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________________ जीवतचे पर्याप्तिस्वरूपवर्णनम. ( २७ ) तथा आत्मानी जे शक्ति ते वीर्य कहेवाय, ए वीर्य गुण पण समां सर्वोशे संपूर्ण अने सु० एकेन्द्रियादि जीवोमां तेथी अनंतमे अंगे हीनाधिकपणे होय छे. तथा जेना वडे ज्ञान अने दर्शन गुणनी प्रवृत्ति थाय ते उपयोग. ए उपयोग ज्ञान अने दर्शनमां साधारण पणे वर्त्ते छे, केमके ए उपयोग ज्यारे वस्तुना विशेष धर्मोपर वर्ततो होय त्यारे एज उपयोगने " ज्ञान " संज्ञा होय. छे, अने एज उपयोग ज्यारे वस्तुना सामान्य धर्म पर वर्ततो होय हे त्यारे "दर्शन" कहेवाय के, ए प्रमाणे जोवा जतां जीवनुं मुख्य लक्षण उपयोग ज है, ज्ञान तथा द र्शन तो उपयोगान्तर्गत छे, छतां ए बेनी मुख्यता अंगीकार करीने ज्ञान अने दर्शन लक्षण उपयोगयी भिन्न कहेल छे. जो के ज्ञान, दर्शन, अने उपयोग ए त्रणे जीवनां लक्षण होवाथी जीवना स्वत्वरूप छे छतां कर्मवशवर्ति जीव होवाथी उपयोगनुं निरन्तरपणुं रहेतुं नवी, तेमज ज्ञानोपयोगनो वस्तुनिश्चायकत्व स्वभाव छतां पण संशयादि थवामां विरोध नथी. ए उपयोग गुग पण सर्वज्ञने सर्वाशे अने शेष जीवोने थोडे घणे अंशे प्रगट होय छे. उपर कहेली ए लक्षणो सर्व जीवोने सत्तापणे तो सरखांज छे, परन्तु सकर्म जीवोने कर्मना प्रभावे हीनाधिक पणे प्रगट होय है, अने अकर्म जीवोने ते सर्व लक्षणो संपूर्ण पणे प्रगट होय छे. अवतरण - पूर्व गाथामां जीवनां लक्षण कहीने हवे आ गाथामi ( ४ थी गाथामां जीवना जे अपर्याप्त अने पर्याप्त भेद कहला तेना सबंधम ) पर्याप्ति ते कइ ? अने कया जीवने केटली होय ? ते दर्शावे छे.
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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