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(२३४) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥
शरीरे उत्पन थयेला रोगने सम्यक् प्रकारे सहन करवो पण उद्वेग करवो नहिं ते रोगपरिषह कहेवाय. अहिं जिनकल्पी मुनि होय तो थयेला रोगने निवारवानो औषधादि उपाय न करे, अने स्थविरकल्पी मुनि कोइक अवश्य कारण होय तो औषधादि करावे अन्यथा सम्यग् प्रकारे सहन करे
युद्ध कर्यु माटे आ कोप पिशाच सूक्ष्म थइ गयो कारणके कोपक्षमावडे ज जीताय छे, ए प्रमाणे कृष्णे पिशाचमूर्तिवाळा कोपने जेम शान्तिथी जीत्यो तेम मुनिओए अलाभपरिषहने पण शान्तिथी जीतवो.
१ दृष्टान्तः-सनत्कुमार चक्रवर्तिन एवं अलौकिक रूप हतुं के जे रूपनी प्रशंसा सौधर्मेन्द्र इन्द्रसभामां करवोथी बे देव रूपनीपरीक्षा करवा आव्या ने रूप देखी अति आश्चर्य पाम्या, पण ते वखते चक्रवति स्नान करता हता तेथी विप्ररूप धारी देवीने गर्वथी राजसभामां रूप देखवा आववान का. देवो ए राजसभामां आवी रूप देखी मस्तक हलावतां कारण पूछपाथी देवोए कयु के जे रूप स्नान करवानी तैयारी बखते ह. तु ते रूप हवे रहयुं नथी ने शरीरमां अनेक रोग उत्पन्न थया छे तेनी खात्री माटे राजाए पान खाधेलं धुंकतां उपर बे. ठेली माखी मरण पामी जोइ राज्य अने देहनी असारता चिं. तवतां वैराग्य वृद्धि पाम्याथी चारित्र अङ्गीकार करी अनेक प्रकारना तपथी मोटी लब्धिओ उपार्जन करी पण शरीर कुटादि अनेक रोगवडे व्याप्त थइ गथु. सनत्कुमार राजर्षिए अभिग्रह कर्यों के चक्षु वर्जीने कोइ पण अङ्गना रोगनी चिकित्सा न करवी. आ दृढ अभिग्रहनी प्रशंसा सौधर्मइन्द्रे इन्द्रसभामां करवाथी पुनः अश्रद्धावाळा बे देव वैद्यनुं रुप लइ सन. कुमार मुनि पासे आधी रोगनी चिकित्सा करवा कहयुं त्यारे मुनीश्वरे व ह्य' के हे वैद्यो ? तमो जो भावरोगनी (-कर्मनी) चिकित्सा करी जाणता हो तो मारे कराववी छ. नहिंतर आ द्रव्यरोगनी चिकित्सा तो हुँ पण करी जाणुं छु एम कही पो