्राम विहार करवो पण एक स्थाने नियतवास करी रहे नहि ते चर्यापरिषह कहेवाय. कहाँ ले के " गृहस्थादिकनी साथै रागनो प्रतिबन्ध राख्या विना मुनि ग्रामानुग्राम जिनाज्ञा प्र माणे विचरे." १ दृष्टान्तः - पाटलीपुत्र नगरमां नन्दराजाना शकडाल नामे मन्त्रीनो पुत्र स्थूलभद्रं प्रथम १२ वर्ष सुधी कोशा नामनी वेश्याने त्यां अनेक मोज शोख भोगवी पोताना पितानु राजाने हा मृत्यु थयेलु जाणी वैराग्य पामी श्री संभूतिपूरि पासे दीक्षा लइ तेज कोशा वेश्याने घेर गुरुनी आज्ञा लइ खटरस भोजन करता चित्रशाळामां चोमासु रहेवा आव्या ते वखते पहेलांनी प्रीति सभारी अनेक रीते स्थूलभद्रमुनिने हाव भाव विकारादिथी लोभाच्या छतां पण महा निर्विकारी मुनिए चोमासाने अन्ते काउस्सग्ग पारी कोशाने उपदेश आपी श्राविका बनावी अने राजा मोकले ते पुरुष मित्राय अन्य पुरुषने अङ्गीकार न करवो इत्यादि यथा योग्य व्रत उचराव्यां. जेथी गुरुए पण सर्व मुनिओनी आगळ दुष्कर कार दुष्करकार एम बेवार कही बोशव्या ए प्रमाणे स्त्रीपरिषहने सम्यक प्रकारे सहन करवो. २ वृष्टांत:- कोलकिर नगरमां संगम नामना आचार्य अत्यन्त वृद्ध थया छता पण एकज उपाश्रयमां नत्र भाग क पीने नवकल्प विहारनी विधि साचवता हता ( इत्यादि अहिं मळेला कुशिष्यनुं वृत्तान्त उत्तरा०मांथी जाण ) ते प्रमाण अन्य मुनियोए पण वनता प्रयत्ने नवकल्पी विहारनी विधि साचचवी. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतत्त्वे परिषहवर्णनम् ॥ (२२७) श्मशान- शून्यगृह-वृक्षनी नीचे--इत्यादि स्थाने दुष्टचेष्टा र. हित बेसे छतां पोते डरे नहि, तेम बीजाने डरावे पण नहिं ते नैषेधिकी परिषद कहेवाय उंची-नीची एवी प्रतिकूल शय्या मळतां उद्वेग न करवो ते शय्यापरिषद कहेवाय. का छे के--" अनुकूळ शय्या (--- सति--स्थान अथवा शयन ) मलतां हर्ष न करे, अने प्रतिक्ळ श. ग्या मळतां उद्वेग न करे के अहो ! हुं के सुन्दर स्थान पाम्यो छ ? अथवा मने सारी शरया पण प्राप्त न थइ ? इत्यादि हर्ष वि. षाद ने करे" १ दृष्टांत:-गज़पुर नगरना कुरुदत्तपुत्र नामे शाहुका. र पुत्र दीक्षा लइ एकाकी विहारप्रतिमा अङ्गीकार करी सा. केतपुरनी पासे काउत्सांग ध्याने उभा रह्या ते दरम्यानमां केटलाक गोवाळीनां ढोर कोड चोर ला गया, ते गोवाळ चोर. ने देखता देखता मुनि पासे आधी चोर देख्या छ के नहिं ? एम पूछतां कांइपण उत्तर नहिं मलबाथी अत्यन्त क्रोधवाळा थई लोली माटोथी मुनाना मस्तकपर पाळ बांधी तेमां अग्नि ना. खवाथी मुनिनु मस्तक सळगी उठयु अने गोवाळ नासी गया मुनिए ममता राखी अग्निन कष्ट सहन कर्यु, अने थोडीवार. मां मुनि काळ करी परलीक पाम्या. ए प्रमाणे अन्य मुनिओ. प पण नैषेधिकी परि।) ( स्थान परिषह ) महन करवो. २ दृष्टान्त:-कौशम्बी नगरीना यज्ञदत्त विप्रना सोमदत्त अने सोमदेव नामना बे पुत्री दीक्षा अंगीकार करी वि. हार करो गया. घणे दिवसे कुटुंबीआने मळधानी इच्छाथी कौश बीप आवतां ते आना मातपिता अवन्तीमा जइने रह्या छे एवीख. बर मलतां ते बे मुनिओ पण अवन्तिमां आव्या, ते देशमा केटलाएक ब्राह्मणाने पण दारु पीवानो रिवाज हतो तेथी त्यां Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ वचनथी अथवा कायाथी करेली ताडना सजना सम्यक् प्रकारे सहन करवी पण तेनु अशुभ न चिंतवq ते आक्रोशपरि. पह कहेवाय. का छे के-"बीजो कोइ मुनिने आक्रोश करे तो मुनिए तेनापर सामो आक्रोश न करवो कारण तेथी मुनि पण अ. ज्ञानी सरखो थाय छे. माटे पोते आक्रोश न करे." ... ठहोरवा आवेला मुनिओने बीजी वस्तुमा मदिरा भेळवीने (को. इक आचार्य कहे छे एकली मदिरा ज)ब्राह्मणनो स्रीओए व्होरायो. अजाणपणे आ बे मुनिए तेनो आहार कर्या बाद चक्कर वर्गरे आववाथी मदिरा प्राप्त थयेली जाणी अतिपश्चाताप करी विचायु के आहारना अर्थीने कोइक वखत आवो अयोग्य आहा. रपण वापरबो पडे माटे मूलथी आहारनीज त्याग करवो एम धारी नदीने कांठे पडेला सूका काष्ठ उपर बन्ने मुनिए पादोपगमन अणसण अंगीकार कर्यु त्यां अकाळे पण मेघवृष्टि थवाथी नदीमा पुर आवतां मुनि सहित ते सूकु काष्ट पण नदीमा तणाय छतां मुनि उतर्या नहिं. अन्ते ते काष्ट तणाइने समुद्रमां आव्यु, त्यां जळचर जीवोए करेली अनेक पीडा महन करी धीरता वाला बन्ने मुनि काळ करी गया. जेम आ बे मुनिओप सूकाकाष्ट जेवी शय्या सहन करी तेम अन्य मुनिओए पण शय्यापरिषद महन करवो. . १ दृष्टान्तः- कोइक नगरमा महा तपस्वी मुनिना तपथी आकर्षायली काइक देवी ते मुनिने निरन्तर नमस्कार करवा आयती, अने कहेतो के हे पूज्य ! मारा सरखं कोइ कार्य होय तो फरमावो परन्तु निस्पृहो मुनिने शु कार्य होय ? एक वखते कोइक विप्रनु दुर्वचन मांभलीने क्रोधवाळा थयेला ते मुनि ते विप्रनीसाथे युद्धकरवा लाग्या पण तपपडे दुर्बळथयेली देहवाळा मुनिने लष्टपुष्ट एवा ब्राह्मणे मुठी मारतांज जमीन पर पाडी नाख्या. अने उपरथी पण घणी ताडना तर्जना करी Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - % - ॥ संवरतवं परिषहवर्णनम् ॥ (२२९) पोतानो वध करे तो पण सम्यक् प्रकारे सहन करवो पण वध करनारर्नु अशुभ लेश मात्र पण न चिंता ते वधपरिषह कहेवाय. ते विप्र नासीगयो मुनि पण महाकष्टे उठीने स्वस्थाने आव्या हवे रात्रीना वखतमां आवेली ते देवीए नमस्कार करी शाता पूछी. परन्तु मुनिए धर्मलाभ पण म आपयो. त्यारे देवीए अत्यन्त करगरीने नहिं बोलधार्नु कारण पूछतां मुनि उंचे श. ब्दे देवीने ठपको देवा लाग्या के तारो नमस्कार अने तारी भक्ति जाणी लीधी, कारणके ब्राह्मणे मने आटलो उपसर्ग कर्या छतां पण ते का निवारण न कयु, माटे हवेथी हुँ तने बोलावीश पण नहि. आ प्रमाणे मुनिनु पचन सांभळी देवीए कह्यु के है पूज्य हुं ते वखते हाजर हती पण बन्ने जणने क्रोधाविष्ट देखवाथी तमो बेमां मुनि कोण ? अने विप्र कोण ? ते मने खबर पडी नहिं. आ जवाव सांभळी मुनि ते पापनी आली. चना करी संयममार्गमां स्थिर थया, ए प्रमाणे अन्य मुनिओए पण आक्रोशपरिषह सहन कहवो.. १ दृष्टान्तः-श्रावस्तिनगरीना जितशत्रुराजाना पुत्र स्कंदक कुमारे श्री मुनिसुव्रतस्वामीनी धर्मदशना सांभळी वैराग्यपामी दीक्षा लीधी ते बखते कुंभकार नगरमां दडकीराजानो प्रधान पालक नामे हतो ते कोइ राजकार्यना कारणथी श्रावस्तिनगरीमा आवी राजमभामां जनमुनिओनो निन्दा करवा लाग्योतेने गजसभामां स्कन्दक मुनिए निरुत्तर करवाथी अत्यन्त अप' मान थयेलं ममजी मुनिपर द्वष राखे छे. हवे अनुक्रमे स्कन्दक मुनि बहुश्रुत थयेला न योग्य जाणी स्कन्दकनी साथे दीक्षित थयेला ५०० मुनिओनो परिवार श्री सुव्रतप्रभुए स्कन्दकमुनिने सोपी आचार्यपद आप्य. हवे ते ४९९ शिष्यो सहित स्कन्दकाचार्य पोताना बनेवी दन्डकी राजाना नगरे जवाने आज्ञा मागतां प्रभुए मर्वन मरणान्त उपसर्ग दर्शाव्यो'ने पुनः पूछतां क के तारा विना सर्व आराधक थशे अने तु.विराधक थइश तेम मांभळ्या छतां पण स्कंदकाचार्थ ५०० शिष्योन भलं थशे तोपण श्रेयस्कर छे एम विचारी दंडकी राजानो नगर बहार Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) || श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ antarni आव्या ते वखते अभवी एवा पालक प्रधाने प्रथम अपमान संभारी ते बगीचामां हजारो छूपां शुख दटावी राजाने hat लाग्यो के हे राजन मुनिपणुं दुष्कर लागवाथी आपनो साळी स्कंदक पांचसे सुभटोने साधु वेष पहेरावी आपनुं राज्य ले - वा आवेल छे, अने ज्यारे आप वन्दना करवा जशा त्यारे त मने हणीने तमारुं राज्य लेशे, आ कथनमां जो तमारे खात्री जोइए तो तेओए पोताना निवास स्थानमां छूषां शस्त्र दाव्यां छे ते देखा पछी राजाए ते दाटेलां शस्त्र देखवाथी अत्यन्त क्रोधवाळो थह सर्व मुनिओने बांधी पालकने कछु के आसने योग्य शिक्षा तारे हाथे करवी. बिलाडीने मळेला दूध सरखी आआज्ञा सांभळतांज पालक प्रधाने घाणी तैयार करावी अनुक्रमे एकेक मुनिने घाणीमां घाली पीलवा लाग्यो ते वखते आचार्य पण ते मुनिने समाधि संभळावे छे जेथी दरेक मुनि समाधि पामी अन्तकृत केवली थइ मोक्षे जाय छे. हवे ४९८ शिष्यो पोलाइ रह्या बाद एक बालमुनिने पीलवा रह्या छे त्यारे सूरिपक के प्रथम मने पीलीने पछी आ बालमुनीने पीलजे कारण मने इक राग होवाथी आ बाळमुनिंनुं कष्ट मारी नजरे नहिं जो शकाय छतां पण पालक पापीए सूरिने बधु दुःख उपजाववाना हेतुथी प्रथम बालमुनिने पील्यो, पथो आचार्यने कोधाग्नि व्याप्यो अने नियाणु कर्य के जो मारा तपनुं फल होय तो अहींथी काळ करीने हुं आखा देशनो नाश करनार थाउं. एम नियाणुं करता आचार्यने पण पालक पा पीप घाणीमां घाली पीली नाख्या. आचार्य काळ करीने अग्निकुमार देवमां उत्पन्न थया, त्यां अवधिज्ञानवडे पोतानी पू are जाणी दंडको राजाप आपली आज्ञा अने पालक पापीनु अघोर कृत्य जो अत्यन्त द्वेष आववाथी आ स्कंदक देवे ashी राजानों आखो देश बाळीने भस्म कर्यो. ते आजे दे डकारण्य नामे ओळखाय छे. आ पालकने शास्त्रमां अभवी जीव कहेलो छे, ए प्रमाणे जेम ४९९ शिष्योप वध परिषह सहन कर्यो तेम अन्यमुनिओए पण वधपरिषह सहन करवो परन्तु स्कंदकाचार्यत् चारित्र मोक्षफळ हारी जनुं नहिं. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || संवरतस्ये परिषवर्णनम् ॥ (२३१) गृहस्थनी आगळ भीक्षा मागतां लज्जा न पामवी ते याचना पहिषह. कां छे के – “ गोचरीए विचरता मुनिने गृहस्थनी आगळ हाथ धरवो युक्त नथी, एथी तो गृहवास श्रेष्ठ छे, एम सुनिन चितवे " मुनिने दरेक वस्तु मागीनेज लेवानी होय छे, अने पाण्याविना जमीन परथी एक तृणखलु के दांत खोतरवानी सळी पण उपाडाय नहि, एवो मुनिनो आचार होवाथी मोटा गृहस्थोए या राजपुत्रो दीक्षा लीधी होय अने पछी घेरेघेर मान अपमान सहन करतां भीक्षा मागवाने भमवु पडे तो तेओने आ परिष विशेष होय छे. कारणके जे राजाओ अने धनवानो गृहस्थपणाम अनेक परजीवोने दान आपी उद्धार करनार हता ते राजाओ अने धनवानोने दीक्षा लीधा बाद बीजानी आगळ हाथ लांब करवो पडे अनेकदाच अपमानादि करे तो ते पण सहन करवु पडे एतेओने दुष्कर होय छे माटे उत्तम वैराग्यवाळाए एम न विचार के हूं बीजानी आगळ हाथ केम धरू ? ए याचना परिषह सहन कर्यो कहेवाय, / अवतरण- -२२ परिषहमांथो पूर्व गाथामा १४ परिषह कह्या अने हवे आ गाथामां शेष रहेला ८ परिषह कहे छे. १- दृष्टान्त - कृष्णवासुदेवना भाइ बळभद्रमुनिए चारित्र ली. धाबाद पोताना रुपथी स्त्रीओने मोह पामती जोइ पोते वनमां ज रहेवा लाग्या अने नगरमां नहिं आववानो अभिग्रह कर्यो, त्यां वनमां आवेला सुतारनी पासेथी तेओ गोचरी ग्रहण कर ता हता, परन्तु हुं त्रण खण्डनो मालिक होइ ने आ सुतारनी आगळ भिक्षा केम मागुं ? एवो लेश पण विचार आवतो नहिं. तेथी जेम आ बळभद्रमुनिए याचनापरिषह सहन कर्यो तेम अन्य मुनिओए पण याचना परिषह सहन करवो. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - (२३२) ॥श्री नवतत्वविस्तरार्थः॥ ॥ मूळ गाथा २८ मी. ॥ अलाभरोगतणफासा, मलसकारपरीसहा । पन्ना अन्नाण सम्मत्तं, इथ बावीस परीसहा २८ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ अलाभरोगतृणस्पर्शा, मलसत्कारपरिषहो । प्रज्ञाऽज्ञानसम्यक्त्वा, न्येतानि द्वाविंशति परिषहाणि॥२८॥ ॥शब्दार्थ ॥ अलाभ-अलाभ परि० . | पन्ना-प्रज्ञापरि० रोग-रोगपरि० अन्नाण- अज्ञान परि० तणफासा-वणस्पर्श परि० सम्मत-सम्यक्त्व परि. मल-मलपरि० सक्कार सत्कार परि० बावीस-बावीश परिसहा-परिषद परिसहा-परिषह , गाथार्थः-अलाभपरि०-रोगपरि०--तृणस्पर्शपरि०-मल. परि०--सत्कारपरि०-प्रज्ञापरि०-अज्ञानपरि०-सम्यक्त्व परि० ए २२ परिषह ( ते संवर तत्व ) छे. विस्तरार्थः-याचेली ( मागेली ) वस्तुनी प्राप्ति न थाय तो उद्वेग न करवो पण लाभान्तराय कर्मनो उदय विचारवो ते अलाभपरिषह. १ दृष्टान्त - एक वखते दुःशिक्षितअश्वनी प्रेरणाथी बळदेव कृष्ण दारुक अने सत्यक ए चारे जण महा अटधीमां आवी पडया. त्या रात्री पडवाथी एकेक जणने पहेरगीर नीमी वड. मी नीचे सूता, तेटलामा कोइक पिशाचे आवी पहेरो भरता Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ संवरनवे परिषहवर्णनम् ॥ (२३३) ARENDERaucous दारुकने का के जै प्रणे जण सूता छ तेओर्नु हुं भक्षण करीश, अने तु जो तेओनु रक्षण करनार होय तो मारी सामे युद्ध करवा तैयार था. दारुके युद्ध करवानु अङ्गीकार करी पिशाचनी साथे युद्ध करवा मांडयु पण पिशाचने जीतवो अशक्य जाणी अत्यन्त कोधायमान थयो, हवे अहिं दारुक जेम जेम कोप करतो जाय छे तेम तेम कोपरूप पिशाच पण पोतार्नु शरीर वधारती जाय छ, ए प्रमाणे वारंवार शरीर वधारता पिशाचनी सामे युद्ध करीने हाथ पग प्रण छोलाइ गया छ ते दलामा एक प्रहर पूर्ण थवाथी सत्यकने उठाडी पोते सूइ गयो. सत्यकने पण तेवो रोते युद्ध करता पोताने जेम जैम कोप ध. धतो जाय छे तेम तेम पिशाच शरीर वधारतो जाय छे. ने युद्धमा जीत मळती नथी. ए प्रमाणे करतां बीजी प्रहर पूर्ण थवाथी बळदेवने उठाडी सत्यक सूइ गयो, बळदेवे पण क्रोध. सहित तेधीरीते युद्ध करवाथी विजय नहिं मळतां धीजी प्रहर पूर्ण थये कृष्णने उठाडीने पोते सूइ गयो. कृष्गनी साथे पण पिशाच यद्ध को छे, ते पखते कृष्णाना मनमां एवो संतोष उ. पज्यो के ह वासुदेवनीमाथे आवं युद्ध करनार आ जबरी मल्ल कोण हशे ? कारणके शूरवीर पुरुषोनी सामे र पुरुष युध्ध करनार होय तो तेओ घणा खुशी थाय छे. तेथी कृष्णधासुदेव जेम जेम सन्तोष पामे छे तेम तम आ पिशाचन शरीर घटतुं जाय छे. अने ए प्रमाणे वासुदेवना सन्तोषथी पिशाच घटतो घटतो तदन बारीक थइ गयो जेथी कृष्णे ते सूक्ष्मरूप वाळा पिशाचने पोतानी नाभीमां गखी मूक्यो, हवे प्रभात थ. तां कृष्णे सर्वने छोलायला हाथ पगवाळा देख्या अने पूछयु त्यारे गत्रीनी बनेली सर्व हकीकत कही त्यारपछी कृष्णे नाभीमांथी ते पिशाचने बहार काढी देखाडी कह्य के रात्रे जे आव्यो हतो ते कोप-क्रोध पिशाच हतो. एनी सोथे तमो कोप करी युद्ध करवा लाग्या तथी ए कोप पोतानी देह बधारतो गयो कारणके कोपबडे कोप वृद्धि ज पामे छे, अने तथी तमो पराभव पाम्या, अने में सन्तोष अने शान्तताथी Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ शरीरे उत्पन थयेला रोगने सम्यक् प्रकारे सहन करवो पण उद्वेग करवो नहिं ते रोगपरिषह कहेवाय. अहिं जिनकल्पी मुनि होय तो थयेला रोगने निवारवानो औषधादि उपाय न करे, अने स्थविरकल्पी मुनि कोइक अवश्य कारण होय तो औषधादि करावे अन्यथा सम्यग् प्रकारे सहन करे युद्ध कर्यु माटे आ कोप पिशाच सूक्ष्म थइ गयो कारणके कोपक्षमावडे ज जीताय छे, ए प्रमाणे कृष्णे पिशाचमूर्तिवाळा कोपने जेम शान्तिथी जीत्यो तेम मुनिओए अलाभपरिषहने पण शान्तिथी जीतवो. १ दृष्टान्तः-सनत्कुमार चक्रवर्तिन एवं अलौकिक रूप हतुं के जे रूपनी प्रशंसा सौधर्मेन्द्र इन्द्रसभामां करवोथी बे देव रूपनीपरीक्षा करवा आव्या ने रूप देखी अति आश्चर्य पाम्या, पण ते वखते चक्रवति स्नान करता हता तेथी विप्ररूप धारी देवीने गर्वथी राजसभामां रूप देखवा आववान का. देवो ए राजसभामां आवी रूप देखी मस्तक हलावतां कारण पूछपाथी देवोए कयु के जे रूप स्नान करवानी तैयारी बखते ह. तु ते रूप हवे रहयुं नथी ने शरीरमां अनेक रोग उत्पन्न थया छे तेनी खात्री माटे राजाए पान खाधेलं धुंकतां उपर बे. ठेली माखी मरण पामी जोइ राज्य अने देहनी असारता चिं. तवतां वैराग्य वृद्धि पाम्याथी चारित्र अङ्गीकार करी अनेक प्रकारना तपथी मोटी लब्धिओ उपार्जन करी पण शरीर कुटादि अनेक रोगवडे व्याप्त थइ गथु. सनत्कुमार राजर्षिए अभिग्रह कर्यों के चक्षु वर्जीने कोइ पण अङ्गना रोगनी चिकित्सा न करवी. आ दृढ अभिग्रहनी प्रशंसा सौधर्मइन्द्रे इन्द्रसभामां करवाथी पुनः अश्रद्धावाळा बे देव वैद्यनुं रुप लइ सन. कुमार मुनि पासे आधी रोगनी चिकित्सा करवा कहयुं त्यारे मुनीश्वरे व ह्य' के हे वैद्यो ? तमो जो भावरोगनी (-कर्मनी) चिकित्सा करी जाणता हो तो मारे कराववी छ. नहिंतर आ द्रव्यरोगनी चिकित्सा तो हुँ पण करी जाणुं छु एम कही पो Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || संवरत परिषद्दवर्णनम् ॥ (२३५) 'दर्भादि वास वगेरेना संथारापर शयन करनार मुनिने घास नी अणी वगेरे वगे तेने सम्यक प्रकारे सहन करवी ते तृणस्वर्ण परिषद कहेवाय. कहाँ छे के वखरहित (अति अल्प अने जीर्णवाळा ) ऋक्ष देहवाळा एवा तपस्वीमुनिने घासना संथारा पर सूतां देहपीडा थाय, अने ते उपर पुनः तडको पडवाथी घणी वेदना थाय छतां घासना वागवावडे पीडा पामेला मुनि वस्वनी इच्छा न करे ( आ जिनकल्पनी अपेक्षाए छे, अने स्थविर कल्पी तो वस्त्र राखे पण खरा.) तानुं थुक पोतानी आंगळीप लगाडतां ज ते आंगळी सुवर्णसरखी कांतिवाळी थइ ते धोने दर्शावी इत्यादि अनेक रीते वैद्योप प्रपंच कर्या छतां पण मुनिए रोगनी चिकित्सा नहिं कराववा थी बन्ने देवो तुष्ट थs प्रत्यक्ष स्वरूप प्रगट थया, अने सौधर्म सभामा थयेली प्रशंसानी अश्रद्धाथी अमो परीक्षा करवा आव्या छे, एम जणावी अत्यन्त खुशी यह स्वस्थाने गया. ए प्रमाणे श्री सनत्कुमार चक्रवर्तिमुनिए जेम रोगपरिषह सहन कर्यो तेम अन्य मुनिओए पण रोगपरिषह सहन करवो. (अहिं उत्तराध्ययनमां कालवैशिक मुनिनी कथा कहीछे. परन्तु तने बदले में अहिं सनत्कुमार चक्रवर्तिमुनीनी कथा कही छे ) १ दृष्टान्तः - श्रावस्ति नगरीना जितशत्रुराजाना पुत्र भद्रकुमारे दीक्षा अङ्गीकार करी बहुश्रुत थइ एकाकी विहारप्रतिमा अङ्गीकार करो कोइक बीजा राज्यमां गया त्यां राजपुरुषोए कोइक चोर वा बातमीदार जाणी तुं कोण छे इत्यादि पूछतां जवाब नहिं मळवाथी तीक्ष्ण शस्त्रो वडे मुनिनु शरीर छोली ते पर खार छांटयो छतां पण भद्रमुनि जेम समाधिध्यानमा रह्या तम अन्य मुनिओए पण भद्रमुनिवत् तृणस्पर्श परिषह सहन करवी. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - more (२३६) ॥ श्री नवतत्वविस्तरार्थः॥ शरीरे मल वगेरे उत्पन्न थाय तो तेनी दुगंछा न करता सम्यक् प्रकारे सहन करयो ते मल परिषह. मुनिने स्नान दातण वगेरे अंगविभूषा करवानो अधिकार नहिं होवाथी दांत अने शरीरे मेल-प्रस्वेद वगैरेनी उत्पत्ति थाय छे, परन्तु तेनो तिरस्कार करी मेल साफ करवाने स्नान के दातण वगेरे न आचरे पण स. भ्यक प्रकारे सहन करे ते मलेपरिषह कहेवाय. बीजो माणस मुनिने अत्यंत मान सत्कार आपे तो पण गर्व न आणे ते सत्कारपरिषह. १ दृष्टान्त--चम्पानगरीमा सुनन्द नामनो घणिक दरेक मुनिओने विना मूल्ये औषध आपेछे: एकवार मुनिना शरीरनो मल देखीने विचार कर्यों के आ मुनिओनी आचार सर्व रीते ठीक छे पण स्नानादि न करवं ते ठीक मथी इत्यादि अति अशुभ चितवन कयु ने ते काळक्षये मरण पामी कीशम्बी नगरीमा श्रेष्ठीपुत्र थयो त्यां दीक्षा , अंगीकार करी, ते पखते मुनिपणामां पूर्वकर्मनो उदय थवाथी शरीर महादुर्गंधमय बन्यु ने ते मुनिना शरीरनो धायु पण कोइ सहन करी शके नहि. मुनिओ पण तेने नगरमां फरवायी शासननी निंदा धारी नगरमां भिक्षा लेवा मोकलता नथी. आखरे ते मुनिए कंटाळी शासनदे. घीने आराधो पोतानं शरीर एवं सुगन्धीदार कराव्यं के बीजा ओ ते देहमी सुगन्धी लइने कस्तृरीनो पण परवा करता नथी. परन्तु नगरमां एवी अफवा फेलाइ के आ मुनि निरन्तर सु. गन्धी द्रव्योथी पोतार्नु शरीर वासित करे छे. एवो अपवाद सांभळी पुनः शासनदेवी आराधी पोतानुं शरीर प्रथमवत् द. गन्धमय कराव्यु जेम आ मुनिए मलपरि० सहन न कर्या तेम अन्य मुनिए न करवु. २ ए परिषहनुं द्रष्टान्त उत्तराध्य मांछे, पण कारणसर अत्रे दर्शाव्यु नथी. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tamannारतात ॥ संवरतत्त्वे परिषहवर्णनम् ॥ (२३७) अतिशय ज्ञाननो गर्व न करवो ते प्रज्ञापरिषह. अज्ञानता होवाथी अज्ञानतानो खेद न करवो पण ज्ञानावरणकर्मनो उदय विचारी बनता प्रयत्ने ज्ञानमा उद्यम करवो ते अज्ञानपरिषह. २ दृष्टान्तः--पूर्वधर श्री कालिकाचार्य शिष्योना अविनयथी कंटाळीने सागराचार्य पासे आव्या पण सागराचार्य नहिं ओ. ळखधाथी उभा न थया अने तमो आ भण्या छो ? आनो अर्थ न जाणता होय ती सांभळो इत्यादि बुद्धिना गर्वथी पोते बु. द्विशाळी छे एम जणाघवाने शिष्यो आगळ विशेष अर्थ वि. स्तार कालिकसूरि सांभळे तेवी रीते करे छे. केटलेक दिवसे कालिकाचार्यना शिष्यो गुरुने शोधता त्यां आव्या जेथी साग. राचायने खबर पडवाथी श्री कालिक सूरी पासे अधज्ञानी क्षमा मागी, ते धखते बुद्धिनो मद उतारवा माटे श्री कालिकसूरी प नदीमांथी, एक प्याली रेती लोधी एक स्थाने ढगली पाळी ए प्रमाणे घणीवार करतांरेतो ओछी आछी थतां अति अ. ल्प रेती रही त्यारे कहथु के है सागर ! सर्वज्ञर्नु ज्ञान नदीनी रेती जेटलं छे तेमाथी प्याला रेती जेटलुं ज्ञान गणधरोए ग्रह। ण कयु ने त्यारबाद शिष्यपरंपराए घट घटतुं ज्ञान आवतां आ काळमां आटलं ज ज्ञान रघुछ तो बुद्धिनी मद शुं करधो इत्यादि उपदेश आपी सागराचार्यनी धुद्धिमद टाल्यो. अहिं जेम कालिकाचार्य पूर्वधर छतां पण ज्ञानना गर्वरहित होवाथी प्रज्ञापरिषहने जीतनार हसा तेम अन्यमुनीए पण प्रज्ञापरिषह जीतवो पण सागराचार्यवत् प्रज्ञापरिषहने ताबे न थq. . २ पूर्व बांधेल ज्ञानाधरण कर्मनी उदय थवाथी कोइक मुनिने मा रुष-मा तुष एटला शब्दो पण शुद्ध नहिं आवडवाथी मासतुष शब्द गाखवा लाग्या जेथी तेमनु नाम पण मासतुष मुनि प्रसिद्ध थयुं तेओए पण १२ वर्ष सुधी एज शब्द विना खेदे गाखी ज्ञानाव. कर्मनो उदय विचारी आत्मचिंता करता Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) ॥श्री नवतत्त्व विस्तरार्थः ॥ तथा अनेक उपसर्ग-कृष्ट प्राप्त थया छतां पण सर्वज्ञोक्त धर्म उपरनी श्रद्धा न फेरववी अने मिथ्या आचरण न आचरवू न संम्यत्तवपरिषह, १२ वर्षे केवलज्ञान उपार्जन कर्यु तेम अन्यमुनिए. पण अज्ञा. नपरिषह सहन करवो १ दृष्टान्तः--आर्य आषाढाचायें दरेक शिष्योने समाधिमा रण करावी का हतुं के तमो देवपणे उत्पन्न थाओ तो मने एकवार मलया आधजो परन्तु कोइपण शिष्य देवपणे उत्पन्न थया बाद मलवा आव्यो महिं जेथी आचार्थने शंका थइ के कोण जाणे देवलोक छे के नहि, अने जो न होय तो आटली कष्ट क्रियाओ व्यर्थ 'शामाटे करवी ? एपी विचार आधाथी धीरे धीरे आचार्य चारित्रमा मन्द थया अने आरंभसमारंभ. मां पण प्रवर्तया लाग्या. पछी छेल्ली वखते मरणपामेला 'शिष्ये देवपणामां पोताना गुरुने पतित परिणामी जोइ उद्वार कर. वाना विचारथी अनेक मायाओ रची उपदेश आपी चारित्रमाने श्रद्धामां स्थिर कर्या ए संम्बन्धि अधिक वर्णन उत्तराथी जा. णवु प प्रमाणे आषाढाचार्यनी माफक अभ्यमुनिए न वर्तवू पण अनेक उपसर्ग आवतां पण श्रद्धामा अडग रहे धु. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतत्त्वे परिषहवर्णनम् ॥ - - - - - २२ परिषहमा कर्मोदय अने गुणस्थान, परिषहनां _नाम, कया कर्मना कये. उदयथी । गुणस्थाने १ थी १३ क्षुधा-पिपासा-शीतउष्ण-दंश-चर्या-शय्या वेदनीय मल-वध-रोग-तृणस्पर्श । ११) মর্মা । ज्ञानावना | १ थी क्षयोपशमथी अज्ञान 1 ) अहिं शीत-उष्ण. अने चर्या-नैषेधिकी ए बे द्विकमां शीत होय तो उष्ण न होय, चर्या होय तो नै० न होय एम कोइपण विरोधी. एकेक परिषहना अभावथी एक जीवने समकाळे २० परिषह १ थी ९ गुण सुधी. १०थी १२ सुधीनाने १२ परिषह अने सयोगिकेवलिने ९ परिषहनो उदय समकाळे होय अने सामान्यतः अनुक्रमे २०-१४-११ परिषहनो उदय होय. STTGTTero सम्यक्त्व दर्शन मोहनीय अलाभ लाभान्तराय आक्रोश-अरति-स्त्री.. नैषेधिकी--अचेल.. चारित्र | १ थी.९ मोहनीय | सुधी. याचना-सत्कार - Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) ॥श्री नवतत्त्वषिस्तरार्थः ॥ अवतरण-आ गाथामां संवरतत्वमां कहेला १० यति धर्म ( साधु धर्म ) कहेवाय छ. . || मूळ गाथा २९ मी, ॥ खंती महव अजव, मुत्ती तव संजमे अबोधव्वे । सच्चं सोशं अकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥२९॥ संस्कृतानुवाद: क्षान्तिर्मादव आर्यवो, मुक्तिः तपः संयमश्च बोहत्यः । सत्यं शौचमाकिंचनं च ब्रह्म च यतिधर्मः ॥ २९ ॥ . • शब्दार्थः खती-क्षमा धर्म बोधव्ये जाणवों मद्दव -मार्दव धर्म(निरभिमानता) सच्च- सत्यधर्म अज्जव--आर्यवधर्म (सरळता) । सो शौचधर्म मुत्ती--निर्लोभता अकिंचण अपरिग्रहधर्म तव तप बभ-ब्रह्मचर्य संजमे--संयम जइधम्मो--साधुनो धर्म अ- वली ___ गाथार्थ:-क्षमा-निरभिमानता-सरलता-निर्लोभता सपसंयम- सत्य- शौच-अपरिग्रह अने ब्रह्मचर्य ए १० प्रकारको साधुधर्म ( ते संवरतत्व ) छे. विस्तरार्थः-१० यतिधर्मथी आवता कर्मोनुं रोकाण थाय छे ते १० यतिधर्म आ प्रमाणे १ खंति-क्षमा पटले छतिशक्तिए पण कष्ट सहन कर. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतत्त्वे यतिधर्मवर्णनम् ॥ (२४१) वानो स्वभाव ते क्षमा अर्थात् सहनशीलता कहेवाय. त्यां क्षमा ५ प्रकारनो छे ते आ प्रमाणे-कोइए आपणुं कांइ बगाडया छतां आ मारो उपकारी छे माटे एनापर क्रोध करवो युक्त नहिं एम विचारीने जे सहनशीलता धारणफरवी ते उपकारक्षमा, जो एनी साथे हुं क्रोध करीश तो ए मारुं कांइ बगाडशे एवा अभिप्रायथी अने पोतानामां सामे थवानी शक्ति नथी तेथी निवळताने अंगे सहनशीलता धारण करवी ते अपकारक्षमा, कर्मादिकला भयथी सहनशीलता राखे ते विपाकक्षमा, कोइना वचनथी दुभाय नहि, अने कोइने आकर वचन कहे नही ते वचनक्षमा, अने आत्मानो धर्मज क्षमा छे एम शिक्षा करवानी शक्ति छतां पण विचारी सहनशीलता राखे ते धर्मक्षमा एज सर्वथी श्रष्ट छे ने एवीज क्षपा राखवी जोइए. कदाच आ क्षमा न थावे तो पण पूर्वोक्त चार क्षमाओमांनी पण कोइएक क्षमा राखवीज जोइए. . २ अव-आर्जव एटले सरळता अर्थात् कपटरहितपणे ए पण संवरमार्ग छे. ज्यांसुधी मनुष्यना मनमां कोइपण बातनो दंभ-काट रहेल होय त्यांमुधी आत्ममार्ग शुद्ध थाय नहिं मारे दंभनो त्याग करो सरळता राखवी ते आजवधर्म कहेवाय. ३ मदव-मार्दव एटले अभिमाननो त्याग करवो. ज्यां सुधी अभिमान होय छे त्यां सुधी कषायनी प्रबळता रहे छे तेथी मोक्ष मार्ग साधी शकाय नहिं माटे मुमुक्षुए निरभिमानता राखवी. ___४ मुक्ति-मुक्ति एटले निर्लोभता अर्थात् कोइपण इष्ट पदार्थमां के विषयमां तृष्णा-आसक्ति न राखवी तेमुक्तिधर्म कहेवाय. ५ तव-तप एटले इच्छानिरोध करवो ते. आ धर्म निआरा तत्वमा आवे छे छतां संवरतश्चमां केम कहो ? तेनुं का. रण ए छे के सर्व क्रियाओमां एवो सप उत्तम छे के जेमाथीसंव Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४२) ॥श्री नवतत्वविस्तरार्थः ॥ र अने निर्जरा बन्ने थाय छे. तेमां पण मुख्यत्वे निजरा विशेष थती होवाथी निजरा तत्त्वमां तपन मुख्य गण्यो अने अहिं तपथी संवर पण थाय छे एम सिद्ध करवा तप धर्म पण कह्यो ए तपधर्म १२ प्रकारनो छे ते आगळ कहेवाशेः संजमें-संयम एटले पंचमहाव्रत-पांच अणुव्रत-इत्यादि अङ्गीकार करवू ते संयमधर्म कहेवाय. ए संयम धम ५ व्रत-५ इन्द्रियनो निग्रह-४ कषायनो जय-अने ३ दंड (-मन-वचनकायाना अशुभ व्यापार ) नी निवृत्ति एम १७ प्रकारनो छे, ७ सच्चं-सत्य अर्थात् प्रिय-हितकारी-अने साचु ए त्रण विशेषणवालु जे वचन बोलवू ते सत्यवचन कहेवाय अथवा लीधेली शुभप्रतिज्ञा पाळवी ते पण सत्यवचन कहेवाय. ८ सो-शौच एटले पवित्रता राखवी. त्यां दातण-स्नान -मजन इत्यादि द्रव्यशौच.अने अध्यवसायनी परिणति शुभगखवी ते भावशौच कहेवाय. तेमां ग्रहस्थने बन्ने प्रकारनां शौच होय छे, अने मोक्षमार्गाभिमुखी मुनिने मुख्यत्वे भावशौच होय छे, कारणके दातण-स्नान-मजनादि देहनी पवित्रता ने टापटीप ते सर्व शृंगारिक विषय होवाथी सर्व ब्रह्मचारी एवा मुनिमार्गमां ते देहनी टापटीपनो अवकाशज न होय ने जो तेम थवा पामे तो मुनि पण अंगारी विषयमां रक्त थइ संसारी जेवाज थइ जाय. माटे मुनिओने दातण स्नानादि अंगसंस्कार वर्ण्य छे ९ अकिंचणं--एटले आकिंचन धर्मः एमां अ-नहिं अने किंचण-कंइपण, अर्थात् कंइपण जातनो परिग्रह नहि ते अकिचन ( अने तद्धितमां आकिंचन ) कहेवाय अर्थात् कोइपण जा तनो परिग्रह संबन्धी सर्व उपाधीओ दूर थवाथी मोक्षमार्ग सुखे Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतत्वे यतिधर्मपर्णनम् ॥ (२४३) साधी शकायछे, माटे अकिंचन धर्म ते संवर रूप में, (परिग्रहना नवप्रकार प्रथम दर्शाव्या छे.) १९ बंभं-ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मचर्यः एटले विषय वासनानो सर्वथा त्याग करवो ते संवररूप छे, एना १८ भेद प्रथम दर्शाव्याछे. ए १० प्रकारना यतिधर्म-साधुधर्म कया, परन्तु यथायोग्यपणे ए दशे धर्म अमुक अमुक अंशे गृहस्थने पण अङ्गीकार करवा योग्य ले एमां प्रथमना चार धर्म ते चार कषायना विजयरूप छे, कारणके क्रोधनो जय ते क्षमा, माननो जय ते मार्दव, मायानो जय ते आर्जव, अने लोभनो जय ते मुक्ति धर्म कहेवाय, अहिं मार्दवशब्द मृदु (-कोमळता ) ना भाववाळो अने आर्जव शब्द ऋजु (-सरळता ) ना भाववालो छे. अर्थात् एमां मूळ शब्द मृदु अने ऋजु परथी मार्दव ने आर्जव शब्द थया छे, . अवतरण-आ गाथाने विषे संवरतत्वमा आवेली १२ भाबनाओमांनी ९ भावनाओ कही छे. || मूळ गाया ३० मी, ॥ पढममणिच्चमसरणं, संसारो एगया य अन्नत्तं । असुइत्तं यासव संवरो य तह निजरा नवमी ॥३०॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ प्रथममनित्यमशरणं, संसार एकता चान्यत्वं । अशुचित्वमाश्रवः संवरश्च तथा निर्जरा नवमी ॥३०॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) || श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ पढमं - प्रथम अणिच्चं - अनित्यभावना असरणं - अशरणभावना संसारो - संसारभावना एगया - एकत्वभावना अन्नत्तं - अन्यत्वभावना अमुइतं अशुचित्वभावना आसव-आश्रवभावना संव-संवरभावना य तह तथा वळी निज्जरा - निर्जराभावना नवमी-नवमी गाथार्थ :- पहेली अनित्य भावना, बीजी अशरणभावना त्रीजी ससारभावना, वळी चोथी एकत्वभावना, पांचमी अन्यत्वभावना, छठ्ठी अशुचित्वभावना, सातमी आश्रवभावना, त था आठमी संवरभावना, अने नवमी निर्जराभावना विस्तरार्थः - लक्ष्मी-कुटुंब-यौवन- शरीर - द्रश्य पदार्थों - मुख इत्यादि सर्वभाव क्षणमां उत्पन्न थइ क्षणमां विनाश पामनाराछे इत्यादि अस्थिरता - अनित्यतानुं चितवनकरते पहेली अनित्य भावना. दुःख वखते अने मरण वखते राजा चक्रवर्ति के पोतानां सग व्हाल - तेमानुं कोइपण शरण थाय तेम नथी दुःख पण पोताने भोगववानुं छे, अने आवेला मरणने पण रोकवा कोई सम नथी इत्यादि चिraj ते बीजी अशरण भावना माता होय ते स्त्रो थाय, पुत्र पिता थाय, पिता होय ते पुत्र थाय इत्यादि प्रत्येक जीव आ संसारभ्रमणमां प्रत्येक संबंधवाळो अनन्त वखत थाय छे. इत्यादि चितवनुं ते संसारभावना, आ जीव संसारमा एकलो आव्यो छे, एकलो जवानो छे. अने सुखदुःखादि पण एकलोज भोगवनार छे, परन्तु कोई सहायक के साथ वानुं नथी इत्यादि रूपे चितवकुं ते एकत्यभावना, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरतपे द्वादशभावनास्वरूम् ॥ (२४५) शरीर-धन-कुटुंब इत्यादि अन्य छे, अने आत्मा अन्य पदाथे छे, पण शरीरादि ते हुं आत्मा नथी इत्यादि चितव, ते अन्यत्वभावना, आ शरीर रस रुधिर-मांस-मेद अस्थि-मज्जा-ने शुक्र ए सात अशुचिमय धातुओनुं बनेलं छे. पुरुषना शरीरमा ९ द्वार ( २ चक्षु-२ कान-२ नाक-१ मुख- गुदा-१ लिंग) सदाकाळ अशुचि थी वह्या करे छे, अने स्त्रीनां १२ द्वार ( २ स्तन ने ? योनि अधिक कारणके योनि बे होय छे, ) निरन्तर अशुचीथी वह्या करेछे, वळी अत्तरादिसरना सुगंधी अने शुचीपदार्थों पण आ अशुची देहना संगे अशुची रूप थाय छे, एवी उपरथी सुन्दर देखाती पण अवळी करीने देखे तो त्रास उपजावती आ देह उपर म. मत्व भाव ! दि चिंतवq ते छट्ठी अशुचीभावना. मिथ्यात्व-अविरति-कषाय-ने योग ए चार हेतुओमांना कोइपण एक अथवा अनेक हेतुए कर्मनो आश्रव ( आगमन ) थाग छे. अने ज्यां सुधी कर्मनो आश्रय चालु छे, त्यां सुधी आ आत्मा सर्वथा स्वस्वरूप प्रगटाववा समर्थ नथी इत्यादि चितवन करवू ते ७ मी आश्रवभावना. छे समिति-गुप्ति-परिषह-यतिधर्म-भावना-ने चारित्रवडे नवा आवता कर्मनुं रोकाण थाय छे. इत्यादि स्वरूप चितवq ते आठमी संवर भावना; प्रकारना बाह्य तपथी अने ६ प्रकारना अभ्यन्तर तपथी कर्मनी निर्जरा ( धीरे धीरे क्षय) थाय छे. इत्यादि चिंतववु ते नवमी निर्जराभावना छे, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४६) || श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ अवतरण - आ गाथामां बाकी रहेलो ३ भावनाओ कहे वाय छे. || मूळ गाथा ३१ मी. ॥ लोगसहावो बोही, दुल्लहा धम्मस्स साहगा अरिहा । एखाओ भावणाओ, भावेअव्वा पयते ॥ ३१॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ लोकस्वभावो बोधि, दुर्लभा धर्मस्य साधका अर्हतः । एता भावना, भाव्याः प्रयत्नेन ।। ३१ ।। ॥ शब्दार्थः ॥ लोग सहाषो -- लोकस्वभावभावना बोही - सम्यकत्वभावना つ अरिहा अरिहंत आओ - ए सर्व भावणाओ - भावनाओ भावे अव्वाभाववी पत्ते- प्रयत्नवडे . दुल्लहा --दुलभ धम्मस्स - धर्मना साहगा - साधनारा गाथार्थ:-- १० मी लोकस्वभावभावना. ११ मी बोधिदुर्लभभावना अने १२ मी धर्मना साधक अरिहन्त भगवन्त पण दुर्लभ छेवी भावना ( अर्थात् धर्मभावना अथवा अरिहन्त दुर्लभ भाबना ) ए १२ भावनाओ प्रयत्न पूर्वक भाववी ( ते संवर कर्मने रोकनार छे, विस्तरार्थः- आलोक ६ द्रव्यथी भरेलो छे, तेनो आकार केडे हाथ दइने उभेला जामावाळा पुरुष सरखो छे. अधोलोकमां सात नरक - १० भुवनपति ने ८ व्यन्तर देवोनी वस्ती छे, ने ते Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || संवरतये द्वादशभावनावर्णनम् ॥ (२४७) उंवा वाळेला कोडीआ सरखा आकारनो छे, मध्यलोक गोळ थाळी सरखो १८०० जोजन जाडो ने १ राज लांबो पहोलो के ने तेमां मनुष्य विर्यचनी तथा ८ वाणव्यन्तर पांच ज्योतिषीनी वस्ती तथा असंख्य द्वीप समुद्रवाको छे ऊर्ध्वलोक उभी करेली मृदं गना आकारवाळो छे. ने तेमां २६ वैमानिक देवोनी व स्ति छे, लोकाग्रे सिध्ध शिलापर शिद्ध परमात्माओ रहे छे, सर्व लोक १४ रज्जु प्रमाण उंचो ने लंबाई होळाइमां नीचे सात राज नेब्रह्मलोकने स्थाने पांच राज प्रमाण छे, लोकना मध्यमां १४ राज उंची ने ? राज लांबो व्होळी भुंगळी सरखी त्रस नाडीमांज त्रस जीवोनी वस्ती छे, शेष सर्वत्र पांच स्थावर जीवोनी वस्ति छे, लोकने कोइए बनाव्यो नवी के कोइए घरी राख्यो नथी परन्तु स्वभावतः छे. इत्यादि १४ राजलोकनुं स्वरूप चितववु ते लोकस्वभावभावना छे, जीवने समागमां भमतां अनन्त काळ थयो ते दरम्यानमां अ नन्तवार राजऋद्धि वगेरे सर्व वस्तु पाभ्यो, परन्तु सम्यक्त्व (-शुदेव गुरु धर्मनो श्रद्धा ) प्राप्ति यह नहि कारणके सम्पत्तव प्राति थवी आ जीवने महा दुर्लभ छे, बळी जीवने वैराग्यादि कारणथी द्रव्य चारित्र पण प्राप्त थाय छे, अनेक प्रकारनी कष्टक्रियाओ पण सुलभ थाय छे, परन्तु शुद्ध श्रद्धा थवी महा दुर्लभ थाय छे, इत्यादि स्वरूप चित ते बोधिदुर्लभ भावना, हवे कदाच महा कष्टे शुद्ध श्रद्धा थाय छे तो ते शुद्ध श्रद्धापूर्वक अरिहन्तनो कहेलो हेय ने उपादेयरूप श्रावकधर्म आचरखो महा मुश्केल छे, कहाँ छे के कथनो कथे सब कोय--रहणी अ ति दुर्लभ होय, इत्यादि स्वरूप चितवनुं ते धर्मदुर्लभ भावना ए उपर कहेली १२ भावनाओ प्रयत्नपूर्वक भाववी ( चिंत Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४८) || श्री नवश्वविस्तरार्थः ॥ वी) के जेथी नवां आवत कर्मोनुं रोकाण थाय. अवतरण - आ गायामां संवरतस्वमां आवेलां पांच चारित्रमांनां चार चारित्र कहे छे. || मूळ गाथा ३२ मी. ॥ सामाइत्थपढमं, बेओवट्ठावणं भवे बी । परिहारविसुद्धी, सुहुमं तह संपरायं च ॥ ३२ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः । सामाधिकमथ प्रथमं, छेदोपस्थापनं भवेद् द्वितीयं । परिहारविशुद्धिकं, सूक्ष्मं तथा सांपरायिकं च ॥ १२ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ सामाइअ - सामायिक चारित्र | परिहार विसुद्धी अं-- परिहार अत्थ — अथ-- हवे विशुद्धि चारित्र पढमं- व्हेलु मृहुम-सूक्ष्म ओढावणं-छेदोपस्थापनचरित्र तह तथा भवे--छे बीयं - बीजुं संपरा - संपराय चवळी गाथार्थः - हवे ? लुं सामायिक चारित्र, अने बीज छेदोपस्थापन चारित्र है, तथा त्रीजुं परिहारविशुद्धी, अने ४ थुं सूक्ष्मसंपराय चारित्र छे, ------ विस्तरार्थः - हवे आ गाथामां पांच प्रकारतां चारित्र कहेछे सम एटले ज्ञान - दशन- चारित्रनो आयं - लाभ ते साय अने Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥.संवरतत्वे चारित्रस्वपरूम् ॥ (२४९) तेनो तद्धित प्रत्यय लागतां सामायिक एटले जेनावडे अथवा जे ज्ञान-दर्शन-चारित्रनो लाम ते, अर्थात् सामायिक एटले सर्व सावधव्यापारना त्यागरूप सर्वविरतिचारित्र कहेवाय, अहिं जोके पांचे प्रकारनां चारित्र परमार्थथी सामायिकरूप छे. तोपण कंडक जातना फेरफारवडे पांच जुदा जुदा नाम पाडेला छे. त्यां प्रथम दीक्षा अङ्गीकार करवी ते अहीं सामायिक चारित्रं कहेवाय छे. आ सामायिक चारित्र बे प्रकारनुं छे तेमां भरत अने अरवत क्षेत्रमा प्हेला अने छेल्ला तीर्थकरना शासनमां ज्यां सुधी शिष्यने महाव्रतनो आरोप न कराय त्यां सुधी लघु दीक्षारूप अल्पकाळनु ( विशेषतः ६ मासर्नु ) जे चा: रित्र ते इत्वर सामा० चा० कहेवाय, अने भरत अरवत क्षेत्रमा मध्यना २२ तीर्थकरना शासनयां अने महाविदेहमा सर्व मुनीओने प्रथमथीन महाव्रतनो आरोप छे. ने ते यावज्जीव सुधीनो होवाथी तेओनु ते चारित्र यावत्कथिक सामा० चा० कहेवायले हवे बीजु छेदोपस्थापना चारित्र त्यां छेद एटले प्रथम जेटली मुदतनी लघु दीक्षा पाळी होय ते काळ दीक्षानो नहिं गणवो ते पूर्वपयोयनो छेद कहेवाय, अने उपस्थापना एटले पुन: महाव्रतनी स्थापना करवी ने त्यांथी दीक्षापर्याय ( दीक्षाकाळ ) नी गणत्री थाय एवी रीतनु जे पुनः चारित्र ग्रहण ते छेदोपस्थापना चारित्र कहेवाय, आ चारित्र भरत औरव्रतमा पहेला अने छल्ला तीर्थकरना शासनमा होय छे, ए चारित्रने लोकमां वडीदीक्षा लीधी कहे छे. ए चारित्र बे प्रकारनु छे. त्यां शिष्यने ज्यारे इत्वर सामायिक चारित्रनु आरोपण थाय (-वडोदीक्षा अपाय ) त्यारे अने एक जिनेश्वरना शासनन। मुनिने बीजा जिनेश्वरनुं शासन ( नुं चारित्र ) अङ्गीकार करवू होय ( जेमके पार्श्वनाथना शिष्यने म्हावीरस्वामिनुं शासन अंगीकार करवू होय ) ते वखते जे चार के पंचमहाव्रत रूप चारित्र धर्म अंगीकार करे ते निरतिचार छेदो Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) || श्री नवतस्व विस्तरार्थः ॥ प० चारित्र कहेवाय. अने चारित्रना मूळगुणनो ( महाव्रतनो ) घात करनारने जे पुनः चारित्र आपवुं पडे ते सातिचार चारित्र कहेवाय, हवेत्री परिहारविशुद्धि नामर्नु चारित्र छे. त्यां परिहार एटले तप विशेष डे विशुद्धि पटले चारित्रने जे विशुद्ध करं ते परिहार विशुद्धि चारित्र वे प्रकारनुं छे, तेमां प्रथम ९ मुनिनो समुदाय होय छे, तेमां एक वाचनाचार्य होय छे, चार मु नि तप करनार होय, अने चार मुनि ते तपस्वीओनी वैयावच्च ( सारवार ) करनार होय. एमां जेओ तप क्रियामां प्रवर्ते छे ते वखते तेओ निर्विशमानक चारित्री अने तप संपूर्ण कर्या बाद तेज मुनिओ निर्विष्टकायिक चारित्री कहेवाय छे, एओनो तप ग्रीष्मऋतुमां जघन्य उपवास, मध्यम छट्ट अने उत्कृष्ट अट्टम, शिशिरऋतुमां जघ० छह, मध्यम अहम ने उ० दशम, वर्षाकाळमां ज० अहम म० दशम ने उ० द्वादशभक्त होय छे, दरेक पारणे आ बिल, भिक्षामां पांच ग्रहण ने बे ( वस्तुनो ) अभिग्रह होय, ए प्रमाणे ६ मास सुधी तप कर्या बाद सावार करनार मुनिओ एज विधिए ६ मास तप करे, ते वखते निर्विष्टकायिक मुनिओ निर्विशमानकनी सारखार करे, तेओनो पण ६ मास तप पूर्ण थया बाद वाचनाचार्य ६ मास सुधी तप करे अने आठे निर्विष्ट कायिक सुनिओ निर्विशमानक वाचनाचार्यनी सारवारमां रहे ए प्रमाणे ए तप १८ मासे पूर्ण थया बाद इच्छा होय तो जिनकल्पी मार्ग अंगीकार करे अथवा तो पुनः गच्छमां प्रवेश करे, आ परिहारविशुद्धि चारित्र केवली भगवान पासे अंगीकार थाय छे; अ थवा तीर्थकर पासे रहेलागणधरादिकनी पासे अंगीकार कराय छे. पण बीजानी पासे नहिं ए परिहारविशुद्धि चारित्रनां २० द्वार भा प्रमाणे Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || दिनरातत्वे तपःस्वरूपम् (२५१) १ क्षेत्र - परि० वि० चारित्र अंगीकार करनार मुनिओनुं जन्मक्षेत्र ५ भरतने ५ व्रत, पण महाविदेह नहिं, अने परिहारकल्प अंगीकार करवानुं क्षेत्र पण एज. वळी जिनकल्पीनु संहरण थवाथी जेम सर्व क्षेत्रोमा जिनकल्पीनी प्राप्ति छे तेम एओनुं संहरण पण नथी. २ काळ - अवसर्पिणीना वीजे अने चोथे आरे तेओनो जन्मकाळ होय छे, अने सद्भाव ( हयाती ) तो अव०ना ३-४-५ अने उत्स० न ३-४ आरामां. ३ चारित्र - सामायिकचारित्र अने छेदोप० चारित्रनां संयमस्थान ( - अध्यव० स्थान ) थी उपरनां जे असं० लोकप्रदेश प्रमाण परि० वि० नां संयमस्थानो छे तेमां वर्तता जीवनेज प रि० वि० चारित्रनी प्राप्ति होय. ४ तीर्थ - जिनेश्वरनुं शासन विच्छेद पाम्युं होय अथवा उत्पन्न पण न थय होय तेवा अवसरमा परि० बि० चारित्रीया न होय पण शासन प्रवर्तमान समयेज होय. ५ पर्याय - जेनो गृहस्थपर्याय जघ० २९ वर्षने। अने उ० देशोनपू० क्रोड वर्षनो होय अने यतिपर्याय जघ० २० वर्ष अने ने उ० देशोन पू० क्रो० वर्षनो होय तेवो मुनि परि०षि० चारित्र अंगोकार करे, ६ आगम - ननुं सिद्धान्त न भणे पण प्रथमनुं भणेलुं स्मरण करे. ७ वेद - नपुंवेदी वा पुरुषवेदी होय पण स्त्रीवेदी नहि. ८ कल्प — स्थित कल्पमांज होय. ( त्यां अचेलकादि १० - कल्पवाळा मुनि स्थितकल्पी, अने शय्यातरादि चारमां वर्तवावाळा अने शेष ६ कल्पमां नहिं वर्तवावाळा मुनिओ अस्थितकल्पीक हेवाय १ शय्यातर पिण्ड- चतुर्याम पुरुषज्येष्ट अने कृतिकर्मकरणं ए ४ अवस्थितकल्प छे, ने शेष ६ अनवस्थिकल्प छे. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५२) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ ९ लिंग-द्रव्यलिंग (-मुनिवेष ) अने भावलिंग बन्ने होय १० लेश्या-कल्प अंगीकार करती वखते ३ शुभ लेश्या अने त्यारवाद छए लेश्या होय. (कर्मपरिणति विचित्र होवाथी अ शुभलेश्याओनो उदय थाय पण ते अत्यंतसंक्लिष्ट न होय अने तेमां पण थोडो कालज रहे छे पछी शुभलेश्यामांज आवे छे.) १. ध्यान-अंगीकार काळे धर्मध्यान अने त्यार. बाद आत -रौद्र-ने धर्मध्यान पण होय. तीवकर्म परिणामथी अशुभयोगोनी उत्कष्टदशामां अतरौद्र पणुं आवे पण ते निरनुबन्ध होयछे १२ गण-जघन्यथी ३ गण अने उत्कृष्ट शत संख्यावाळा (सयस उकोसा एवो पाठ होवाथी सोकरतां वधारे समजाय छे)गण अगोकार काळे ( सर्व क्षेत्रमा मळीने) होय, अने अंगीकार कर्याबाद जध० वा उ० समकाळे वर्तता सेंकडो (घणा १००) गण होय तेमां पुरुषसंख्या जय० थी २७ उत्कृष्टथी १००० अंगीकारकाळे होय अने त्यार बाद परि० वि० मां वर्तता जघ० थी सेकडो पुरुष अने उत्कृष्टथी हजारो होय अने प्रवेश करनार तथा निकळनार बन्ने समकाळे जघ० थी एक ने उ० थी पृथक्त्व होय १३ अभिग्रह-द्रव्यादि कोइपण अभिग्रह न होय कारण ए कल्पज अभिग्रहरूप छे. १४ प्रज्या-कोइने पण दीक्षा न आप (एज कल्पस्थि. ति छे ) परन्तु यथाशक्ति उपदेश आपे. १५ मुंडापन--आ मुनि कोइने मुंडे नहिं ( प्रव्रज्यानंतर मुंडन अवश्य होय एवो नियम नथी कारणके अयोग्यने दीक्षा दी. धी होय तोपण पाछळथी अयोग्यता मालूम पडतां मुंडन न करे माटे अहिं मुंडनद्वार भिन्न का.) १६ प्रायश्चित्तविधि--मनवडे मूक्ष्म अतिचार लागतां पण निश्चय चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त आवे. १७ कारण-आ कल्पनी यथाविधि पालना एज कर्मक्षयर्नु नि Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ निजरातत्त्वे तपःस्वरूपम् ॥ (२५३) मित्त होवाथी तेओने बीजु ज्ञानादिक शुद्ध आलंबन पण न होय (अर्थात् ए कल्प पतितदशाबाळो नथी के जेथी ज्ञानादि आलम्बने पण स्थिर रहे.) अथवा जेनावडे तत्संबंधि अपवाद स्थान सेववा पणुं होय तेवू ज्ञानादि आलम्बन न होय. १८ निष्प्रतिकर्मता-शरीरसंस्कार न करे, आंखमां पडेलं तृण पण बहार न काढे, प्राणांतकप्टे पण अपवाद मार्ग सेवे नही १९ भिक्षा त्रीजे प्रहरे गोचरो तथा विहार करे, शेष वखते काउस्सग्ग करे-निद्रा अति अल्प करे. कदाच जंघाबलनी क्षोणताये विहार न करी शके तोपण अपवाद स्थान न सेवतां कल्पमर्यादाप्रमाणे संपूर्ण पाले, २० बन्ध-परिहारकल्पी कल्प समाप्त थया बाद पुनः ते कल्पमां अथवा गच्छमां प्रवेश करे एटले स्थविरकल्पी थाय लहितर जिनकल्प अङ्गीकार करे, तेमां पुनः ते कल्पमां अगर स्थविरकल्पमा रहेनारा इत्वरपरिहारी, अने जिनकल्प अंगीकार करनारा यावत्कथिक परिहारी कहेवाय, ___अर्थात् आ चारित्र के प्रकारचं छे, त्यां कल्पविधि संपूर्ण थया बाद तुर्तज बीनीवार कल्पने अथवा गच्छने अंगीकार करे ते इ. स्वर परि० वि. चारित्र, अने कल्पसमाप्ति बाद तुर्त जिनकल्प अङ्गीकार करे तो यावत्कथिक परि० वि कहेवाय. ___हवे मूक्ष्मसंपराय चारित्रनुं स्वरूप कहेबाय छे, त्यां उपशम श्रेणिगत वा क्षपकश्रेणिगत मनुष्य नवमे गुणस्थाने लोभकषायने सूक्ष्म करे (-कषायांशनी वर्गणाओनो अनुक्रम तोडी दरेक वर्ग जा घणा अन्तर-व्यवधानवाळी करे अने त्यारबाद दशमे गुणथाने ते मूक्ष्मकषायने उदयमां आणी भोगवे ते सूक्ष्म संपराय चारित्र १० मे गु० स्थाने जाणवू अहिं सूक्ष्म संपराय-कषाय एवो अर्थ जाणवो, Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर (२५४) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ अवतरण--आ गाथामां बांकी रहेल एक यथाख्यात चारित्रनुं स्वरूप कहे छे, ॥ मूळ गाथा ३३ मी. ॥ तत्तो थ अहक्खायं, खायं सव्वमि जीवलोगम्मि । जं चरिऊण सुविहिया, वच्वंति अयरामरं ठाणं ॥३३ ॥ संस्कृतानुवादः । ततश्च यथाख्यातं, ख्यातं सर्वस्मिन् जीवलोके । यक चरित्वा सुविहिताः, गच्छन्त्यजरामरं स्थानं ॥३३॥ ॥ शब्दार्थः ॥ तत्तो-त्यार पछी चरिऊण-आचर अ-वळी मुविहिया-मुविहित (-सारी अहक्खाय-यथाख्यातचारित्र विधि प्रमाणे पाळनारा) खायं-प्रसिद्ध मनुष्यो, सव्वंमि-सर्व ( ने विषे) वच्चंति-जाय छे-पामे छे. जीवलोगम्मि-जगतमां अयरामरं-मोक्ष जं-जे चारित्रने | ठाणं-स्थानने गाथार्थः-वळी त्यार पछी सर्व जगतमां प्रसिद्ध एवं य. थाख्यात नामनु पांचमुं चारित्र छे. के जे चारित्रने अंगीकार क. रीने श्रेष्ठ विधिए पाळनार सुविहित मनुष्यो मोक्ष पामे छे. विस्तरार्थः - पूर्व चारित्रना चार भेद कह्या बाद हवे पांचमुं यथाख्यात चारित्र कहेवाय छे. त्यां यथा एटले जेबी रीते ख्यात एटले सिध्धान्तमां कहेलं छे तेवी रीतनुं सर्व विरति चारित्र ( क. पायविनानु) ते यथाख्यात चाल कहेवाय एना ये मंद छे. तेमां उ. पशमश्रेणिवाळा जीवने ११ मे उपशांत मोह गुणस्थाने मोहनी उपशांति रूपज चारित्र छे, ते उपशम यथाख्यात चा०, अने क्षपकश्रेणिवाला जीवने १२ मे क्षीणमोह गुणस्थाने मोहना क्षयरू. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ संवरपरिशिष्टम् ॥ २४२२२२ || संवरतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ नरकगतिमां १२ -- नरकगतिमां १२ भावनारूप १२ संवर भेद होय छे, पण समिति गुप्ति परिषह अने यतिधर्म ए सर्व विरतिवंतने होवाथी अने सर्व विरतिनो नरकमां अभाव होवाथी समिति विगेरे ४५ संवरभेद न होय अने १२ संवरभेद होय. तिर्यचगतिमां १२ - नरकगतिवत्. देवगतिमां १२ - नरकगतिंवत्. मनुष्यगतिमां ५७ - - मनुष्यगतिमां सर्वेविरतिनो सद्भाव होवाथी संवरतत्वना सर्वे ५७ भेद होय. एकेन्द्रियमां - एकेद्रियमां संवरनो कोइपण भेद न होय, 0 (२५५-क.) कारण के सर्वविरतिना अभावे समिति विगेरे ४५ संवर न होय, अने मनयोगना अभावे १२ भावना पण न होय. दीन्द्रियमां ० - एकेन्द्रियवत्त्रीन्द्रियमां ० एकेन्द्रियवत. चतुरिन्द्रियमां ० एकेन्द्रियवत्. पंचेन्द्रियमां ५७ - - पंचेन्द्रियमां गर्भजमनुष्यने सर्वविरति अने म नोयोगना सद्भावे सर्वे ५७ संवरभेद होय छे. 0 पृथ्वीकायां ० कारण एकेन्द्रियवत - ० अपकायमां ते कायम 0 वायुकायमां वनस्पतिमां ० त्रसकायम ५७ - - त्रसकायमां गर्भजमनुष्यने ५७ संवरभेद होय. 19 55 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || निर्जरातश्वपरिशिष्टम् ॥ ॥ निर्जरातस्वपरिशिष्टम् ॥ नरकगतिमां ? -- सम्यग्दृष्टि नारको जे कायपीडा सम्यक् प्रकारे सहन करे छे, परन्तु कोइने दुःख उपजावता नथी तेवा नारको काम कार्यशरूप १ निर्जराभेद होय छे. अने शेष मिथ्याहारको अकामकाय क्रेशरूप १ निर्जराभेदळे तिर्यंचगतिमां १२ - गर्भज तिर्यचो देश विरतिवंत होवाथी ६ बा तप अने ६ अभ्यंतर तपरूप सर्वे १२ सकाम निर्जराrastra अने मिथ्यादृष्टि तिर्यचोने १ अकाम कायशरूप १ निर्जराभेद होय छे. (२७०-ख.) tarani ४ - विनय - वैयावृत्य - अने स्वाध्याय ए ३ अभ्यंतर तप अने १ सकाम कायक्लेश मळी चार निर्जराभेद होय छे. देवो संघादिकनो विषय वैयावृत्य करे छे, अने जिन वचन श्रवणादि प्रसंगे पृच्छनादि स्वाध्याय पण छे. परन्तु सद्ध्यान- धर्मध्यानादिनो अभाव छे. मनुष्यगतमा १२ - मुनिने बार प्रकारना तपरूप सकाम निर्जरा होय छे माटे मनुष्यगतिमा १२ निर्जराभेद छे. ॥ बन्धतत्त्वपरिशिष्टम् || चारे गविना जीवोने चारे मकारना बन्धो होय छे. मात्र मनुष्यगतिमा अगीआरमा गुणठाणाथी स्थिति अने रसबन्ध हो - ता नथीवाकावन्ध विचार नवतपासाहित्य विगेरेथी जाणवो. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ संवरतत्वे चारित्रस्वरूपम् ॥ (२५५) पजे चारित्र छे ते क्षायिक यथाख्यात चा० . ए बन्ने यथाख्यात चा० मां कषायना ( मोहना ) उदयनो सर्वथा अभाव के तेमां हेलं यथाख्या० चा० अन्तर्मु० काळ टके के अने बीजं यथाख्या० चा० १२ माथी १४ मा सुधी होवाथी भवस्थ केवळीने दे. शोन पूर्वक्रोड वर्ष पर्यंतनुं होय छे. ए चारित्र सर्वथा अतिचार रहित छे, अने बीजां चारित्रो संज्वलनना उदयथी अतिचारवाळां होय छे. ए चारित्रज सर्वविशुद्ध सर्वविरहि ( वा सामायिक ) कहेवाय छे, एवा प्रकारचें ए चारित्र सर्वोत्तम होवाथी सर्व जीवलो कमां (-१४ राजलोकमां ) प्रसिद्ध छे. वळी ए चारित्र प्राप्त थया बिना मोक्ष होय नहिं माटेज ग्रंथकारे ए चारित्रथी मोक्ष प्राप्ति कही छे. ए प्रमाणे संवरतत्वना ५७ भेद सविस्तर पणे कह्या ते वांचीने कर्मनो संवर थाय तेवी रीते प्रयत्न करतो, आ तत्वमां घणाखरा भेद मुनिने अङ्ग दर्शाव्या छे, तो पण जेटले अंशे भेटला भेदो श्रावकने उपयोगी होय तेटला भेदो तेटले अंशे श्रावकोए पण अवश्य आदरवा उद्यम करखो. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५५) ॥ श्री नवतच विस्तरार्थः ॥ ॥ निर्जरातत्त्व ॥ KAV . .अवतरण-पूर्व गाथाओमां संवरतत्त्वनुं स्वरूप कहीने हवे. निर्जरा अने बन्धतत्वनुं स्वरूप कहे . त्यां प्रथम आ गाथामां सामान्यथी निर्जराना १२ अने बंधतत्वना ४ भेद कहे छे, . ॥ मूळ गाथा ३४ मी, ॥ बारसविहं तवो नि-जरा य बन्धो चउविगप्पो अ । पयइ हिइ अणुभाग--पएसभेएहिं नायव्यो ॥३४॥ ॥ संस्कृतानुवादः॥ . द्वादशक्धिं तपो, निर्जरा च बंधश्चतुर्विकल्पश्च । प्रकृतिस्थित्यनुभाग-प्रदेशभेदेतिव्यः ॥ ३४ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ वारसविहं-१२ प्रकारनोटिइ-स्थिति (-काळनियम ) तवो-तप अनुभाग-अनुभाग (-रस) निजरा निर्जरातत्त्व पएस-प्रदेश ( कर्मना अणु.) बन्धो-बन्धतत्त्व भेएहि-( ए चार : भेदोवडे, चउविगप्पो-चार प्रकारचं नायव्वो-जाणवो, पयइ-प्रकृति (-स्वभाव ) गाथार्थः-१२ प्रकारनो तप ते निर्जरातत्व छे, अने प्रकृति-स्थिति-रस-अने प्रदेश-ए चार भेदवडे बंध ( तत्व.) चार प्रकारनो जाणवो. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || निर्ज्जतत्वे तपःस्वरूपम् (२५७) विस्तरार्थ - १२ प्रकारनो तप आगळनी गाथाओमां दर्शा - वाशे, ने चारप्रकारना बन्धनुं किंचित् स्वरूप कहेवाय छे. अहिं कर्मना चार प्रकारना बन्धां शास्त्रमसिध्ध मोदकनुं दृष्टान्त आप्रमाणे छे . जेम सुंठ वगेरे पदार्थना लाडुमां कोइ लाडुनो स्वाभाव वायु दूर करवानो, कोइनो कफ दूर करवानो, अने कोइनो पित्त दूर करवानो एम जुदा जुदा स्वभाव होय छे. तेम आठप्रकारना कर्मना पंण जुदा जुदा स्वभाव होय छे, जेम ज्ञानाव० कर्मनो स्वभाव आत्माना ज्ञानगुणने आंवरवानो, दर्शनाव० कर्मनो स्वभाव दर्शनगुणने आववानो, इत्यादि जे कर्मनो जे स्वभाव ते स्व भाव सहितज ते कर्म बन्धाय छे, माटे प्रकृतिबन्ध कहेवाय. . तथा जेम कोइ मोदक १० दिवस सुधी सारो रहे ने त्यार - बाद तेनो गुण विनाश पामे, कोइ १५ दिवस अने कोइ १ मास सुधी सारो रहे तेम कोइ कर्म आत्मानी साथै २० कोडाकोडी सागोपम रहे कोई कर्म ३० को ०को० सा०अने कोइ कर्म वधुमां वधु७० को० को ० सागरोपम आत्माना संबन्ध ते स्वभावे रहे छे अने त्यारबाद ते आत्माथी अलग थइ ते ते स्वभाव रहित थइ जाय छे. ए प्रमाणे कर्म कर्मपणे रहेवानो काळ पण बन्धम समयेज नियमित थाय छे माटे कर्मना काळनो नियम ते स्थितिबन्ध कहेवाय, तथा जेम कोइक मोदक मधुर-मीठो होय छे. ने कोइक कडवो होय छे, ने कोइक तीखो इत्यादि शुभाशुभ रसवाळो होय छे, तेम कोई कर्म शुभ रसवाळु (- एटले उदय आवतां जीवने हर्ष - मुख आपनारु ) अने कोई कर्म अशुभ रसवाळे ( एटले उदय आवतां १ - कर्मनां नाम तथा ते ते कर्मना स्वभाव अने स्थि ति आगळ गाथाथीज कहेवाशे. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५८) || श्री नवत विस्तरार्थः ॥ जीवने दुःख - शोक आपनाएं) होय छे. वळी ते शुभ वा अशुभ रस पण कोइमां तीव्र ने कोइमां मन्द होय छे, ए प्रमाणे तीव्रता अने मन्दता युक्त जे शुभाशुभ विपाकनो नियम पण कर्मबंध वखतेज थाय छे ते रसबंध कहेवाय. वेळी जेम कोइक मोदक ओछा लोटनो अने कोइक मोदक. धारे लोटनो ( एटले कोइक पाशेरीयो ने कोइक शेरीयो ) बांधेलो होय छे, तेम कोइ कर्म बीजां कर्मथी ओछा वा अधिक प्रदेश ( अणुओं ) वाळु बंधा ते प्रदेशबंध कहेवाय. a अवतरण - पूर्व गाथामा १२ प्रकारना तपने निर्जरातव कां त्यां ६ प्रकारनो बाह्य तप अने ६ प्रकारनो अभ्यन्तर तप मलीने १२ प्रकारनो तप थाय छे, ते आ गाथामां प्रथम ६ प्रकारनो बाह्य तप दर्शाने के ॥ मूळ गाथा ३५ मी ॥ अणसणमृणोअरिया- वित्तीसंखेवणं रसञ्चाच । कायकिलेसो संली - या य बज्झो तवो होइ ॥ ३५ ॥ १ आ चारे बन्ध मात्र मोदकना दृष्टान्तेज होय एम नहिं, परन्तु बीजा दुग्ध-घृतादि पदार्थोंना दृष्टान्ते पण होइ शके- जेमके अमुक अमुक दूधना जेम देह पुष्ट्यादि भिन्नभिन्न गुण छे, तेम कर्मना पण भिन्नभिन्न स्वभाव छे, अमुक दूध जेम अमुक वखत सुधी सारी रही शके छे, तेम अमुक कर्म पण अमुक वखत सुधी कर्म पणे रही शके छे, अमुक दूध जेम अमुक तोत्रादि रसवाळु छे तेम अमुक कर्म पण अमु-क तीव्रादि रसवालुं छे. ने अमुक दूध जेम हीनाधिक प्रदेशीवाळु छे तेम कर्म पण हीनाधिक प्रदेशोवाळु छे इत्यादि रोते अनेक पदार्थोद्वारा आठकर्मनां दृष्टांत यथायोग्य विचारां Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || निर्ज्जतश्वे तपःस्वपरूम || ॥ संस्कृतानुवादः ॥ अनशन मुनोदरिका - वृत्तिसंक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनता च वाद्यस्तपो भवति ॥ ३५ ॥ ॥ शब्दार्थ ॥ अणसणं-अनशन (उपवासादि | कायकिलेसो कायक्लेश (लो च वगेरे करवो) संलीणया संलीनता (-भंगोपांगादिनो संकोच करबो ) बज्झो - बाह्य तप ऊणोयरिया - उनोदरिका (वे चार कवल उणा रहे वित्ती - वृत्तिनो ( आजीवकानो) संखेवणं--संक्षेप करवो, रसच्चाओ - रसत्यागं ( विगय त्याग ) तो- तप होइ -छे. (२५९) - गाथार्थः – उपवासादि करतो ते अनशनतप-ये चार कम ल उणा रहेवुं ते उनोदरिकातंप आ जीविकानो संक्षेप करवो ते वृत्तिसंक्षेपतप-विगयादिनो त्याग करवो ते रसत्यागतप-लोचादि कष्ट सहन करवां ते कायक्लेशतप अंगोपांगादिनो संकोच करवो ते संलीनतातप-ए प्रमाणे ६ प्रकारनो बाह्य तप ( थी कर्मनोलय-निर्जरा थाय ) के. विस्तरार्थः- चालु गाथामा ६ प्रकारनो बाह्य तप कच्चो के मोक्षप्राप्तिमा बाह्य कारणरूप ने तप ते बाह्यतप कहेवाय सेना ६ प्रकार आ प्रमाणे अनशन अहिं अन् एटले नहिं अशन एटले चारप्रकारनो आहार, १ भात वगेरे रांधेलो आहार अशन, सर्व जातनां तृषा टोडना पाणी पान, धाणी चणा इत्यादि काचं कोरु फराळ ते खादिम अने सोपारी - एलायची आदि मुखवास ते खादिम ए चार प्रकारमा आहार गणाय छे, Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६०) ॥श्री नवतत्वविस्तरार्थः ॥ अर्थात् आहार न करतो ते अनशनतप बे प्रकारनो छे, त्यां उपवास-आयंबिल - एकाशन-पोरिसि-नवकारशी-छट्ट-अट्ठम इत्यादि तप अमुक नियमित काळना होवाथी इत्वर अनशन कहेवाय अने मरण पर्यंत आहार पाणीनो त्याग करवो ते यावत्कथिक अनशन कहेवाय. प्रसिद्धिमां एनेज अनशन अंगीकार कर्यु कहेछे उनोदरिका-क्षुधा लागी होय त्यारेज जमवू ते पण पेर भरीने अकळामण थाय तेम नहिं जमतां १-२-३ ४ इत्यादि कवल उणा रहेg के जेथी आरोग्यता पूर्वक एक कवल आहार जे. टलो पण अनशन तप गणाय छे, कारणके तेटले अंशे भोजननी आशक्ति-लोलुपता टळी होय तोज बे चार कवल उणा रहेवार्नु बनी शके छे, अहिं, ऊन एटले न्यून उदर-पेट राखवू अर्थात् पेट कंइक अणुं राख ते उणोदर परथी उनोदरिका शब्द बन्यो छे, १ ए यावत्कथिक अनशनना पण पादोपगमन अने भक्तप्रत्याख्यान प बे भेद छे, ते दरेकना पुनः निहारीम अने अनिहारिम ए बे भेद छे, त्यां पडी गयेला वृक्षमाफक निश्चेष्ट काया राखयो ते पादोप० अने कायचेष्टा प्रवते. पण मात्र आहारनोज त्याग होय ते भक्तप्रत्या० जाणवू तथा नियमित स्थानथी शरीर बहार काढवू ते निहारिम, अने शरीरने गुफा. दि एकज स्थानमा राखवू ते अनिहारिम जाणवू. २ वा छे के बत्तीस किर कवला-आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिथियाए. अठ्ठावीसं मुणेयव्या ॥ १ ॥ अर्थः - " पुरुषने निश्चय ३२ कवल जेटलो भाहार उदर.पूरनारो ( तृप्ति करनार ) कह्यो छे. अने स्त्रीने २८ कवल जे. टलो आहार जाणवो” एमांथी जेटला कवल उणा रहेवाय तेटलो उनोदरी तप जाणवो. अहिं कवलनं सामान्य प्रमाण मु. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ निर्जरातत्त्वे तपःस्वरूपम् ॥ (२६१) वृत्तिसंक्षेप-अहिं जे जे आहार-वस्त्र इत्यादि द्रव्योष वृत्ति एटले आजीविका (--जीवननिर्वाह ) चालती होय ते ते द्रव्योमा वृत्ति एटले मनोवृत्तियोना संक्षेप-संकोच करवाना अभ्यास रूपे अनेक प्रकारना अभिग्रहो धारण करवा ते वृत्तिसंक्षे. प कहेवाय ते द्रव्य-क्षेत्र--काळ-ने भावथी चार प्रकारे थे, त्यां द्रव्यथी अमुक पदार्थ-क्षेत्रथी अमुकस्थळे--काळथी अमुकवखते अने भावथी अमुक अमुक रीते मले तोज ते वस्तु ग्रहण करवी, जेम श्री महावीरस्वामिए करेलो अभिग्रह चन्दनवाळाथी पूरायो तेम अभिग्रह धारण करवा ते पदार्थ उपरथी लोलुपता टळी होय तोज बनी शके अन्यथा नहि, माटे ते दृत्तिसंक्षेप पण तपरूप छ, रसत्याग-रस एटले दूध दहि--धी--गोळ-तेल ने साकर ए ६ रसिक पदार्थों आत्माने विकार उपजावनारा होवाथी विकृति कहेवाय छे ते ६ विकृतियोमांची यथाशक्ति एक वे यावत् सर्व नो त्याग करवो ते रसत्याग तप कहेवाय, __ कायक्लेश-लोच करवो--आतापना लेवी इत्यादि कष्ट मोक्षनी इच्छाए सहन करवां ते कायक्लेश तप कहेवाय, रघीना इंडा जेटलं शास्त्रमा का छे-अथवा अर्थान्तरथी विचारोये तो एक प्रक्षेपथी सुख पूर्वक जेटलो आहार मुखमा रा. खी शकाय तेटला प्रमाणनो एक कपल जाणवो ने तेवा ३२ के २८ कवल संपूर्ण तृप्ति करनार गणाय छे एथी अधिक आ. हार करनार अपथ्य आहारी जाणवो १ अथवा वृत्ति पटले " भिक्षा " नो संक्षेप आ प्रमाणेहाथथी वा कडछीथी उपाहीने आहार आपे तोज लेवो ते भिक्षानियम अने एक धाराए अथवा बे इत्यादि धाराये अखंडीत पणे जेटली वस्तु पडे तेटलीज लेवी एवो नियम ते दत्तिनियम Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६२) ॥श्री नवसत्चविस्तरार्थः ॥ संलीनता-अहिं संलीनता एटले संकोच एटले अशुभ न्या. पारनी निवृत्ति जाणवी, ते संलीनता चार प्रकारनी छे, त्यां अशुभ मार्गे प्रवर्तती इन्द्रियोने संकांची कबजामा राखवी ते इन्द्रिय संलीनता, कषायथी निवृत्त थर्बु ते कषायसंलीनता, अशुभ योगथी निवृत्त थर्बु ते योगसंलीनता, अने स्त्री--पशु--नपुंसक इत्यादि विकारोत्पादक जीवोना संसर्गबाळां स्थान त्याग करीने सारा स्थानमा रहेg ते विविक्तचर्या संलीनता कहेवाय ए चारे प्रकारनो संलीनता तप कर्मनी निर्जरा करनार , ए ६ प्रकारना तप बाह्यतप कहेवाय. अने ते कर्मनी निर्मरा करनार के. अवतरण-आ गाथायां ६ प्रकारनो अभ्यन्तर तप को , ॥ मूळ गाथा ३६ मी. ॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। ज्झाणं उस्सग्गो वि अ, अभिंतरयो तवो होइ॥३६॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ प्रायश्चित्त विनयो, वैणवृत्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं कायोत्सर्गो पि चा- भ्यन्तरस्तपो भवति ॥ ३६ ॥ ॥शब्दार्थः ।। पायच्छित्त-प्रायश्चित्त उस्सग्गो-काउस्सग्ग विणओ-विनय वि अ-वळी पण वेयावच्च-वैयावृत्य (सारवार) | भभितरओ-अभ्यन्तर तहेव--तेमज तवो तप सज्झाओ--स्वाध्याय सोइ-हे. झाणं- ध्यान Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥ निजरातत्त्वे तपास्वरूपम् (२६३) --गाथार्थः-१० प्रकारनुं प्रायश्चित-७ प्रकारनो विनय-१० प्रकारनी वैयावच्च-५ प्रकारनो स्वाध्याय- २ प्रकारर्नु शुभध्यान- अने २ प्रकारनो कारसग्ग ए ६ प्रकारनो अभ्यन्तर तप (थी कर्मनो क्षय थाय ) छे, विस्तरार्थः-मोक्षप्राप्तिमा जे तप अन्तरंग कारणरूप छे ते अभ्यन्तर तप नीचे प्रमाणे ६ प्रकारनो छे, . प्रायश्चित्त-प्रायः एटले बाहुबल्यताए ( पापनो विच्छेद करनार--इति अध्या० ), अने चित्त एटले मननी विशुद्धि करनार ते प्रायश्चित्त १० प्रकारे छे, त्यां गुर्वादि समक्ष करेला पापनो प्रकाश करवो ते आलोचना प्राय०, पुनः ते पापने नहिं आचरवाना संस्कारथी जे मिच्छामि दुक्कडं आपवु (-मिथ्यादुप्कृत एटले मारुं पाप मिथ्या थाओ ए प्रमाणे माफी मागवी) ते प्रतिक्रमणप्राय०, गुरु समक्ष पापनो प्रकाश करवो अने मिथ्यादुष्कृत पण आपq ते मिश्रमांय०, अकल्पनीय अन्नपानादिनो त्याग करवो ते विवेकप्रायः, काउस्सग्ग करवो(कायचेष्टानो त्याग करी अमुक लोगस्स गणवा अथवा अमुक ध्यान करवु) ते का. योत्सर्गप्राय०. नीवी प्रमुख तपरूप दंड आचारवो ते तपप्रायः दीक्षापर्याय घटाडवारूप दंड ते छेदप्राय०, कोइ मोटो अपराध थवाथी पुनः महाव्रत उचरवारूप दंड ते मूलप्राय०. करेला अपराधनो जे तपरूप दंड आप्यो छे ते ज्यां सुधी न करे त्यांमुधी महाव्रतमां न स्थापवो ते अनवस्थाप्यप्राय०, तेवा प्रकारना अपराधथी १२ वर्ष सुधी गच्छनो अने वेषनो त्याग करी अमुम प्रका. रनी मोटी शासन प्रभावना करीने पुनः महाव्रतोच्चार करी ग छमां प्रवेश करी शके एवो दंड ते पारांचिकप्रायः, कहेवाय, ए १० प्रकारना प्रायश्तिथी कर्मनी निर्जरा थाय छे. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) ॥श्री नवतत्व विस्तरार्थः ॥ विनय-वि एटले विशेषे करीने आठप्रकार- कर्म जेमावडे नय (ति) दूर थाय ते विनय, अथवा गुणवन्तनी भक्ति ते विनय कहेवाय ते ज्ञान--दर्शन- चारित्र--ने उपचार विनय ए प्रमाणे ४ प्रकारनो छे, त्यां पांच ज्ञान- विशेषे करी बहुमान करवू, अने तेनुं श्रद्धान कर ते ज्ञानविनय, अने श्रुतज्ञानमां तो काले विणए बहुमाणे इत्यादि गाथामां कहेलो आठ प्रकारनो ज्ञानाचार ते पण ज्ञानविनय कहेवाय, तथा प्रशम (--कषायमन्दता )-संवेग (-वैराग्य )--निर्वेद (--संसारथी उदासीनता )- अनुकम्पा (--दया-कृपा) ने आस्तिक्य [धर्म-अधर्म देवलोक-नारक इत्यादि पदाथों छे एवी प्रतीति, ए ५ सम्यक्त्वलक्षणने धारण करवां, तथा निस्संकिय निक्कंखिय इत्यादि गाथामां कहेला आठ दर्शना१ १ जे काळे जे भणवा योग्य होय ते काळे ते भगवु ते काळ आचार २ ज्ञाननी अने ज्ञानीनो विनय करवो ते विनयाचार ३ ज्ञाननी अने ज्ञानीनी अन्तरंग प्रीति राखती ते बहुमानाचार ४ जे अध्ययनने माटे जे तप कहो होय ते तप वगेरे क्रिया करी ___ अध्ययन करवु ते उपधान आचार ५ जेनी पासे भण्या होय तेनुंज नाम लेवू ते अनिन्हवाचार ६ अक्षरो शुद्ध बोलवा ते व्यंजनाचार . ७ अर्थ शुद्ध विच रवो ते अर्थाचार ८ सूत्र तथा अर्थ बन्ने शुद्ध बोलवां ते तदुभयाचार २ १ सर्वज्ञोक्त तत्वमा शंका न राखवी ते निःशंकित दर्शनाचार. २ सर्वज्ञमतसिवाय अन्यमतनी इच्छा न करवी ते नि:कांक्षा दर्शनाचार ३ मुनिना मलिन गात्रादिकथी दुःगंछा न करवी ते निर्विचिकित्सक दर्शनाचार ४ सर्वज्ञोक्ततत्वमा मुंझावु नहिं ते अमूढदृष्टि दर्शनाधार ५ सम्यक्त्व अने सम्यग्दृष्टिजीवोना गुणोनी ते उपबंह दर्शना० Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ निर्जरातत्त्वे तपःस्वरूपम् ॥ (२६५) चारनुं पालन करते दर्शनविनय कहेवाय. तथा पूर्वे कहेला सामायिकादि ५ प्रकारनां चारित्रनी श्रद्धा--तेनुं विधिपूर्वक पालन कर-- अने तेनी सत्यप्ररूपणा करवी ते चारित्रविनय कहेवाय, तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि उत्तम गुणयुक्त मुनिवगेरेने देखी उभा थq--सामे जवु--हाथ जोडवा--खमासमणादि वन्दन आपवां, मिष्ट संभाषण करवू, इत्यादि शुद्धक्रियाना व्यवहाररूप जे विनय ते उपचारविनय. वळी बीजा ग्रन्थोमां तो मेनविनय--वचनविनय--अने कायविनय सहित गणतां ७ प्रकारनो विनय पण गणेल छे, ए प्रमाणे चार अथवा ७ प्रकारनो विनय कर्मनी निर्जरा करवामां अन्तरंग कारणरूप होवाथी एने अभ्यन्तर तपरूपे कहेल छे, वैयावृत्य-आचार्यादिकनी सेवा करवी--औषध--वस्त्र अन्न पानादि आपq ते वैयावृत्य कहेवाय ते आचार्य--उपाध्याय-- तपस्वी-शिष्य--ग्लान--कुल--गण-संघ- साधु-ने समनोज्ञ ए १०नुं वैयावृत्य करवू ते वैयावृत्यना १० भेद छे, (त्यां नव दीक्षित शिष्यने चारित्राचार शिखववो इत्यादि शिष्यवैयावत्य गणाय, ग्लान--रोगीनी सेवा करवी ते ग्लान विनय, चांद्रकुल इ. त्यादि एक आचार्यनी सन्तति ते कुल कहेवाय, कुलनो समुदाय गण, अने साधु साध्वी-श्रावक-ने श्राविका रूप चतुर्विध संघ कहेवाय, ने समनोज्ञ एटले स्वधर्मी बन्धुओ जाणवा. शेष सुगमछे) ६ धर्मथी पडताने स्थिर करवो ते स्थिरिकरण दर्शना० ७ स्वधर्मीनी भक्ति कावी ते वात्सल्य पर्शना० ८ शासननी शोभावृद्धि थाय तेम करवू ते प्रभावना दर्शना० १ विनयना ४ भेद गणवा होयतो ए त्रण भेदने उपचार विनयमां अन्तर्गत जाणवा, . २ वस्तुतः संघः एटले [ ज्ञान दर्शनगुणास्ते परमार्थतः . Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) ॥श्री नवतत्वविस्तरार्थः ॥ - स्वाध्याय-(सु-शोभनिक-प्रशस्त अध्याय-भणq वगे. रे ते स्वाध्याय ) अर्थात् प्रशस्त अध्ययनरूप स्वाध्याय पांच प्र. कारनो ते आ प्रमाणे-- . .१ शिष्यादिकने सुत्र तथा अर्थ पाठ आपवो ते वाचना . २ संदेह पडे त्यां पूछळ ते पृच्छना, ... ३ प्रथमर्नु भणेलं संभारी जq ते परि(रा)वर्तना . __४ प्रथम भणेला सूत्रार्थनो अर्थ ( रहस्य ) विचारवो ते - अनुप्रेक्षा, ५ धर्मनी देशना ( उपदेश ) आपवी ते धर्मकथा. पांचे प्रकारनो स्वाध्याय अभ्यन्तर तपरूप होवाथी कमनी निर्जरा करनार छ, . ... ध्यान-चित्तनी एकाग्रता-अथवा योगनो निरोध ते ध्यान . कहेवाय छे. एमां चित्तनी एकाग्रतारूप ध्यान १३ मा गुणस्थान सुधी अने योग निरोधरूप ध्यान १४ मे गुणस्थाने छे, त्यां प्रथम चित्तनी एकाग्रतारूप ध्यानना आर्तध्यान-रौद्रध्यान-धर्मध्यान अने शुक्लध्यान ए चार प्रकार छे तेमां पण दरेक ध्यान चार चार प्रकार से आ प्रमाणे ॥ आर्तध्यानना ४ प्रकार ॥ १ स्वजन कुटुंबादि इष्ट (प्रिय) पदार्थनो. वियोग थवाथी जे चिंता-शोक-विलाप वगेरे थाय ते इष्टवियोगातध्यान. . २ अप्रिय पदार्थोना संगमथी (-प्रतिकूळ परिवार मलवो संघः इति वचनात् ) ज्ञानादि गुणनी समुदाय अने ते समुदा. यनो आधार साधु घगेरे ते पण आधाराधेय भावे संघ कहेवाय. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ निजरातत्वे तपःस्वरूपम् ॥ (२६७) इत्यादिकथी जे चिंता-विलाप वगेरे थाय ते अनिष्टसंयोगात ध्यान ३ शरीरे रोगादिक थवाथी जे चिंता विलापादि थाय ते रोगचिंतातध्यान . ४ भविष्य काळमां सुख मेळवचा संबंधी जे चिंता-नियाणु इत्यादि करवू ते अग्रशोचातध्यान ए चारे त्याग करवा योग्य छे ॥रौद्रध्यानना ४ प्रकार ॥ । १ द्वेषवडे प्राणीने बांधवा-हणवादिकनी चिंता ते हिंसानुबन्धिरौद्रध्यान. - २ छळ प्रपंचादि करवाना परिणामथी असत्य बोलवानी ने तेने सत्य तरीके स्थावानी जे चिंता ते मृषानुवन्धिरौद्रध्यान. ३ क्रोधादिकषायना वशथी परनुं द्रव्यादि हरण करवानी . इच्छा ते स्तेयानुबन्धिरौद्रध्यान. ४ विषयना साधन-धन-परिवारादिकनुं रक्षण करवानी जे चिंता ते संरक्षणानुबन्धिरौद्रयान ॥ धर्मध्यानना ४ भेद ॥ १ वीतरागनी जे आज्ञा तेज धर्म छे एवी भावना पूर्वक वीतरागनी आज्ञाओ विचारवी ते आज्ञाविचय धर्मध्यान. .२ राग-द्वेष-कषाय-इत्यादि संसार बन्धननां निमित्त सर्व अपाय-कष्टरूप छे, इत्यादि विचार ते अपायविचय धर्मध्यान. . ३ सर्व जातनां सुख वा दुःख ते पूर्वकृत कर्मनुज (विपाक:-) फळ हे इत्यादि विचारवं ते विपाकविचय धर्मध्यान, ४ (छ द्रव्यरूप) लोकनी आकृति तथा ६ द्रव्यनुं स्वरूप चितवq ते संस्थान विचय धर्मध्यान. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री नवतत्व विस्तरार्थः ॥ ॥ शुक्लध्यानना ४ भेद ॥ १ पृथक्त्ववितर्क सविचार - २ एकत्ववितर्क अविचार ३ सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति - ४ व्युपरतक्रिया अनिवृत्ति, (२६८) ए ४ भेद छे, तेमां पृथकत्व एटले भिन्नभिन्न, वितर्क एटले श्रुतज्ञान, अने विचार एटले अर्थ-व्यञ्जन - ने योग ए त्रणनुं संक्रमण अर्थात् एक ध्येय (- अर्थ ) थी अन्य ध्येयपर जनुं ते अर्थ संक्रान्ति, एक व्यञ्जन ( विचाराती अक्षर श्रेणिपर) थी बीजा व्यंजनमां जयं ते व्यंजन संक्रान्ति अने एक योग परावर्ती अन्ययोगमां जब ते योगसंक्रान्ति कहेवाय, ए प्रमाणे आ शुक्लध्यानना प्रथम भेदमां श्रुतज्ञानने अनुसारे त्रणे जातनां भिन्नभिन्न संक्रमण होय छे, परन्तु एकज पदार्थ उपरनुं स्थिर ध्यान नथी पण द्रव्यथी गुणमां गुणथी पर्यायां पर्यायथी द्रव्यमां इत्यादि परावृत्ति वाळु ध्यान ते माटे एनुं नाम पृथक्त्ववितर्क सविचार छे, तथा जे द्रव्य वा पर्यायनुं ध्यान छे तेज द्रव्य वा पर्यायमां स्थित रहे, अने ध्येयनी - व्यंजननी के योगनी संक्रान्ति होय नहिं (--मनयोगे वा काययोगे वा वचनयोगे कोइपण एकज योगमां स्थितपणे ध्यान होय ) ने ते श्रुतज्ञानने अनुसारे ( वा चतुर्दशपूर्वघर श्रुतज्ञानीने ) ए ध्यान होय छे माटे ए बीजा भेदनं नाम एकत्ववितर्कअविचार है, ि तथा जे वखते सूक्ष्म योगप्रवृत्ति ( योग : निरोध क्रियाकाळे ) होय छे ते वखते जे आत्मरमणतारूप ध्यान वर्ते छे ने ते ( सूक्ष्म क्रिया योगनिरोध थतां पुनः विनाश पामनार होवाथी प्रतिपाति के मारे ए त्रीजा ध्याननुं नाम सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति छे, तथा जे वखते क्रिया ( व्युपरत एटले ) विराम पामी छे, ने Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥निर्जरातत्त्वे तपास्वरूपम् ॥ (२६९) तेथी थयेलं अक्रियपणु हवे ( अप्रतिपाति एटले ) सदाकाळ रहेवार्नु छ माटे ए चोथा भेदतुं नाम व्युपरतक्रियाप्रतिपाति छ, ___एमां आर्त ने रौद्रध्यान अशुभ छे माटे अहिं निर्जरा प्रकरणमां तेनो उपयोग नथी तोपण प्रसंगथी दर्शावेल छ ने ते बन्ने अशुभपान ५ मा गुणस्थान सुधी ( मतान्तरे ६ वा सुधी ) कहेल छे अने धर्मध्यान अप्रमत्त मुनिने कहेल छे, अने वधुमां वधु १२ मो गुणस्थान सुधी पण ( तत्वार्थमां ) कहेल छे, पुनःतत्त्वार्थमां प्रथमनां बे शुक्लध्यान पण ११-१२ ए बे गुणस्थाने कहेल छे वळी ए वे ध्यान पूर्वधरनेज. होय छे, छतां पण मरुदेवादिवत् को इ जीवने पूर्व विना पण होय. तथा त्रीजुं शुक्ल ध्यान मात्र सू० काययोगे वर्तता सयोगीकेवलिने योगनिरोधकाळे होय, अने चोधु शु० ध्यान अयोगिगुणस्थानेज (-शैलेशी अवस्थामांज होय,) उत्सर्ग-शरीरादिनो उत्सर्ग-त्याग ते कायोत्सर्ग कहेवाय ते द्रव्यथी अने भावथी एम बे प्रकारनो छे, तेमां पण द्रव्योत्सर्ग चार प्रकारनो अने भावोत्सर्ग ३ प्रकारनो छे ते आ प्रमाणे १ गच्छनो त्याग करी जिनकल्पादि कल्प अंगीकार करवो ते गणोत्सर्ग २ अणसणादि व्रत लइ शरीरचेष्टानो-कायक्रियानो त्या- . ग करवो ते कायोत्सर्ग ..' ३ कल्पविशेष वडे ( अन्यकल्प अंगीकार करतां सर्वज्ञनी आ १ घणा ग्रन्थोमां उपशान्त क्षीणकषाययोः वाक्य छे प. ण तेनो अर्थ "उपशम श्रेणिधंत अने क्षपक श्रेणिवन्तने" एवो करवो. एम विचारसारमां का छे. - २ १३ मे गुणस्थाने पण शुक्लध्याननो बीजो भेद निर्वि. कल्पदशाए संभवे छे. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७०). ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ ज्ञानानुसारे ] उपधिनो त्याग करवो ते उपधीउत्सर्ग. ४ अशुद्ध आहार ग्रहण करवानो त्याग करवो ते अशुद्धार हारोत्सर्ग. (ए ४ द्रव्योत्सर्ग कह्या.) १ क्रोधादिकषायनो त्याग करवो ते कषायोत्सर्ग. ... .२ मिथ्यात्वादि भवबन्धनना कारणनो त्याग करवो ते .. भवोत्सर्ग ३ कर्मबन्धना कारणोनो त्याग ते कर्मोत्सर्ग. ए ३ भावो. त्सर्ग कह्या. ए प्रमाणे १२ प्रकारनो तप कर्मनी निर्जरा करनार के. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतरण-पूर्वे ३४ मी गाथामां बन्धतत्वना जे ४ भेद कया हता ते चार भेदनो अर्थ आ गाथामां कहे छ, ॥ मूळ गाथा ३७ मी.॥ पयइसहावो वुत्तो, हिई कालावहारणं । अणुभागो रसो णेश्रो. पएसो दलसंचओ ॥३७॥ ॥संस्कृतानुवादः॥ प्रकृतिः स्वभाव उक्तः, स्थितिः कालावधारणं । अनुभागो रसो ज्ञेयः, प्रदेशो दलसंचयः ॥३७॥ ॥शब्दार्थः ॥ पयइ-प्रकृति | अणुभागो-अनुभान सहाव-स्वभाव • रसो-रस वुत्तो-कह्यो छे णेओ-जाणवो दिई-स्थिति पएसो-प्रदेश काल-काळनो दल-(कर्मना) अणुओनो अवहारण-अवधारण (-नियम) | संचओ-संचय (--समूह). . 'गाथार्थ:-प्रकृति एटले कर्मनो स्वभाव, स्थिति एटले कर्मना काळनो नियम, अनुभाग एटले कर्मनो रस, अने प्रदेश एटले कर्मना दलिकनो ( अणुओनो ) समूह कह्यो छे, ए चार बन्ध. (तस्त्र ) ना भेद छ, अथवा ए चार प्रकारे कर्मबन्ध होय के, . विस्तरार्थः-प्रकृति एटले जे कर्म आत्मानी साथे बन्धायु छे, ते कर्मनो स्वभाव केवो छ ? अर्थात् ते कर्म आत्माने | फळ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७२) ॥श्री नवतश्वविस्तरार्थः ॥ आपशे १ ते प्रकृतिबन्ध कहेवाय. जेमके ज्ञानावरण कर्म आत्माना ज्ञानगुणर्नु आच्छादन करे, वेदनीयकर्म आत्माने सुखदुःख उपजावे, मोहनीयकर्म आत्माने विवेकथी भूलोवे इत्यादि जे कर्मनो जे स्वभाव ते प्रकृतिबन्ध एटले कर्मनो स्वभाव कहेलो छे. ते दरेक कर्मना स्वभाव आगळ गाथाथीन कहेवाशे, तथा स्थिति एटले काळर्नु अवधारण-एटले निश्चय कहेल छ अर्थात् कयुं कर्म आत्मानी साथे केटलो काळ रही शके ? एवा प्रकारनो जे नियम ते काळ४ अवधारण कहेवाय. ते पण आगळ गाथाथीज कहेवाशे, तथा अनुभाग एटले कर्मना शुभाशुभ फळनी तीव्रता अथवा मन्दता ते रस कहेवाय छे, जेमके कोइने कोइ कर्म सुखरूपे वेदाय छे, अने कोइ कर्म दुःखरूपे वेदाय छे, अने ते पण कोइने अत्यन्त तीव्र सुख के दुःखरूपे वेदाय छे, अने काइने अतिमन्द मु. ख के दुःखरूपे वैदाय छे, जेम कोइक जीवे पूर्वं ज्वरसंबन्धि अशाता वेदनीय कर्म एवा प्रकारचें बांध्यु छे के जे आ भवे तावरूपे उदय आवतां त्रण दिवसना तावमां शरीर एकदम नहिं उठी शकाय तेवू अशक्त बनावी देछे, अने कोइकने महिनाना महिना मुधी ताव शरीरमां रहे छे तोपण तेने खबर सरखी पण पडती नथी तेनु कारण ए छे के प्हेला जीव अशाता वेदनीयकर्म तथा प्रकारना तीव्र परिणाम वडे तोत्र रसवाळु बांधेलं छे, अने बीजा जीवे तेवा प्रकारना रसवालु नहिं बांधतां मन्द रसवाळु बांधेलु छे, एवा प्रकारनी कर्मवन्धमां शुभाशुभ उदय आववाना नियम पू. वक उदय काळे जे तीन अनुभव अथवा मन्द अनुभवनो नियम कर्म बन्धाती वखते निर्णित थयेलो होय छे ते अनुभाग अर्थ: वा रस कहेवाय, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥बन्धतवेऽष्टकर्मस्वरूपम् ॥ (३७३) ____ तथा प्रदेश एटले दल-परमाणुओना संचय-समुदाय. अ. यात् कर्म ते कार्मणवर्गणा नामना पुद्गल परमाणुओना समुदायरुप छ, माटे कर्म अवश्य परमाणुओना समुदाय बनेलं छे, ते परमाणुभो सर्व कर्मना सरखी संख्याए होता नयी पण हीनाधिक होय छे. ए प्रमाणे कर्मबंध चार प्रकारनो छे तेमां पण कर्म बंधना मुख्य ४ हेतु छे. १ अज्ञान (-मिथ्यात्व )-२ अव्रत (-त्याज्यनो अत्याग )-३ कषाय-ने ४ योग ए चार कारणमांयी पण प्रकृतिबंध अने प्रदेशबंधनुं कारण योग छे, अने स्थितिबंध तथा अनु. भागबंधनु कारण कपाय ( मिथ्यात्वने अव्रत ते कषायमां अंतर्गत जागवा ) छे ए प्रमाणे बंधतत्वना ४ भेद कह्या. १ शास्त्रोमां कर्मना अनुभागनो अर्थ घणा खरा ग्रन्थोमां अनुभव करेलो छ, केटलाएक ग्रन्थोमां शुभाशुभफळ, केटलाएक ग्रन्थोमा तीब्रमन्दता, अने कोइक ठेकाणे स्वभाव एवो पण अर्थ करेलो छ, अपेक्षापूर्वक विचारतां सर्वे अर्थ बन्ध बेसता छे अने ते अपेक्षाविचारनुं वर्णन अत्रे ग्रन्थ वृद्धिकारक थवाना भयथी नहिं दर्शावतां मने जे तात्पर्य समजायं छै ते लखु छु ते संक्षेपमां आ प्रमाणे___ उदय काळे तीव्र अथवा मैद एवो शुभ (आल्हादकारी') वा अशुभ ( अनाल्हादकारी ] अनुभव आपवामां जे कारणभूत होय ते अनुभाग वा रस कहेवाय, ____अर्थात् अनुभागबन्ध ३ प्रकारना नियममां कारणरूप छे ते आ प्रमाणे-१ उदयनुं नियमितपणु करवु, २ जीवने अनुकळपणु वा प्रतिक्ळ पणं उपजावQ, ने ३ जु अमुक प्रमाणमा उदय आवद्यु, ए त्रण कार्यमा अनुभागबन्ध कारणरूपे छे. १ चालु ग्रन्थमां कया कर्मना केटला परमाणु छे ते ग्रन्थकारे वर्शावेला नहिं होवाथो संक्षेपमा अत्रे दर्शावाय छे, त्यां Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७४) || श्री नवतत्व विस्तरार्थः ॥ अवतरण – हवे आ गायामां आठ प्रकारar कर्मनां नाम अने तेना उत्तरभेद केटला ? ते दर्शावे के. ॥ मूळ गाया ३८ मी ॥॥ इंह नाणदंसणावर - णवेयमोहाउनामगोयाणि । विग्धं च पण नव दुअ-वीस चउति संयदुपणविहं ॥ संस्कृतानुवादः अत्र ज्ञानदर्शनावरण- वेदनीय मोहानामगोत्राणि । विघ्नं च पंचनद्वाविंशचतुस्त्रिंशतद्वि पंचविधं ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ: अ नाण- ज्ञानावरण कर्म दंसणावरण-दर्शनावरण कर्म वेय- वेदनीय कर्म मोह-मोहनीय कर्म आउ - आयुष्य कर्म नाम-नामकर्म गोया-गोत्रकर्म G विग्धं - अन्तराय कर्म पण - पांच प्रकार नुं नव-नव प्रकारं दुबे प्रकार अवीस - अठ्ठावीस प्रकार चउ-चार प्रकारं तिसय - एकसो ऋण प्रकार दु-वे प्रकारं पणविहं - पांच प्रकार जे कर्मनी अधिक स्थिति ते कर्मना परमाणु अधिक जाणवा परन्तु वेदनीयना सर्वथी अधिक परमाणु जाणवा ते आ प्रमाणे आयुष्यना - सर्वथी अल्प ( पण अनन्त ) नाम - गोत्रना - आयुव्थी विशेषाधिक ( बमणाथी ओंछा ] ने ज्ञानाव० - दर्श० - ने अन्त० ना मोहनीयना - ज्ञानावरणादि ३ थी विशेषा० वेदनीयना - मीह० थी पण विशेषा० { परस्परतुल्य नाम० गो० थी विशेषा० ने परस्परतुल्य Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बन्धश्वेक स्वरूपम् ॥ (२७५) गाथार्थ:-- अहिं ज्ञानावरण कर्म ५ प्रकार - दर्शनावरणक९ प्रकार - वेदनीय कर्म २ प्रकार - मोहनीय कर्म २८ प्रकातुं - आयुष्यकर्म ४ प्रकारनुं - नामकर्म १०३ प्रकार - गोत्र कर्म २ प्रकार - ने अन्तराय कर्म ५ प्रकार छे. ( ए प्रमाणे ८ मूळ कमैना १५८ उत्तर भेद छे.) विस्तरार्थ - हवे पूर्व गाथामां जे प्रकृतिबंध एटले कर्मनो स्वभाव का ते कर्मनां नाम अने तेना भेद दर्शावे छे. अथवा प्रकृतिबंध वे प्रकारनी १ मूळप्रकृतिबंध ने २ उत्तरप्रकृतिबंध "तेमां मूळप्रकृतिबंध ८ प्रकारे ने उत्तरप्रकृतिबंध १५८ प्रकारे छे. ते आ प्रमाणे आत्माना ज्ञान गुणने आवरे ( आच्छादन करे -रोके) ते ज्ञानावरण कर्मना ५ भेद - १ मतिज्ञानाव० - २ श्रुतज्ञाना०-३ अवधिज्ञानाव० - ४ मनः पथैवज्ञानाव० - ने ५ मुं केवळज्ञानावरण. (ए पांच उत्तर प्रकृतिबंध कहवाय. ) आत्माना दर्शन गुणने आवरे ते दर्शनावरण कर्म ९ प्रकार प्रथम पाप तत्वना भेदमां का प्रमाणे जाणवुं. आत्मान सुख दुःखरुप वदाय ते वेदनीय कर्म वे प्रकारनं. १ शाता-ने २ अशाता वदनीय. आत्माने मोहयात माह पमाडे एटले विवेकथी मुंझावे ते मोहनीय कर्म पापत्वमां कह्या प्रमाणे २८ प्रकारनं जाणवुं. 'आत्माने परगतिमां एति-लइ जाय ते आयुष्य, कर्म देवायु, नरकायु, तिगायु ने मनुष्यायु ए प्रमाणे ४ प्रकारनुं छे. आत्माने नामयति- अनेकरूप प्रत्ये नमावे- पमाडे ते नाम १ आ गाथा भीमणी माणेक वगेरे तरथी प्रसिद्ध भयेल पुस्तकोमा ३९ मो छे, पण अक्रमनो मुख्यताये भा पुस्तकमां ३८. मी राखी छे. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७६] ॥ श्री नवतत्व विस्तरार्थः ॥ कर्म पुन्य अने पाप तत्वमां कह्या प्रमाणे १०३ प्रकारे छे, तो पण संक्षेपमा ते भेदो आ प्रमाणे छे-४ गति जाति-५ शरीर - ३ उपां ग - १५ बंधन - ५ संघावन - ६संघयण ६ - संस्थान - ५वर्ण - २गंध-५ रस-८ स्पर्श- ४ आनुपूर्वी - २ विहायोगति - १० त्रसदशक - २० स्थावर दशक ने ८ प्रत्येक प्रकृति, एनो अर्थविस्तार पुन्य अने पाप तत्वमां आवी गयो छे, ने जे बाकी रह्यो होय ते प्रथम कर्म ग्रंथी जाणवो. आत्माने उच्च अथवा नीच शब्दोवडे गूयते — बोलावाय ते गोत्र कर्म उच्चगोत्र ने नीच गोत्र एम २ प्रकारनुं छे. आत्माने जेनाथी दानादिकनां विघ्न - अन्तराय पडे ते अन्तराय अथवा विकर्म पापतत्वमां कह्या प्रमाणे पांच प्रकार छ. ए प्रमाण ज्ञानावरणादि मूळप्रकृतिया ८ छे, अने मतिज्ञानावरणादि उत्तरप्रकृतियां १५८ छे. अवतरण - पूर्व गाथामां आठ कर्म अने तेना विशेष भेद कहीने हवे आ गाथामां ते आठ कर्मोना स्वभाव ( प्रकृति बंध ) कया कया प्रकारनाछे ते दर्शावे छे. ॥ मूळगाथा ३९ भी ।। पडपडिहारसिमज्ज, हडचित्तकुलाल भंडगारी जह एएस भावा, कम्माण वि जाण तह भावा || संस्कृतानुवादः पटप्रतिहारासिमद्य - हडिचित्रककुलाल भांडागारीणाम् । यथैतेषां भावाः - कर्मणामपि जानीथ तथा भावाः ॥ ३९ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बन्धतयेऽनुकस्वरूपम् ॥ ( २७७ ) शब्दार्थ: पड-पाटो पडिहार-द्वारपाळ ऽसि - तरवार ( खडग ) मज्ज-मदिरा हट-बेडो जह-जेम (जेवा ) एएसि - एओना (पाटावगेरेना ) भावा- स्वभाव छे कम्माण विकर्मोंना पण चित्त-चितारो कुलाल-कुंभार भंडगारीणं - भंडारी (ना) जाण जाणवा तह - तेम (तवा) भावा- स्वभाब -- गाथार्थः – वस्त्र वगेरेनो पाटो — द्वारपाळ - खड्ग — प्रदि रा - बेडी - चितारो - कुंभार - अने भंडारी एओना ( एटना ) जेवा स्वभाव छे तेवां स्वभाव आठ कर्मना पण जाणवा. ( अर्थात् ज्ञानाव० नो स्वभाव आंखे बांधेला वस्ना पाटा सरखो के इत्यादि अनुक्रमे ८ कर्मना ८ स्वभाव जाणवा० ) विस्तरार्थः - हवे आठ मूळ कर्मोंना जुदा जुदा स्वभाव ह ष्टान्तपूर्वक कहेवाय छे ते आ प्रमाणे ज्ञानावरणीय कर्म आंखना पाटा सरखं छे, एटले आंखे पाटो बांधवाथी जेम कोइ पण वस्तु देखी जाणी शकाती नयी तेम आस्मानी ज्ञानरूप चक्षुने ज्ञानावरण कर्मरुप पाटो — पडदो आवी जवाथी आत्मा कंइ पण जाणी शकतो नथी. दर्शनावरणीय कर्म द्वारपाळ सरखु के, एटले राजा जेम द्वारपाळे राजसभामां आवतां रोकेला मनुष्योंने देखी शके नहि, अ थेवा राजाने देखवा इच्छता मनुष्यो द्वारपाळे रोकाण करवायी १ राजा प्रजाने न देखे भने प्रजा राजाने न देखे एम ब न्ने पक्षमां दर्शनाव० कर्मना दृष्टान्तनी साफल्यता प्राचीन क ये कही छे, Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७८) ॥श्री नवतचविस्वरायः ॥ राजाने देखी शके नहिं तेम आत्मानो देखवानो स्वभाव के छतां पण दर्शनावरण कर्मना उदयथा पदार्थ या विषयोने देखी शके नहि. वेदनोय कर्म मद्यवडे लेपायली तरवार अथवा खड्ग सरखं है, एटले मद्यवडे लेपायला तरवारन चाटतां प्रथम स्वाद लागे पण जाम कपावाथी परिणाम अत्यंत पाडा करनार थाय तेम शातावेदनोयने अनुभवतां परिणाम अत्यंत अशाताना अनुभव करवो पडे तेम वेदनीय कर्म जीवने पोद्र्गालक सुख अने दुःख बन्ने आपे छे. मोहनीय कर्म मदिरा सरखु छे, एटले मदिरा पीवाथो मनुष्य जेम परवश नन विवक रहित थवाथा हिताहित जाणी शकतो नयी, तेम जीव पण माहनीय कर्मना वशथा विकशून्य थतां आत्माने हितकर अन अहितकर छ ? ते जाणा शकता नथी. अर्थात् मदिरोन्मत्त जीव जन मान मा कहे ने बहुःपण कहे हाथीने हाथी कहे अने पाडो पण कहे. अथवा स्त्रीने स्त्री कहे ने मा पण कहे अने पाडाने पाडा कह अन हाथी पण कह,एम गमे तेम मनमां आवे तेम साचा जूठो बकवाद कर्या कर तम मोहनीय कमेथी उन्मत्त थयेलो जीव पण धर्मने धर्म कहे ने अधर्म पण कहे, अधमैने अधर्म कहे ने धर्म पण कह, एम साचो जूठो मनः काल्पत अर्थ बोल्या करे माटे मोहनीय कर्म ते खरेखर मदिरा सरखुज छे. ___आयुष्य कर्म बेडी (जेल) सरखु छ, एटले जेम जेलमां पूरा। यलो मनुष्य जेलमाथी छूटवा इच्छे तो पण छूटी शके नहि पर १ अहिं ५ निद्रा ते आत्मानी उत्पन्न थयेली दर्शनलधिने उपघात करनार [-रोकनार ) छे. ने चक्षुर्दर्शनावरणादि चार तो आस्मानी दर्शनलब्धिने मूळथीज हणनार छ [दर्शन कम्धिने उत्पनज थवा दे नहि. -इति कर्मप्रकृत्यायो Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ॥बन्धतत्त्वेऽष्टकर्मस्वरूपम् (२७९) न्तु न्यायाधीशे ज्यां सुधीनी टीप मारी छे त्यांसुधी जेलमा रहे ज पडे तेम कुद्रतना न्यायाधीशे आत्मपरिणामरुप गुन्हाने अनुसारे जे गतिमां जेटलो काळ रहेवा फरमाव्यु छे तेटलो काळ ते गतिमा रहेकुंज पडे पण जीव ते गतिमाथी छूटी बीजी गतिमां जबानी इच्छा करे तो पण निर्णित थयेला काळरुप आयुष्यने पूर्ण कर्या विना बीजी गतिमां जइ शके नहिं. माटे आयुष्य कर्म जेल ( अथवा पीजरा ) सरखं छे. चार गतिमाथी नरक गतिना जीवो अत्यंत दुःख पडवाथी नरकगतिमांथी छूटवा इच्छे छे, पण छूटी शकता नथी, ने अनुत्तर देवो अनंत पौद्गलिक सुखने वैराग्यवडे असार जाणवाथी मनुष्यगतिमां आवी चारित्र अंगीकार करवा इच्छे छे पण देवगतिमांथी ( आयुष्य पूर्ण थया विना स्वयं) छूटी शकता नथी अने बीजा जीवा तो प्रायः पातानो भव छोडवा इ. च्छता नथी, अने कदाच उंच गतिमां जवानी आशाए छोडवा इ. च्छे, तो पण छोडी शके नहिं मारे आयुष्य कर्म ते बेडी सरखुज छे. __नाम कर्भ चितारा सरखं छे, एटले चितारो जेम जीवनी छबीओ चितरतां तेना हाथ पग शरीर वगेरे भिन्न भिन्न जातना आकोर चितरीने एक छबी बनावे, तेम नामकर्म पण जीवनां देवत्व-नारकत्वादि तथा हाथ-पग-शरीर-संघयण-आकृति-इत्यादि जुदा जुदा प्रकारनां ( जीवनां ) रुप घडे ( बनावे ) छे. माटे नामकर्म रितारा सरखु छे. ___ गोत्रकर्म कुंभार सरखं छे, एटले कुंभार जेम एक घडो मदिरानो बनावे ते दुगंछनीय थाय, अने बीजो घडो मंगल कुंभनो मो बनावे ते पूजनीक थाय तेम गोत्रकर्म पण कोइ आत्माने अं त्यनादि (ढेड-चमार-भंगी-वाघरी इत्यादि ) हीनकुळनो बनावे Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amanamaAAR (१८०) ॥श्री नवतस्वविस्तरार्थः ॥ ते जगतमा हीन मनाय, अने कोइ आत्माने क्षत्रियादि उच्च कुळवाळो बनाये ते जगतमां पूज्य मनाय माटे गोत्रकर्म कुंभार सरखु छे १ वर्तमान समयमां अनार्य प्रजाना शिक्षणनी-राज्य. कुशळतानी हुन्नरकळानी-अने आबादी वगेरे कारणोनी असरथी अर्थात् ते शिक्षणथी आर्यसंस्कारो पलटावाथी केटलाएक भाषाज्ञानीओ एवी कल्पना करे छे के-मनुष्यत्व सर्वने सरखं छे, माटे सर्वनो हक्क एक सरखो होवो जोइए माटे अमुक माणस उंचकुळनो, अने अमुक माणस हीनकुळनो ए कल्पना साक्षर वर्गने अयोग्य छे, कारणके महात्माओने तो 'वसुधैव कुटुंबकम् आखी पृथ्वी पोताना कुटुम्ब तुल्य , छे. तो आवो उच्चभावनामां अमुक उच्च अने अमुक नीच एम मानवाना अवकाशज क्याथी होय ? इत्यादि अनेक कल्पनाओ करी सर्वने एक सरखो व्यवहार करवानुं शीखववा प्रयत्न करे छे, पण ते सर्व आर्यधर्मनी फीलोसोफीनु ( तत्त्वज्ञानन ) अनभिज्ञपणु ( अज्ञान ] ज जाहेर करे छे, कारणके उच्च नीच पणानो व्यवहार आर्यधर्ममा मात्र कर्म ( कार्य ) ने अंगे ज नहिं परन्तु तेवा तेवा प्रकारना कर्मथी उत्पन्न थता गुणोवडे पण मनायलो छे. वळी उच्च नीचपणानो व्यवहार मुखमात्रथी भले न मानवामां आवे पण कुद्रतथी राजादिक सद्गुणीने ने जे उच्चत्वनुं मान अपाय छे, अने दुर्गुणीने जे हीनपणानुं मान अपाय छे ते कोनाथी निवारण थइ शके तेम छ ? जो कहो के उच्च गुणोने अंगे उच्चता अ. ने दुर्गणोने अंगे हीनता तो मानवा योग्यज छे, तो पछी आर्य धर्म पण तेमज कहे छे, तो सर्वमनुष्यने एक सरखा मानपानी कल्पना कइ रीते थइ शके ? अहिं सर्व वातनो सार ए. ज छे के दुनियामां उच्चपणुं अने हीनपणुं आज कालथी नहिं पण अनादि काळथी चालतुं आव्युं छे. ने चालशे. वळी अनार्य प्रजामां उच्चकुळ हीनकुळ मानवानी व्यवहार नथी ए. म कहेवू पण असत्य छे, कारणके ते प्रजामां पण लॉर्ड-अमी Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बन्धतत्त्वेऽष्टकर्मस्वरूपम् ॥ (२८१) अन्तत्यकर्म भंडारी सरखु छे, एटले राजाने दान देवु हो। य छतां पण जो भंडारी प्रतिकूळ होय तो राजाथी दान आपी शकाय नहिं, ने दान लेनारथी लह शकाय पण नहिं अने अनुकूळ होय तो राजा दानादि करी पके तेम अहि आत्मा (रुपराजा ) अन्तराय कम (रूप भंडारी ) नी (क्षयोपशमरूप ). अनुकूळताए दानादि करी शके, अने [ उदयरूप ) प्रतिकूळताए दानादिक न करी शके, माटे अन्तरायकर्म भंडारी तुल्य छे. ए प्रमाणे पाटा विगेरे आठवस्तुओना जेवा जेवा स्वभाव कन्या तेवा प्रकारे आठकर्मोना पण जुदा जुदा स्वभाव जाणवा. अवतरण-हवे आ अने आगळनी गाथामां कया मूळ कमनी केटली स्थिति बन्धाय छे ? ते (-स्थितिबन्ध ) दर्शावे छे.. .. ॥ मूळ गाथा ३७ मी. ॥ नाणे य दंसणावरणे, वेयणिए चेव अन्तराए । तीसं कोडाकोडी, अयराणं ठिइ अ उक्कोसा ॥४०॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ . .. जाने च दर्शनावरणे-वेदनीये चैवान्तराये च । । त्रिंशत्कोटाकोटि-रतराणां स्थिति श्चोत्कृष्टा ॥ ४० ॥ र इत्यादि खानदान कुटुंबवाळा उच्च मनाय छे. अने बीजा ते अपेक्षाए हीन मनाय छे, माटे रूपान्तरथी अनार्य प्रजामां पण उचकुळ नीचकुळ मानधानो व्यवहार छ ने ते कुद्रतना घरनो होवाथी कोइ निवारवा समर्थ पण नथी सारांश के-उउचत्य नोचत्व मानवाना व्यवहार योग्यज छे. अने कर्मशाल. ना नियम पूर्वकज छे, Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८२) || श्री नवश्वविस्तरार्थः ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ नाणे- ज्ञानाब० कर्मनी दंसणावरणे- दर्शनाव० कर्मनी defore- वेदनीयकर्मनी चैव निश्चय सीसं त्रीश (३०) कोटाकोडी-क्रोडक्रोड (१०० ००००००००००००) अयराणं - सागरोपम टिइ-स्थिति उनको सा· उत्कृष्ट अन्तराए - अन्तरायकर्मनी गाथार्थः -- ज्ञानावरणकर्मनी - दर्शनावरणकर्मनी - वेदनीयकर्मनी - भने अन्तराय कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति निश्चय ३० कोडाकोडी (- ३००००००००००००००० ) सागरोपम जेटली छे, विस्तरार्थ- सुगम छे. अवतरण - पूर्वगाथामां ४ मूळकर्मनी उत्कृष्ट स्थिति दर्शा - वने हये आ गाथाम बाकी रहेलां ४ मूळकर्मनी उ० स्थिति दर्शावे छे, ॥ मूळ गाथा ३९ मी.. सित्तरि कोडाकोडी, मोहणिए वीस नाम गोपसु । तित्तीसं खयराई, आउडिइबन्ध उक्कोसा ॥ ४१॥ संस्कृतानुवादः ॥ सप्तकोटीकोटि- महनीये विंशतिर्नामगोत्रयोः । त्रयस्त्रिंशदतराण्यायुः, स्थितिबन्ध उत्कर्षात् ॥४१॥ १ जेटला क्रेोडने एक कोडे गुणे तेटली कोडाकोडि सं.. ज्ञा कषाय. जेमके ५ कोडने कोडे गुणतां ५०००००००, ००००000 ए संख्या ५ कोडाकोडि कहेघाय, Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बन्धतत्वेऽष्टकर्मस्वरूपम् ॥ (२८३) ॥ शब्दार्थः ॥ .. सित्तरि-सित्तेर (७०) तितीसं तेत्रीश (३३) कोडाकाडी-क्रोडकोड . अयराई-सागरोपम . मोहणिए मोहनीय कर्मनी आउ-आयुष्य कर्मनो पीस-वीश २० (को० को०) ठिइबंध-स्थितिबंध नाम-नाम कर्मनो उकोसा उत्कृष्टथी गोएसु-गोत्रकर्मनी गाथार्थ:-मोहनीय कर्मनो स्थितिबन्ध ७० को० को० साग०, नाम अने गोत्रकर्मनो स्थितिबन्ध २० को० को० साग अने आयुष्यनो उ० स्थि० बन्ध ३३ सागरोपम छे. विस्तरार्थ:-सुगम छे, अवतरण-हवे आ गाथामां आठ मूळकर्मनो जघन्य स्थितिबन्ध दर्शवे हे. || मूळ गाथा ४२ ॥ बारसमुहुत्त जहन्ना, वेयणिए अट्ट नामगोएसु । सेसाणंतमुहत्तं, एयं बन्धट्टिई माणं ॥ ४२ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ बादशमुहूर्तानि जघन्या, वेदनीयेऽष्टी नामगोत्रयोः। .. शेषाणामन्तमुहूर्त-मेतद्घन्धस्थितिमानं ॥ ४२ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ बारस-बार (१२) . । वेयणिए-वेदनीय कर्मनी मुहुत्त-मुहूर्त अट्ट-आठ (८) जहन्ना-जघन्य ( अल्प) । नाम-नामकर्मनी . . Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८४) ... ॥श्री नवतश्वविस्तरार्थ ॥ गोएसु-गोत्रकर्मनी एयं-ए ( प्रमाणे) सेसाणं-बाकीनां पांच कर्मनी | बंधहिई-कर्मना स्थितिबंधनुं अन्तमुहूत्त-अन्तर्मुहूर्त . । मान-प्रमाण छ गाथार्थ-वेदनीयकर्मनी जघ० स्थिति १२ मुहूर्तनी नामकर्म अने गोत्रकर्मनी जघ० स्थि० ८ मुहूर्त्तनो, अने शेष (-बाकीलां ) ५ कर्मनी जघ० स्थि० अन्तर्मुः छे. ए प्रमाणे (आठे कर्मना जघ० स्थितिबन्ध प्रमाण कह्यु, विस्तरार्थः-सुगम छे. . 13 ममाण का, १ श्री उत्तराध्ययन सूत्रमा १ अन्तर्मु० नी पण कही छे, अने अकषायी जीवने २ समयनी पण होय छे. बीजी सर्व स्थितिओ सकषायी होवाथी अन्तमु० थी ओछी न होय. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बन्धवेष्टकर्मस्वरूपम् ॥ ॥ ८ मूळकर्मनी, स्थिति अने अबाधा || कर्म उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति उत्कृष्ट अबाधा ज्ञानाव० दर्शना० वेदनीय मोहनीय ७० को० को० १ अन्तर्मु० ७००० वर्ष सा० आयुष्य नाम गोत्र ३० को० को ० १ अन्तर्मु० ३००० वर्ष अन्तर्मु० सा० ३३ सा० १२ मुहूर्त " २० को० को० ८ मुहूर्त सा० अन्तर्मु० साधिकपूर्व व बीजो भाग २००० वर्ष "9 29 (२८५) अन्तराय ३० को० को० १ अन्तर्मु० ३००० वर्ष जघन्य अबाधा * कर्म बन्धाया बद जेटला काळ सुधी जीवने कंइपण फ ळ न आपे तेटला काळ अबाधा काळ कहेवाय छे, अर्थात दरेक कर्म पोतपोतानो अबाधा काळ वीत्या बाद उदय आवे. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अवतरणः-हवे नवमा मोक्षतत्वनी प्रारंभ थाय छे, त्यां प्रथम आ गाथामां मोक्षना ९ भेद एटले नव छार कहेवाय छे. संतपयपरूवणया, दव्वपमाणं च खित्तफुसणा य । कालो अ अंतर भागो, भावे अप्पाब हू चेव ॥ ४३ ॥ __.. संस्कृतानुवादः । सत्पदप्ररूपणा, द्रव्य-प्रमाणं च क्षेत्रं स्पर्शना च । कालचान्तरं भागो, भावोऽल्पबहुत्वं चैव ॥ ४३ ॥ शब्दार्थःसंत-छता ( विद्यमान) । कालो-काळद्वार पय--पदनी | अन्तर-अन्तर (विरह) द्वार प्रवणया-प्ररूपणाद्वार भाग-भागद्वार , द्रव्वपमाणं-संख्या प्रमाणद्वार भाव-भावद्वार च-अने अप्पाबहुं--अल्पबहुत्वद्वार खित्त-क्षेत्रद्वार चेव-निश्चे फुसणा-स्पर्शनाद्वार गाथार्थः-१ सत् ( विद्यमान ) पदनी प्ररुपणानुं द्वार-२ द्रव्य (संख्या) प्रमाणद्वार-३ क्षेत्रद्वार-४ स्पर्शनाद्वार-५ काळद्वार--६ अन्तरद्वार-७ भागद्वार--८ भावद्वार ने ९ मुं निश्चय अल्पबहुत्वद्वार (ए ९ द्वार अथवा ९ भेद मोक्षतत्वना छे.) ... Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षत नवद्वारस्वरूपम् ॥ [२८७] विस्तरार्थः - हये मोक्षवना जे नव भेद के ते ९ अनुयोगद्वार कहेबाय छे. ए ९ द्वार फक्त मोक्षने अंगे छे, एम नहि पण दरेक पदार्थने अंगे ए ९ द्वार अवतारी शकाय छे. ते ९ द्वारतुं स्वरुप आ प्रमाणे · १ सम्पदप्ररूपणाद्वार - कोइ पण पद (-शब्द ) वाळो पदार्थ (भाव) सतु (विद्यमान ) छे के असत छे ? अर्थात ते पदार्थ जगतमां छे के नहि ? तेनी जे साबिती आपवी ते सत्पदप्ररूपणा, २ द्रव्यमाणद्वार - ते पदार्थ जगदम केटला ? तेनी संख्या दर्शाववी ते द्रव्यप्रमाणद्वार. • क्षेत्रद्वार - ते पदार्थ ( तेमांनो एक वा अनेक पदार्थ ) दुfarai केटली जग्या रोकीने रह्यो छे ? एम जे दर्शावकुं ते क्षेद्वार अर्थात् अवगाहनाद्वार. ४ स्पर्शनाद्वार - पुनः ते पदार्थ जे क्षेत्रमां ( जग्यामां ) रह्यो ते क्षेत्रमा जेटला आकाश प्रदेशो छे तेटलाज स्पर्शीने रहेल छे के तेथी अधिक ? एम दर्शाव ते स्पर्शनाद्वार. अहिं एक अणु (परमाणु) कमीमां कमी ७ आकाश प्रदेशने ( १ पोतानामां अवगाहेलो, ने बीजा ६ दिशिना ६ प्रदेशने ) स्पर्शे छे. परन्तु अ. वगाहना एक आकाश प्रदेशनी छे, ए प्रमाणे अवगाहना अने स्पर्शनामां तफावत छे, अर्थात् अवगाहनाथी ( क्षेत्रद्वारथी ) स्पना अधिक होय छे. ५ कोळवार - ते पदार्थनी स्थिति (टकाव ) केटलाक कोपर्यन्तनी के ? एम दर्शावतुं ते काळद्वार. ६ अन्तरद्वार — जे पदार्थ जे रुपे छे ते पदार्थ मटीने बीजारूपे थइ पुन: ते ( असलना ) रूपे थाय के नहि ? अने Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८८) || श्री नवश्वविस्तरार्थः || जो ते थाय ता ते अन्यरूपे केटलो काळ रहीने पुनः विवक्षित रुपमां आवे ? एम जे दर्शाव ते अन्तर ( एटले व्यवधाम --- तरो ) कहेवाय. ७ भागद्वार - ते पदार्थनी संख्या स्वजातीय शेष ( वा परजातीय ) पदार्थोंना केला मे भागे ( वा केटला गुणी ? ) छे ? एम दर्शाव ते भागद्वार. ८ भावद्वार - औपशमिक - औदयिक क्षायिक क्षायोपशमिक ने पारिणामिक ए भावमाथी ते पदार्थ कया भावमा अंतर्गत थाय छे ? एम दर्शाव ते भावद्वार अहिं जगतना दरेक पदार्थों ५ भावांना कोइपण एकादिक भावमा अंतर्गत होय छे. त्यां मोहनीय कर्मना उपशमथी उत्पन्न थयेलो जे भाव ( कषायादिकमी शान्ति ) ते औपशमिकभाव, ( उपशम सम्यक्त्व ने उपशम चारित्रए वे प्रकारो ने आ भाव मात्र सकर्मक जीवनेज होय छे. ) तथा कर्मना क्षयोपशमथी उत्पन्न थयेलो जे भाव ते क्षायोपशमिक भाव, (दान लाभ- भोग-उपभोग वीर्य क्षयोप० सम्यक्त्व-देश विरति सर्वविरति मतिज्ञान श्रुतज्ञान- अवधिज्ञान मनः पर्यव-ज्ञान-चक्षुर्दर्शन- अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन-मतिअज्ञान श्रुतअज्ञान ने विभंग ज्ञान ए प्रमाणे १८ प्रकारनो छे ने ते सकर्मक जीवने होय छे ). तथा कर्मनाक्षी उत्पन्न थयेलो जे भाव ते क्षायिकभाव, ( केवलज्ञान - केवळदर्शन - दानादिपलब्धि - यथाख्यात चारित्र - ने क्षायिक सम्यक्त्व एम ९ प्रकारे छे ने ते जीवनेज होय छे. ) तथा कर्मना उदयथी उत्पन्न थयेलो जे भाव ते ओदयिक भाव, (अज्ञान- असिडत्व - अविरति ६ लेश्या -४ कषाय-४ गति -३ वेद-मिथ्यात्व - एम २१ प्रकारनो छे ने ते सकर्मक जीवने छे ) तथा ita अने अजीवने अनादिस्वभाव परिणमनरूप जे भाव ते पारि m .. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥मोक्षतत्वेनवंद्वारस्वरूपम् ॥ (२८९) णामिक भाव, (जीवने भव्यत्व-अभव्यत्व ने जीवत्व एम ३ प्र. कारनो, अने अजीवने पोतपोताना स्वभावरुप अनेक प्रकारनो छे). ए ५ भावमांथी कयो पदार्थ कथा भावमा अंतर्गत यइ शक छ ? एम विचार ते भावदार. ९ अल्पबहुत्वद्वार ते पदार्थना भेदोमां परस्पर संख्यानी हीनाधिकता दर्शाववी ते अल्पबहुत्वद्वार, ___ए प्रमाणे ए नव द्वारा प्रत्येक पदार्थमे अथवा पदार्थना गुणने पण लगाडी शकाय. ने ते पद्धति गुरुगमथी विचारवा योग्य छ, अहिं ग्रंथकर्ता ए नवे द्वार मोक्षतत्वमां (सिद्ध जीवोने अंगे) उतारनार छ, अवतरण-आ गाथामां मोक्षना ( ९ भेदमांथी) पहेला भेदनो अर्थ दीवे छे. संतं सुद्धपयत्ता, विज्जंतं खकुसुमव्व न असंतं । मुक्खत्ति पयं तस उ, परूवणा मग्गणाईहिं ॥४४॥ संस्कृतानुवादः सत् शुद्धपदत्वाद्विद्यमानं ख कुसुमवत् न असत् । मोक्ष इति पदं तस्य तु प्ररूपणा मार्गणाभिः ॥ ४४ ॥ शब्दार्थःसंत-सत् (विद्यमान] । कुसुम-पुष्प-फूलनी मुख-शुध्ध-एक ब्व-पेठे पयत्ता-पदपणु होवाथी न-नथी विज्जत-विद्यमान असंत-भसत् (-अविद्यमान ) स-आकाशना | मुक्ख-मोक्ष Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९०) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ त्ति-ए (इति) परूवणा-प्ररूपणा ( कथन) मग्गणाईहि-मार्गणाओवडे तस्य-तेनी (मोक्षनी) कराय छे, उ-चळी. गाथार्थ:-( मोक्ष ए ) एक पद होवाथी सत् एटले विद्यमान छे, परन्तु आकाशना फुलनी पेठे असत् ( -अविद्यमान ) नथी, अने मोक्ष ए एक पद छ, अने ते मोक्षपदनी प्ररुपणा हवे १४ मार्गणाद्वारे थाय छे. विस्तरार्थ:----हवे आ गाथामां मोक्षतत्वनो प्रथम भेद सत्प. दारपणाद्वार कहे छे, अर्थात् मोक्ष ए वस्तु जगत्मा छे के नहि ? ते साबित करे छे. ते आ प्रमाणे-... दुनियामाँ जेटली एक पद एटले शब्दवाळी वस्तुओ ते सत्विद्यमान ज छे, जेमके आकाश-पुष्प वन्ध्या-पुत्र सुवर्ण-आभूषण रत्न-सेज इत्यादि सर्व एकेक पदवाळी वस्तुओ विद्यमानछे, अने वे त्रण चार इत्यादि अधिक पदवाळी वस्तु विद्यमान होय अथवा न पण होय, जेमके सुवर्णाभरण (--सोनार्नु आभरण ) ए बे पदवाळी वस्तु विद्यमान छे, रत्नतेज (-रत्नोनुं तेज ] ए पण बे पदवाळी वस्तु विद्यमान छे, अने आकाशपुष्प [-आकाश, फुल तथा वन्ध्यापुत्र [--बांझणीनो पुत्र ) इत्यादि बे बे पदवाळी वस्तुओ अविद्यमान छे, ए उपरथी तात्पर्य ए आव्युं के एकेक पदवाळी वस्तुओ सर्वे विद्यमान ज छे, अने एकथी अधिकबे वगेरे पदवाळी वस्तुओ विद्यमान होय एवो नियम नथी, तो हवे मोक्ष ए एक पदवाळी वस्तु होवाथी अवश्य विद्यमान छ, प. रन्तु आकाशपुष्पवत् (बे पदवाळी वस्तुनी माफक ] अविद्यमान नथी, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षतत्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ (२९१) तर्क - जो एम कहो के एकेक पदवाळी वस्तुओ. सर्व विद्यमानज छे तो डित्थ- कक्कु -- दिस्क इत्यादि पण एकेक पदनी कल्पना करीए तो तेवी वस्तु शुं कोइ छे ! अर्थात् नथी, ज तेम मोक्ष ए पण एक पद कल्पनावाळु होय तो ते विद्यमान ज छे, एम केम कही शकाय ? अने ते साथे एकेक पदवाळी वस्तुओ स विद्यमान होय एम पण बनी शके नहि, उत्तर --- हे तार्किक ! अमो एम कहीए छीए के " एकेक पद वाळी वस्तु सर्व विद्यमानज के " तो तमारी कहेली डित्थ--ककु - दिस्क इत्यादि पदवाळी वस्तु छे ? के अवस्तु छे ! जो वस्तु हे तो वस्तुनी अविद्यमानता केम कहो छो ? अने जो अवस्तु छे तो अस्तु frer कक्कु दिस्क इत्यादि नाम शी रीते ? कही शका छो ? अर्थात् अवस्तुनुं पद - नाम होय ज नहिं, कारणके वस्तुतुंज नाम होय पण अवस्तुनुं नाम दुनियामां होतुंज नथी, अने पद पण तेज कहेवायके जे ते पदवाळी वस्तु होइ शके माटे तमारि डित्य इत्यादि एक पदवाळी वस्तु पण नथी ए तो " एक पदवाळी वस्तुओ " कहीने पुन: " नथी " एम कहेवाथी वदतो व्याघात जेवुं थयुं, माटे मानवुं जोइए के एक पदवाळी वस्तुओ विद्यमान ज छे, अने मोक्ष ए एक पद छे माटे मोक्ष ए विद्य मान ज छे. अने ते मोक्ष कह कर मार्गणामां छे तेनी प्ररूपणा कराय छे, ac अवतरण --- हवे आ गाथामां (मोक्षपदनी प्ररूपणा मार्गणा छारे करवा माटे ) १४ मूळ मार्गणाओनुं नाम दर्शावे छे, ॥ मूळ गाथा ४५ मी. ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९३) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः गइइंदिये अ काए, जोए वेए कसायमाणे य । संजमदंसणलेसा, भवसम्मे सन्नि, आहारे ॥ ४५ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः॥ गतिरिन्द्रियं च कायः, योगो वेदः कषायो ज्ञानं च । संयमो दर्शनं लेश्या, भव्य-सम्यक्त्वेसंज्ञिराहारः ॥ ४५ ॥ ॥ शब्दार्थः॥ गइ-गति मार्गणा | संजम चारित्रमार्गणा इन्दिए-इन्द्रियमार्गणा दसण--दर्शनमार्गणा काए-कायमार्गणा लेसा-लेश्यामार्गणा जोए--योग मार्गणा भव--भव्यमार्गणा वेद-वेद मार्गणा सम्मे- सम्यक्त्व मार्गणा कसाय--कषाय मार्गणा सन्नि--संज्ञिमार्गणा नाणे--ज्ञानमार्गणा | माहारै-आहारकमार्गणा गाथार्थः-गति ४-इन्द्रिय ५-काय ६-योग ३-कषाय ४-- ज्ञान ८-चारित्र ७-दर्शन ४-लेश्या ६-भव्य २-सम्यक्त्व ६-संज्ञा २ ने भाहारक २ ए प्रमाणे १४ मूळ मार्गणा अने ६२ उत्तर मार्गणा (--मार्गणाना भेद ] छे, विस्तरार्थ-मार्गणा एटले विवक्षित भाव अन्वेषण-शो धन जे द्वाराए थाय ते मार्गणा कहेवाय, अहिं विवक्षित मोक्ष भाबर्नु अन्वेषण--शोधन गत्यादिद्वाराए करवानुं छे, भने वीजा पण अमेक भावोनुं अन्वेषण शास्त्रोमां गत्यादिद्वारा करेलुं होवाथी गत्यादि १४ मूळभेद भने ६२ उत्तर भेदने मार्गणा एवी संज्ञा आपेली छे, ते १४ मूळ मार्गणाना ६२ उत्तर भेद [उत्तरमार्गणा] मा प्रमाणे--- Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतस्वेनवद्वारस्वरूपम् ॥ (२९३) (१) गति ४ १ नरकगति २ मनुष्यगति ३ देवगति ४ तियेचगति इन्द्रियजाति ५ १ एकेन्द्रिय २ द्वीन्द्रिय ३ त्रीन्द्रिय ४ चतुरिन्द्रिय ५ पंचेन्द्रिय (४) योग ३ १ मनोयोग २ वचनयोग ३ काययोग (३) काय ६ १ पृथ्विकाय २ भपकाय ३ तेजसकाय ४ वायुकाय ५ वनस्पतिकाय ६ प्रसकाय .. (५) वेद ३ १ स्त्रीवेद २ पुरुषवेद ३ नपुंसकवेद (६) कषाय ४ १ क्रोध २ मान ३ माया ४ लोभ (८) चारित्र ७ १ सामायिक चा० २ छेदोपस्थापनिक ३ परिहारविधि ४ सूक्ष्मसंपराय ५ यथाख्यात ६ देशविरति ७ अविरति (७) ज्ञान ८ १ मतिज्ञान २ श्रुतज्ञान ३ अवधिज्ञान . ४ मनःपर्यवज्ञान ५ केवळज्ञान Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९४) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थ ॥ १ चक्षुदर्शन १ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान ३ विभंगज्ञान (९) दर्शन ४ (१०) लेश्या ६ १ कृष्ण . २ अचक्षुदर्शन २ नील . ३ अवधिदर्शन ३. कापोत ४ केवळदर्शन ४ तेजो ५ पद्म ६ शुक्ल (११) भव्य २ ... ' (१२) सम्यक्त्व ६ १ भव्य १ औपशमिक २ अभव्य २क्षायोपशमिक ३ क्षायिक ४ मिश्र, ५ सास्वादन ६ मिथ्यात्व (१३) संज्ञि२ (१४) आहारक २ १ संज्ञि १ आहारक २ असंज्ञि २ अनाहाराक ए दरेक मूळ मार्गणामां सर्व संसारी जीवोनो समावेश था जाय छ, अर्थात् बीजी रीते कहीए तो सर्व संसारी जीवो गतिनी अपेक्षाए ४ प्रकारना, इन्द्रियनी अपेक्षाए ५ प्रकारना कायनी अपेक्षाए ६ प्रकारना इत्यादि रीते संसारी जीवोनुं१४ रीते मार्गण Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षतवेनवद्वारस्वरूपम् ॥ (२९५) अन्वेषण - ओळखाण थाय छे, अहिं कह मार्गणाना कया भेदमां मोक्ष at प्राप्ति के ते दर्शाववाने माटे आ मार्गणाओनां नाम तथा उत्तर भेद पण दर्शाव्या छे, ( मार्गणाओनो विशेषार्थ चालु नव प्रकरणमा प्रसंगे प्रसंगे प्रथम आवी गयेल छे, छ तां विशेष जिज्ञासुए चतुर्थकर्मग्रन्थथी जाणवा योग्य छे, ) अवतरण - पूर्व गाथामां मार्गणाओ कहीने हवे आ गाथामी क क मार्गणामां मोक्ष होय छे? ते दर्शावे छे. ॥ मूळ गाथा ४६ मी. ॥ नरगइपर्णिदितसभव, सन्नि अहक्खायखइ असम्मत्ते मुक्खोऽणाहार केवल, दंसण नाणे न सेसेसु ॥ ४६ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ नरगतिपंचेन्द्रियत्र स भव्य-संज्ञियथाख्यातक्षायिक सम्यक्त्वे । मोक्षोऽनाहारकेवलद - शेनज्ञाने न शेषेषु ॥ ४६ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ मुक्खो - मोक्ष के अणाहार-अनाहारक केवलदंसण -- केवलदर्शन (केवल) नाणे - केवळ ज्ञानमा न--नह अहक्खाय - यथाख्यात चारित्र सेसेसु- बाकीनी (४ मूळ अने खड्अ - क्षायिक सम्पत्ते - सम्यक्त्वमां ५२ उत्तर) मार्गणाओमां नरगइ -- मनुष्यगति पणिदि--पंचेन्द्रिय तस--त्रस भव - भव्य सन्नि -संज्ञि Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९६) ॥श्री नवतश्वविस्तरार्थः ।। . गाथार्थः-मनुष्यगतिमार्ग०-पंचेन्द्रिय मा०-त्रसकाय मा०. -भव्यमा०-संज्ञि मा०-यथाख्यात चारित्रमा० क्षायिकसम्यक्त्व मा० अनाहारक मा०-केवळदर्शन मा०- फेवळज्ञान मार्ग० ए १० मार्गणामां मोक्ष थाय छ, पण बाकीनी (४ मूळ भथवा ५२ उत्तर) मार्गणामां मोक्ष होय नहि. ___ विस्तरार्थः पूर्व गाथामां मार्गणाओनां मूळ नाम तथा तेना उत्तरभेदनी संख्या दर्शावीने हवे आ गाथामां ते मार्गणाओमांथी [-जीवभेदोमांथी कइ का मार्गणामां [-कया फया जीवमेदमां ) मोक्षनी प्राप्ति थाय छे ते दर्शावे छे गतिमार्गणामांथी नरगइ-मनुष्यगतिमां मोक्षप्राप्ति होय छे, पण शेष ३ गतियोमां मोक्ष होय नहि. कारणके सर्वविरति चारित्र विना मोक्षनी प्राप्ति होय नहिं, अने नारक देवने सम्यक्त्व होय पण चारित्र न होय अने ग० ति० पंचे० ने वधुमां वधु देशविरति चारित्र ज होय माटे ए त्रणे गतिमां मोक्षनी प्राप्ति नथी ( माटे ज मनु० गति सर्वोतम छ,) . इन्द्रिय मार्गणामाथी पणिदि-पंचेन्द्रियने मोक्षप्राप्ति होय, पण शेष एकेन्द्रियादिकने मोक्षप्राप्ति न होय, कारणके प्रथम कह्या प्रमाणे मोक्षप्राप्ति मनुष्यगतिमांज होय छे ने मनुष्यगति ते पंचेन्द्रिय मार्गणामांज अन्तर्गत छ माटे, ___ कायमार्गगामांथी तस-त्रसकायमांज मोक्षपाप्ति छ, पण मनुष्यस्वना अभावथी स्थावरजीवोने मोक्ष प्राप्ति नयी. ___ भव्यमार्गणामांथी भव्यजीवनेज मोक्षप्राप्ति छ, परन्तु अभव्यने नहिं, कारणके भव्य ए नामज मोक्षगमननी योग्यताने अं. गे पडेल छे(अर्थात् भव्य एटले मोक्षगमननी योग्यता पाळो जीय) माटे मोक्ष पाम्या बाद ते जीव भव्य न कहेवाय, कारणके मोत्रे Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षतश्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ (२९७) गया बाद " मोक्षे जवानी योग्यता " ए अर्थ लागू पडतो नयी माटे सिद्ध परमात्मा नोभव्य नोअभव्य भव्य पण नहि, अने अभव्य पण नहिं एम कहेवाय छे, पुनः जेटला भव्य जीवो जगतमा छे ते सर्व नहि पण तेनो अनन्तमो भागज मोक्षप्राप्ति वाळो छे. छतां पण शेष रहेला (मोझे जवानी योग्यतावाळा छai मोक्षे नहिं जनारा ) जीवो योग्यतावाळा होवाथी भव्य तो कहेवाय ज. पुनः ते भव्यो पण एवा छे के जेओ कोइ पण काळे सू० निगोदमांथी निकळवानाज नथी तो मोक्षप्राप्सिनी तो वातज शी ? छतां पण जेम गर्भ धारण करवानी शक्तिवाळी स्त्री पतिसंयोगना अभावे पुत्रवाळी न होइ शके परन्तु ते वंध्या न कदेवाय, तेम सामग्रीना अभावे कदीपण मोक्ष नहि पामनारा भव्य जीवो अभव्य तो न ज कहेवाय. ( कोइ कोइ स्थाने एवा जीवोने भव्याभव्य कह्या छे, ) इत्यादि विशेष वर्णन लोकप्रकाशादि गंथोथी जाणवुं. संज्ञि मार्गणामांथी संनि-संज्ञि - मनवाळा जीवोनेज मोक्षप्राप्ति छे, पण असंज्ञि जीवोने नहिं, कारण के विशिष्ट मनोविज्ञानविन चारित्रनो अभाव छे, अने चारित्रना अभावे मोक्षनो पण अभावन छे. अहि संज्ञि एटले विशिष्ट मनोविज्ञानवाळा एवो अर्थ जाणो, परन्तु विशिष्ट मनोविज्ञानमां वर्तता एटले मनोयोगवाळा eat अर्थ न करो, कारण के त्रण योगमांधी कोइ पण योगमां वर्तत जीवने मोक्ष होय नहिं, परन्तु अयोगपणुं प्राप्त थाय त्यारेज मोक्ष होइ शके. १ सिद्ध परमात्मा नोसन्नि नोअसन्नि पटले संक्षि नहि तेम ज असंज्ञि पण नही एव कथा छे, तेम अयोगि अवस्थामां मोक्ष होय छे, छतां अहिं संज्ञिने जे मोक्ष कह्यो छे, ते अयोगि भगवन् द्रव्यमनयुक्त छे, प अपेक्षाथी अयो Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९८) ॥ श्रीनवतत्वविस्तरार्थः ।। - चारित्र मार्गणामांथी अहकखाय-यथाख्यात चारित्रीने मोक्षप्राप्ति होय, पण शेष ६ चारित्रमा नहिं, कारण के मोक्षप्राप्ति सर्वोत्कृष्ट अथवा सर्वाशे शुद्ध एवा चारित्रथी होय छे, ने तेवू सवीशे शुद्ध क्षायिक यथाख्योत चारित्रज छे... . सम्यक्त्व मार्गणामांथी क्षायिकसम्यक्त्वी जीवने मोक्ष प्राप्ति होय, कारण के मोक्ष क्षायिक यथाख्यातचारित्रथी होय छे, ने क्षा० यथाख्या० चारित्र शायिक सम्यक्त्व विना होय नहि माटे मोक्षप्राप्ति क्षा० सम्य० मां छे. ___आहार मार्गणामांथी अनाहारी जीवने मोक्षप्राप्ति छ, परन्तु आहारी जीवने नहि. कारण के आहार ते सयोगी ( मन वचन कायाना योगवाळा ) जीवने होय छे, ने सयोगी जीवने मोक्षप्राप्ति थती नथी मारे आहारी जीवने पण मोक्ष प्राप्ति होय नहिं, परन्तु अनाहारी जीवनेज मोक्षप्राप्ति होय छे. - ज्ञानमार्गणामां केवळज्ञानीने मोक्षप्राप्ति होय छे, परन्तु शेष चारज्ञानवाळा जीवोने नहिं. कारण के शेष ४ ज्ञान क्षयोपशमभावनां छे, ने क्षयोपशम भावे मोक्षप्राप्ति होय नहिं पण क्षायिक भावे ज मोक्षप्राप्ति होय माटे शेष ४ ज्ञानीने मोक्ष प्राप्ति होय नहिं. पण क्षायिकभाववाला केवळज्ञानमांज मोक्षप्राप्ति होय. दर्शन मार्गणामां केवळ दर्शनीने मोक्ष होय, परन्तु शेष चार गिभगवान् संज्ञि कहेवाय छे माटे संज्ञिने मोक्ष कह्यो छे, अन्यथा अयोगि भगवान् संज्ञामां वर्तवावाळा नहिं होवाथीभावप्रव. तिनी अपेक्षाए संज्ञिपणामां मोक्ष होइ शके नहिं, १ ११ मे गुणस्थाने उपशम यथाख्या०, ने १२-१३-१४ गुणस्थाने क्षायिक यथाख्या चारित्र ए प्रमाणे यथाख्या:चावे प्रकारनांछे. पुनः सिध्धनेज्मांनु एक पण चारित्र नहिं तेथी शास्त्रमा सिध्ध परमात्माने नोचारित्री नो अचारित्रीविशेषणथी कह्या छे. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतत्त्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ दर्शन क्षयोपशमभाववाळां होवाथी तेमां मोक्ष न होय. . - ए प्रमाणे १४ मूळ मार्गणामांथी गति-इन्द्रिय-काय-ज्ञान -चारित्र-दर्शन-भव्य-संज्ञि-सम्यक्त्व ने आहारक ए १० मूळ मार्गणामां तथा मनुष्यगति विगेरे १० उत्तरमार्गणामां मोक्षप्राप्ति होय छे. पण शेष योगवेद-कषाय लेश्या ए ४ मूळ मार्गणामां तथा नरकगति आदि ५२ उत्तरमार्गणामां मोक्ष प्राप्ति होय नही. त्यां चार मूल मार्गणाए मोक्षप्राप्ति नहिंहोवानुं कारण नीचे प्रमाणे-मोक्ष ए स्थिर परिणामे-स्थिरध्याने होय छे, ने योग तथा लेश्या बन्ने चळाचळ ( अस्थिर ) परिणामरुप छे, एटले जीवनी चळ अवस्थानुं निमित्त ले माटे योग तथा लेश्या सद्भावे मोक्षना अभाव छ, पुनः योग अने ले. श्याने अन्वयव्यतिरेक संबंध के, माटे लेश्या होते याग अवश्य होय, ने लेश्या न होय तो योग पण न होय. अथवा ज्यांसुधी योग छे, त्यां सुधी लेश्या छे, ने योग नथी तो लेश्या पण नथी. एवो योग-लेश्याने परस्पर संबंध छे. ___तथा ज्यांसुधी वेद-तथा कषायनो उदय होय त्यां सुधी उपशम यथाख्यात चारित्र पण प्राप्त न थाय तो मोक्षप्राप्तिना कारणरुम क्षायिक यथाख्या० चारित्रनी तो वातज शी? अने क्षा० यथा० पाम्या विना मोक्षपण होइ शके नहिं, माटे सवेदी तथा सकषायी जीवने मोक्षप्राप्ति नथी. ए प्रमाणे मोक्षना सत्पद नी प्ररुपणा मार्गणाद्वारे करी. अवतरणः-पूर्वनी ३ गाथाओमां मोक्षनो पहेलो भेद ( सत्पदप्ररुपणोद्वार ) वर्णव्यु, अने हवे आ गाथामां मोक्षनो Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३००) ॥ श्री नवतचविस्तरार्थः ॥ बीजो भेद द्रव्यप्रमाणद्वार अने त्रीजो भेद क्षेत्रबारर्नु स्वरुप दर्शावे छे. ||मूळ गाथा ४२॥ दव्वपमाणे सिद्धाणं, जीवदव्वाणि हुंतिऽणंताणि। लोगस्स असंखिज्जे, भागे इको य सव्वे वि ॥४७॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ द्रव्यप्रमाणे सिद्धानां जीवद्रव्याणि भवन्त्यनंतानि । लोकस्यासंख्येयभागे एकश्च सर्वेऽपि ॥ ७ ॥ ॥शब्दार्थः ॥ दव्बपमाणे-द्रव्यप्रमाण | लोगस्स-लोकना द्वारमा | असंखिज्जे-असंख्यातम सिधाणं-सिध्ध परमात्मानां | भागे-भागे जीवदवाणि-जीवद्रव्यो (जीव | इक्को--एक सिध्ध परमात्मा संख्या) य--अने। हुन्ति-छे सवे--सर्वे सिंध परमात्मा अणंताणि-अनन्त । अवि-पण ___ गाथार्थः- (बीजा ) द्रव्यप्रमाणद्वारमा सिद्ध परमात्मानां जीव द्रव्यो ( सिद्ध जीवोनी संख्या ) अनंत छ, अने (त्रीजा क्षेत्रद्वारमां) एक सिद्ध परमात्मा अने सर्वे पण सिध्धपरमात्मा लोकाकाशना असंख्यातमा भाग जेटला क्षेत्रमा रहेला छे. विस्तरार्थ:-हवे आ गाथामां मोक्ष तत्त्वनो बीजो भेद द्रव्य प्रमाणद्वार, अने त्रीजो भेद क्षेत्रद्वार कहेवामां आवे छे. त्यां द्रव्य एटले पदार्थ अथवा वस्तु एवो अर्थ थायछे परन्तु आ स्थाने Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतत्त्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ सिद्धरूप जीवद्रव्यनुं एटले सिद्धजीवोनी संख्यानुएवो अर्थ सुगम थाय छे, अन ते सिद्धजीवोनी संख्यानुं प्रमाण केटलं छे ? ते दर्शावे छे-के सिद्धाणं जीवदव्वाणि हुंति गंताणि-सिद्ध परमात्मानां जीवद्रव्यो अनंत छ, अर्थात् सिद्धपरमात्मा एक बे नथी पण अनंत छ. नहिं ध्यानमा राखवा योग्य छे के जीव पोतेज सिदुरूप छे, परन्तु ज्यांमुधी कर्मसहित छे, त्यांसुधी संसारी छे, अने कर्म रहित थतां सिद्ध थाय छे, तो ते संसारी जीवो अनंत छे ने ते संसारी जीवोज सिद्ध थता होवाथी सिद्ध जोवो पण अनंत छे. ___हवे ते सिद्ध जीवो केटला क्षेत्रमा रहे छे ते क्षेत्रप्रमाणद्वार दर्शावे छे के-लोगस्त असंखिज्जे भागे इको य सब्वेविलोकना असंख्यातमा भागमां एक सिद्ध रहे थे, ने सर्व सिद्धपरमात्माओ पण तेटला एटले असंख्यातमा भागना क्षेत्रमा रहेला छे, अहिं भावार्थ ए छे के सिद्धपरमात्मा १४ राजलोकना अग्र भागे १ आ अर्थ उपरथी सार, प लेवानो छे के दुनियाना घणी भाग के जे ईश्वर एकज छे एम माने छे, ते असत्य छे, कार णके सिद्धपरमात्मा सिवाय बीजो कोइ ईश्वर नथी अने ते सि. द्धपरमात्मा अनन्त छे, वळी जा एकज ईश्वर मानीये तो ज. गतमां ईश्वरनी भक्ति उपासना करनार कोइपण जीव ईश्वर रूप थताज नथी एम मानव पडे, कारणके तेम थवाथी तो इश्वर अनेक थइ जाय ते अन्यदर्शनीयोने मान्य नथो, तो विचारवा. नी वात छे के ज्यारे इश्वरनी भक्ति उपासनाथो पण ईश्वर रूप थवा नथी तो अनेक कष्टो वेठी इश्वरनी भक्ति उपासना करवी व्यर्थ छे, माटे जैनदर्शननी एज मान्यता छ के एक जीवे जे मार्ग चाली सिद्धपणुं ईश्वरपणुं प्राप्त कर्यु छ ते मार्गे चालनारा बीजा संसारी जीको पण सिद्ध-इश्वररूप बनो. शके छे, ने ते कारमयी सिद्ध अथवा इश्वर एक नथी पण अनन्त छे. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०२) || श्री नवतत्व विस्तरार्थः ॥ ३३३ धनुष्य १ हाथ ने ८ आंगळ जेटली जाडी ने ४५ लाख जोजन लांबी पहोळी गोळाकार जग्यामां सर्व सिद्धो रहेला छे, माटे एटला प्रमाणचाळी जग्या १४ राजेलोक क्षेत्रनी अपेक्षाए असंख्यातमा भाग जेटलीज छे, तथा एक सिध्ध कमीमां कमी १ हाथ ८ आंगळ जेटली जग्यामां समाय छे, ने वधुमां वधु ३३३ धनुष्य - १ हाथ-ने ८ आंगळ जेटली जग्यामां समाय छे, तो ए जग्या पण १४ राजलोकनी अपेक्षाए असंख्यातमा भाग जेटलीज छे, माटे गाथामां कहां छे के " लोकना असंख्यातमा भोगमां एक for a सर्वे स पण रहे छे" ए बात योग्यज छे, मात्र तफा त एज छे के एक सिध्धने माटे जे असंख्यातमो भाग कलो के ते करतां सर्वसिध्धना क्षेत्रनो असंख्यातमो भाग संख्यातगुणो मोटो जाणवो. अवतरणः - आ गाथामां मोक्षना जीवोने स्पर्शना-काळअने अन्तर ए ३ द्वार दर्शवे छे. १-२ कारणके कमोमां कमी २ हाथनी कायावाळो यामन जीव मोक्षे जइ शके, अने वधुमां बधु ५०० धनुष्य जेटली कायावाळो जीव मोक्षे जइ शके छे, ने अहिंना शरीरना बे तृतीयांसमा भाग जेटलो आत्मा मोक्षे जतां संकोचायली होय छे, माटे ए प्रमाण आवे छे, 6 ३ आ गाथाना अर्थना सार ए छे के जगतमां जेओ एम कहे छे के इश्वर सर्व जगतमां व्याप्त छे " तेओनुं कथन जैन दर्शननी अपेक्षाए अयोग्य छे, कारणके जैनदर्शनमां इश्व र देशव्यापी छे पण सर्वव्यापी नथी एम आ गाथाना भाषामां क छे, Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षतत्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ ॥ मूळ गाथा ३७ मी. ॥ फुसणा अहिया कालो इगोसद्ध पहुच साइओ तो | पडिवायाऽभावाश्रो, सिद्धाणं अंतरं नत्थि ॥ ४८ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ स्पर्शना अधिका कालः, एकसिद्ध प्रतीत्य सायनंतः । प्रतिपाताऽभावतः सिद्धानामन्तरं नास्ति ॥ ४८ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ फुसणा-स्पर्शना अहिया - अधिक के (३०३) पडिवाय - पडवाना अभावाओ - अभावथी सिध्याणं - सिध्धोने अंतरं - अन्तर (बच्चे असिध्ध पणु ) नत्थि — नथी गाथार्थ: - ( स्पर्शना द्वारमां ) सिध्धना जीवने स्पर्शना पोताना अवगाह करता ) अधिक छे, ( अने काळ द्वारमां ) एक सिध्धने आश्रय ( - एक सिध्वनी अपेक्षाए ) सादि - अनंत काळ छे. अने ( अन्तर द्वारमां ) पडवाना ( सिध्यपणु मटीने संसारीपणुं प्राप्त थवाना ) अभावथी सिध्वना जीवोने अन्तर ( - बच्चे असिध्धपणं ) नथी. काल- काळ इगसिड - एक सिंध्धने पहुच्च — आश्रयि -- साइओ - सादि तो - अनन्त विस्तरार्थः - अहिं स्पर्शनाद्वारमां सिखने स्पर्शना अधिक छे, एटले एक सिडू जीव जेटला आकाशप्रदेशमां अवगा - हेल छे, तेटला आकाश प्रदेशो तो अवगाहना रुपे स्पर्शेलाज छे, परन्तु ते सिवाय बीजा पण आकाश प्रदेशो आजुबाजूथी अधिक Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०४) ॥ श्री नवव विस्तरार्थः ॥ स्पर्शेला छे, ए अधिक स्पर्शना मात्र एक आकाशप्रदेश जेटला जाडा अने सिडनी अवगाहना जेटला विशाळ एवा प्रतरवाळी हे, अथवा सिद्धना एक जीवे एक प्रदेश जाहुँ बख्तर सर्वांगे पहेयूँ हो • O तेवी छे, अहिं अधिकता ते अवगाहित आकाश प्रदेशोनी अपेक्षाएं जाणवी ने आ स्पर्शनाद्वार एक सिद्धनी अपेक्षाए ज सर्वत्र कहेल छे, पुनः एक आकाश प्रदेश जेटला जाडा ते अधिक स्पर्शनाना प्रतरमा बीजा जीव तथा पुद्गल वगेरेना अनन्तानन्त प्रदेश अवगाहेला होय ते पण सिद्धने अधिक स्पर्शनामां गणवा, कारणके लोकमां ज्यां आकाशनो एक प्रदेश छे. त्यां धर्मास्ति नो? अधर्मास्तिकायनो अने जीव तथा पुद्गलना अनन्त अनन्त प्रदेशो अवश्य रहेला छे. माटे ते पण अधिक स्पर्शनामां गणवा. अहिं स्पर्शना अने अवगाहनामां तफावत ए के के परस्पर प्रवेशरूपे सर्वोशे संक्रान्तथयेला प्रदेशो ते अवगाहित अने उपरथी देशांशे अडीने रहेला प्रदेशो ते स्पर्शित कवाय, ए प्रमाणे अधिकस्पर्शनानं स्वरूप कहुँ. • हवे सिडने काळानुं स्वरूप कहे छे, त्यां प्रथम एकसिअने अनेक ( सर्व ) सिद्ध आश्रयि एम काळद्वार बे प्रकार छे, त्यां अमुक एक सिद्ध ज्यारे मोक्षमा गयो त्या रे ते सिद्धनी अपेक्षाए मोक्षनी सादि ( स - आदि-आदि सहित - प्रारंभ थयो) ने हवे ते मोक्षनो कोइपण काळे अन्त नहि होवाथी अनन्त (अन् नहि अन्त-विनाश ) काळ प्रमाणनो जाणबो, ए प्रमाणे एक सिद्ध परमात्मानी अपेक्षाए मोक्ष सादिअनन्त छे, तथा सर्व सिद्ध परमात्मानी अपेक्षाये विचारीये तो सर्वे सिद्धम प्रथम कोण मोक्षे गया ? अथवा मोक्षनी शरुआत क्यारथी थइ ? एना उत्तरमा सर्वज्ञो एमज कहे छे के मोक्ष प्रवाह Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ॥ मोक्षतत्त्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ (३०५) अनादिकाळनो होवाथी अमुक काळे मोक्षनो प्रारंभ थयो तेम नथी माटे अनादि अने मोक्षनो कोइ काळे अन्त नहिं होवाथी अनन्त छे, ए प्रमाणे सर्व सिद्ध परमात्माओनी अपेक्षाए-मोक्षतत्व अनादि-अनन्त काळ प्रमाण छे हवे सिद्धने अन्तरद्वार कहे छे ते आ प्रमाणे-पडिवायाs भावाओ एटले सिद्धपणामांथी प्रतिपातना-पडवाना अभावथी सिद्धना एक जीवने पण अन्तरं-आंतरं नथी. कारणके बळी गयेला बीजनो जेम पुनः अंकुरो फुटतो नथी तेम सर्वथा क्षय पामेलां कर्म जीवने पुनः लागी शकतां नथी ने कर्म विना संसारीपणुं होतुं नथी. ने ए प्रमाणे जीवने बे त्रण के चारवार मोक्ष होइ शकतो नथी, पण मोक्ष एकज वार होय छे, तो मोक्षने अन्तर-आंतरुं केवी रीते होय ? कारणके प्रथम एक जीव मोक्षे गयो, त्यां केटलोककाळ रही पुनः संसारमा आवे, ने संसारमां पण केटलोक काळ रही पुनः मोक्षमा जाग्न आ प्रमाणे जो बनतुं होय तो बे (वार) मोक्षनी वच्चे एक ( संसारीपणारूप ) अन्तर पडयु कहेवाय, पण तेम तो बनतुं नथी माटे मोक्षने अन्तर पण नै होय, (तेमक्षेत्रनी अपेक्षाए पण एक सिद्धथी बीजा सिद्धनी वच्चे अन्तर (खालीक्षेत्र ) नथी ...१ सादि सान्त, सादि अनन्त, अनादि सान्त. अने अनादि अनन्त, प ४ प्रकारना काळमां अहिं मोक्षतत्वमा २ प्रकारनोज काळ लागु पडे छे. ने सिद्ध थइ पुनः संसारी थवाना अभा. वथी सादि सान्त, तथा अनादि सान्त ए बे प्रकार मोक्षने अ. गे लागुपडता नथी. . १ प्रथम कहेला काळद्वार अने अहिं कहेला अन्तरद्वार थी ए पण भावार्थ आवे छे के लौकिकशास्त्रोमां " ईश्वर परमात्मा मोक्षमांथी संसारमा आवी पुनः भक्तजनोना उद्धार मा. टे अवतार धारण करे छे. " एम का छे ते जैनदर्शनथी Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६) ॥श्री नवतत्वविस्तरार्थः ।। अवतरण-आ गाथामां सिद्धना जीवोने भागबार अने भावद्वार दर्शावे छे, ॥ मूळ गाथा ४९ मी. सव्वजियाणमणंते, भागे ते तेसि ईसणं नाणं । खइए भावे परिणामिए अ पुण होइ जीवत्तं ॥४९॥ संस्कृतानुवादः . सर्वजीवानाम ते भागे ते तेषां दर्शनं ज्ञानं ।। क्षायिके भावे पारिणामिके च पुनर्भवति जीवत्वं ॥४९॥ विपरीत छे, कारण के सर्व कर्मनी बळेला बीजनी पेठे क्षय कर्याथी मोक्षमां गयेला जीवने पुनः कर्म केवी रीते लाग्यां ? अने कर्म विना संसारमा अवतरवु केम बनी शके ? तथा निरंजन निराकार रागद्वेष रहित वीतराग एवा निःकर्म इश्वरने कमविना भक्तजन उपर राग अने अभक्त उप्रर द्वेष केवी रीते होय ? माटे ज जैनदर्शन स्पष्टरीते जणावे छे के-कर्मविना रागद्वेष होय नहि, कर्मविना संसारमा अवतार लेवानु बने नहिं, एकवार कर्मनो सर्वथा क्षयं कर्या बाद पुनः फर्म लागे नहि, ने निरंजन निराकार वीतराग एवा ईश्वर परमात्माने भक्ति करनारपर राग के इर्ष्या करनारपर द्वेष पण न होय. अने ते कारणथी मोक्षमां गयेला सिद्ध इश्वर परमात्माओ पुनः संसारमा अवतरता नथीज. २ अर्थात् ए अन्तर काळनी अपेक्षाए कह्यतेम क्षेत्रनी अ. पेक्षाए पण अन्तर नथी, कारण के ४५ लाव योजन व्यास अने ३३३ ध) १ हाथ ८ आंगळ स्थूल प्रमाण सिद्धक्षेत्रमा अनंतसिद्धी परस्पर देशांशे ने सर्वांशे संक्रमीने खीचोखीच रह्या छे, जेथी ४५ लाख योजनमां एवी कोइ एक आकाश. प्रदेश जेटली पण खाली जग्या नथी के ज्यां सिद्ध न होय. माटे क्षेत्रनी अपेक्षाए पण एक सिद्धथी बीजा सिद्धनी वरचे अन्तर खाली क्षेत्र नथी. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षतच्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ सव्व--सर्व, जिवाण - जीवोना अणते-अनन्तमा भागे-भागे ते-ते सिद्धजीवो दंसणं-दर्शन नाणं- ज्ञान (३०७) खइए - क्षायिक भावे - भावे छे, पारिणामिए - पारिणामिकभावे य-वळी पुण - पुनः होइ-छे जीवत्तं - जीवत्व गाथार्थ :- ते सिडजीवो (नी संख्या) सर्वजीवोना अनंतमे भागे छे, तेओनं (केवळ ) दर्शन अने ज्ञान क्षायिकभावे छे अने पारिणामिक भावे जीवपणु छे. विस्तरार्थः ते सिद्ध परमात्माओ सर्व जीवना अनन्तमा भाग जेटला अति अल्प के कारणके जगतमां असंख्याता (निगोदना ) गोळा छे, ने एकेक गोळामां असंख्यात निगोद छे, ने एकेक निगोदमां अनन्त अनन्त वनस्पति जीवो छे, ते पण एटला अनन्त जीवो छे के प्रति समय एकेक जीव मोक्षे जाय तोपण त्रणे काळमां एक निगोद पण खाली थाय नहिं, अने तेथीज आज सुधीमां जेटला सिद्ध थया छे, ने हजी भविष्यकाळमां जेटला सिद्ध थाना छे. ते सर्व सिडनी संख्या मेळवतां पण एक निगोदना असंख्यातमा भाग जेटली ज थाय ए प्रमाणे मात्र साधारण वनस्पति जीवोनी अपेक्षाए पण सर्व सिद्ध परमात्माओनी संख्या अनन्तमा भाग. जेटली छे तो सर्व संसारी जीवोनी अपेक्षाए सिसंख्या अनन्तमा भागे होय तेमां शु आश्रये ? ए प्रमाणे भागद्वार कह्यु. हवे भाव द्वारमा प्रथम पांच भावोनां नाम तथा अर्थ कहेला छे Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८) ॥श्री नक्तत्वविस्तरार्थः ॥ तेमांथी सिद्ध परमात्माने क्षायिक अने पारिणामिक ए वे भावज होय, कारणके सिद्धपणु कर्मना क्षयथी प्राप्त थयु छे, माटे सिद्ध परमात्मा क्षायिक भावे छे, जे दुनियाना सर्व पदार्थों स्वस्वभावे परिणत होवाथी पारिणामिक भाव वाला छे,तो सिद्धपरमात्मोपण परिणामिक भाववाळा होइ शके छे. परन्तु औदायिक -औपशमिक-ने क्षायोप० ए त्रणे भाव कर्मजन्य होवाथी सिद्ध परमात्माने होइ शके नहि, हवे सिद्ध परमात्माने जे शायिक अने पारिणा० ए बे भाव छे, तेमां क्षायिकभावना ९ भेद, अने पारिणा० भावना ३ भेद छे, तो सिद्ध परमात्माने तेमांना कया कया भेद होइ शके ? ते संबन्धमां ग्रन्थकार पोतेज कहे छे के खइए भावे तेसिं दसणं नाण-क्षायिकभावे सिद्धपरमात्मने केवळज्ञान अने केवळदर्शन छे, : अने परिणामिए अ पुण होइ जीवत्तंवळी पारिणामिक भावे सिद्ध परमात्माने जीवरख छ, परन्तु भव्य त्व तथा अभव्यत्व नथी ( ते वात प्रथम फुट नोटमांज दर्शाती छे के सिध्धपरमात्मा नोभवा नो अभवा- भव्य नहिं तेम अभव्य पण नहिं.) अहिं जो के इन्द्रियादि १० प्राणरुप द्रव्य जीवत्व सिद्धने नथी परन्तु ज्ञानदर्शनादि भाव प्राणोवडे भावजीवत्व छे. ए प्रमाणे भावद्वार का. १ सिद्धजीवो अभव्यथी अनंतगुण छे, पण सर्वजीवथी अनंतमा भागेछे १ शेष ५ लङधि-क्षा० सम्यक्त्व, ने क्षा० चारित्र सिद्धने कहेलुं नथी त्यां अपेक्षाए छे के दानादि क्रियानी प्रवृत्ति अपेक्षाए ५लब्धि नथी अन्यथा अनन्तदातादिने अनन्तवीर्य लब्धि वास्तविक रीते संभवे छे, कारण के अनंत लब्धिमा अन्तर्गतज गणाय. तथा भा० सभ्यक्त्वछे पण Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतत्त्वे नरद्वारस्वरूपम् ॥ (३०९) अवतरणः-इवे आ गाथामां मोक्षना जीवोनू अल्पबहुत्व द्वार-दर्शावे छे. ॥ मूळ गाथा ५० मी ॥ थोवा नपुंससिद्धा, थीनरसिद्धा कमेण संखगुणा । इथ मुक्खतत्तमेशं, नवतत्ता लेसयो भणिया ॥५०॥ . ॥ संस्कृतानुवादः ॥ स्तोका नपुंसकसिद्धाः, स्त्रीनरसिद्धाः क्रमेण संख्यगुणाः । इंदं मोक्षतत्वमेतन्नवतत्वानि लेशतो भणितानि ॥ ५० ॥ शब्दार्थःयोवा-थोडा | संखगुणा-संख्यातगुणा नपुंस-नपुंसकलिंगे इअ-ए सिध्धा-सिध्धययेला मुख्कतत्तं-मोक्षतत्व (का) थी स्त्री लिंगे एअं-ए प्रमाणे नर-पुरुषलिंगे नवतत्ता-नवतत्वो सिध्धा-सिध्ध थयेला लेसओ-संक्षेपथी कमेण-अनुक्रमे | भणिया-कह्या ___गाथार्थः-नपुंसकलिंगे सिद्ध थयेला सर्वथी थोडा छे, तेथी स्त्रीलिंगे अने पुरुषलिंगे सिध्ध थयेला अनुक्रमे संख्यातगुणा छ, ए मोक्ष तत्व का, ए प्रमाणे नवे तत्वो (नु स्वरुप ) संक्षे. पथी कहा. . ते उपलक्षणथो ग्रहण करवा याग्य छ तेमज सिद्धने नाचारित्री:नो अचारित्री विशेषणवाळा सिद्धान्तमांकहेला होवाथी क्षायिक चारित्र पण प्रवृत्ति अपेक्षावालु नथी, पण वास्त विक रीते अनंत चारित्र गुण छे. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१०) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ - विस्तरार्थ:-हवे आ गाथामां कया सिध्धजीवो अल्प छ ? ने कया सिध्ध जीवो घणा छे तेनो परस्पर तफावत दर्शावतां ग्रंथकार कहे छे के नपुंसक लिंगे सिध्ध थयेला जीवो सर्वथो अल्प छे कारण के तेवा जीवो १ समयमा १० ज मोक्षे जाय छे. अर्थात् जे मनुष्य भवमांथी निर्वाण पामी सिध्ध थाय छे ते मनुष्य भवमाथी नपुंसक लिंगवाळा १० मनुष्यो मोक्षे जइ शके छे, पण वधु नहि, थोवा नपुंससिद्धा-नपुं० लिंगे सिध्ध थयेला सर्वथी अल्प छे. तेथी स्त्री लिंगे सिध्ध थयेला जीवो संख्यातगुण छे, कारण के मनुष्यभवमांथी १ समये (-समकाळे ) २० स्त्रीयो मोक्षे जाय छे, ने २० ते १० थी बमणा होवाथी ( जघन्य ) संख्यात गुण थाय छे. तथा पुरुष लिंगे सिध्ध थयेला ते ( स्त्रीलिंग सिध्ध ) थी पण संख्यातगुणा छे, कारण के मनुष्यभवमांथी समकाळे १०८ पुरुषो मोक्षे जइ शके छे ने १०८ ते २० थी आठ अधिक पांचगुणी संख्या होवाथी ( मध्यम ) संख्यात गुणज कहेवाय छे. ए प्रमाणे पूर्व भवना लिंग आश्रयि सिध्ध परमात्मानुं अल्पबहुत्व दर्शाव्यु, कारण के सिध्धपणामां लिंगादि भेदनो अभाव होवाथी अने सर्व सिध्ध परमात्माओ सर्व रोते एक सरखा होवाथी परस्पर ( भेदना १ अहिं कया नपुसको मोक्षे जइ शके छे, अने कया नथी जइ शकता ते दर्शावाय छे. नपुंसक १६ प्रकारना जाति नपुंसक दीक्षाने अयोग्य हो. वाथी मोक्षे जइ शकता नथी, ते १० नपुसकनां नाम १ पंडक-स्वभाव स्त्री सरखो अने आकार पुरुष मरखो एटले मंदगतिए चाले-शंका सहित पछवाडे जोती चाले-शरीर शोतळ ने कोमळ होय-हाथना ताबोटा पाडे. हाथना चाळा करे-आंखो नचावे-केडे हाथ दइ चाले-सेंथा पाडे --श्रृंगार करवो बहु गमे-स्नानादि गुप्त करे-पुरुष सभामां शंका पामे - स्त्री समुदायमां निडरपणे बेसे-इत्यादि स्त्री मरखा स्व Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षतच्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ (३११) भाववाळो होय. ए पंडकना पण ६ प्रकार छे ते धर्मबिंदु टीका वगेरेथी जाणवा. २ वातिज - पुरुष चिन्ह स्तब्ध थतां स्त्रीसंगम कर्या विना न रही शके ते. ३ क्लब - स्त्रीने नग्न देखी शुक्र स्खलनादि क्षोभ पामे ते वष्टि क्लीब, स्त्रीनो शब्द सांभळी विकार जागे ते शब्द खीने स्पर्श मात्र थतां क्षोभ पामे [ शुक्र स्खलनादि थाय ] ते स्पर्शक्लीब, अने स्त्रीना निमंत्रणमात्रथी क्षोभ पामे ते निमंत्रणक्कीब, ए प्रमाणे ४ प्रकारना क्लीबनपुंसक छे. ४ कुंभी - जेनुं पुरुषचिन्ह वारंवार स्तब्ध थाय अथवा वृषण ( - अंडगोलक ) स्तब्ध ( -कठीन ) रहे ते, अथवा ग्रंथान्तरे कुंभ ( -घडा ) सरखा मोटा स्तनबाळाने पण कुंभि नपुं० कह्यो छे. ५ ईर्ष्यालु - पोतानामां स्त्रीसंगमनी शक्ति न होय तेथी बीजा पुरुषे सेवेली स्त्रीने जोइ ईर्ष्या-अदेखाइ करे ते. ५ शकुनि एकज दिवसमां कबूतरादि पक्षिनी माफक ) अमेकवार स्त्रीसंगम करनार. ७ तत्कर्मसेवी - स्त्रीसंगम करीने पण अवाच्य अंग चाटवादि कर्म करे ते. ८ पाक्षिकापाक्षिक - शुक्लपक्षमां वधु अने कृष्णपक्षमां अल्प वेद उदयवाळी. ९ सौगंधिक - अवाच्य प्रदेशने सुंध्या करनार. १० आसक्त - शुक्रपात थया पछी पण आलिंगन करी पडी रहेनार. ए १० जाति नपुंसको तीव्र मोहना उदयवाळा होवाथी दीक्षाने पण अयोग्य छे तो मोक्षे जवानी वातज शी ? हवे दीक्षाने योग्य होवाथी मोक्षे जवा योग्य ६ प्रकारना कृत्रिम नपुंसक आ प्रमाणे - १ वर्धितक - जेओनी इन्द्रियनो छेद कर्यो होय तेवा नाजर अने पावइया विगेरे. २ चिपित - जन्मतांज आंगळीओना मर्दनथी जेनां वृषण ( - अंडगोलक ) गळावेल होय. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३१२) || श्री नववश्वविस्तरार्थः ॥ ३ मंत्रोपहत - मंत्रबळथी पुरुषवेद नाश पाम्यो होय तेवा. ४ औषध्युपहत - औषधिथी ( दधाथी के वनस्पतिथी ) जेनो पुरुषवेद हणाइ गयो होय तेवा. ५ ऋषिशत- मुनिना श्रापथी पुरुषवेद हणायो होय तेवा ६ देवशप्त - कोइ देवना शापथी पु० वेद हणायो होय तेवा. ए ६ प्रकारना कृत्रिम नपुंसको मोक्षे जवा योग्य छे ते संबंधि विशेष स्वरूप श्रीनिशिथसूत्रथी जाणवुः पुनः ए ६ जातिवडे पुरुष छे, परन्तु ते ते कारणोथी पुरुषवेद हणाया बाद तेओने नपुंसक वेदनो उदय होय छे, आ ६ नपुंसकोने पूर्वे कला १० नपुंसकोत् वेदनो उदय नगरदाहसरखो उत्कृष्ट होतो नथी, पण पुरुषवेद हणावाथी पुरुषवेदना अभावरूपे नपुंसक वेद ( न - नहि पुंसक - पुरुषपणुं अथात् पुरुषपणुं नहिं ते नपुंसक ) होय छे. तेथी वेदनो उदय पुरुषवेद करतां पण मंद होय छे, पुनः पुरुषाकृति नपुं० - स्त्री आकृति नपुं० – ने नपुं० आकृतिवाळा नपुंसक एम त्रण प्रकारना नपुंसक आकृति भेदे छे ते पण त्रणे मोक्षगमन योग्य छे. २ पुरुष - स्त्री - अने नपुंसक ए त्रणे वेद-लिंगने पथ्यना भेदथी ऋण ऋण प्रकारना होवाथी ९ प्रकारनाछे ते आप्रमाणे १ स्त्रीसंगमना अभिलाषवाळा जीव वेदपुरुष कहेवाय. २ पुरुषचिन्ह दाढी - मूछ-- इत्यादि लक्षणोवडे लिंगपुरुष. ३ पुरुषनो वेष पहेरेली स्त्रीआदि नेपथ्यपुरुष, ४ पुरुषनी इच्छावाळो जीव वेदस्त्री कहेवाय. ५. योनी -- स्तन -- दाढी मूछनो अभाव इत्यादि चिन्होवाळो जीव लिंग स्त्री कहेवाय. ६ स्त्रीनी वेष पहेरेला एवा पुरुषादि नेपथ्यस्त्री कहेवाय ७ स्त्री अने पुरुष ए बन्नेपर अभिलाषवाळो तीव्र वेदोदयी जीव वेदनपुंसक. ८ स्त्रीपणानां केटलाक चिन्ह स्तनादि होय ने केटलांक चिन्ह योनिवगेरे न होय, तेमज पुरुषपणानां केटलाक चिन्ह पुरुष चिन्ह वगेरे होयः ने केटलाक चिन्ह दाढी मूछ वगेरेने होय एवा प्रकारना ( स्त्री पुरुष लक्षणांना सद्भावने अभाव Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतवे नवद्वारस्वरूपम् ॥ (३१३) अभावे ) अपबहुत्व ( सिद्धत्वावस्था आश्रयि ) संभवतुंज नथी, ___ अहिं लिंग आश्रयि जेम अल्पबहुत्व कछु तेम प्रसंगोपात शेष भेद आश्रयि पण अल्पबहुत्व (-समकाळे कया जीवो अल्प ने कया जीवो घणा सिद्ध थाय छे ते) कहेवाय छे, वाळा ) जीव लिंगनपुंसक कहेवाय छे, ९ काक स्त्रीसरखो अने कंडक पुरुषसरखो विलक्षण वेष पहेरनार (-पावइया-हीझडा वगेरेमा सरचा वेषवाळा ) एषा पुरुषादि नेपथ्य नपुंसक गणाय, __ए ९ प्रकारमाथी नेपत्थ्य अने लिंग पुरुषादि ६ भेद मो. क्षगमन योग्य छे ने प्रण भेद मोक्षने अयोग्य छे. प्रथम कहेला १६ नपुंसक संबंधि गाथाओ आ प्रमाणे छे. पंडए वाइए कीबे, कुंभी इसालु यत्तिय । सउणी तक्कम्मसेवी य, पक्खियापक्खिए इय ॥ १ ॥ सोगंधिय अ आसत्ते, एए दस नपुंसगा । संकिलिछत्ति साहूणं, पवावेउ भकप्पिया ॥ २ ॥ - अर्थः-पंडक-वातिक-क्लीब-कुंभी-इाळु-वळी ए प्रमाणे शकुनि-तत्कर्मसेवी-अने पाक्षिकापाक्षिक ए तथा सौगंधिक-आसक्त ए १० प्रकारना नपुंसको अतिसकिष्ट परि• णामी छे माटे मुनिओए दीक्षा आपवामां अकल्पनीय छे. त्यां • पंडगनां लक्षणनी गाथा महिलासहावो सरवन्नभेओ मोढं महंत मउरा य वाणी । ससहयमुत्तमफेणय च, एआणि छप्पडगलक्खणाणि ॥ १ ॥ अर्थः -स्त्री सरखो स्वभाव-स्वर विलक्षण - अने वर्णादि विलक्षण -लिंग मोटु-वाणी कोमळ--मूत्र शब्द सहित, ने फीण ... विनानु-ए ६ पंडकनां लक्षणो छे इत्यादि. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१४) || श्री नवश्वविस्तरार्थः ॥ ॥ समकाळे सिद्धि गमनयोग्य जीवनी संख्या ॥ मनु०नी स्त्रीमांथी आवेला २० | धूमादि ३ मांथी आवेल वैमानिक देवांगनानांथी आवेला वनस्प० थी आवेका २० ज्योतिषी देवांगनाथी आवेला २० भुवनपत्यादि (पाताल वासी देवोनी देवांगनामांथी आवेला ५ तिच स्त्रीमांथी आवेला १० मनुष्य पुरुषमांथी मनुष्य थयेला १० ज्योति० देवथी मनु० थयेला १० भव० देवथी मनु० थयेला १० व्यंतर देवथी मनु० थयेला १० तिर्येच पुरुषथी मनु० थयेला १० कल्प देवथी आवेला i १०८ अग्नि - वायु - विकले ० थी आवेला पुरुंधी पुरुष थयेला पुरुषथी स्त्री थयेला पुरुषथी नपुं० थयेला स्त्रीथी पुरुष थयेला स्त्रीथी स्त्री धयेला स्त्रीथी नपुं थयेला नपुं० थी पुरुष थयेला नपुं० बी स्त्री. थयेला नपुं० थी नपुं० थयेला पृथ्विकाय अपकाय ने पंकप्र भाrt [ प्रत्येकथी ) आवेला ४ १० रत्नप्रभायी आवेला -शर्कराप्रभाथी आवेला १० नन्दन वनधी वालुकामा आवेला १०| प्रत्येक विजयमांधी १०८ १० १० १० १० १० १० १० २० १ अर्थात् मोक्ष गमनथी उपान्त्य भवमां जीव मनु) स्त्री नो अवतारमां होय ते मनु० स्त्रो पणामांथी मरण पामी अनन्तरभवे ( अन्त्य भवे ) मनुष्य थइ केटला जीव मोक्षे जाय ? २ उपान्त्य भवर्मा पुरुष होइ मरण पामी अन्त्य भवमां पुरुष थइने Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षत नवद्वारस्वरूपम् ॥ १० | अन्यलिंगे अकर्म भूमिमांथी कर्म भूमिमा जन्मेला ( अथवा कर्म भूमिमांथी पंडक नथी उर्ध्व लोकथी अधोलोकैथी तिच्छलोकथी समुद्रमाथी नदी वगेरेना जैथी *५०० धनु० कायावाळा २ हस्त कायवाळा मध्यम कायावाळा १०८ गृहस्थ जैन साधुना वेषवाळा ४ १०८ २० १०८ २०- २२--४० १० १०८ १०८ २ ३ अवस० ना ५ मा आरामां २० ગ્ " १-२ ६ आराम १० + ४ उत्स० ना १-२-५-६ आरामां १०८ १०+ २ स्त्री लिंगे ४ पुरुषलिंगे (३१५) नपुं० लिंग अवस० ना। ३-४ था उत्स० ना / आरामां ܘ ܕ १-२ कोइ वैरी देवे कर्मभूमिमांथी संहरण करी आणेला केवलिओ ए वे स्थाने मोक्षे जाय अन्यथा नहि. ३ पंडकवनथी ४ १००० योजन उंडी नलिनोवती ने वप्रा नोमनी बे कुब्ज विजयमांथी प्रत्येकमांथी. अहिं त्रण मत [ २०-२२-४०), ७ २ हाथथी उपर ने ५०० धनु० थी कमी ८ तापसादि जैनेतरमुनिना बेषवाळा * मतांतरे ५२५ धनु० कायावाळा पण + एकाळमां संहरण करेला सिद्ध थाय. ५-६ कोइ वैरी देवे संहरी समुद्र नद्यादिमां फेंकी दीधेला अथवा कारणवशे त्यां गयेलाने भावनाथी अन्तकृत जेवलि थइ मोक्षे गयेला. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१६) ॥श्री नवतश्वविस्तरार्थः ॥ अवतरण-आ गाथामां नवतत्वने जाणवाथी शुं लाभ थाय ॥ मूळ गाथा ५१ मी॥ जीवाइनव पयत्थे, जो जाणइ तस्स हाइ सम्मत्तं । भावेण सदहतो, अयाणमाणेऽवि सम्मत्तं ॥५१॥ . संस्कृतानुवादःजीवादिनवपदार्थान् यो जानाति तस्य भवति सम्यक्त्वं । भावेन श्रद्दधतो, अज्ञानवत्यपि सम्यक्त्वं ॥५१॥ शब्दार्थः जीवाइ-जीव वगेरे सम्मत्तं-सम्यकूत्व नव-नव (९) . भावेण-भाववडे-भावथी पयत्थे-पदार्थोंने (तत्वोने) सद्दहन्तो-श्रडा करता जो-जे जीव अयाणमाणे-अज्ञानीने जाणइ-जाणे अवि-पण तस्स-तेने सम्मत्तं-सम्यक्त्व होइ-होय-थाय __ गाथार्थः-जे जीव जीवादि नव पदार्थ (-तत्व ) ने जा. णे तेने सम्यक्त्व होय छे, अथवा भावथी ( नवतत्वनी ) श्रद्धा करनार ( नवतत्वने सत्य माननार ) एवा अज्ञानी जीवने (-न वतत्व नहि जाणनारने ) पणः सम्यक्त्व होय छे. विस्तरार्थः-जीव-अजीव-पुन्य-पाप-आश्रव-संवर-निजरा-अने मोक्ष ए जीवादी नव पदार्थने जे कोइ जाणे तेने समकित होय छे. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतत्त्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ (३१७) . प्रश्न:-देवने नारकने मनुष्यने अने मत्स्य वगेरे जळचरादि तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवोने पण सम्यक्त्व होय छे, त्यां मनुष्य अने देवने तो गुर्वादिना उपदेशथी नक्तत्व जाणवावें बनी शके परन्तु . नारक जीवोने नरकमां अने मत्स्य वगेरेने समुद्रादि स्थाने नवतत्त्व जाणवानु केवी रीते बनी शके? अने जो नवतत्व ज न जाणे तो चालु पाठमां कह्या प्रमाणे तेने सम्यक्त्व केवी रीते होय ? तथा मन्द बुद्धिवाळा के जेओ नक्तत्वनुं स्वरूप जाणी शके नहि वा जीवोने सम्यक्त्व केवी रीते होय ? ____उत्तर-हे जिज्ञासु ! ए सर्व प्रश्ननो उत्तर गाथामांज कटा छे भावेण सद्दहन्तो अयाणमाणे वि सम्मत्तं एटले पूर्वोक्त ना स्वरूपने जाणतो न होय छतां पण जो भावथी श्रद्धाकरनार हाय (-सर्वज्ञोए ए नवतत्वन जे स्वरूप का छे ते सत्य ज छे, एव दृढ मान्यतावाळो होय ) तो तेवा अज्ञान जीवने पण सम्यक्त्व होय छे, ए प्रमाणे होवाथी जे जीव नवतत्वनो ज्ञानी होय तेने ज सम्यक्त्व होय एवो एकान्त नियम नहिं, पण बाहुल्यताए नवतत्वनु ज्ञान ते सम्यक्त्व उत्पन्न करवामां प्रबळ साधनरूप होवाथी नवतत्वना ज्ञानीने सम्यक्त्व होइ शके ए वात बहुधा निर्विवाद छे, ...' हवे नवतत्वन स्वरूप जाणवाथी सम्यक्त्व ( शुद्ध श्रद्धा) शी रीते उत्पन्न थाय ? ते कहेवाय छे-नवतत्वना स्वरूपने संक्षेपथी जाणनारा जीवने एवी हृदयभावना प्रगट थाय के सर्वज्ञे जे आ नवनत्वरूप पदार्थों कह्या छे ते जगतमां कोइ साक्षात् तो कोइ अनु. मानादि प्रमाणथी पण अवश्य संभवे छे, वळी सर्वज्ञोए ज्ञानमा जे देख्युं छे तेज कयूं छे, माटे ते ते पदार्थों दुनियामां विद्यमान छे ज, इत्यादि संक्षेप ज्ञानीने पदार्थोनी अस्तित्वादिभावना द्वारा सम्य Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१८) ॥श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ।। तव प्रगट थाय छे, अने विस्तार ज्ञानीने विशेष स्वरूप ज्ञान थतां ते ते स्वरूपनुं अस्तित्व अने कथननो, परस्पर अविरोध इत्यादि जोइने पण सम्यक्स प्रगट थाय छे, प्रश्न-सम्यक्त्व ते पदार्थ छ के कोइ गुण छे ? उत्तर-सम्यक्त्व ए पदार्थ नथी पण आत्मानो श्रद्धारूप गुण छे, अर्थात् जे वस्तु जेवारूपे छे ते वस्तुने तेवारूपे जाणवी ते सम्यक्त्व, अथव। देवने विषे देवबुद्धि, गुरुने विपे गुरुवुध्धि, अने धर्मने विष धर्मवुध्धि, ते सम्यक्त्व कहेवाय, ( अहिं सम्यक् एटले सारु- अने साधु-त्व एटले पणु अर्थात् सारापणु के साचापणु ते सम्यक्त्तव कहेवाय, ] अथवा सर्वज्ञे जे कयुं तेज सत्य ते, एवा प्रकारनी दृढ मान्यतो सेपण सम्यक्त्व कहेवाय इत्यादि सम्यक्त्वना अनेक अर्थ जाणवा. प्रश्न-आपणने सम्यक्त्व छे के नहि ! ते जाणी शकाय के नहि ? . उत्तर:-आपणने सर्वज्ञे कहेला धर्म उपर तेमज सर्वज्ञे कहेली दरेक वात उपर घणो दृढ राग अने विश्वास छ, एम आपणु मन खात्री आपतुं होय अने आस्तिकय-अनुकंपा इत्यादि सम्यक्तत्वनां ६७ लक्षणोमांनां लक्षणो वर्तता होय तो व्यवहारथी एम मानी शकीए के आपणने व्यवहार सम्यक्त्व है, परन्तु निश्चय सम्यत्तव (वस्तुतः सम्यक्त्व) छे के नहि? ते बात तो सर्वज्ञज जाणे परन्तु आपणे छद्मस्थ जाणी शकीए नहिं प्रश्न-शुध्ध धर्म उपर राग होय छतां आपणने सम्यक्त्व छे एम निश्चय पूर्वक केम न जाणी शकाय ? पोताना आत्माना गुणनी खात्री पोतानो आत्मा पण न करी शके ए केवु आश्चर्य ? उत्तर-हे जिज्ञासु? शुध्ध धर्म उपर राग मात्रथी निश्चय सम्यक्य होइ शकतुं नथी. पण सर्वज्ञे कहेला पदार्थना अनन्त भा. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतत्त्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ ३१९] वोमांथी एक भाव उपर पण अविश्वास आवतो होय ने शेष सर्व अनन्त भाव उपर विश्वास बेसतो होय तोपण सम्यक्त्व होतुं न. थी, वली सर्व वात उपर विश्वास होय ते पण दर्शन मोहनीय कमर्नु आवरण खसवाथी ययेल होय तोज निश्चयथी सम्यक्त्व होइ शके, अन्यथा ते कमनु आवरण खस्या विना बाप दादानी रुढी इत्यादिक कारणयी थयेलो जे राग ते निश्रय सम्यक्त्वरूप नथी, अने ते दर्शन मोहनीय कमर्नु आवरण खस्यु छ के नहिं ते सर्वज्ञ जाणी शके छे, पण आपणा सरखा अल्पज्ञानी जीवो जाणी शके नहिं, मात्र धर्म उपर राग छे एटलं स्थूल बुधिए जाणी शकाय तेथी निश्चय पूर्वक सम्यक्त्व उत्पन्न थयु छ के नहिं ते आपणे जाणी शकीए नहिं: जेम के आपणने ज्वर आव्यो छे, एम सामान्ययी जाणी शकाय पण ते साध्य छे के असाध्य! अने ते केटली डीग्रीनो छ ? ते यथार्थ अनुभवी वैद्यज, नाणी शके तेम धर्म उपर राग के एम सामान्यतः जाणी शकाय पण ते राग सम्यक्त्वोत्पत्ति जेटली हदनो छ ? के कमी छ ? ते यथार्थ अनुभवी सर्वज्ञ विना कोण जाणी शके ? .. अवतरण-आ गाथामां सम्यक्त्व एटले शु ? अथवा केवी बुद्धिवालाने सम्यक्त्व होइ शके ? ते कहे है, मूळ गाथा ५२ मी, सव्वाइ जिणेसरभासियाई, वयणाइ नन्नहा हुंति। इअ बुद्धी जस्स मणे, सम्मत्तं निश्चलं तस्स ॥५२॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ संस्कृतानुवादः सर्वाणि जिनेश्वरभाषितानि वचनानि ब्रान्यथा भवंति । एतद्बुद्धीर्यस्य मनसि, सम्यकूत्वं निश्चलं तस्य ॥ ५२ ॥ शब्दार्थ: (३२०) सव्वाइ- सर्वे जिणेसर - जिनेश्वरना भासियाई -- कहेलां वयणाइ -- वचनो ननहि इअ-- (इह--इइ] एवी (अहि-एवी) बुध्धी - बुध्धि जस्स--जेमा मणे-मनमां सम्मतं सम्यक्त्व अन्नहा -- अन्यथा - असत्य निच्चलं-- निश्चल--दृढ हुति - होय छे तस्स--तेनं गाथार्थः - श्री जिनेश्वरनां कहेला सर्वे वचनो असत्य न होय (--एक पण वचन असत्य न होय ] एवी बुद्धि जेना मनमां होय तेने निवल- दृढ सभ्यक्त्व छे, विस्तरार्थः - जिनेश्वरे कहेलां सर्व वचनो अन्यथा असत्य न होय, कारणके असत्य भाषण ७ कारणथी होय छे, ते आप्रमाणे जीव ज्यारे क्रोधना आवेशमां आवी जाय छे त्यारे जेम मरजीमां आवे तेम सत्यासत्यनो विचार कर्या विना बोले छे, माटे असत्य भाषणमां क्रोध ए कारण छे जीवने ज्यारे अभिमान थाय छे, त्यारे पोतानी श्रेष्ठता दर्शा - १ ए शब्दस्थाने श्री नवतत्व वृत्तिमां मूळपाठमा इह छे. ने वृत्तिमां इति शब्द होवाथी मूळपाठमां इइ जोइए एम अनुमान थाय छे, ने विशेषतः इअ वा इइ नोज पाठ सार्थक समजाय छे, १ शास्त्रमां क्रोध-लोभ- भय ने हास्य ए ४ कारण दर्शा - of छे परन्तु अहि विशेष बोधने माटे में ८ कारण दर्शाव्यां छे, माटे aiena शास्त्रमर्यादानो लोप कर्यो एम नं विचारखं. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतवनवद्वारस्वरूपम् ॥ (३२१) ववाने अथवा तो सत्य बोलतां आ वखते मारुं अपमान तिरस्कार वगैरे थशे, ए कारणथी पण ते वखते असत्य बोले छे. माटे असत्य भाषणमां मान ए कारण छ । ए प्रमाणे मायाथी ने लोभथी पण असत्य बोले छे, तेमज कोइ भयथी असत्य बोले छे, ने केटलाएक हांसी-मरकरी--कुतूहल इत्यादि माटे असत्य बोले छे तेथी भय अने हास्य ए पण असत्य भाषणमां कारण छे ए रीते क्रोध--मान-माया--लोभ-भय हास्य-ए ६ असत्यनां कारण छे तेमज केटलाएक जीवो ने ए ६ मांगें कोइपण कारण होतुं नथी अने मनमां सत्य बोलवानोज विचार होय छतां ते बाबतमा अजाणपणु होय छे, तेथी असत्य बोले छे अने कोइवार ज्ञात पदार्थना संबन्धमां पण अनाभोगे (उपयोग रहित पणे) असत्य बोली जबाय छे, माटे असत्य भाष. णमा अज्ञान अने अनाभोग कारण छे, ए प्रमाणे असत्य भाषणनां ८ कारणोमांचें एक पण कारण भगवानने छे नहि कारणके भगवान् कषाय रहित छे माटे क्रोधादि ६ कारण न होय, अने भगवान् सर्वज्ञ छे माटे अज्ञान अने अनाभोग पण कारण न होय, तो हवे एवं कयु कारण होइ शके ? के जेथी भगवानने असत्य बोलचा. नी जरुर पडे ! माटे सर्वज्ञ अने कषाय रहित एवा जिनेश्वरोए जे जे वचनो कयां छे तेमांनु एक पण वचन असस्य नयी पण सत्यज छे, एवा प्रकारनी दृढबुद्धि जेना मनमां होय ते निश्चल सभ्यक्त्व--दृढ सम्यक्त्व कहेवाय छे, अने जेओ सर्व वचमो सत्य माने पण एकज वचन असत्य माने तो तेवा जोवं ने पण सम्पकत्व होय नहि. जेम श्रीवी भगवाननो जमाइ जमालि भगवाननां सर्व वचन सत्य मानतो हतो पण कर्या कामनेज कयु कहेवाय, पण करखा मांडेलु कार्य ते कयु कहेवाय एम जे महावीर स्वामि क-. हे छे ते युक्तिव छं नथी एम एकज वचन असत्य मानवाथी ज. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२२) ॥श्री नवतश्वविस्तरार्थ ॥ मालि निन्हव ( सत्य वचनने ओळवनार ] अथवा मिथ्यादृष्टि गणायो छे. ___तथा गोष्ठामाहिल्ल आचार्य सर्व पदार्थोंने यथार्थ प्ररूपता पण "जीवप्रदेशने कर्म सर्पनी कांचळीवत् स्पर्शल छ, पण आ. त्मप्रदेशनी अंदर प्रवेशीने रहयु नथी' ए एकज विपरीत अर्थ क. हेवाथी मिथ्यादृष्टि गणाया, एवा आ शासनमा ७ निन्हवो एकेक वचनने असत्य मानवाथी मिथ्यादृष्टि तरीके प्रसिद्ध थया छे, माटे जे प्रमाणिक पुरुषर्नु अनेक वचन सत्य मानीए ने एक वचन असत्य मानीए तो ते पुरुषने आपणे सर्वांशे प्रमाणिक मानीए छीए एम कही शकाय नहि, माटे सर्वज्ञ सरखा प्रमाणिक पुरुषोना सवे वचनो सत्यज मानी शकाय. ___ अथवा जेम न्यायी राजानी सर्व आज्ञाओने , प्रमाण करनार प्रजा के सेवक राजनिष्ठ कही शकाय पण केटलीक आज्ञाओ माने ने केटलीक आज्ञाओ न माने तो ते प्रजा या सेवक द्रोही गणाय तेम सर्वज्ञरूप धर्मराजानी सर्व वचनोने सत्य माननार धर्मनिष्ठ अथवा सम्यक्त्वी गणाय पण केटलांक वचनोनो अनादर करे तो ते धर्मद्रोही अथवा मिथ्याद्रष्टिज गणाय माटे श्री जिनेश्वरनां क. हेलो सर्व वचनो सत्य माननारा जीवनेज निश्चल सम्यक्त्व होइ शके. अवतरणः-पूर्वगाथामां सम्यक्त्वनु स्वरुप का अने हवे आ गाथामां ते सम्यक्त्व प्राप्तिथी शुं लाभ थाय ? ते कहे छे. __॥मूळ गाथा ५३ ॥ अंतोमुहुत्तमित्तं--पि फासिय हुन्ज जेहिं सम्मत्त । तेसिं अवठ्ठपुग्गल--परियट्टो चेव संसारो ॥ ५३ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षत श्येनवद्वारस्वरूपम् ॥ (३२३ ) ॥ संस्कृतानुवादः ॥ अन्तर्मुहूर्त्त मात्रमपि, स्पर्शितं भवेत् यैः सम्यकूत्वं । तेषामपापुद्गलपरावर्त्तश्चैव संसारः ॥ ५३ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ अंतोमुहुत्त — अन्तर्मुहूर्त्त मित्तं मात्र ऽपि - पण फासियं - स्पर्यु. हुज्ज - होय जेहि—- जेओए सम्मतं सम्यक्तव तेसिं—तेओने · अवठ्ठ – अपार्ध (छेल्लो अर्धो ) पुग्गल परियट्टो - पुद्गलपराव कोळ चैव निश्चयं संसारो संसार HOND गाथार्थः — जे जीवोए अन्तर्मुहूर्त्त मात्र पण सम्यक्त्व स्पर्यु होय ते जीवाने निश्चय छेल्लो अर्ध पुद्गलपरावर्त्त संसार ( बाकी रहे छे, ने त्यारबाद अवश्य मोक्षे जाय छे. ) विस्तरार्थः - हवे सम्यक्त्व पामवायी शुं लाभ थाय ? ते दर्शावे छे के एक अन्तर्मु० मात्र पण जे जीवोने सम्यक्त्व स्प होय एटले जे जीवोने एक अन्तर्मु० जेटलं अल्पकाळ्नुं सम्यक्त्व प्राप्त थर्यु होय तो ते जीवोने अर्धपुद्गलपरावर्त्त जेटलोज संसार बाकी रहे छे, अर्थात् ते जीवो अर्धपुद्गलपरावर्त्त जेटला अल्प ( पण अनंत ) कालमा मोक्षे अवश्य जाय छे. अहिं अन्तर्मु० नो काळ ते आंख मीचीने उघाडे तेटला काळना पण असंख्यातमा भाग जेटलो अति अल्प होय छे, अथवा attarai एक तीव्र झवकाराने जेटलो बखत लागे तेथी पण अति अल्प (- असंख्यातमा भाग जेटळा ) वखतने अहिं अन्तर्मु० Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२४) ॥श्री नवचविस्तरार्थः ॥ कहेवाय छे, ते प्रथम समयावलिमुहत्ता ए गाथामां दर्शाव्या प्रमाणे जो के ९ समयथी २ घडीमा १ समय कमी ( अर्थात् ४८ मिनिटमा १ समय कमी जेटला) काळ सुधीनां पण अन्तर्मुहूत्तौज कहेवाय छे, परन्तु अहिं असंख्य समयात्मक मध्यम अन्तर्मुः जाणवं, एटला अल्पकाळनुं सम्यक्त्त्व पण जो प्राप्त थाय तो जीव अवश्य मोक्षे जशे एम निर्णय थइ चुक्यो जाणवो. . १० को० को० सागरोपमनी १ अवसर्पिणी अने एटलाज काळनो १ उत्सर्पिणी थाय, अने ए वे मलीने १ का चक्र थाय, अथवा असंख्यात वर्षनो १ पल्योपम, १० को डाकोडि (-१०,०००००००००००००० ) पल्योपमनो ? सागरोपम, २० कोडाकोडि (-२०,०००००००,००००००० सागरोपमनुं १ काळचक्र, अने एवां अनंतकाळचक्रनो अथवा अनंत अवस०-उत्स० नो १ पुद्गलपरावर्त काळ थोय छे, आ जीवे संसारमा परिभ्रमण करतां एवां अनंतानंन पुद्गलपराव? अनादिकाळथी मांडीने आजसुधीमां व्यतीत कयां छे, परन्तु कोइ पण सम्यक्त्वादि लाभ प्राप्त कयों नथी, अने जो हनी पण सम्यक्त्वादि लाभ न प्राप्त करे तो जेटलां पूर्वे व्यतीत कों ते. टलां अथवा तेथी अनंतगुणां पुद्गलपरावर्त व्यतीत करवां पडे, अने जो अन्तर्मु० जेटलोवार पण सम्यक्त्व मात्र पामे तो तेटलां १ ए बाबतना बन्ने मत शास्त्रमा प्रसिद्ध छे, कोइ कहे छे के जेटलो काळ पूर्वे व्यतीत थयो तेटलो भविष्यमां व्यती. त करवानो छे, ने कोइ कहे छे के तेथी अनन्त गुणो काळ व्यतीत करवानो छे, अथवा बीजी रोते जेटलो भूतकाळ छे. तेटलो भविष्य काळ छे, एम केटलाएक आचार्यों कहे छे, ने केटलाएक तो 'अणागयद्धा अणंतगुणा' भविष्यकाळ(भूतकाळथी) अनन्तगुणो छ एम कहे छे, बन्ने मत युक्तिवाळा छे. Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ॥ मोक्षतत्वेनवद्वारस्वरूपम् ॥ (३२५) अनंत पुद्गलपरावर्त व्यतीत न करतां मात्र वधुमां वधु ०॥ पुद्गलपरावर्तन व्यतीत करवो पडे अने त्यारबाद अवश्य मोक्षप्राप्ति थाय ए आ गाथानो भावार्थ छे. ( अहिं अपार्द्ध शब्दनो अर्थ अप-अपगत अर्थात् व्यतीत थयेल छे अर्ध-अर्थ विभाग जेमांयी ते अपाध, अर्थात् जेमांथी प्रथमनो अर्ध भाग व्यतीत थया बाद जे छेल्लो अर्ध भाग रहे ते छेल्ला अर्धनुं नाम अपार्ध कहेवाय.) अवतरणः-पूर्व गाथामा अन्तर्मु. मात्र पण सम्यक्त्व पामनारने ०॥ पुद्गलपरा० संसार बाकी रहे एम कडं तो पुद्गलपरावत्त एटले शुं ? ते ( आ गाथामां ) दर्शावे छे. ॥ मूळ गाथा ५४ ॥ उस्सप्पिणी अणंता, पुग्गलपरिअट्टयो मुणेयव्वो । तेणंताऽतीअद्धा, अणागद्धा अणतगुणा ॥५४॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ उत्सर्पिण्योऽनंताः , पुद्गलपरावर्तको ज्ञातव्यः । तेऽनंता अतीताडा, अनागताद्धा अनंतगुणा. ॥ ५४ ।। .. ॥ शदगर्थः ॥ उस्सपिप्णी-उत्सर्पिणीओ | ऽणंता-अनन्त . अणंता-अनंत ऽती-अतीत-भृत पुग्गलपरिअडओ-पुद्गल परा- | अडा-काळ वत्त ( काळ )। अणागय-अनागत- भविष्य मुणेयव्यो-जाणवो अणंतगुणा-अनंतगुणा ते ते पुद्गलपरावत्तों Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२६) ॥ श्री नवतत्वविस्तरार्थः ॥ गाथार्थ:-अनंत उत्सर्पिणीओ ( मळीने ) १ पुद्गल परावर्त काळ जाणवो, ते (-तेवा ) अनंत पुद्गलपरावर्त प्रमाण (जेटलो) अतीत काळ (-भूतकाळ ) छे, अने (तेथी भूतकाळथी) अनंतगुण (पु० परा० जेटलो ) अनागत काळ ( -भविष्य काळ ) . विस्तरार्थः-पूर्व गाथाना विस्तरार्थमां कह्या प्रमाणे १८ को० को० पल्योपमनो १ सागरोपम, अने १० को० को० सागरोपमनी १ अवसर्पिणी अथवा १ उत्सर्पिणी (काळ विशेष ) थाय छे, एबी अवसर्पिणीओ वा उत्सर्पिणीओ अनंत थाय त्यारे एक पुद्गलपरावत थाय, अने ते अनंत पुद्गल परावर्तनो एक अतीत अडा (-भूतकाळ ) थाय, अने तेथी अनंतगुणा पुद्गलपरावर्त्तनो एक अनागत अद्धा (-भविष्यकाळ ) थाय. आ स्थाने केटलाएक एम पण कहे छे के जंटला पु० परा० नो भूतकाळ छे. तेटला पु० परा० नो भविष्यकाळ छे.) । १ पुद्गलपरावर्त आठ प्रकारे छे ते ओ प्रमाणे १- चौद राजमां जेटला पुदगलो छे ते सर्व पुद्गलोना सर्व अणुओने कोइ एक जीव औदारिक देहपणे परिणमावी परिणमावीने मूके-विसर्जे तेमां जेटलो काळ व्यतीत थाय तेटलो काळ औदा० वादर द्रव्यपुरलपरावर्त, तेवीज रोते वैक्रिय बा० द्र० पु० परा० इत्यादि ( आहारक सिवाय ] ७ प्रकारना बा० पुद्गल परा० जाणवा, २-चौदराजमा जेटला पुनलो छे ते सर्व पुगलना परमाः गुओने औदा० देहपणे अनुक्रमे परिणमावी परिणमावी वि. सर्जे तेमां जेटलो काळ व्यतीत थाय तेटलो काळ औदा० सू. क्ष्म द्रव्य पुद्गलपरावर्त, ए प्रमाणे वैक्रियादि सात प्रकारना सू० द्रव्य पुद्गलपरावर्त्त जाणवा. [ अहिं पुद्गल परिणमननी गणत्रीमां एक समये घणा नवा (-प्रथम नहिं ग्रहण करेला ) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतत्वे नवद्वारस्वरूम् ॥ (३२७ ) अवतरणः-आ गाथामां सिद्ध जीवोना १५ भेद दर्शाये छे. ॥ मूळ गाथा ५५ ॥ जिण अजिण तित्थऽतित्था, गिहि अन्न सलिंग थी नर नपुंसा। पत्तेय सयंबुद्धा, बुद्धबोहिय सिद्धणिका य ॥ ५५॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ जिनाजिनतीर्थातीर्था, गृह्यन्यस्वलिंगस्त्रीनरनपुंसः प्रत्येकस्वयंवुध्धा; बुद्धबोधितसिध्धा अनेकाश्च ॥ ५५ ॥ परमाणु ग्रहण थया छतां पण तेमांनो विवक्षित पकज नयो (प्रथम अग्रहित)ग्रहण कर्यों गणवो. अने प्रथमना बादर पु०परा० मां तो एक समयमां जेटला परमाणु नवा ग्रहण थाय ते सर्व ग्रहण कर्यानी गणत्रीमा आवता हता, ए बा० पु०परा०मां उत्कम (क्रम विनानी गणत्री)हती तेनी सु०पू०परा०मां अनुक्रम पूर्वक गणत्री गणवी. अने ते अनुसार आगळ पण सू० अने बो० पु० परा० मां क्रमोत्क्रमनी पद्धति स्वयं विचारवी । . ३-४ सर्व लोकाकाशना प्रदेशोमा विना अनुक्रमे मरण पामतां जेटलो काळ लागे तेटलो काळ बा० क्षेत्र पु० परा० अने अनुक्रमे मरण पामतां जेटलेा काळ लागे तेटलो काळ सू० क्षे० • पु० परा०, ५-६एक काळ चक्रना सर्व समयोने उत्क्रमे मरण पामतां जेट लो काळ लागे तेटलो काळ बा०काळ पुगल परा०,ने अनुक्रमे मरण पामतां जेटलो काळ लागे तेटलो काळ सू० काळ पु० परा० ७-८ कर्मना रसाबन्धमां कारणरूप सर्व अध्यवसाय स्थानोमां विना अनुक्रमे मरण पामवामा जे काळ लागे तेटलो का ळ बा० भाव पु० पराः, ने अनुक्रमे मरण पामवामा जे काळ लागे ते सू० भाव पु० परा० कहेवाय Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२८) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ ॥ शब्दार्थः ।। जिण-जिनसिध्ध अजिण-अजिनसिद्ध तित्थ-तीर्थसिद्ध अनित्य-अतीसिद्ध गिहि-गृहस्थलिंग सिद्ध अन्न-अन्यलिंग सिध सलिंग-स्वलिंग सिध्ध थी-स्त्रीलिंग सिध्ध नर-पुरुषलिंग सिध्ध नपुंसा-नपुंसक लिंग सिध्ध पत्तेय-प्रत्येक बुध्धसिध | सयंबुध्धा स्वयंबुध्धसिध्ध । बुधबोहिय-बुध्धबोधित सिध्ध सिध्ध एक सिध्ध ऽणिक-अनेक सिध्ध | य-वळी अने गाथार्थ:-जिनसिड, अजिनसिद्ध, तीर्थसिद्ध, अतीर्थसि' द्ध, गृहस्थलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, स्वलिगसिड, स्त्रीलिंगसिड. पुरुषलिंगसिद्ध, नपुंसकलिंगसिह, प्रत्येकवुदसिड, स्वयंबुद्ध. सिद्ध, बुद्धबोधितसिद्ध, एकसिद्ध, ने अनेकसिद्ध (ए प्रमाणे सिडना १५ भेद छे.) __ विस्तरार्थः-हवे १. भेदे सिद्ध थाय ते १५ भेदतुं स्वरुप दर्शावाय छे. १ जिन- तीर्थंकर पदवी प्राप्त करीने जे जीवो मोक्षे गया ते जिनसिद्ध. २ तीर्थंकर पदवी प्राप्त कर्या विना जे जीवो मोक्षे गया ते अजिन सिड. ३तीर्थ-संपनी स्थापना थया बाद जे जीवो मोक्षे गया ते तीर्थसिद्ध. १ कहेवाता सर्व भेद सिद्ध अवस्थाना समयने आश्रयि नहि पण पूर्वभवावस्थाश्रयी जाणवा. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षतवे नवद्वारस्वरूम् ॥ (३२९) तीर्थनी स्थापना-थया पहेलांजेओ मोक्षगया ते अतीर्थसिद्ध. ६ गृहस्थना वेषमां जेओ मोक्षे गया ते गृहस्थलिंगसिद्ध. ६ तापस विगेरे अन्यदर्शनी साधुना वेषमां जेओ मोक्षे गया ते अन्यलिंगसिध्ध. ७ सर्वज्ञोक्तः रमोहरण ( -ओपो )-मुहपत्ति-चोलपट्ट (-इत्यादि मुनि योग्य घेष ) ते स्वलिंग कहेवाय, एवा प्रकारना मुनिना) वेषमा रह्यो छतो जे जीव मोक्षे जाय ते स्वलिंगसिद्ध. १ अहिं मोक्षे जतां वेष भले गृहस्थनो होय के तापसादि अन्य साधुनो होय परन्तु आचार विचार तो श्री सर्वज्ञो. क्त सिद्धान्तने अनुसारे ज होवा जोइए, नहितर पोतपोताना मानेला धर्मने अनुसारे क्रियाकांड करनारनो मोक्ष होइ शके ज नहिं अने जो दुनियामा वर्तता सर्व धर्मों मोक्षने आपमोर होय तो धर्म के अधर्मनो भेदज न रहे. . अहिं सर्वज्ञोक्त संयमना नियमो पाळवानी अरुचिवाळा जीयो एम कहे छे के “ गृहस्थ वेषमां पण मोक्ष थाय छे; प. ण संसार त्यागीने साधु बनी जवाथी ज. मोक्ष थाय छे पम नथी " ए प्रमाणे कहेनाराओए ख्यालमा राखवु जोइए के एषा । विचारथी साधुपणुं नहिं अङ्गीकार करी गृहस्थधर्म पोळवामां के गृहस्थना वेषमां कोई काळे पण मोक्ष प्राप्ति छ ज नहिं, परन्तु अहिं गृहस्थना वेषमां जे मोक्ष कह्यो ते जे जीवने सेसार त्याग करी साधुपणुं अङ्गीकार करवानी उग्र भावना प्र. गटी होय, ने ग्रहस्थपणाने काळा केदखाना तुल्य मानतो होय तेवा जीवने भावनानी प्रबळताथी शीघ्र केवळज्ञान उत्पन्न थइ जा. य ने आयुष्य अन्तर्मु०मात्र अल्प होय तो तेवाने तेवा गृहस्थ वेषे पण मोक्षे चाल्यो जाय, ने जो आयुष्य अधिक होय तो गृहस्थनो वेष त्याग करी अवश्य साधुपणानो वेष अंगीकार करे. एवो नियम छे. ( कृर्मापुत्र केवलि थया छतां पण ६ मास गृ. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ हस्थवेष रह्या ए अपवाद रूप होवाथी भाहिं ग्रहण करवा योग्य नथी.) पुनः तापसादिना वेषमां मोक्ष कयो ते पण ए रीते ज जाणवो, अने ते तापसादि पण केवळज्ञान पाम्या वाद अ. धिक आयुष्य जाणे तो अवश्य साधुवेष अंगीकार करे तेनो पाठ आप्रमोणे__ " यद्वा अन्यलिंगिनां भावतः सम्यक्त्वादि प्रतिपन्नानां केवलज्ञान प्रतिपद्यन्ते तदा अन्यलिंगत्वं द्रष्टव्यं, अन्यथा यदि ' दीर्घमायुष्कमात्मनः पश्यन्ति ज्ञानेन ततः साधुलिंगमेव प्रतिपद्यन्ते" [नवतत्त्वावचूरी] ___ अर्थः-भावथी सम्यक्त्वादि पामेला अन्यलिंगिओने ज्यारे केवळज्ञान अंगीकार कराय (-अन्यलिंगीयो ज्यारे केवळज्ञान अंगीकार करे ) त्यारे अन्यलिंगीपणुं जाणवू, नहिंतर ज्ञानवडे जो पोतार्नु दीर्घ आयुष्य जाणे तो साधुनो वेषज अंगीकार करे) ए पाठ जो के तापसादि वेषवाळाने अंगे छे तोपण तत्व एक होवाथी गृहस्थलिंगना संबंधमां पण उपयोगी छे. . . माटे सार एज छ के गृहस्थने पण मोक्ष छे एवा विचारथी गृहजंजाळ नहिं छोडी साधुपणुं नहिं स्वीकारनार गृहस्थने मोक्ष होइ शके नहिं. २ अहिं तापसादिना वेषमां मोक्ष कह्यो ते संबन्ध १ न. बरनी स्फुटनोटमा आपेला शास्त्रपाठथी यथायोग्य विचारवो. अर्थात् सार एज छे के तापसादिना वेषे मोक्ष होवाथी ताप. सादिनी धर्म पण मोक्ष आपनार छ एम न जाणवु. पुनः आ उपरथी एम पण समजवु जोइए के जैन धर्ममां मात्र (जातिथी) जैनने ज मोक्ष होय एवो आग्रह नथी पण जैन सिवायना बीजा तापस वगेरे अन्य धर्मीओने पण (=अन्यजातिवाळाओने पण ) मोक्ष होय एम मानेलं छे मोटे ए वात प. रथी जनधर्मनु निष्पक्षपातपणु स्पष्टरीते जाहेर थायछे. काछे के सेयंवरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभाविअप्पा, लहइ मुक्ख न संदेहो ॥ १॥. ( संबोधसप्ततिका ) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ॥ मोक्षतत्वे नवद्वारस्वरूम् ॥ (३३१) ८ जीपणाना चिन्हवाळी देहाकृतिए जे मोक्षे जाय ते स्त्रीलिंगसिड ( अर्थात् खीओ मोक्षे जाय ते स्त्रीलिंग सिद्ध.) ५ पुरुषपणाना चिन्हवाली देहाकतिए जे मोसे जाय ते पुरुषलिंग सिद्ध ( अर्थात् पुरुषो मोक्षे जाय ते पु० लि. सिद्ध) १० नपुंसकपणाना चिन्हवाळी देहाकृतिए जे मोक्षे जाय ते नपुंसकलिंगसिद्धे ( अर्थात् कृत्रिम नपुंसको जे मोक्षे जाय ते ननपु० लिंग सिध्ध.) ११ संध्या समयना वादळना रंगो बदलावाथी. संसारमा तेवा तेवा प्रकारनी चीजोनां तेषां तेवां स्वरुप देखीने इत्यादि निमित्त पामीने वैराग्य भावना प्रकटतां केवळज्ञान पामी मोक्षे जाय ते प्रत्येकबुध्धसिध्ध. ( अहिं गुरुना उपदेशनो अभाव छे.) १२ गुरुना उपदेश विना तथाप्रकारे कर्म पातळां पडवाथी कंइपण निमितविना पोतानेज संसार स्वरुप असार लागवाथी वैराग्यभावना प्रकटतां केवळ ज्ञान पामी मोक्षे ज़ाय ते स्वयंबुध्धसिध्ध कहेवाय. अर्थः- श्वेताम्बर होय के दिगम्बर होय. बौद्ध होय के बीजा कोइपण धमवाळो होय तोपण जो समभावधडे (-सर्वज्ञोक्तरीते समताभावघडे ) वासित आत्मावाळो होयतो मोक्ष पामे एमां संदेह नथी. १-२-३ बी त्रण प्रकारनी छे -१ वेदस्त्री-२ लिंगस्त्री-ने पथ्यस्त्री. त्यां जे वखते पुरुषसंगमनो अभिलाष वर्ततो होय ते वखते वेदस्त्री कहेवाय. तथा योनिस्तन वगेरे चिन्हो युक्त ते लिंगनी, अने बीनो वेष पहेरेला पुरुषादि ते नेपथ्यबी कहेवाय, ए त्रण भेदमांथी नेपथ्यस्त्री अने लिंगस्त्री मोक्षे जाय ( परन्तु वेष अप्रमाण मानवाथी शास्त्रमा लिंगस्त्रीरूप एक ज भेदमां मोक्ष कयो छे. १) पण वेदना उदयवाळी घेदस्त्रीने मोक्ष होय नहिं, ए प्रमाणे पुरुष तथा नपुंसकना संबंधमां पण विचारवं. ४-५ प्रत्येकबुद्ध भने स्वयंबुद्ध मां विशेष तफावत बोधि-उपधि-ज्ञान-ने वेष संबन्धि छे ते आ प्रमाणे Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३२) ॥श्री नवतत्व विस्तरार्थ ॥ योधिभेदः-स्वयंबुद्ध बाधनिमित्त विनोज जातिस्मरणादिकवडे बोध पामे छे ते तीर्थकरने अतीर्थकर एम बे प्रकारना छे, परन्तु अहिं चालु अधिकारमा अतिर्थकर स्वयंबुद्ध स्वयंबुद्ध सिद्ध तरीके गणवा. तथा प्रत्येकबुद्ध वृषभादि धाशनिमि. त्तथी बोध (-वैराग्यादि ) पामे छे. ने प्रत्येक एटले एकला विहार करे छे पण प्रत्येकबुद्ध प्रत्येकबुद्धनी साथे वा अन्यसा. थे गच्छवत् एकठामळी विहार करता नथी.. उपधिभेदः - स्वयंबुद्ध ने पात्रादिक उपधि १२ प्रकारनी ज होय छे, ने प्रत्येकबुद्धने जघन्यथी बे प्रकारनी ने उत्कृष्टथी प्रावरण सिवाय ९ प्रकारनी उपधि होय छे. श्रुतभेदः- स्वयंबुद्ध ने श्रुतज्ञान होयतो पूर्वाधित (-पूर्वभवमा भणेलु ) श्रुतज्ञान ( जातिस्मथी) होय अन्यथा न होय. वळी जो पूर्वाधीत श्रुतज्ञान होयतो साधुवेष देव आपे अथवा गुरुपासे जइने पोते ग्रहण करे, अने एकल विहार करवा ने समर्थ होय अथवा तेवी इच्छा होय तो एकल विहार करे नहिं. तर गच्छवासमां रहे. अने जो पूर्वाधीतश्रुत न होय तो निश्चय गुरुपासे जइनेज साधुवेष अंगीकार करे अने गच्छमां ज रहे. तथा प्रत्येकबुध्धने तो जघन्यथी ११ अंग ने उत्कृष्टथी किंचित् न्यून १० पूर्व जेटलं पूर्वाधीतश्रुत होय... वेषभेदः-स्वयंबुद्धने वेष देव आपे अथवा गुरुपासे जइ. ने ग्रहण करे, अने प्रत्येकबुध्धने देव ज वेष आपे अन्यथा वेष रहित पण होय [ इत्यादि वर्णन श्री नन्दीसूत्रनी चूर्णी तथा श्री प्रज्ञापना वृत्तिमा छे. ) पुनः स्त्रीयाने प्रत्येकबुध्धपणुं होतु नथी. श्री नवतत्वावचूरीमां का छे के - तस्मिन् स्त्रीलिंगे वर्तमानाः संतो ये सिध्धाः प्रत्येकबुध्धवर्जिताः केचित् स्त्रीलिंगसिध्धाः (-ते स्त्रीलिं. गमां वर्तता छता प्रत्येकबुध्ध सिवायना जे कोइ मोक्षे गया ते स्त्रीलिंगसिध्ध कहेवाय छे. ) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षत वेनवद्वारस्वरूपम् ॥ ( ३३३ ) १३ बुध्ध एटले गुरु वगेरेना बोहिय-बोध पामेला अर्थात् जेने गुरु आदिकना उपदेशथी संसारनुं स्वरुप असार लागतां वैराग्यभावना प्रकट थवाथी केवळज्ञान प्राप्त करी मोक्षे गया होय ओ बुध्धबोधितसिध्ध. १४ जेओ १ समयमा एकज मोक्षे गया होय परन्तु ते समये aat द्वीपात्मक मनुष्यक्षेत्रमांथी बीजो कोइ पण जीव मोक्षे न गयो होय तेवा जीवो एकेसिध्ध. १५ तथा ? समयमा जे अनेक जीवो समकाळे मोक्षे गया होय ते सर्व जीवो अनेके सिध्ध कहेवाय. १-२ एक समयमा जघन्यथी १ ने उत्कृष्टथी १०८ जीवो मोक्षं जाय छे. तेमां पण एवो नियम छे के १ थी ३२ सुधीनी संख्यावाळा जीवो लागलागट आठ समय सुधी मोक्षे जाय ने नवमे समये अवश्य अन्तर पडे अर्थात् विवक्षित समये १ जी. व मोक्षे गयो. पुनः बीजे समये १ जीव मोक्षे गयो, पुनः त्रीजे समये १ जीव मोक्षे गयो, ए रीते यावत् आठमा समय सुधी एकेक जीव मोक्षे जाय त्यारबाद नवमे समये कोइपण न जाय ए प्रमाणे बे बे-त्रण त्रण यावत् बत्रीस बत्रीस जीव लागलागट आठ समयसुधी मोक्षे जाय ने नवमे समये कोइपण मोक्षे न जाय. पुनः ३३ थी ४८ सुधीनी संख्यावाळा जीवो लागलोगट ७ समय सुधी मोक्षे जाय ने आठमे समये कोइ - पण न जाय, तथा ४४ थी ६० सुधीनी संख्या ६ समयसुधी, ६१ थी ७२ सुधीनी संख्या ५ समयसुधी, ७३ थी ८४ सुधीनी संख्या ४ समयसुधी, ८५ थी ९६ सुधीनी संख्या ३ समयसुधी ९७ थी १०२ सुधीनी संख्या २ समय सुधी ने १०३ थी १०८ सुधोनी संख्या १ समय सुधी मोक्षे जाय ने त्यारबाद अवश्य कोइ पण मोक्षे न जाय. ३ पुनः सिध्धना जे १५ भेद का ते कया कया जीवो मोक्ष पामी शके ते विशेष स्पष्ट समजी शकाय ते कारणथी छे एम श्री प्रज्ञाप०जीमां कछु छे अन्यथा परस्पर अन्तर्गतपर्णु Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री नवश्वविस्तरार्थः॥ अवतरणः-पूर्व गाथामां जे १५ प्रकारना सिध्ध कडा तेमां जिनसिध्ध वगेरे कोण कहेवाय ? ते दर्शवे छे. त्यां प्रथम आ गाथामां जिनसिध्ध-अनीनसिध्ध--तीर्थसिध्ध--ने अतीर्थसिध्व ते कोण ? ते कहे छे. ॥ मूळ गाथा ५६ ॥ जिणसिद्धा अरिहंता, अजिणसिद्धाय पुंडरियपमुहा । गणहारितित्थसिद्धा, अतित्थसिद्धा यमरुदेवी ॥५६।। होवाथी सिध्धना १५ भेद थइ शके ,नहिं पण वास्तवीकरीते नीचे प्रमाणे सिध्धपरमात्माना बे अने त्रण भेद पडी शके ते आ प्रमाणे - सिध्धना २ भेद- जिनसिध्ध-अजिनसिध्ध अथवा तीर्थसिध्ध-अतीर्थसिध्ध, अथवा एकसिध्ध-अनेकसिध्ध एम त्रण रीते बे बे भेद थइ शके छे. सिध्धना ३ भेद-गृहलिंगसिध्ध-अन्यलिंगसिध्ध-स्पलिंगसिध्ध, अथवा स्त्रीलिंगसिध्ध-पुरुलिंगसिध्ध ने नपुंसकलिंगसिध्ध, अथवा स्वयंबुध्धसिध्ध प्रत्येकबुध्धसिध्ध-ने बुध्धबोधितसिध्ध. ___ए प्रमाणे प्रत्येक सिध्धने ६-६ भेद होइ शके छे-जेम के श्वी महावीरस्वामि मोक्षे गया तो तेओ जिनसिध्ध छे. तीर्थसिध्ध छे, स्वलिंगसिध्ध छे, पुरुषलिंगसिध्ध छे, स्वयंबुध्धसिध्ध छे, ने पोते एकला मोक्षे गया छे माटे एकसिध्ध पणछे ए रीते मरुदेवामाता अजिनसिध्ध-अतीर्थसिध्ध-गृहलिंगसिध्ध स्त्रीलिंगसिध्ध स्वयंबुध्धसिध्ध-ने प्रायः अनेक सिध्ध छे. इ. त्यादि रीते एकसिध्धमा सिध्धना १५ भेदमांनो एकज भेद होय तेम नहिं पण वधुमां वधु ६ भेद होय. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥मोक्षतत्वेनवद्वारस्वरूपम् ॥ (३३५) ॥ संस्कृतानुवादः॥ जिमसिध्धा अरिहंता, अजिनसिध्धाश्च पुंडरीकप्रमुखाः। गणधारिणस्तीर्थसिध्धा, अतीर्थसिध्धा च मरुदेवी ॥५६॥ ॥शब्दार्थः॥ जिणसिध्धा--जिनसिध्ध गणहारि--गणधरो अरिहंता:-तीर्थंकरो तित्थसिध्धा--तीर्थसिध्ध अजिणसिध्धा--अजिनसिध्ध अतित्यसिध्धा--अतीर्थसिध्ध पुंडरिय--पुंडरिक गणधर . मरुदेवी--मरुदेवा माता पमुहा--वगेरे गाथार्थ:-श्री तीर्थकरो ( मोक्षे जाय ते ) जिनसिध्ध, अने पुंडरिक गणधर वगेरे अजिनसिध्ध, सर्व गणधरो तीर्थसिध्ध, अने मरुदेवा माता अतीथसिध्ध कहेवाय. विस्तरार्थ:-अरि एटले रागद्वेषादिरुप शत्रुने हंत एटले हणनार ते अरिहंत सर्व केवळिभगवान कहेवाय छे, परन्तु अ. हिं अधिकारना वशथी सर्व केलि भगवान नहिं पण श्रीतीर्थकर भगवानज अरित गणाय छे, तेवा तीर्थंकर परमात्माओ जे मोक्षे जाय ते जिन सिध्ध ( जिन तीर्थंकर ए अर्थ होवाथी) कहेवाय. तथा श्री आदीश्वर भगवानना मुख्य गणधर श्री पुंडरीक गणधर इत्यादि जेओ नीर्थंकर पदवीने नहिं पामेला मोक्षे गया होय ते सर्व अजिनसिध्ध. ___ तथा श्री गणधर वगेरे जेओ तीर्थनी ( चतुर्विध संघनी) स्थापना थयाबाद मोक्षे गया होय ते सर्व तीर्थसिध्ध कहेवाय. अहिं श्री गणधर महात्माओ अवश्य तीर्थ स्थपाया बादन मोक्षे जाय एवो नियम होवाथी बीजा जीवोने तीर्थ सिध्धपणे नहि दर्शावतां मात्र श्री गणधरोनेन तीर्थसिध्ध कह्या छे. परंतु एथी मात्र गणरोज तीर्थसिध्ध होय ने बीजा न होय एवो Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३६) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ नियम नथी, परन्तु जे कोइ जीव तीर्थस्थपाया बाद मोले जाय ते तीर्थसिध्ध कही शकाय. तथा श्री आदीश्वर भगवाननी माता श्रीमरुदेवा वगेरे जेओ तीर्थ स्थपाया हेलां मोक्षे गयेल होय ते अतीर्थसिध्ध कहेवाय. १ श्रीऋषभदेव भगवानने केवळ ज्ञान थयु ते वखते सर्व इन्द्रादि देवो केवळ ज्ञाननो महोत्सव करवा तथा श्रीभगवंतनी देशना सांभळवाने आव्या ते वखते देवो समवसरण वगे. रेनो घणो आडंबर करी उपदेश श्रवण करता हतो. ते दरम्यानमां भरतचक्रवर्तीने खबर मळतां तुरत ज पुत्रना विरहथी रात्री दिवस रुदन करी अन्ध थयेला मरुदेवा माताने शान्ति उपजाववा का' के हे मातुश्री? आप तो रात्रिदिवस शोक करोछो के मारो पुत्र ऋषभ क्या हशे ? शुं खातो हशे ! शुं : पीतो हशे ! केवु कष्ट वेठतो हशे, परन्तु हवे चालो के आपना पुत्रनी केवी ऋद्धि छे ते दर्शावं. आ खबर मळतां तुरत ज मरुदेवा माता हर्षवान् थइ भरते शणगारेला हाथी पर बेसी ऋषभपुत्रने मळवा परिवार सहित जायछे ने म. वसरणमां तो हजी देशना देवायछे, ते वखते ' इन्द्रो वासळी आदिथी प्रभुनो स्वर पूरेछे, देवो दुन्दुभि वगाडेछे इत्यादि म. हामहोत्सव सांभळी मरुदेवा माता मार्गमां ज विचार करे छे के अहो ? हु पुत्र पर आटलो बधो प्रेम राखु छु छतां पुत्रतो आटला बधा सुखमां मग्न थइ मारी खबर पण नथी लेतो ! अने संदेशो पण नथी कहावतो ! खरेखर आ मारो मोह बहु दुःखदायी छे, संसारमा कोइ कोइर्नु संगु नथी इत्यादि भाषना भावतां मार्गमांज श्रीमरुदेवा माताने केवळज्ञान उत्पन्न थ यु ने आयुष्य पण अन्तर्मु० मात्र वाको रह्य हतुं तेलुं अलए आयुष्य पूर्ण करी मार्गमां हाथी उपर बेठां बेठांज मोशे गयां अहिं संघनी (-तीर्थनो ) स्थापना तो हजी देशना समा.. प्त थया बाद करवानी छे, परन्तु ते पहेलांज मरुदेवा माता मोक्षमां गयां माटे अतीर्थसिद्ध छे. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतत्त्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ (३३७) अवतरण-आ गाथामां गृहस्थलिंगसिध्ध आदि दृष्टान्त दर्शावे छे, ॥ मूळ गाथा ५७ मी,॥ हिगलिंगसिद्ध भरहो, वक्कलचीरी य अन्नलिंगम्मि सह सलिंगसिद्धा, थीसिद्धा चंदणापमुहा ॥ ५७॥ . ॥ संस्कृतानुवादः॥ गृहालगसिध्धो भरतो, वल्कलचीरी चान्यलिंगे। साधवः स्वलिंगसिध्धाः, स्त्रीसिध्धाश्चंदनाप्रमुखाः ॥५७ ॥ शब्दार्थ: गिहिलिंगसिध्ध-गृहस्थलिंग- | साहू-सर्व साधुओ सिध्ध | सलिंगसिध्या-स्वलिंगसिध्ध भरहो-भरतचक्रवर्ती · थीसिध्धा-स्त्रीलिंगे सिध्ध वक्कलचीरी-वल्कलचीरी | चंदणा-चन्दनवाला अन्नलिंगम्मि-अन्यलिंगे सिध्ध | पमुहा-वगेरे .. गाथार्थ:-भरत चक्रवर्ति गृहस्थलिंगे सिड, वल्कलचीरी प्रश्नः-अहीं अतीर्थपणुं बे प्रकारचें होय छे, १ अवसपिणी अथवा उत्सर्पिणीकाळमां प्रथम तीर्थंकर प्रभुनुं तीर्थ स्थपायु न होय त्यां सुधी २ तीर्थकर भगवानद् तीर्थ स्थपाया बाद विच्छेद पाम्यु होय अमे नवु तीर्थ स्थपायुं न होय त्यांसुधी तेमां अहिं मरुदेवा माता तो प्रथमभेदे अतीर्थसिद्ध छे त्यारे बोजा कोइ जीवो बीजे भेदे अतीर्थ सिद्ध होय के नहि ? उत्तर-पूर्व भगवाननुं तीर्थ विच्छेद पाम्या बाद ने आ. गळना भगवान नवु तीर्थ स्थापे ते प्हेलां पण अनेक जीवो जातिस्मरणादि ज्ञानथी वैराग्य पामी मोक्षे जाय छे तेओ प. ण अतीर्थसिद्ध ज कहेवाय एम श्री प्रज्ञापनावृत्तिमां कह्य छे Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३८) ॥श्री नवतस्वविस्तरार्थः ॥ ( तापस ) अन्यलिंगे सिद्ध, सर्व साधुओ [ जैन मुनिओ) स्वलिंगसिद्ध, अने चन्दनबाळा वगेरे स्त्रीलिंगे सिद्ध कहेवाय, विस्तरार्थः-गृहस्थवेषे सिध्ध ते श्रीऋषभदेवना पुत्र भ. रतचक्रवर्ति वगेरे जाणवा, कारणके श्रीभरतचक्रवर्ति सर्व शणगार सहित थइ आरिसा भुवनमां बेठा हता ते वखते आंगळीमांथी वीटी पडी जतां ते आंगळी आरिसानी अंदर बीजा अंगनी अपेक्षाए शोभा रहित बेडोळ देखावा लागी, त्यारै लघुकर्मीपणाने लइने एवी भावना प्रगटी के अहो आ अंग परवस्तुवडे करीनेज शोभीतुं छे इत्यादि भावना वृद्धि पामतां केवळज्ञान प्राप्त थयुं, ने त्यारबाद कंइक मुदत सुधी विहार करी मोक्षे गया, ___ तथा प्रसन्नचंद्र राजर्षिना भाइ वल्कलचीरी पोताना तापसपितानी पासे वनमा रहेता हता ने वल्कल एटले झाडनी छालनुं चीर एटले वस्त्र पहेरता, माटे वल्कलचीरी नाम पडयुं हतुं, ते वल्कलचीरी एक दिवस पोताना तापस पितानी तुंबडी वगेरे उपकरण देखीने चितववा लाग्या के-आq पात्र में कोइ वखत पहेलां पण देख्यु छे, एम चिंतवतां चिंतवतां जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयुं ने तेथी पोते पूर्वभवमां जैन मुनिवेषे चारित्र पाल्यानु वृत्तान्त विचारतां भावना भावतां केवलज्ञान पाम्या ने त्यारबाद मोक्षे गया, तेमज श्री गौतमस्वामिए अष्टापद पर १५०० तापसोने अक्षीणमहानसी लब्धिथी क्षीर जमाडी उपदेश आपतां ते सर्वे केवळज्ञान पाम्या हता तेओ पण अन्यलिंगसिद्ध ज कहेवाय. ___तथा सर्व सर्वज्ञोक्त साधुवेपने अङ्गीकार करी जेओ मोक्षे गया ते स्वलिंगसिद्ध कहेवाय. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतत्त्वे नवहारस्वरूपम् ॥ (३३९) . तथा चंपा नगरीना दधिवाहन राजानी पुत्री वसुमती के जे शतानीक राजानी चहाइयी चंपा नगरी भागतां:केद पकडाइ अने आखरे कौशाम्बी नगरीमा धनावह श्रेष्ठिए ते राजपुत्रीने वेचाती लइ तेनुं चन्दना नाम राख्युं अने त्यांते शेठनी मूला नामनी स्त्रीए शोक्य थवाना भयथी माथु मुंडावी बेडीमां नांखी हती,छेवटे श्रीम. हावीर स्वामिभगवाननो अडदना बाकळानु अति उत्सुकता पूर्वक दानापी अभिग्रह पूर्यो हतो ते चन्दनबाळा श्रीमहावीर स्वामिनी मुख्य साध्वी हती,ते पोतानी शिष्या(चेली)मृगावती सहित श्री महावीरप्रभुनी देशना सांभळवा आवेल हती ते अवसरे चन्द्र सूर्य मूळ विमाने वंदना करवा आवेल होवाथी संध्या समय थइ जवा छतांपण मृगावतीनीने खबर पडी नहिंने चन्दनबाला तो प्रवीण होवाथी उपासरे गयां, त्यारबाद चन्द्र सूर्य जवाथी अंधकार व्याप्त थतां मृगावतीजी पण भय पाम्या छतां शीघ्र उपाश्रये आव्या, त्यां गुरु चंदनवाळाए सहज ठपको आप्यो के आटलं असुर थतां सुधी त्यां बेसी रहे, तमारा सरखा कुलीन साध्वीने उचित नथी ए उपालंभने शीखामणरूप गणी गुरुश्री पासे पोतानो अपराध वारंवार खमावे छे ते दरम्यानमां च. न्दनबाळा साध्वी निद्रावश थयेल छ, अहिं मृगावतीजीने पोताना अपराधनो पश्चात्ताप करतां केवळज्ञान उत्पन्न थयु. जेथी गुरुनी हाथ नजीकथी सर्प जतो देखी गुरुनो हाथ खसेडयो, जेथी चंदनबाला जागी उठ्याने कारण पूछवाथी सर्पनी बात कही त्यारे चंदनबालाए कडंके तने अंधकारमा सर्पनी केम खवर पडी?मृगावतीए कयुके "गुरु प्रसादथी,"त्यारे चन्दनबालाए कह्युके शुं तमने केवळज्ञान थयुंछे?तोपण मृगावतीए एज जवाब आप्यो त्यारे मृगा वतीजीने खमावतां चन्दनबालाने पण केवळज्ञान उत्पन्न थयु, ए प्रमाणे चन्दनबाळा वगेरे जे मोक्षे गयां ते स्त्रोलिंगसिध्ध कहेवाय, १ अहिं दिगम्बर संप्रदाय एम कहे छे के स्त्रीने मोक्ष Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४०) ॥ श्रीनवतस्त्वविस्तरार्थः ॥ अवतरण-आ गाथामां पुरुषलिंग सिध्ध वगेरेना दृष्टांत कहेछे. ॥ मूळ गाथा ५८ मी, पुंसिधा गोयमाई, गांगेयाई नपुंसया सिध्धा । पत्तेयसयंबुधा, भणिया करकंडु कविलाइ ॥५८॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ पुरुषसिध्धा गौतमादयो, गांगेयादयो नपुंसकाः सिध्धाः । प्रत्येकस्वयंबुध्धा, भणिताः करकंडकपिलादयः ॥१८॥ ॥शब्दार्थः ॥ . . पुंसिध्धा-पुरुषलिंगे सिध्ध । पत्तेय- प्रत्येकबुध्यसिध्ध . गोयमाई--श्रीगौतमस्वामि वगेरे| सयंबुध्धा--स्वयंबुध्धसिध्ध गांगेयाई --गांगेय (मुनि)वगेरे | भणिया-कह्या छे, नपुंसया-नपुंसकलिंगे करकंडु-करकंड मुनि सिध्धा--सिध्ध थया कविलाई कपिलमुनि वगेरे ___ गाथार्थः-श्रीगौतमस्वामि वगेरे पुरुषलिंगे सिद्ध (कहेवाय) गांगेय विगेरे नपुंसकलिंगे सिध्ध थया कहेवाय तथा करकंडुमुनि वगेरे प्रत्येयबुद्धसिद्ध, अने कपिल केवली वगेरे स्वयंवुद्ध सिद्ध कहेवाय, विस्तरार्थः-श्री गौतम गणधर श्रीमहावीर भगवानना शिष्यहता होय नहि, कारणके स्त्रीने वस्त्रपरिग्रह अवश्य होय छे. ने परिग्रहीने मुक्ति होय नहिं. पण ते तद्दन अयुक्त छे, कारण संयमना साधन भूत उपकरण ते परिग्रह कही शकाय नही. परन्तु ' मुच्छा परिग्गहो वुत्तो'- मूर्छा एज परिग्रह . माटे वस्त्रादि उपर अममत्व भाववाळी स्त्रीने मोक्ष थवामां कोई प्रकारे हरकत नथी इत्यादि घणो वाद शास्त्रान्तरथी जाणवो Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ॥ मोक्षतत्त्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ [३४१] ते अने बीजा अनेक गणधरो तथा जीवो पुरुषलिंगे सिध्ध थयाछे. ___ गांगेय विगेरे नपुंसकलिंगे सिद्ध थया छे. अहीं नपुंसक ते कृत्रिम नपुंसक समजाय छे कारण जाति नपुंसकने मुक्ति होय नही तेम घणे स्थले देखाय छे, ___ तथा करकंडु वगेरे जेओ वृषभादिक बाह्य निमित्तवडे वैराग्य पामी मोक्षे गया ते प्रत्येकबुद्धसिद्ध, अहिं करकंडुनु संक्षिप्त स्वरूप आ प्रमाणे-चंपा नगरीना दधिवाहन राजाने चेडा राजानी पुत्री पद्मावती नामनी स्त्री हती तेना गर्भनो दोहद पूग्वाने राजा स्त्रीसहित हस्ती पर बेसी वनमां गयो ते वखते प्रथम दृष्टि थवाथी पृथ्वीमाथी गंध ऊछळवाने लइने मदमां आवेला हस्तिना नाशवाथी राजा वडवृक्षनी वडवाइए लटकी त्यांथी पोताने नगरे आव्यो अने राणी वडवाइने पकडी शकी नही, हाथी तृषातुर थवाथी चालता चालतां घणे दूर एक मोटा अरण्यना तलावमा पेठो राणी अवसर जोइ हाथी उपरथी उतरीने तलावने कांठे आवी अने सागारिक अणसण करी वनमां चालतां पोताना पिताना भाइ तापसे नगरमा पहोंचाडी अने कामभोगथी निर्वेद पामेली राणीए साचीनी पासे जइ दीक्षा लेवानी इच्छाथी गर्भ विनानो वधो पोतानो वृत्तान्त कही दीक्षा अंगीकार करी. त्यारबाद प्रसव समय नजीक आव्याथी गुरुणीने छूपी रीते पोतानी वात जणावी, अने १ अहीं गांगेय नामथी भिष्म पितामहनी प्रसिद्धिछे,पण तेतो " पांडवचरित्र" विगेरेमा बारमे देव लोके गया छे, वली श्री भगवतीजीना नवमा सातकमां भंगजालादि प्रश्नो पूछनार गांगेयमुनि छे, परन्तु तेमने नपुंसकसिद्ध तरीके जणाव्या नथी माटे बीजा कोइ गांगेय होवा जोइए अथवा गांगेय (भिष्मपि. तामह)नी माफक कृत्रिम नपुंसक थया छतां जे मोक्षे गया ते नपुंसक सिद्ध जाणवा, आ प्रमाणे समजायछे तत्त्व केयलिगम्य, Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४२) ॥ श्री नवतचविस्तरार्थः ॥ छुपी रीते ते पद्मावती साध्वीर पुत्रने जन्म आप्यो ते पुत्रने तेना पिताना नाम वाली मुद्रिका पहेररावी रत्नकंबलमां वींटी स्म शानमा मूकी कोण उपाडी जाय छे ते जोवा छुपी रही, तेवामा स्मशानना मालीके ते पुत्रने उपाडी पोतानी स्त्रीने सोंप्यो ते चांडालनी पाछळ पाछळ जइने ते चांडालनु घर जोइ उपाश्रये साध्वी आव्या अने गुरुणीजीने कहथु के मने तो मरेलु बाळक जम्युं हतुं, त्यारवाद कंइक बहानुं काढी निरन्तर साध्वी ते बालकने रमाडी आवे छे. ए बालकनुं नाम अवकणक राखेल छे, पण मोटो थया बाद बाळकोनी साथे राजक्रीडा करतां बाळको पासे कर मागे छे, त्यारे बाळको कहे छे के करमां अमे शुं आपीए ! त्यारे अवकर्णके कहयुं के मने कंडू (-चळ ) घणी थाय छे माटे तमारा करवडे खंजवानो तो बीजो कर नहिं मागं ए प्रमाणे करना बदलामां खंजवालता बाल. कोए तेनुं नाम करकंडू पाडयु. ते बालक अनुक्रमे एक दंडनाप्रभावे राज्य पाम्यो ने आज्ञा नहिं माननार दधिवाहन ( पोता. ना पिता ) पर चडाइ करी चम्पानगरो घेरी ते वखते परस्पर महा युद्ध थयुं पद्मावती साध्वीए लडाइ बन्ध पाडी पुत्र पितानी अने पोतानी ओळखाण करावी जेथी दधिवाहने पोतार्नु राज्य पण करकंडुने सौंपी अने दीक्षा लीधी हवे करकंडु राजाए गवलीना वाडामां एक सारो लक्षणवाळो नानो वाछरडो देखीने गवलीने हुकम आप्यो के आ वायरडाने पोता. नी मा बधुं दूध पीवा देवू पण दोहवी नहि, तेमन बीजी गायोनुं दूध पण पीवडाव_ आ प्रमाणे गवलीए करवाथी ते वाछरडो महा तेजस्वी स्वरूपवाळो मदोन्मत्त बळद थयो. राजा तेने जोइ बहु आ नन्द पामे छे. हवे केटलेक दिवसे ते बळद वृद्धावस्थाथी जीर्ण देहवाळो कद्रपो अने हाडमात्र कायावाळो थइ गयो ते बखते राजाए Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ॥मोक्षतत्त्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ (३४३) तेने देखतां गवलीने दूध नहिं आपतो होय एम धारी ..ठपको आप्यो त्यारे गवलीए तेनी वृद्धावस्था जणावी, करकंडु राजाने एकदम भावना प्रगटी के शुं आटला उपायोथी पुष्ट करेली कायानी अन्ते आज दशा ! इत्यादि भावनाथी वैराग्य पामी स्वतः लोच करी देवे आपेलो मुनिवेष ग्रहण करी प्रत्येकबुद्ध एवा करकंडुराजर्षि पृथ्वीपर विहार करवा लाग्या अने अनुक्रमे मोक्षे गया ए प्रमाणे द्विमुख राजर्षिने इन्द्रध्वजनी कफोडी स्थिति देखोथी, अने श्रीनमि राजर्षिने पोतानी स्त्रीओनां घणां ककणोनो खडखडाट ( ग्लान अवस्थामां ) सहन नहिं थतां स्त्रीओए वधु कंकणो उतारी एकेक कंकण राखता अवाज नहिं थवोथी पोताना आत्माने मुख उपजतां वैराग्य पामी दीक्षा अंगीकार फरी मोक्षे गया. ए सर्व प्रत्येकबुद्धनां चरित्र विस्तरार्थीए श्री उत्तराध्ययनथी जाणवां, " तथा कंइपण बाहय निमित्तनी अपेक्षाविना वैराग्य पामी कपिलादिवत् मोक्षे गया ते स्वयंबुद्धसिद्ध. त्यां कपिलकेलिनु संक्षिप्त दृष्टान्त आ प्रमाणे-कौशम्दी नगरीमां जीतशत्रु राजाना काश्यप नामनो पुरोहितनो पुत्र कपिल नामे अभण होवाथी रा. जाए पुरोहितना मरणवाद काश्यपना पुत्रने पुरोहित पदवी नहिं आपतां बीजाने आपी तेथी कपिलनी माताए कपिलने घणो ठपको आपी श्रावस्ति नगरीमा काश्यपना मित्र इन्द्रदत्त ब्राह्मणने त्यां अभ्यास करवा मोफल्यो त्यां. कपिल एक श्रेष्टिने घेर निरन्तर जमी इन्द्रदत्त पासे अभ्यास करे छ, केटलेक दिवसे शेठने घेररहेली दासीसाथे कपिले प्रीति बांधी,परन्तु निर्धनपणाने लइने ते दासी दासोमहोत्सवना दिवसोमां शोकातुर थवाथी कपिले शोकनु कारण पूछवाथी दासीए निर्धनपणानुं कारण दर्शावी धन Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · (३४४) ॥ श्री नवव विस्तरार्थः ॥ प्राप्तिनो उपाय दर्शान्यो के आ नगरमां धन नामनो शेठ सवारमां जे प्रथम जगाडे तेने वे मासा ( - ५ वाल अधिक) सुवर्ण आपे छे, कपिल बीजो कोइ न जह पहोंचे ते हेलां धनश्रेष्टिने त्यां जवाने उतावळथी मध्यरात्रीए उठीनेज उतावळथी जवा लाग्यो तेथी पोलीसे पकडी राजाने सोंप्यो, त्यां प्रभाते पोतानी सत्य हकीकत जाहेर करवाथी राजाए राजी थह " हारे जे जोइए ते माग" एम कहेवाथी कपिले कहयुं के हुं विचार करीने मागीश एम कही राजा तेने विचारकरवा माटे अशोक बागमां मोकल्यो, त्यो एकान्तमां बेसी विचारे छे के वे मासा सोनुं तो एक वे दिवस चाले माटे १०० सोनैया मागं, पण एटलेथी घर गाडी वगेरे नहि थाय माटे १००० सौनैया मागं, पण तेटलेथी छोकरांना विवाह वगेरे मोटा खर्च नहिं थाय माटे लाख सोनैया मागुं, परन्तु तेटलेथी दीननो उद्धार इत्यादि नहिं थाय ए प्रमाणे आगळ क्रोड - अबज अने आखं राज्य मागवानी इच्छा थतां तुर्त .. ज लघुकर्मीपणाना प्रभावथी विचार पलटायो के अहो ? बे मासा सोनुं मागवाने बदले मारो लोभ क्यां सुधी पहोची गयो ? खरेखर लोभनो पार नथी इत्यादि वैराग्य भावना प्रगटतां तुर्त जातिस्मरण प्राप्त थतां स्वतः लोच करो देवीए आपेलो मुनि वेष अंगीकार करी राजानी आगळ जइ धर्मलाभ आप्यो, राजार कहथुं के शुं विचार कर्यो ? त्यारे क थुंके करोडोनी मागणीनो विचार यो हतो परंतु लोभ अति दुःखद लागवाथी में आ निर्लोभ अंगीकार क इत्यादि कही विहार करतां अनुक्रमे केवळज्ञान पामी राजगृह नगरीना मार्गमां एक अटवीनी अंदर बळभद्रादि५०० चोरोने प्रतिबोध आपका गया त्यां चोरोर कछु के तमने नाचतां आवडे छे ? केवलीए हा कही पण मृदंगादि बगाडवानुं ५०० चो Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... ॥मोक्षतत्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ (३४५) रोए कबुल करवाथी कपिल केवली 'अधुंधे असासयंमि' इत्यादि उपदेशक ध्रुवपदो गावापूर्वक नाच करवा लाग्या, त्यां दरेक ध्रुवपदे थोडा थोडा प्रतिबोध पामतां अनुक्रमे ५०० चोरोने दीक्षा आपी.एप्रमाणे कपिलकेवलि जातिस्मरणथी स्वयंबुद्ध सिद्ध कहेवाय. अवतरण- आगाथामां बुद्धबोधितसिद्ध वगेरेनां दृष्टान्त दर्शावे. ॥ मूळ गाथा ५९ मी;॥ तह बुधबोहि गुरुबा-हिया इगसमय इगसिध्धा य इगसमएऽवि अणेगा, सिध्धा तेऽणेग सिधा य ॥५ ... ॥ संस्कृतानुवादः ॥ तथा बुद्धबोधिता गुरुषोधिता एकसमये एकसिद्धाश्च ॥ एकसमयेऽप्यनेकाः सिद्धास्तेऽनेकसिद्धाश्च ॥ ५९ ॥ शब्दार्थः॥ तह-तथा | इगसमए-एक समयमा बुद्धबोहिय-बुद्धबोधित सिद्ध | अवि-पण गुरुखोहिया-गुरुपासे बोधपामेला अणेगा-अनेक इगसमय-एक समयमा सिद्धा-सिद्ध थया एगसिद्धा-एक सिद्ध थया ते | ते-ते . (एक सिद्ध ) । अणेगसिद्धा-अनेक सिध्या .. गाथार्थः-तथा (जेओ) गुरुपासे बोध पामेला ( मोक्ष गया होय ) ते बुद्धबोधितसिद्ध, एक समयमां एक सिध्ध थया ते १ श्री उत्तराध्ययनना आठमा अध्ययननी गाथाओ. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४६) ॥ श्री नवतत्व विस्तरार्थः ॥ एकसिध्ध, अने एक समयमां पण अनेक सिध्ध थया ते अनेक सिध्ध कहेवाय. विस्तरार्थ:-गुरुए उपदेश आप्याथी बोध पामेला ते श्री जंबूस्वामि वगेरे अनेक जीवो बुध्धबोधित सिध्ध (-बुध्ध एटः ले गुरु आदिकथी बोधित एटले बोध पामेल ) कहेवाय.. .' तथा एक समयमा एकलोजमोक्षे गया होय ते श्रीमहावीरस्वामि वगेरे एकसिध्ध कहेवाय कारणके श्रीमहावीरस्वामि जे समये मो. क्षे गया ते समये तेमनी साथे कोइपण केवलि मोक्षे गया न. थी. तथा एक समयमां अनेक सिद्ध थया होय तेवा श्रीऋषभदेव विगेरे अनेकसिद्ध कहेवाय, कारणक श्रीऋषभदेव जे समये मोक्षे गया छे ते समये पोताना ९९ पुत्र अने ८ भरतचक्रिना पुत्र मळी १०८ जीवो मोक्षे गया छे, ...आ प्रमाणे पंदरभेदे मोक्ष पामनाराना दृष्टान्ते वताव्या आ नवतस्वनी यथार्थ सद्दहणा करनार जीव सम्यक्त्व पामी परम्पराए सिद्धिपद संपादन करे छे, H asreserevendrentre १ ॥ इति श्रीमोक्षवविस्तरार्थः ॥ १ ॥ तत्समाप्तौ च ॥ * ॥ श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः संपूर्णः ॥ rojme care are a reas Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PER Pos *॥ मोक्षतत्त्वपरिशिष्टम् ॥ _***** ** श्री नवतत्त्वभाष्यादि ग्रन्थोमां सिध्ध परमात्माओने १२ अनुयोगद्वारे वर्णवेला छे, ते आ प्रमाणे १ क्षेत्रद्वार-४५ लाख योजन प्रमाण मनुष्यक्षेत्रमा ज सिध्ध थाय, तेमां पण संहरणथी संपूर्ण मनुष्यक्षेत्रमां, अने जन्मथी १५ कर्मभूमिओमां सिध्ध थाय, त्यां संहरणमुक्ति त्रणे लोकमां द्वीपोंमां ने समुद्रोमां पण छे, अने असंहरण (-जन्म) मोक्ष तिर्यग्ने अधोलोकमांज होय छे.... २ कालद्वार-भरत अने औरवत क्षेत्रमा उत्सर्पिणी काळना त्रीजा अने चोथा आराना जन्मेलां त्रीजा चोथा आरामां मोक्षे जाय, अने अवसर्पिणी काळना त्रीजा चोथा ने पांचमा आरामां मोक्षे जाय पण तेमां पांचमा आरानो जन्मेल जीव पांचमा आरामां मोक्षे न जाय पण चोथा आरानो जन्मेल पांचमे आरे मोक्षे जाय पुनः उत्सर्पिणीना १ ला बोजा पांचमाने छठ्ठा आरामां तथा अव० ना हेला-बीजा-ने छठा आरामां संहरायलाज मोक्षे जाय. अने महाविदेहमा सदाकाळ मोक्षे जाय. ३ गतिद्वार-चार गतिमांथी मनुष्यगतिवाळा ज मोक्षजाय. ४ लिंग-त्रणे लिंगे मोक्षे जाय. अने द्रव्यथी स्वलिंगेअन्यलिंगे-ने गृहस्थलिंगमां पण मोक्षे जाय ( परन्तु भावलिंग जे क्षायिक सम्यक्त्वादि ते तो छएजें एक सरखं ज जाणवू,) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४८) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ ५ तीर्थद्वानं-तीर्थ प्रवां हेला, तीर्थ प्रवर्ततां, ने तीर्थनो विच्छेद थये आंतराओमां, ए त्रणे रीते मोक्षे जाय, ६ चारित्रद्वार-यथाख्यात चारित्रवाळा ( पूर्वभाविनयनी अपेक्षाए ) मोक्षे जाय, (पण वर्तमाननयनी अपेक्षाए सिध्धने चारित्र न होय, ) ७ वुडहार-तीर्थकर अने अतीर्थकर ए बन्ने प्रकारना स्वयंबुद्ध. तथा बाहय निमित्तमात्रथी वैराग्य पामेला प्रत्येकबुद्ध, तथा गुरु आदिकना उपदेशथी बोध पामेला ए त्रणे मोक्षे जाय, ८ ज्ञानद्वार-केवलज्ञानी मोक्षे जाय शेष चार ज्ञानी नहिं. ९ अवगाहनाद्वार-तीर्थकर ज० थी ५०० धनुष्यकायावाळा ने जघ० थी ७ हाथकायावाला मोक्षे जाय, अने सामान्यकेवलि उ० थी धनुष्यपृथत्त्व अधिक ५०० धनुष्य कायावाला, अने जघ० थी वामन एवा कुर्मापुत्रादिवत बे हायनी कायोवाना मोक्षे जाय. १० अन्तर-सिध्धपणे उत्पन्न थवानो विरह काळ जघ० थी ? समय अने उत्कृष्ट ६ मास ( सुधा कोइ मोक्षे ज न जाय.) तथा अनन्तर पणे ( लागलागट ) मोक्षे जाय तो जघन्थी २समय मुधी अने उ० थी ८ समय सुधी ( मोक्ष चालु रहे तदनन्तर अवश्य १ समय पण अन्तर पडे.) ११ संख्याद्वार--१ समयमां जय० थी ? अने उत्कृ० थी १.८ जीव मोक्षे जाय. १२ अल्पबहुत्वं-श्रीसिध्धपरमात्माओनुं अल्पबहुल क्षेत्रादि अनेक भेदे छे ते आ प्रमाणे संहरणथी सिध्ध थयेला अल्प, तेथी जन्मक्षेत्रे सिध्ध थये१ संहरण बे प्रकारे ठे, त्यां विद्याचारण-जंघाचारण अ. Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मोक्षतश्वपरिशिष्टवर्णनम् ॥ (३४९) ला असंख्यगुणा छे. ( अहिंथी दरेक अल्पबहुत्व सिध्ध थबेला जी - वो आश्रयि जाणवुं, पण सिध्ध थता जीवो आश्रयि नहि. ].. ऊर्ध्व लोकमां सिध्ध थयेला अल्प, तेयी अधोलोके असंख्य गुण, ने तेथी पण तिर्य लोके असंख्यगुण. समुद्रमां अल्प, द्वीपोमां असंख्यगुण, उत्सर्पिणीमां अल्प, तेथी अवस० मां विशेषाधिक, तेथी पण उत्स० अवस० रहित काळमां ( महावि० मां ) - असंख्य गुण. तिर्यंचगतिथी आवीने सिध्ध थयेला अल्प, तेथी मनुष्यगति मांथी नारक गतिमांथी - अने देवगतिमांथी आवीने सिध्ध थयेला अनुक्रमे संख्यगुण. नपुं० लिंगे अल्प, तेथी स्त्रीलिंगे संख्यातगुण, ने तेथी पण पुरुष लिंगे सिध्धं थयेला संख्यातगुणा, गृहस्यसिध्ध अल्प, तेथी अन्यलिंग सिध्ध संख्यातगुणा, अने तेथी स्वलिंगसिध्ध संख्यातगुणा, अतीर्थसिद्ध अल्प, तेथी तीर्थसिध्ध असंख्यगुणा, पांच चारित्र स्पर्शी सिध्ध अल्प, सामायिक वर्जचारचारित्र स्पर्शी सिध्ध संख्यात गुणा, तेथी परिहा० वर्जचारचारित्रस्पर्शीसिद्ध संख्यात ने विद्याधरो जे पोतानी इच्छाए अन्यस्थाने जाय छे ते स्व. कृत संहरण अने चारण वा विद्याधर वा कोइ देव अनुकम्पा बुद्धिवडे अथवा वैरभाव वडे उपाडीने बीजे स्थानके मूके ते परकृत संहरण. आ परकृतसंहरण सर्वनुं होतुं नथी का छेके समणि अवगयवेयं परिहारपुलागमप्पमत्तं च । चोहसपुत्र आहारगं च नवि कोवि संहरइ ॥ १ ॥ अर्थ:- साध्वीने, अवेदीने, परिहारविशुद्धि चारित्रीने, पुला लब्धिवाळाने, अप्रमत्तने, चौदपूर्वीने, अने आहार कलforarera कोइपण संहरतु नथी. बोजाओनुं संहरण थाय छे, Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५०) ॥श्रीनवतत्वविस्तरार्थः ॥ गुणा,तेथी सामा० परिहा० वर्जत्रणचारित्र स्पर्शी :सिद्ध संख्यात गुणा, तेथी छेदोपरिहा वजत्रण चारित्रस्पी सिद्धसंख्यातगुणा प्रत्येकबुद्धसिद्ध अल्प, तेणी बुद्धबोधित असं० गुणा, ( गंघहस्तिटीकामां संख्यगुण कह्या छ, )-( अहिं स्वयंबुध्धनु अ. ल्पवहुत्व दर्शाव्यु नथी तेनुं कारण श्रीबहुश्रुत जाणे.) ___ मतिश्रुतज्ञाने सिद्ध थयेला अल्प, तेथी चारज्ञाने सिध्ध थयेला संख्यगुण, तेथी प्रथमना त्रण ज्ञाने सिद्ध थयेल संख्यगुणा (महि त्रणज्ञान मति-श्रुत-अव०, अने मति-श्रुत-मनःप० एम बे प्रकारे छे तेनुं अल्पबहुत्व का नथी पण श्रीसिद्धप्राभृतमां आ प्रमाणे के के-द्विज्ञान पश्चात्कृतसिद्ध अल्प, नेथी चातुर्ज्ञान पश्चात्कृत असं० गुणा, तेथी त्रिज्ञानपश्चात्कृतसिद्ध संख्यगुणा, एमां मति-श्रुत अवधि पश्चात्कृत अल्प, मतिश्रुत पश्चात्कृतसिध्ध तेथी संख्यगुण. मनः प० चतुष्कपर्यन्त पश्चात्कृतसिद्ध असं० गुणा, अहिं अल्पबहुत्वना विसंवादनु तश्च श्रीबहुश्रुतगम्य.) जघन्य अवगाहनाए सिध्ध अल्प, उत्कृ० अवगा० सिध्ध असं० गुणा, तेथी मध्यम अवगाहना सिद्ध असं० गुणा, निरन्तर आठ समय सुधी सिध्ध थयेला अल्प, ने तेथी ७ न्यून न्यून समयो सुधी निरन्तर सिद्ध थयेला अनुक्रमे संख्यातगुणा उत्कृष्ट अन्तरे सिद्ध थयेला अल्प, तेथी जघ० अन्तरे सिद्ध थयेला संख्यातगुणा. तेथी मध्यम अन्तरे सिद्ध थयेला असंख्यगु. णा ( अहिं अन्तर ज० १ समय ने उ० ६ मासरूप ) १ अर्थात् मतिश्रुतज्ञान पाम्या बाद अवधि मनःपर्थव पाम्या विनाज केवळज्ञान पामीने सिद्ध थयेला. २ अर्थात् जेने केवळज्ञान उत्पन्न थया पहेलां मतिश्रुत ज्ञान ज हतां ( पण अव० मनःप) न होतां) एवां. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मोक्षतत्त्वपरिशिष्टवर्णनम् ॥ [३५१] . एक समये १०८ सिद्ध थयेला अल्प, तेथी पश्चानुपूर्वीए ५० मुधी सिद्ध थयेला अनन्तगुणा, त्यांची पुनः पश्चानुपूर्वीए २५ सुधी सिद्ध थयेला असंख्यगुणा, त्यांची पुनः पश्चानुपूर्वीए १ सुधी सिद्ध थयेला संख्यातगुणा ( अनुक्रमे एकेक हीन संख्यामां) जाणवा. मोक्षतत्त्वना भेदो गति-इंद्रिय-कायमार्गणामां __ क्या क्या लाभे ते स्वरूप.. नरकगतिमां०-पूर्व प्रज्ञापनीय भावे (चरमशरीरनी अपेक्षाये) नरकगतिमां मोक्षतचना एक पण भेद न होय कारणके नरकगतिमांथी कोइ जीव मोक्ष पामे नहि.. . तियचगतिमां०--नरकगतिवत् । देवगतिमां-नरकगतिवन मनुष्यगतिमां ९-पूर्वप्रज्ञापनीय भावे मनुष्यगतिमां मोक्षनाश्मेद होय; कारणके मनुष्यगतिमाथीज जीवो मोक्ष पामी शकेछे. एकेन्द्रियथी चतुरि० मां०-नरकगतिवत् पंचेन्द्रियमां ९--मनुष्यगतिवत् पृथ्व्यादि ५ काया--नरकगतिचत् त्रसकायमां ९-मनुष्यगतिवत् Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५२) ॥श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ ॥ समयसिद्धसंख्यायन्त्रकम् ॥ २०-२२ २० ऊर्ध्वलोके उत्स० तृतीयारे अधोलोके ,, १-२-४-५-६ , तिर्यग्लोके अव० तुर्यारे . समुद्रे " पञ्चमारे । अन्यजलाशये " १-२-३-६ प्रतिविजयं । नरलिंगजातनरलिङ्गे नन्दनवने • शेषाष्टभङ्गेषु पंडकवने स्वलिङ्ग प्रतिकर्मभूमि प्रत्यकर्मभूमि ५०० धनुरवगाहे द्विहस्तावगाहे स्त्री लिङ्गे मध्यमावगाहे १०८ | नपुंसकलिङ्क • ॥ इति श्री मोक्षतत्वपरिशिष्टम् ॥ छ अन्यलिङ्गे गृहिलिङ्गे पुरुषति ॥ श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः परिशिष्टयन्त्रादिपरिवृतः परिपूर्णः ॥. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ॥ आँ अहं नमः || नमः श्रीतपोगच्छाधिराजेभ्यः सूरिचक्रसर्वभौमेभ्यः श्रीविजयनेमिसूरिभ्यः ॥ ॥ प्रक्षिप्तगाथापरिकरितं ॥ বও AAA " BETET ॥ श्रीनवतत्त्वप्रकरणम् ॥ Fren MPIRE ANNAN ॥ मूलमात्रम् || जीवाऽजीवा पुन्नं, पावासवसंवरो अ निज्जरणा || बंधो मुषखो अ तहा, नव तत्ता हुंति नायव्वा ॥ १ ॥ चउदस चउदस बाया - लीसा बासीय हुंति बायाला सत्तावन्नं बारस, उ नव भेया कमेणेसिं ॥ २ ॥ ( rafar दुहि तिविहा, चउविहा पंचछविहा जीवा । चेपण तस इवरेहिं, वे गइ करण काहिं १॥ ) ॥ ३ ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५४) ॥ श्री नवतत्त्वप्रकरणम् ॥ एगिदिवसहुमिअरा, संनिअरपणिंदिया य सबितिचउ अपज्जत्ता पजत्ता, कमेण चउदस मिट्ठाणा ॥३॥४॥ (नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य, एथं जीवस्स लक्खणं ॥२॥ ) ॥५॥ ( आहारसरीरइंदिय, पजत्ती आणपाणभासमणे। . चउ पंच पंच छप्पिय, इगविगलासन्निसन्नीणं ॥३॥ ) ६ ॥ ( पणिदियत्तिबलूसा-साउदसपाण चऊ छ सग अट्ट । इगदुति चउरिंदीणं, असन्निसन्नीण नव दस य ॥४॥ ७ ॥ धम्माऽधम्मागासा, तियतियभेया तहेव अध्धा य। खंग देसपएसा, परमाणु अजीव चउदसहा ॥४॥८|| धमाधम्मा पुग्गल, नह कालो पंच हुंति अजीवा । चलणसहावो धम्मो, थिरसंठाणो अहम्मो य ॥५॥९ अवगाहो आगासं, पुग्गलजीवाण पुग्गला चउहा । खंधा देसपएसा, परमाण चेव नायव्वा ॥६॥ १० ॥ ( सबंधयार उज्जोय, पभाछायातवेइय । वन्नगंधरसाफासा, पुग्गलाणं तु लकखण ॥ ५॥) ११ ॥ समयावली मुहुत्ता, दीहा पक्खा य मासवरिसा य । भणिओपलिया सागर, उस्सप्पिणी सप्पिणीकालो७।१२ ( एगाकोडी सत्तसट्ठिलक्खा, सत्तहत्तरी सहस्सा य । दोयसया सोलहिया, आवलिआ इगमुत्तमि ॥६॥) ॥१३॥ (तिनिसहस्सा सत्तय सयाणि, तिहत्तरं च उस्सासा।। एग समुहुत्तो भणिओ, सध्वेहि अणंतनाणीहिं ॥७) ॥१४॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रक्षिप्तगाथापरिकरितं ॥ (३५५) (परिणामि जीवमुत्तं, सपएसा एग खित्तकिरियाय । गिच्च कारणकत्ता, सबगयमियरेहि अप्पवेसे । ८॥ १५ ॥ (दुण्णि य एग एगं, पंचत्ति य एग दुण्णि चउरो य । पंच य एगं एगं, एएसि एय विष्णेयं ॥ ९॥)॥ १६ ॥ सा उच्चगोअमणुदुग-सुरदुगपचिदिजाइपणदेहा । आइतितणणुवंगा, आइमसंघयणसंठाणा ||८॥१७॥ वनचउक्कागुरुलहु, परघाऊसास आयवुजोथ। सुभखगइनिमिणतसदस,सुरनरतिरिआऊतित्थयरं९।१८ ( तस बायर पजतं, पत्तेयथिरं सुभं च सुभगं च । सूसर आएजजसं, तसाइन्सगं इमं होइ ॥ १० ॥) १९ ॥ नाणंतरायदसगं, नव बीए नीअसायमिच्छत्तं । थावरदस नरयतिगं. कसायपणवीस तिरिश्रदुर्ग१०।२० इगबितिचउजाईओ, कुखगइउवघाय हुंति पावस्स । अपसत्थं वन्नचउ, अपढमसंघयणसंठाणा ॥११॥२१॥ ( चक्खुदिहि अचखु, सेसिदिअ ओहिकेयलेहिं च । दसणमिह सामन्नं, तस्लाधरणं तथं चउहा ॥११॥ ) २२॥ (सुहपडियोहा निहा, निद्दानिहा य दुक्खपडिबोहा । पयला ठिओवविद्वस्त, पयलपयला य चकमओ ॥१२॥ )२३ ( दिणचिंतिअत्थकरणी, थोणडी अद्धचक्किअरबला । एवं जिणेहि भणियं, वित्तिसमं दसणावरणं ॥१३॥) २४॥ [ जावजीववरिसचउमास-पख्खगा निरयतिरियनर अमर सम्माणुसचविरइ-अहक्खाय चरित्तघायकरा ॥१४॥] २५ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५६) ॥ श्रीवतश्वप्रकरणम् ॥ ( जलरेणु पुढवीपवय - राई सरिसो चउविहो कोहो । तिणिसलया कट्टि - सेलस्थंभोवमो भाणो ॥ १५ ॥ ) २६ ॥ ( मायावलेहि गोमुत्ति, मिंटसिंग घणवं समूलसभा | लोहो हलिद्दरंखजण - कद्दमकिमिरागसारिच्छो ॥ १६॥ ) २७ ( जस्सुदा होइ जिए, हास रह अरई सोग भय कुच्छा । सनिमित्तमना वा तं इह हासाई मोहणिअं ||१७|| ) २८॥ ( पुरिसित्थतदुभयं पड़ अहिलासो जबसा हवइ सो उ । थीनरनपुंवेउदओ, फुफुमतननगरदाहसमो ॥ १८ ) ॥ २९ ॥ (संघयणमट्ठिनिचओ, तं छडा वज्जरिसहनारायं । " तह रिसहनारायं, नाराये अडनारायं ॥ १९ ॥ ) ३० ॥ (कीलिअ छेव इह रिसहो पट्टो अ कीलिआ वज्जं । उभओ मक्कडबंधो, नाराय इममुलंगे || २० ) ॥ ३१ ॥ ( समरसं निगोहर, साइ३ वामण४ खुज५ हुंडे अ६ । जीवाण छ संठाणा, सवत्थ सुलख्खणं पढमं २१) ॥ ३२ ॥ नाहि उवरि बीओ, तहअमहोपिट्टिउअरउरवज्जं । सिरगीवपाणिपाए, सुलक्खणं तं चउत्थं तु ॥२२ ) ।। ३३ ।। ( विवरीय पंचमगं, सव्वत्थालख्खणं भवे छ । iran भणिया, जिनिंदवरवीयरागेहि || २३ | ) ३४ ॥ ( थावर मुहुम अपज्जं साहारणअथिरअसुभदुभगाणि । दूसरणाइज्जजसे, थावरदसगं विवज्जत्थं ॥ २४ ॥ ३५ ॥ इंदिकसायar - जोगा पंच चउ पंच तिनि कमा किरियाओ पणवीस, इमा उ ताओ अणुक्रमसो १२|३६ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रक्षिप्तगाधापरिकरितं ॥ (३५७) काइय अहिगरणिया, पाउसिआ पारितावणी किरिआ पाणाइवायारंभिअ, परिग्गहिया मायवत्ती अ १३||३७ मिच्छादसणवत्ती,अपञ्चक्खाणा य दिवि पुढी अ । पाडुच्चिअसामंतो-वणीय नेसत्थिसाहत्थी ॥१४॥३८॥ आणवणि विआरणिया, अणभोगाअणवकंखपच्चइआ अन्नापयोगसमुदाण-पिजदोसेरियावहिया ॥१५॥ ३९ समिइ गुत्ती परिसह, जइधम्मो भावणा चरित्ताणि । पणतिगदुवीसदसबार-पंचभेएहिं सगवन्ना ॥१६॥४०॥ (इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिईसु य । . मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती तहेव य ॥ २५ ॥) ४१ (खुहा पिवासा सीउण्हं, दंसाचेलारइत्थीओ। चरिया निसीहिया सिज्जा, अक्कोसवहजायणा ॥२६ ) ४२ ( अलाभरोगतणफासा, मलसकारपरीसहा । पन्ना अन्नाण सम्मत्तं, इय बावीस परीसहा ॥२७॥) ४३॥ ( खन्तीमद्दव अज्जव, मुत्ती तवसं जमे अ बोद्धव्धे । सच्चं सोयं आकि-चणं च बंभ च जइधम्मो ।।२८) ४४॥ ..' (पढममणिञ्चमसरणं, संसारो एगया य अन्नत्तं । । असुइतं आसव, संवरो य तह निजरा नवमी ॥२९॥४५॥ (लोगसहावो बोही, दुल्लहा धम्मस्स साहगा अरिहा । एयाओ भावणाओ, भावेयब्वा पयत्तेणं ॥ ३० ॥ )४६॥ (सामाइयत्थ पढम, छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं, सुहुमं तह संपरायं च ॥ ३१ ॥)४७ ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५८) ॥ श्रीनवतत्त्वप्रकरणम् ॥ (तत्तो अ अक्खायं, खायं सव्वंभि जीवलोगमि । जं चरिऊण सुविहिया, वचंति अयरामरंठाणं ॥३२) ४८॥ (अणसणमूणोयरिया, वित्तिसंखेवणं रसचाओ। कायकिलसोसंलीण-पायषज्झोतव हौद ॥३३॥) ४९ । (पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ।... झाण उस्स गोवि अ, अम्भितरओ तवो होइ ॥३४॥५०॥ [ आलोयण १ पडिक्कमणो २-भय ३ विवेग ४ मुसग्गो ५ तवदच्छेय मूल८अणव-ट्टया य ९ पारंचिए १० चेव ॥३५॥] ॥५१॥ (भत्ती? बहुमाणोर वन-जणणं भासणमवन्नवायस्स४ । आसायणपरिहाणी५, विणओ संखेवओ एसो ॥३६॥ ५२ (नाणस्स दसणस्स य, चरणस्स य तह तिविहजोगस्स विणओ लोगुवयारो, सत्तविहो विसयभेएणं ॥३७॥)।५३ । (भत्ती तह बहुर्माणो, तद्वित्थाण सम्मभावणथं । विहिगहणभासो वि अ, एसो विणओ जिणुद्दियो ३८)५४ सुस्सूसणा अणासा-यणा य विणओ अ दंसजे दुविहो । दसणगुणाहिएसु, कज्जई सुस्सूसणा विणओ ॥३९॥ ५५॥ [ सकारम्भुट्ठाणे, सम्माणासणपरिग्गहे तह य । आसण अणुप्पयाणं, किइकम्म अंजलीगहो अ ॥४०॥]५६ । इन्तस्स हिगच्छणया, ठिअस्स तह पज्जवासणा भणिआ गच्छंताणुव्वयणं, एसो सुस्सूसणाविणओ ॥४॥) ५७ ॥ (तित्थयरधम्मआयरिय--वायगे थेरकुलगणे संघे मंभोइ किरियाए, मइनाणाईण य तहेव ॥४२॥) ५८॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || प्रक्षिप्तगाथापरिकरितं ॥ (आसायणवज्जणया, एएसिं तह य भक्तिवहुमाणो वणस्स य संजलणं, होड अणासायणा विणओ ॥ ४४ ) ६० (सामाइ आइचरणस्स, सहहाणं तब कारणं । संफासणा परूवण - मह पुरओ भव्वसत्ताणं ॥ ४५ ॥ ६१ ॥ (मणवयकाइअविणओ, आयरिआईण सम्यकालंपि । अकुसलमणाई रोहो, कुसलाण उदीरणं तह य ॥ ४६) ६२ ॥ (अन्भासत्थण छंदोणु--वत्तणं कयमुपडिकई । तह य कारिअमित्तकरणं, दुक्खत्तगवेसणा तह य ॥ ४७) ६३ (तह देसकाल जाणण, सध्वत्थेसुं तहाणुकूलत्तं । लोगोवयारविणओ, सत्तविहो होइ विष्णेओ ॥ ४८) ६४ ॥ (आयरिय उवज्झाए, थेरतवस्सीगिलाणसेहाण | साहम्मिअ कुलगणसं -घवेआवच्चं हवइ दसहा ||४९ ) ६५ || (आयरिउवज्झाये, तबस्सिसेहे गिलाणसाहसु । समणुन्न संघकुलगण -- वेयावच्चं हवइ दसहा ॥५०॥ ) ६६ ॥ ( वायणा पुच्छणा चेव, तहा य परिदृणा । अणु पेहा धम्मकहा, सज्झाओ होइ पंचहा ॥ ५१ ॥ ) ६७ ॥ (३५९) ( झाणं चव्विहं खलु, अहं रुदं तहेव धम्मं च । सुक्कं पुण पत्तेयं, चउच्विहं चैव नायव्वं ॥ ५२ ॥ )६८ ॥ ( पढमं अज्झाणं, बीजे रुहं इमे भवफलाई । तह धम्मं तुरिअं सुक्कं दो मुक्खहेऊई ॥ ५३ ॥ ६९ ॥ ( दव्वे गणदेहो वहि, अरिता सुद्धभत्तपाणाणं ॥ उसो भावे अह, कासाय भवकम्म उस्सग्गो ॥ ५४ ॥ ७० ॥ बारसविहं तवो नि - जरा य बंधो अ चउविगप्पो य । पय ठिइअणुभाग - प्पएसभेएहिं नायवो ॥१७॥ ७१ ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६०) ॥ श्री नवतत्त्वप्रकरणम् ॥ (पयइठिहरसपएसा, तं चउहा मोयगस्स दिटुंता।। मूलपगइट्ट उत्तर-पगई अहवनसयभेयं ॥५४ ) ॥ ७२ ।। (इहनाणदंसणावरण-वेय मोहाउनामगोयाणि । विग्धं च पण नव दु अ-वीस घउ तिसय दुपणविहं५५)७३ (पड? परिहार रसिमज४-हड चित्तदकुलालभंडगा । रीणं ८। जह एएसि भाषा, कम्माण वि जाण तह भावा ५६)७४ (सरउग्गयससिनिम्मल-यरस्स जीवस्स छायणं जमिह । नाणावरणं कम्मं, पडोवम होइ एवं तु ॥ ५७ ॥) ७५ ॥ (दसणसीले जीवे, देसणघायं करेइ ज कम्मं । तं पडिहारसमाणं, दसणावरणं भवे जीव ।। ५८ ) ७३ ॥ (महुलितनिसिअकरवाल-धार जीहाई जारिसं लिहणं । तारिसयं वेयणिों , मुहदुहउप्पायसमुयाणं ॥९|) ॥७७|| (जह मजपाणमूढो,लोए पुरिसो परवसो होइ ।। तह मोहेण विमूढो, जीवो अ परवसो होइ ॥६० ) ७८ ॥ (दुक्खं न देइ आऊ, नवि अमुहं देह चऊसु वि गइसु । दुक्खसुहाणाहार, धरेइ देहटिअं जीयं ॥६॥ ) ॥ ७९ ॥ ( जह चित्तयरो निउणो, अणेगरूवाई कुणइ रूबाई । सोहणमसोहणाई, लु चु)क्खमल(चु)क्खेहिवण्णेहि६२)८० (तह नाम पि हुकम्नं, अगरूवाइ कुणइ जीयस्स । सोहणमसोहणाइ, इटाणिहाई लोभस्स ॥६३॥ ) ॥८॥ (जह कुंभारो भंडाइ, कुणइ पुज्जेअराइ लोअस्स । इभ गोतं कुणइ जोअं, लोए पुज्जेअरावत्थं ॥३४ )॥८२ ।। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥प्रक्षिप्तगाथापरिकरितं ॥ (जहं राया दाणाइ, न कुणइ भंडारिए विकूलंमि। एवं जेणं जीवो, कम्मं तं अंतरायंति ॥६५॥)॥८३ ॥ (इति प्रकृतिबन्धः) (नाणे अदसणावरणे, वेअणिए चेव अंतराए य । तीसं कोडाकोडी, अयराणं ठिह य उक्कोसा ॥६७॥)॥८॥ (सत्तरि कोडाकोडी, मोहणीए वीस नामगोएस। तित्तीसं अयराइं, आउटिइबंध उक्कोसा ॥ ६८ ॥) ॥८॥ (बारस मुहुत्त जहना, वेयणिए भट्ट नामगोएस। सेसाणंतमुहत्तं, लहुट्टिई स नायथा ॥ ६९॥)॥८६॥ (इति स्थितिबन्धः) (तिब्वो अमुंहसुहाण, संकेसविसोहिओ विवजयओ। मंदरसो गिरिमहिरय-जलरेहासरिसकसाएहिं ॥७०॥)८७॥ (चउठाणाई असुहो, सुहमहा विग्घदेस आवरणा । पुमसंजलणिगदुति चउ-ठाणरसा सेस दुगमाई ॥७१] ८८ (निबुइच्छुरसो सहजो, दुति चऊभागकढि इक्कभागंतो। इगठाणाई असुहो, असुहाण सुहो सुहाणं तु ॥७२॥) ८९॥ . ( इति रसबन्धः) (अंतिमचउफासदुगंध-पंचवन्नरसकम्मखंधदलं । सबजिअणंतगुणरस-मणुजुत्तमणतयपएसं ॥ ७३ ॥)९० ॥ [ एगपएसोगाढे, निअसव्धपएसओ गहेइ जीवो। थोवो आउतदंसो, नामे गोए समो अहिओ ॥ ७४ ॥) ९१॥ (विघावरणे मोहे, सव्योवरि वेअणीइ जेणप्पे । तस्स फुडत्तं न हवइ, ठिईविसेसेण सेसाणं ॥ ७५ ॥) ९२ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६२) ॥श्रीनवतत्वप्रकरणम् ॥ (निअजाइलइदलिभा-णतसो होइ सव्वघाईणं । बझंतीण विभजइ, सेसं सेसाण पइसमयं ॥७६॥] ९३ । (इति प्रदेशबन्धः) संतपयपरूवणया, दवपमाणं च खित्त फुसणा य । कालो य अंतर भाग, भावे अप्पाबहुं चेव ॥१८॥९४ संतं सुद्धपयत्ता, विज्जतं खकुसुमं व न असंत। मुक्खत्ति पयं तस्स उ, परूवणा मग्गणाईहिं १९॥९५ गइ१ इंदिय२ काये३, जोए४ वेए५कसायद नाणे अ७ संजम८ दंसण९ लेसा१०, भव११ सम्मे१२ सन्नि १३ * आहारे १४ ॥२०॥९६॥ नरगइपणिदि तस भव, सन्निअहक्खाय खइयसम्मत्ते मुक्खोणाहार केवल--दसणनाणे न सेसेसु ॥२१॥९७॥ दवपमाणे सिद्धाण जीवदवाणि हुंतणंताणि । लोगस्स असंखिज्जे, भागे एगो अ सव्वे वि २२॥९८ फुसणा अहिया कोलो, इगसिद्भपडुच्च साइओणंतो पडिवायाभावाआ, सिद्धाणं अंतरं नस्थि ॥ २३॥९९॥ सव्वजियाणमणंते, भागे ते तेसिं दसणं नाण । खइए भावे परिणा-मिए अ पुण होइ जीवत्तं२४॥१०० थोवा नपुंससिद्धा, थीनरसिद्धा कमेण संखगुणा । इअ मुक्खतत्तमेअं, नवतत्ता लेसओ भणिआ (कुत्ता) ॥ २५ ।। १०१ ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरा र ॥ प्रक्षिप्तगाशपरिकरितं ॥ ६३) जीवाइनवपयत्थे. जो यह तस्स होइ सम्म भावेण सदहंतो अयाणमा वि सम्मान नारदा१०२ सव्वाइ जिणेसरभा-सियाइं वयणाइं नन्नहा हुंति । इय बुद्धी जस्स मणे, सम्मत्तं निच्चलं तस्स२७।१०३ अंतो मुहुत्तमित्तं पि, फासियं जेहिं सम्मत्तं । तेसिं अवड्ढपुग्गल-परिअहो चेव संसारो २८।१०४ (इति श्रीनवतत्त्वप्रकरणम् ) (व्वे खित्तेर काले३, भावे४ चउह दुह बायरो सुहमो॥ होइ अणंतुस्सप्पिणी-परिमाणो पुग्गलपरियहो ॥७७)१०५॥ (पुग्गलपरिअटो इह, दवाइचउव्यिहो मुणेअब्यो । थूलेअरभेएहिं, जह होइ दह निसामेह ।। ७८ ॥ ) १०६ ॥ (उरालविउव्वातेअ-कम्मभांसाणुपाणमणएहि । फासेति सव्वपुग्गल, मुक्का व्ववायरपरहो ॥७९॥) १०७॥ (उरलाइ सत्तगेणं, एग जिओ मुअइ फुसिअ सव्वअणू । जत्तिअकालि स थूलो, दव्वे सुहुमो सगन्नयरा ।।८०) १०८ ( दवे सुहुमपरहो, जाहे एगेण अह सरीरेण । फासेति सव्वपुग्गल-अणुक्कमेणं नणु गणिज्जा ॥८१॥)१०९ (लोगागासपऐसा, जा मरंतेण इत्थ जीवेण । पुट्ठा कमुकमेणं, खित्तपरदो भवे थूलो ।। ८२ ॥ ) ११० ॥ ( जीवो जइआ एगे, खित्तपएसम्मि संठिओ मरइ .. (पुणरवि तस्साणंतर-बीअपएसम्मि जइ मरइ॥८३)१११ (एवमणंतरमरणेण, सव्वखित्तंमि जइ मओ होइ। सुहमो खित्तरपट्टो अनुक्कमेणं नणु गणिज्जा ॥८४॥)११२॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥ श्री नवतत्त्वप्रकरणम् ।। ( उस्सप्पिणीइ समया, जावा ते अ निअयमरणेण । पुट्ठा कम्मुक्कमेणं, कालपरदो भवे थूको ॥ ८५ ॥) ११३ ॥ (सुहुमो पुण उस्सप्पिणि--पढमे समयमि जइ मभो होइ पुणरवि तस्साणंतर-बीए समयंमि जइ मरइ ॥८६.)११४ (एवमणतरमरणेण, सव्वसमएम व एएसु। ' जइ कुणइ पाणचायं, अणुक्कमेणं नणु गणिज्जा ॥८७॥)११५ [एगसमयम्मि लोए, मुहमगणिजीएसु जे उ पविसंति । ते हुंतसंखलोग-प्पएसतुल्ला भसंखिजा ॥८८॥)११६ ॥ (तत्तो असंखगुणिआ, अगणिकायाओ तेसिं कायठिई । तत्तो संजमअणुभाग-बंधठाणाणसंखाणि ॥८९॥ ) ११७ ॥ (ताणि मरंतेण जया, पुढाणि कमुक्कमेण सहाणि । भावेण बायरो सो, सुहमो जं कमेण बोडछो ॥९०)११८॥ (लोगपएसोसप्पिणि-समया अणुभागबंधठाणे य । जह तह कममरणेणं, पुट्टा खित्ताइ थूलियरा ॥९॥) ११९ ॥ ( उस्सप्पिणी अणता, पुग्गलपरिअडओ मुणेयत्वो। तेणंता तीअडा, अणागयडा अणंतगुणा ॥९२॥ ) १२॥ (जिणअजिणतित्थतित्था, गिहिभन्नसलिंगथीनरनपुंसा । पत्तेय सयंवुडा, वुद्धबोहिक्कणिक्काय ॥९३।। ) ॥१२१॥ (जिगसिद्धा अरिहंता, अजिणसिद्धा य पुंडरियपमुहा । गणहारितित्यसिद्धा, अतित्थसिडा य मरुदेवी ॥९४) १२२ (गिहिलिंगसिद्धभरहो, वक्कलचीरी य अन्नलिंगम्मि साहू सलिंगसिद्धा, थीसिहा चंदणापमुहा ॥१६॥) १२३।। (पुंसिहा गोयमाई, गांगेयाई नपुंसया सिद्धा । पत्ते यमबुद्धा, भणिया करकंडकविलाई ॥१६॥॥१२४॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रक्षिप्तगाथापरिकरितं ॥ (तह बुद्धवोहिगुरुषो-हिया इगसमय एगसिदा य । इगसमए वि अणेगा, सिडा तेणेगसिद्धा य ॥९७) ॥१२॥ (जइआइ होइ पुच्छा, जिणाण मग्गमि उत्तरं तइया। इक्कस्स निगोयस्स, अणतभागो य सिद्धिगमओ ॥९८१२६।। (लोए असंखजोयण-माणे पहजोयणमंगुलसंमखा। पइ तं असंखअंसा, पइ असमसंखया गोला ॥९९॥)॥१२७॥ (गोलो असंखनिगोओ, सोणंतजिओ जि पह पएसा । असंखे पइपएसे, कम्माणं वग्गणाणता ॥१०॥) ॥१२८।। (पइवग्गणमणता, अणू पइअणु अणतपजाया। एवं लोगसरुवं, भाविजइ तहत्ति जिणवुत्तं ॥१०१) ॥१२॥ ( पुढवाईया सत्ता, सव्वे रुक्खा हवंति भूआधि । पाणा बितिचउरिंदी, चउहा पंचिंदिया जीवा ॥१०२॥१३० (सत्तविराहणपावं, अणंतगुणियं च एगभूअस्स । भूअस्स असंखगुण, एवं एगस्स पाणस्स ॥१०॥) १३१॥ (बेइंदियतेइंदिय-चउरिदिय तहेव पंचिंदी। लक्खं सहस्सं तह सय-गुणं च पाचं मुणेयव्वं ॥१०४)१३२ (जीवो?संवर२ निजरमुक्खो४चत्तारि हुँति अरूवी । रूवी बंधासवपुत्र-पावा मिस्सो अजीबो य ॥१०॥(१३३ (धम्माधम्मागासा, तियतिय अद्धा अजीवदसगा य । सत्तावनं संवर-निजरदुदस मुत्ति नवगा य ॥१०६)१३४॥ (अट्ठासी य अरूवी, संपइ उ भणामि जे य रूवीणं । परमाणुदेसपएसा, खंधा चउ अजीवरुवीणं ॥१०७ )॥१३५ (जीवे दस चउ दु चउ, बासी बायाल हुँति चत्तारि । . मय अट्टासी य रूवी, दुसय छसत्त नवतत्ते ॥ १०८ ) १३६ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री नवतस्वप्रकरणम् ॥ (हेया बंधासवपुण्णपावा, जीवाजीवा य हुँति विन्नेया । संवरनिज्जरमुक्खो, हवंति एए उवाएया ॥१०९॥) ॥१३७॥ (अवियाणओ पयत्थे, सद्दट्टणं तेसु केरिसं होइ ? । तम्हा वित्थरनाणे, सम्मत्तमणुत्तरं होई ॥ ११० ॥) १३८॥ (वित्थरनाणावेक्ख, अन्नाणं एत्थ होइ दट्ठव्वं । ... तेणेहं सद्दहंते, आयाणमाणेवि सम्मत्तं ॥ १११ ॥) १३८ ॥ (एत्तोच्चिय निद्दिट्ठा, मासतुसप्पभिईओ सुद्दिहित्ति । एत्तोच्चिय चारित्ती, एत्तोच्चिय सिद्धिगामित्ति ॥११२(१४० ( सम्म मोख्खबीय, तं पुण भूयत्थसद्दहणरूवं । पसमाइलिंगगम्मं, सुहायपरिणामस्वंतु ॥११३॥) ॥१४॥ ॥ श्रीचिरन्तनाचार्यविरचितं प्रक्षिप्तकी गाथापरिकरित्तं ___ श्रीनवतत्त्वप्रकरणं संपूर्णम् ॥ SEARNIYASEASEASEASETTE = Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अद्यावधि मुद्रिता ग्रन्थाः र एते ग्रन्थास्तदभ्यासिसाधुसाध्वीनामध्ययनेप्सूनामहर्हाणामन्येषा मपि उपदीक्रियन्ते. १ तत्वार्थसूत्र-(पञ्चाध्यायीमयः प्रथमो विभागः ) अनूना पूर्वदशपूर्वधरवाचकावतंस उमास्वातिपादप्रणीतः, स वतन्त्रस्वतन्त्रसिद्धसेनगणिप्रणीतविवृत्तिसमलङ्कृतः २ अनेकान्तजयपताका- अपूर्वोऽयं न्यायग्रन्थश्चतुश्चत्वारिंशद. धिक चतुर्दशशतग्रन्थसूत्रणस्त्रधारश्रीमद्धरिभसूरिफा. दविनिर्मिता ..... ३ अष्टकप्रकरणं सटीकम्-श्रीमद्वारिभद्रसूरिपादप्रणीतं श्रीम जिनेश्वरमरिप्रणीतवृत्तिविभूषितम् ४ प्रमालक्ष्या लक्षणं सटीकन- नवाङ्गीवृत्तिकार श्रीमदभयदेव. सरि पूर्वकालवर्तिश्रीबुद्धिसागरसूरिविनिर्मितम्. ५ प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारः (स्याद्वादरत्नाकराभिधबृहवृ. . त्तिविभूषितः-वादिदेवसूरिविनिर्मित: . ६. सिद्ध हैमशब्दानुशासनं- कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रापार्यक तस्वोपज्ञबृहवृत्तिविभूषितं, पंकनकप्रभप्रणीतन्यास सारोद्धारालङ्कृतश्च. प्रमाणमीमांसा सटीका-श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीता. .. ८ अध्यात्मकल्पद्रुमः सटीकः-श्रीमन्मुनिसुन्दरसूरिप्रणीत; - पं० धनविजयगणिविनिर्मितवृत्तिविभूषितः, ९ न्यायखण्डखाद्यम् - अपूर्वोऽयं न्यायग्रन्थी नव्यन्यायशैली सन्दृब्धः न्याय विशारद-न्यायाचार्य वाचकावतंस . श्रीयशोविजयगणिविनिर्मितम् , . . . Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० न्यायालोकः- महोपाध्यायश्रीयशांविजयगणीविरचितः, ११ भाषारहस्यं सटीकम्, १२ उपदेशरहस्यम् १३ वृहद्धेमप्रभाव्याकरणम्-तपोगच्छाचार्य भट्टारक आचार्यश्री विजयनेमिसूरिप्रणीतम्. १४ लघुहेमप्रभाव्याकरणम् .. १५ नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः-( संस्कृत प्राकृतगुर्जरभाषारूपः सानुवादः) श्रीउमास्वातिवाचकाधनेकचिरन्तनाचार्य सन्दृब्धः, १६ षडशीतिप्रकाशः (चतुर्थकर्मग्रन्थवृत्तिः) १७ जैनमुक्तावलिः १८ पञ्चकल्याणकपूजादिसङ्ग्रहः १९ स्तोत्रमाला, २० दण्डकविस्तरार्थः पुस्तकप्राप्तिस्थानम शेठ. माणेकलालभाइ मनसुखभाइ, शाहपुर बंगलो-अमदावाद. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કે બીજા રાજ દિનકર થઇ દેસે મુકમ્બાઈડર રમનડું ફૂલીગ વકર્સ. - હીલગરવાડ અને દાવાદ,