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श्री नवतश्व विस्तरार्थः
एक जीवमां समकाळे लबुध्यादि पर्याप्तभेद. जे जीव लब्धिअपर्याप्त छे ते जीव करण' अपर्याप्त पण छे.
पुनः जे जीव लब्धिपर्याप्त छे ते जीव करणअपर्याप्त अने करणपर्याप्त पण छे. कारणके लब्धिपर्याप्त जीवे ज्यां सुधी स्वयोपर्याप्त पूर्ण नथी करी त्यां सुधी करणअपर्याप्त कहेवाय, अने स्वयोग्य पर्याप्त पूर्ण कर्या बाद करणपर्याप्तं कहेवाय. अने जे लब्धिपर्याप्त होय ते जीव लब्धिअपर्याप्त न होय, अने लब्धिअपर्याप्त जीव लब्धिपर्याप्त न होय.
तथा जे जीव करणपर्याप्त हैं ते जीव लब्धिपर्याप्त ज छे, परन्तु लब्धअपर्याप्त के करण अपर्याप्त नथी. कारणके लब्धिपर्याप्तपणा बिना करणपर्याप्तपणं संभवेज नहिं, अने करणअपर्याप्तपणं अने लब्धअपर्याप्तपणुं तो ए जीवने प्रत्यक्ष बिरुडज छे.
तथा जे जीव करणअपर्याप्त छे ते जीव लब्धिअपर्याप्त अने लब्धिपर्याप्त पण होय. कारणके लब्धिअपर्याप्त जीव तो प्रथम कह्या प्रमाणे करणअपर्याप्तज होय छे, अने लब्धिपर्याप्तजीवे पण ज्यां सुधी स्वयोग्य पर्याप्त पूर्ण नथी करी त्यां सुधी ते जीव करणअपर्याप्तज
ज्यां क होय त्यां लब्धिपर्याप्तान्तर्गत करणअपर्याप्तपणुं अंगी - कार करवुं, पण लब्धिअपर्याप्त जीव संबंधि करणअपर्याप्तपणुं नहिं.
१ चालु ग्रन्थाधिकारमां स्वयोग्य पर्याप्तिवडे अपर्याप्तने करण अपर्याप्त कहेलो होवाथी लब्धिअपर्याप्तने करणअपर्याप्त कयो छे, परन्तु ए जीव स्वयोग्य पर्याप्तिओ पूर्ण करशे प अपेक्षार करणअपर्याप्तपणुं न जाणवुं. अथवा लब्धिअपर्याप्ता जीवो ad free अपर्याप्तरूप एकज प्रकारना होवाथी तद्गत इतर भेदना अभावनी अपेक्षाए करणअपर्याप्तपणानी विवक्षा शास्त्रमां करी नथी ते पण योग्य छे.