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________________ लब्धिपर्याप्त जीवतत्त्वे पर्याप्तस्वरूपवर्णनम. पर्याप्त भेदाः पर्याप्त करणअपर्याप्त करणपर्याप्त ( ४३ ) for पर्यास करण अपर्याप्त निर्व्वर्तितानि नाद्याऽपि, प्राणिभिः करणानि यैः । देहाक्षादीनि करणाsपर्याप्तास्ते प्रकीर्त्तिताः = ए बने गाथाओभां " करण पटले शरीर अने इन्द्रियो वि गेरे " एम कहां छे. एमां " विगेरे " शब्दथी उच्छवासादि स्वयोग्य पर्याप्तिओज ग्रहण करवी. श्री विचारपंचाशिकामां कां छे के नजवि पूरेइ परं पूरिस्सर स इह करणअपज्जतो । सो पुण करणत्तो, जेणं ता पूरिया हुंति ॥ ३९ ॥ ए गाथानो टीकार्थः - " अहिं करण पटले शरीर भने इन्द्रियादिवडे अपर्याप्त ते करण अपर्याप्त तेज जीव कहेवाय के जे जीवे पर्याप्तिओ हजी सुधी समाप्त करी नथी अर्थात् बनावी नथी परन्तु केवळ आगळ समाप्त करशे पटले अवश्य स्वयोग्य पर्याप्तिओ बनावशेज. वळी करणपर्याप्त ते कहेवाय के जेणे ते पोतानी ( स्वयोग्य ) पर्याप्तिओ पूर्ण करेली छे एंटले बनावेली छे. " शंका- द्रव्य लोकप्रकाश विगरेमां "लब्धिअपर्याप्त जीवो पण अवश्य करणपर्याप्ता थइनेज मरण पामे " एवो भावार्थ को छे तो ते केम बनी शके ? उत्तरः- ते स्थाने करणपर्याप्त पटले इन्द्रियपर्याप्त अर्थ थाय छे, पण लब्धि विगेरे चार भेदमांनो करणपर्याप्त भेद न गणवो. वळी करण अपर्याप्तेन सास्वादमसम्यक्त्व विगेरे होवानुं
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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