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________________ ( ८ ) श्री नवव विस्तरार्थः * वादित पण अजीवस्वरूप होवाथी ज्ञेय केम न गणाय ? अथवा संवरादितत्त्वो जो जीवस्वरूप के तो जीवतश्व उपादेय केम न गणाय ? अने आश्रवादितवो जो अजीव स्वरूप के तो अजीवतव हे केम न गणाय ? उत्तर --अहिं हेय ज्ञेयादि विवेचनमां मुख्यताये नवतस्त्वोनी विवक्षा करेली होवाथी स्वतश्वनी मुख्यताये जीवतत्व ते आत्मा ज जाणो, अने अजीवतव ते धर्मास्तिकायादिक ( आगळ कहेवाता) १४ भेद जाणवा, परन्तु आश्रवादिरूप विकारोनी मुख्यare ए बे eat अहिं ग्रहण न करवां, जेथी ए वे तत्त्वो ज्ञेय मात्र ज छे. अथवा सात तत्त्व. चालु प्रकरणमा जो के वो नव कहेल छे, परन्तु संवर निर्जरा अने मोक्ष ए त्रण तत्वने जीवस्वरूप ( प्रथम कह्या प्रमाणे) गणवाथी, अने पुण्य, पाप, आश्रव अने बंध ए चार तत्वो प्रथम कह्या प्रमाणे अजीव स्वरूप गणवाथी मुख्यत्वे जीव अने अजीव ए बेज तत्र गणी शकाय अथवा प्रथम कही गया जब पुण्य अने पापने आश्रaavani अंतर्गत गणतां जीव, अजीव, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष ए प्रमाणे ( तत्वार्थ सूत्रमां कथा प्रमाणे ) सात तत्व पण गणी शकाय, वली नवतत्वोनी उत्पाद, स्थिति, अने व्यय स्वरूपसत्पणानी विवक्षाये सत्स्वरूप एकतन्त्र पण कही शकाय तेम पांचो पण विवक्षा भेदे कही शकाय छे. परन्तु चालु विवेचन नवतने अंगेज छे एम जाणवु. नवतत्त्वक्रम हेतुविचार, सकलतत्त्वनो विचारकरनार - समजनार अजीव पुद्गलादिद्र
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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