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श्रीनवतत्वविस्तरार्थः
णानो आ अर्थ मात्र लब्धिपर्याप्त जीवने ज लागु पडतो होवाथी 'लब्धि अपर्याप्तजीवने पण करणअपर्याप्तपणुं संभवे तेवो अर्थ आप्रमाणे छे.-स्वयोग्य पर्याप्तिओमांथी जे जीवे स्वयोग्य पर्याप्ति
ओ ज्यांसुधी पूर्ण नथी करी त्यांसुधी ते जीव करणअपर्याप्त कहेवाय. जेम लब्धिअपर्याप्त एकेन्द्रिय जीव श्वासोच्छवास पर्याप्ति वडे करणअपर्याप्त ( अने लब्धिअपर्याप्त पण ) छे, पुनः एज जोवे वाटे वहेता एकपण पर्याप्ति प्रारंभी नथी तो ते चारे पर्याप्तिवडे करणअपर्याप्त कहेवाय. ए प्रमाणे ज्यांसुधी स्वयोग्य प
र्याप्तिओमांनी एक पण पर्याप्ति करवी अधूरी होय तो ते अधूरी रहेली पर्याप्तिनी अपेक्षाए करणअपर्याप्त ज कहेवाय. ए प्रमाणे ज लब्धिपर्याप्त मनुष्य भवांतरथी आवतां रस्तामां सर्व (छए) पर्याप्तिओवडे करण अपर्याप्तो छे, त्यारंवाद आहार पर्याप्ति पूर्ण थतां शेष पांच पर्याप्तिवडे करणअपर्याप्त, शरीर पर्याप्ति पूर्ण थतां शेष चार पर्याप्तिवडे करणअपर्याप्त, इत्यादि रीते यावत् पांच पर्याप्तिओ पूर्ण थया बाद मनःपर्याप्तिनी समाप्ति ना उपान्त्य समय सुधी पण मनःपर्याप्तिवडे करण' अपर्याप्त कहेवाय.
तथा स्वयोग्य पर्याप्तिओ जे जीवे पूर्ण करी लीधी ते जीव (पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या बाद ) करणपर्याप्त कहेवाय.
१-२ आ संबंधमां एवी पण प्रसिद्धी छे के करण एटले " इन्द्रिय सुधीनी प्रथमनी ३ पर्याप्तिओ" समाप्त थतां करणपर्याप्त अने समाप्त न थाय त्यां सुधी करणअपर्याप्त कहवाय. परन्तु ए अर्थ सम्यक् प्रकारे संभवतो नथी, कारणके करण एटले " शरीर इन्द्रिय विगेरे ( स्वयोग्य पर्याप्तिओ )." एषो अर्थ सम्यक् संभवे छे. श्री द्रव्यलोकप्रकाशमां का छे के
. . करणानि शरीराक्षा-दीनि निर्तितानि यः । ... ते स्युः करणपर्याप्ताः, करणानां समर्थनात् ॥