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.जीवतत्वे पोतिस्वरूपवर्णनम्.
(४५)
छे, अने करणपर्याप्तपणुं तो ए जीवने प्रत्यक्ष विरोधीज छे. ए प्रमाणे चारेमां परस्पर भेदसंक्रान्ति नीचे प्रमाणेलब्धिअपर्याप्तमां | १ लब्धिअप० २करणअप०(अपेक्षाएक०प०) लब्धिपर्याप्तमां | १ लब्धिपर्या० २ करण अप०, ३ करणपर्या० करणअपर्याप्तमां | १ करणअप० २ लब्धिअप० ३ लब्धिपर्याप्त करणपर्याप्तमां । १ करणपर्या० २ लब्धिपर्या.
लब्धिकरण पर्याप्तापर्याप्तपणानो काळ.
जीवने लब्धिअपर्याप्तपणुं अन्तर्मुहूर्त सुधी ( एक भव आश्रयी ) होय छे, कारणके लब्धिअपर्याप्त जीवनुं आयुष्य अन्तमुहूर्त्तथी अधिक होय नहि.-तथा लब्धिपर्याप्तपणुं भवना प्रथम समयथी भवना अन्त्य समय सुधी रहे, कारणके लब्धिपर्याप्त जीवन लब्धिपर्याप्तपणु भवना प्रथम समयथी गणाय ते पण ज्यां सुधी जीवे त्यां सुधी ते जीव लब्धिपर्याप्तन कहेवाय. शास्त्रोमां ज्या ज्यां पर्याप्त जीव कह्या होय त्यां त्यां सर्वत्र लब्धिपर्याप्त जीवोज जाणवा. ज्यां ज्यां अपर्याप्त जीवो कह्या होय त्यां त्यां प्रायः लब्धि जीवो जाणवा (कदाच करणअपर्याप्त जीवो पण देव-नारकना १९८ भेद तथा १४ जीव भेद विगैरेनी पेठे गणाय छे). तथा करणअपर्याप्त पणुं जीवने एक अन्तर्मुहूर्त सुधीज होय छे, कारणके अन्तर्मुहूर्त व्यतीत थतां स्वयोग्य सर्व पर्याप्तिओ पूर्ण थाय छ.-तथा करण पर्याप्तपणानो काळ अन्तर्मुहूर्त न्यून स्वआयुष्यप्रमाण जाणवो. कारणके जीव विवक्षित भवमां गया पछी अन्तर्मुहूर्तबाद पर्याप्तिओ पूर्ण करवाथी करणपर्याप्त थाय छे ने ते पछी . आखा भव सुधी करणपर्याप्त कहेवाय छे.