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________________ (२३८) ॥श्री नवतत्त्व विस्तरार्थः ॥ तथा अनेक उपसर्ग-कृष्ट प्राप्त थया छतां पण सर्वज्ञोक्त धर्म उपरनी श्रद्धा न फेरववी अने मिथ्या आचरण न आचरवू न संम्यत्तवपरिषह, १२ वर्षे केवलज्ञान उपार्जन कर्यु तेम अन्यमुनिए. पण अज्ञा. नपरिषह सहन करवो १ दृष्टान्तः--आर्य आषाढाचायें दरेक शिष्योने समाधिमा रण करावी का हतुं के तमो देवपणे उत्पन्न थाओ तो मने एकवार मलया आधजो परन्तु कोइपण शिष्य देवपणे उत्पन्न थया बाद मलवा आव्यो महिं जेथी आचार्थने शंका थइ के कोण जाणे देवलोक छे के नहि, अने जो न होय तो आटली कष्ट क्रियाओ व्यर्थ 'शामाटे करवी ? एपी विचार आधाथी धीरे धीरे आचार्य चारित्रमा मन्द थया अने आरंभसमारंभ. मां पण प्रवर्तया लाग्या. पछी छेल्ली वखते मरणपामेला 'शिष्ये देवपणामां पोताना गुरुने पतित परिणामी जोइ उद्वार कर. वाना विचारथी अनेक मायाओ रची उपदेश आपी चारित्रमाने श्रद्धामां स्थिर कर्या ए संम्बन्धि अधिक वर्णन उत्तराथी जा. णवु प प्रमाणे आषाढाचार्यनी माफक अभ्यमुनिए न वर्तवू पण अनेक उपसर्ग आवतां पण श्रद्धामा अडग रहे धु.
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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