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________________ || मोक्षतवेनवद्वारस्वरूपम् ॥ (२९५) अन्वेषण - ओळखाण थाय छे, अहिं कह मार्गणाना कया भेदमां मोक्ष at प्राप्ति के ते दर्शाववाने माटे आ मार्गणाओनां नाम तथा उत्तर भेद पण दर्शाव्या छे, ( मार्गणाओनो विशेषार्थ चालु नव प्रकरणमा प्रसंगे प्रसंगे प्रथम आवी गयेल छे, छ तां विशेष जिज्ञासुए चतुर्थकर्मग्रन्थथी जाणवा योग्य छे, ) अवतरण - पूर्व गाथामां मार्गणाओ कहीने हवे आ गाथामी क क मार्गणामां मोक्ष होय छे? ते दर्शावे छे. ॥ मूळ गाथा ४६ मी. ॥ नरगइपर्णिदितसभव, सन्नि अहक्खायखइ असम्मत्ते मुक्खोऽणाहार केवल, दंसण नाणे न सेसेसु ॥ ४६ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ नरगतिपंचेन्द्रियत्र स भव्य-संज्ञियथाख्यातक्षायिक सम्यक्त्वे । मोक्षोऽनाहारकेवलद - शेनज्ञाने न शेषेषु ॥ ४६ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ मुक्खो - मोक्ष के अणाहार-अनाहारक केवलदंसण -- केवलदर्शन (केवल) नाणे - केवळ ज्ञानमा न--नह अहक्खाय - यथाख्यात चारित्र सेसेसु- बाकीनी (४ मूळ अने खड्अ - क्षायिक सम्पत्ते - सम्यक्त्वमां ५२ उत्तर) मार्गणाओमां नरगइ -- मनुष्यगति पणिदि--पंचेन्द्रिय तस--त्रस भव - भव्य सन्नि -संज्ञि
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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