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|| श्रीनवतश्व विस्तरार्थः ॥
( १८५ क. )
| स्थावरदशको अर्थः ॥
१ स्थावर - जे कर्मना उदयथी जीवने स्थावरपणुं प्राप्त थाया को इत्यादि सुखदुःख हिताहितनुं गमेतेवुं कारण पडे छते पण जे एकथी बीजे स्थानके जइ शके नही तेवा पृथ्वी आदि पां च सूक्ष्म बादर एकेन्द्रियोने होय. ते काय अने वायुकाय स्वभावे गतिस्वभाववाला होवाथी गति करे छे. पण ते संज्ञा पूर्वक नहि.
२ सूक्ष्म - जे कर्मना उदयथी जीवने सूक्ष्मपणुं प्राप्त थाय असंख्य वा अनन्त जीवो मल्या छतां पण जे चर्मचक्षुगोचर थाय नही असंख्य जीवोना असंख्य शरीरो या अनन्त जीवोना असंख्य शरीरो एकठा थया छतां पण देखाय नही कारण चउदराज लोकमां स नाडीनी अंदर अथवा बहार एवो एक पण आairप्रदेश नथी के ज्यां ते सूक्ष्म जीवो न होय सूक्ष्म कर्मना उदयाला पृथ्व्यादि पांच छे. तेमां वनस्पति ते सूक्ष्म निगोद रूप जाणवी बादर पृथ्व्यादि पण एक वें यावत् असंख्य सूक्ष्मदृष्टि गोचरथता नथी छतां पण तेने सूक्ष्मनाम कर्मोदय नथी.
३ अपर्याप्त जे कर्मना उदयथी जीव स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या विनाज मरण पामे जोके आहार शरीर इन्द्रिय ए ऋण पर्याप्तओ तो तमाम जीवों पूर्ण करेछे छतां पण अपर्याप्ता जीवो (एकेन्द्रिय४द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय असंज्ञि पंचेन्द्रिय५ अने संज्ञिपंचेन्द्रिय६) पोतपोतानी पर्याप्तिने पूरी करी शक्ता नथी अपaftaar for करण भेदो छे. जेनो विचार पूर्वे जीवतश्वमां पर्याप्तिविचार करेल छे. परन्तु अही लब्धि अपर्याप्त लेवा.
४ साधारण - जे कर्मना उदयथी एक शरीरमां अनन्त जीवो रहे छे. अने तेओनी उच्छवास निःश्वास आहार-वेदना बि