SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८५ ख० ) || श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ गेरे क्रिया समानरोते थाय ले ते कर्मनो उदय प्रत्येक वनस्पति वर्जिने साधारण वनस्पतिजीवोने होय ते साधारण सूक्ष्म १ बादर २९ मधे भेद छे. साधारण - निगोद - अनन्तकाय - ए सर्व एकार्थक छे. साधारण ( निगोद ) एटले अनन्तजीवोनं एक शरीर-तेवी असंख्य निगोदो एक गोळामां होय. अने तेवा असंख्य गोळाओ चौदराज लोकमां छे देखाती कन्द जाति विगेरे बादर निगोदो ( अनन्तकायो ) छे. ५ अस्थिर - जे कर्मना उदपथी जीवोना शरीरना जीभचामडी विगेरे अवयवोमां अस्थिर पणुं प्राप्त थाय ६ अशुभ - जे कर्मना उदयंथी नाभिनी निचेनो शरीरना भाग अशुभ कहेवाय छे के पग विगेरे बोजाने अडवाथी अभीति थाय छे, गुरु आदिना चरण या चरणनी रज जे भक्त जीवो प्रेमथी स्पर्शे छे ते गुरु आदि प्रत्येना बहुमान विगेरेथी के. ७ दुर्भग- जे कर्मना उदयथी माणस वीजाने बहालो लागे नहि तीर्थकर भगवान् जे भारेकमजीकोने प्रिय लागता नथी तेमां ते जीवोना पापकर्मनो उदय जाणवो, ८ दु:स्वर - जे कर्मना उदयथी जीवनो स्वर अप्रिय कर्णकटु लागे खर उष्ट्रादिजेवोकठोर होय. ९ अनादेय - जे कर्मना उदयथी जीवहितकारी बोलतांछतां पण कोने ग्राह्य थाय नहि तीर्थकर प्रभुनौवाणी आदेयनामवाली छतां अभव्य पाखंडी जीवोने ते भो भारी पापकर्मना उदयथी वहाली लागे नहि. १० अयश-जे कर्मना उदयथी सारं कार्य करतां छतां पण जस-कीर्ति मळे नही.
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy