SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ निर्जरातत्त्वे तपःस्वरूपम् ॥ (२६१) वृत्तिसंक्षेप-अहिं जे जे आहार-वस्त्र इत्यादि द्रव्योष वृत्ति एटले आजीविका (--जीवननिर्वाह ) चालती होय ते ते द्रव्योमा वृत्ति एटले मनोवृत्तियोना संक्षेप-संकोच करवाना अभ्यास रूपे अनेक प्रकारना अभिग्रहो धारण करवा ते वृत्तिसंक्षे. प कहेवाय ते द्रव्य-क्षेत्र--काळ-ने भावथी चार प्रकारे थे, त्यां द्रव्यथी अमुक पदार्थ-क्षेत्रथी अमुकस्थळे--काळथी अमुकवखते अने भावथी अमुक अमुक रीते मले तोज ते वस्तु ग्रहण करवी, जेम श्री महावीरस्वामिए करेलो अभिग्रह चन्दनवाळाथी पूरायो तेम अभिग्रह धारण करवा ते पदार्थ उपरथी लोलुपता टळी होय तोज बनी शके अन्यथा नहि, माटे ते दृत्तिसंक्षेप पण तपरूप छ, रसत्याग-रस एटले दूध दहि--धी--गोळ-तेल ने साकर ए ६ रसिक पदार्थों आत्माने विकार उपजावनारा होवाथी विकृति कहेवाय छे ते ६ विकृतियोमांची यथाशक्ति एक वे यावत् सर्व नो त्याग करवो ते रसत्याग तप कहेवाय, __ कायक्लेश-लोच करवो--आतापना लेवी इत्यादि कष्ट मोक्षनी इच्छाए सहन करवां ते कायक्लेश तप कहेवाय, रघीना इंडा जेटलं शास्त्रमा का छे-अथवा अर्थान्तरथी विचारोये तो एक प्रक्षेपथी सुख पूर्वक जेटलो आहार मुखमा रा. खी शकाय तेटला प्रमाणनो एक कपल जाणवो ने तेवा ३२ के २८ कवल संपूर्ण तृप्ति करनार गणाय छे एथी अधिक आ. हार करनार अपथ्य आहारी जाणवो १ अथवा वृत्ति पटले " भिक्षा " नो संक्षेप आ प्रमाणेहाथथी वा कडछीथी उपाहीने आहार आपे तोज लेवो ते भिक्षानियम अने एक धाराए अथवा बे इत्यादि धाराये अखंडीत पणे जेटली वस्तु पडे तेटलीज लेवी एवो नियम ते दत्तिनियम
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy