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|| संवरत परिषद्दवर्णनम् ॥
(२३५)
'दर्भादि वास वगेरेना संथारापर शयन करनार मुनिने घास नी अणी वगेरे वगे तेने सम्यक प्रकारे सहन करवी ते तृणस्वर्ण परिषद कहेवाय. कहाँ छे के वखरहित (अति अल्प अने जीर्णवाळा ) ऋक्ष देहवाळा एवा तपस्वीमुनिने घासना संथारा पर सूतां देहपीडा थाय, अने ते उपर पुनः तडको पडवाथी घणी वेदना थाय छतां घासना वागवावडे पीडा पामेला मुनि वस्वनी इच्छा न करे ( आ जिनकल्पनी अपेक्षाए छे, अने स्थविर कल्पी तो वस्त्र राखे पण खरा.)
तानुं थुक पोतानी आंगळीप लगाडतां ज ते आंगळी सुवर्णसरखी कांतिवाळी थइ ते धोने दर्शावी इत्यादि अनेक रीते वैद्योप प्रपंच कर्या छतां पण मुनिए रोगनी चिकित्सा नहिं कराववा थी बन्ने देवो तुष्ट थs प्रत्यक्ष स्वरूप प्रगट थया, अने सौधर्म सभामा थयेली प्रशंसानी अश्रद्धाथी अमो परीक्षा करवा आव्या छे, एम जणावी अत्यन्त खुशी यह स्वस्थाने गया.
ए प्रमाणे श्री सनत्कुमार चक्रवर्तिमुनिए जेम रोगपरिषह सहन कर्यो तेम अन्य मुनिओए पण रोगपरिषह सहन करवो. (अहिं उत्तराध्ययनमां कालवैशिक मुनिनी कथा कहीछे. परन्तु तने बदले में अहिं सनत्कुमार चक्रवर्तिमुनीनी कथा कही छे )
१ दृष्टान्तः - श्रावस्ति नगरीना जितशत्रुराजाना पुत्र भद्रकुमारे दीक्षा अङ्गीकार करी बहुश्रुत थइ एकाकी विहारप्रतिमा अङ्गीकार करो कोइक बीजा राज्यमां गया त्यां राजपुरुषोए कोइक चोर वा बातमीदार जाणी तुं कोण छे इत्यादि पूछतां जवाब नहिं मळवाथी तीक्ष्ण शस्त्रो वडे मुनिनु शरीर छोली ते पर खार छांटयो छतां पण भद्रमुनि जेम समाधिध्यानमा रह्या तम अन्य मुनिओए पण भद्रमुनिवत् तृणस्पर्श परिषह सहन करवी.