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(३६) . श्रीनवतत्त्व विस्तरार्थः । ___उत्तर-आहार शरीर अने मन:पर्याप्ति संबंधि पुद्गलो शरीरमां सर्वत्र व्याप्त संभवे छे. श्री तत्वार्थसूत्रना बीजा' अध्यायना ११मा सूत्रनी 'वृत्तिमां द्रव्यमनना अर्थमां मनःपर्याप्तिनां पुद्गलो सर्व आत्मप्रदेशवर्ती कह्यां छे, उच्छवास अने भाषापर्यातिनां पुद्गलोर्नु स्थान स्पष्ट कहेवू अशक्य छे, अने इन्द्रिय पर्याप्तिनुं स्थान इन्द्रिय स्थावनत् अमुक नियतस्थानवर्ती छे.
.. पर्याप्तिओनी समाप्तिनो अनुक्रम पूर्वोक्त ६ पर्याप्तिओमां जे जीवने जेटली पर्याप्तिओ होय छे ते जीव तेटली पर्याप्तिओने सपकाळे प्रथमसमयेज प्रारंभे छे, पण संपूर्ण अनुक्रमे करे छे. कारणके आहारादि पर्याप्तिओनां पुद्गलो अनुक्रमे सूक्ष्म सूक्ष्मतर परिणामवाळां रचवां पडे छे. जेम एक शेर रुइमांथी जाडं सूत्र व्हेल कंताय, अने झीj सूत्र घणे काळे कंताय तेम प
१ ते वृत्तिनो पाठ आ प्रमाणे-तत्रमनोऽभिनिर्वृत्यै यहलिकद्रव्यमुपात्तमात्मना सा मनःपर्याप्तिर्नामकरणविशेषण सर्वास्मप्रदेशवत्तिना याननन्तप्रदेशान्मनोवर्गणायोग्यान्स्कंधान चित्तार्थमादत्ते ते करणविशेषपरिगृहिताः स्कन्धाः द्रव्यमनोऽभिधीयन्ते.
अर्थः-त्यां मन रचवा माटे आत्माए जे दलिकद्रव्य ग्रहण कयु छे ते मनःपर्याप्ति एटले करण विशेष छे, ते सर्व आत्मप्रदेशमा व्याप्त थयेला करणविशेष वडे जे मनोवर्गणा योग्य अनंतप्रदेशी स्कंधोने चित्तने माटे ग्रहण करे छे, ते करणविशेष वडे ग्रहण करेला पुद्गलस्कंधो द्रव्यमन कहेवाय छे. ( एमां मनःपर्याप्ति संबंधी पुद्गलोने सर्वात्मप्रदेशवर्ती कयां छे.)
२ कारणके इन्द्रियपर्याप्तिमां स्पर्शेन्द्रियनां पुद्गलो चांदीना पुतळाने चढावेला सोनाना गिलिटनी माफक शरीरनी उपर अने (मध्यभाग विना) अंदरना भागमा प्रतररूपे. · अविच्छिन्न व्याप्त थयेलां छे, अने जीव्हेन्द्रियादिकनां पुगलो ते ते वाद्याकारने स्थानेज गोठवायलां छे माटे शरीरमां सर्वव्याप्त नहि.