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॥ आश्रवतवे क्रियावर्णनम् ॥ (१९७ )
॥ शब्दार्थः ॥ काईअ-कायिकी क्रिया. । किरिया-क्रिया. अहिगरणीया-अधिकरणिकी पाणाइवाय-प्राणातिपातिकी क्रिया.
क्रिया पासिया-प्रादेषिकी क्रिया. आरंभिय--आरंभिकी क्रिया. पारितावणी-पारितापनिकी परिग्गहिया-पारिग्रहिकी क्रिया.
क्रिया | मायवत्तीय-माया प्रत्ययिकी क्रिय गाथार्थः-कायिकी, अधिकरणिकी, प्रादेषिकी, पारितापनिकी प्राणातिपातिकी, आरंभिकी, पारिग्रहिकी, अने मायापत्ययिकी क्रिया ( ए ८ क्रिया आ गाथामां कही छे.)
विस्तरार्थ:-जे व्यापारवडे आत्मा शुभाशुभकर्म प्राप्त करे ते व्यापार नामर्नु क्रिया कहेवाय तेमां आत्मानो व्यापार कपाय रहित पणे होय तो असांपरायिकी क्रिया, अने सकषाय पणे होय तो (संपराय एटले कषाय ए अर्थथी ) सांपरायिकी क्रिया कहेवाय. त्यां असांपरां० क्रिया एक ई-पथिकी नामे छे. अने सपिरा० क्रिया २४ प्रकारनी छे. ए प्रमाणे सर्वमली २५ क्रियाओनु स्वरूप कहेवाय छे. -
१ 'कायिकी क्रिया-कायाना व्यापारथी उत्पन्न ययेली ते कायिकी क्रिया के प्रकारनी छे, त्यां मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दष्टि अविरतिवन्तजीवनी उठवू-बेसवु-मूक-उपाडवु-चालवु सूवु इत्यादिक फर्मवन्धना कारणवाळी जे सावधक्रिया ते अनुपरत कायिकी क्रिया कहेवाय. ( अहिं अनुपरत-अविरतिवन्त ). अने अशुभ
१ अहिंथी सर्व क्रियाओनुं स्वरूप पग्नवणाजी-ठाणांगजी--अने विचारसार-तथा नवतत्व भाष्यमगंथी तारवणी क. रीने संक्षेपथी लखेलं छे, माटे विस्तरार्थीए पन्नवणाजीथी तेनुं स्वरूप जाणवु, पुन. पन्नवगाजीमा १० क्रियाओ प्रथमनीज . वर्णवेली छे. अने नवतत्वभाध्यमां सर्व वर्णवेली छे,