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|| आश्रवस्त्रे योगवर्णनम् ॥
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भाषापर्याप्तिनामकर्मना उदयथी काययोगवडे भाषायोग्य वर्गणा ग्रहण करी भाषापणे परिणमावी अवलंबीने विसर्जन करवानो जे व्यापार ते वचनयोग पण उपर मुजब चार प्रकारनो छे, परन्तु " चिन्तaj " ए शब्दने बदले "बोल" अथवा "कहेतुं" एटलो तफावत जाणवो. ए चारे प्रकारना प्रशस्तवचनयोगथी शुभाश्रव अने अप्रश० वचनयोगे अशुभाश्रव थाय,
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औदारिकादि काययोग ७ प्रकारे छे. ते आ प्रमाणे- औदा० श. रीद्वारा जीवोनो जे व्यापार ते औदारिक काय योग शरीरपर्याप्ति समाप्त थया बाद संपूर्ण भवसुधी चालु रहे छे, पण ते संबंधि आव वारंवार अन्तर्मु० सुधीज होय छे, कारणके त्रण योगमां थी कोइपण एक योग अन्तर्मु थी वधु वखत टकी शके नहिं पण परावृत्ति थया करे ते आगळ कहेवाशे तथा तैजसकार्मण श Refer औदा० शरीरनो जे व्यापार ते औदारिकमिश्र का ययोग भवान्तरे उत्पन्न थया बाद बीजा समयथी शरीरपर्याप्तो थाय त्यां सुधी होय. अने सर्वज्ञने समुद्घात वखते बीजे छठे अने सातमे समये होय. त्यां सर्वज्ञना औदा० मिश्रयोग वखते शुभाश्रव ज होय. शेष जीवोना औदा० मिश्रयोगमां शुभ अने अशुभ आश्रव होय. तथा वै० शरीरद्वारा जे आत्मानो व्यापार ते वैकाय पण वै० शरीरपर्याप्त थया बाद संपूर्ण भव सुधी होय अने उत्तरवै मां ते देह टके त्यां सुधी होय, तथा मूलबैक्रियनी अपेक्षाए तैजसकारण सहित वै० शरीरनो जे व्यापार अने उत्तर वैक्रियनी अपेक्षाए औदा० शरीर सहित वै० शरीरनो व्यापार ते वैक्रियमिश्र काययोग तथा आहारक शरीरनो व्यापार ते आहारककाययोग अने औदा० शरीर सहित आहा० शरीरनो जे व्यापार ते आहा० मिश्रकाययोग कहेवाय. ए बन्ने मिश्रयोग उत्तर शरीरनो प्रारंभ करती बखते अने संहार करती वखते